Sunday 17 January 2021

शब्दवेध (76) संस्कृत का यूरोप पर प्रभाव

संस्कृत से परिचय ने रंगभेद, क्रूस, यूरोकेन्द्रता से ग्रस्त और औपनिवेशिक विस्तार के साथ  तकनीकी अग्रता से उद्धत यूरोप को पहला झटका दिया था जिसमें जननी भाषा के ‘खयाल’ काे बे मानी करते हुए संस्कृत को ही संदर्भबिंदु बना  दिया था:  
Sanskrit certainly forms the only sound foundation of Comparative Philology, and it will always remain the only safe guide through all its intricacies.A comparative philologist without a knowledge of Sanskrit is like an astronomer without a knowledge of mathematics. He may admire, he may observe, he may discover, but he will never feel satisfied, he will never feel certain, he will never feel quite at home.

पर भारत छोड़ कर इसे कहीं भी, अनर्गल से अनर्गल कोने मे उत्पन्न सिद्ध करने की व्यग्रता को भी बढ़ा दिया था।  दूरी एसी होनी चाहिए जो शेखचिल्ली की उड़ान न लगे, पर उसका विरोध न होने पर इसे क्रमशः पश्चिम की ओर सरकाते हुए सभ्य आर्यों को दरिंदों की जमात में बदली जा सकता था।

संस्कृत व्याकरण से परिचय ने दूसरा झटका दिया था और यह झटका अचूक था,   क्योंकि  किसी भी तर्क से  यह सिद्ध नहीं किया जा सकता था  पाणिनि भी  भारत में बाहर से आए थे।   उनके तथा दूसरे  भारतीय  वैयाकरणों के सामने पश्चिम का समग्र भाषा चिंतन बचकाना सिद्ध हो रहा था।   यह सोने का  वह  हँसिया था  जिसे न उगलते बन रहा था ना निगलते बन रहा था।   इसकी  आश्चर्यजनक  परिपक्वता और पूर्णता का निषेध  उन भारतीय संस्कृत विदों के सम्मोहन को  भी  तोड़ सकता था,  जिन्हें बहला फुसलाकर  इस बात के लिए राजी कर लिया गया था कि वे अपनी भाषा के साथ किसी दूसरे देश से आए हो सकते हैं। 
There are but few among our very best comparative philologists who are able to understand Pâ{n}ini. .that it treats language not as a vehicle of literature, but for its own sake.  

साहित्य के  माध्यम के रूप में  भाषा के अध्ययन की जगह भाषा के लिए भाषा के अध्ययन में जो अंतर है उसे समझना जरूरी है।  इसे  शुद्ध  वैज्ञानिक अध्ययन कहते हैं।   परंतु  यहां भी  पश्चिमी श्रेष्ठता का कोई ना कोई  बहाना तलाशना जरूरी था :
It would be far more accurate to say that the Indian and Greek systems of grammar represent two opposite poles, exhibiting the two starting-points from which alone the grammar of a language can be attacked, viz., the theoretical and the empirical. Greek grammar begins with philosophy, and forces language into the categories established by logic. Indian grammar begins with a mere collection of facts, systematizes them mechanically, and thus leads in the end to a system which, though marvelous for its completeness and perfection, is nevertheless, from a higher point of view, a mere triumph of scholastic pedantry.

जिसे तरह का  परिरक्षणवादी  तरीका  पश्चिमी विद्वानों ने अपनाया,   उनकी आलोचना करते समय हमसे  कोई अन्याय न हो जाए  इसलिए हम वस्तुस्थिति का  सही  चित्र प्रस्तुत करना जरूरी समझते हैं:
1.जैसा कि विलियम जोंस ने अपने अभिभाषण में स्वीकार किया था संस्कृत भाषा का यूरोप में प्रवेश बहुत प्राचीन काल में ( वास्तव में हड़प्पा सभ्यता के दौर में)  दो केंद्रों से हुआ था . एक  भूमध्य सागर का  पूर्वी तट;  दूसरा  इथोपिया।  ये भारतीय  नौवहन में  आगे बढ़े हुए थे। और  उन्होंने समुद्री मार्ग से ही इटली और ग्रीस में प्रवेश किया था जिसका समर्थन यूरोपीय परंपरा करती है और जिसका उल्लेख विलियम जोंस ने आइज़क न्यूटन   को भी बनाते हुए  दिया था।

2. इससे पहले यूरोप पशुचारण की अवस्था में था।  चरवाहे सारी संपदा  लेकर  खुलेआम चलते हैं जिनको कोई भी छीन या  हांक कर ले जा सकता है।  इसलिए स्वभाव से वे  उद्दंड होते हैं और  अपनी उद्दंडता को  एक मूल्यवान विरासत मानकर  उनके सामने भी झुकने को तैयार नहीं होते जिनके अधीन होने को विवश या जिनके ज्ञान के सम्मुख नतमस्तक होना पड़ता है। 

3. यूनानियों में  इसी के कारण दुहरी  प्रतिक्रिया देखने में आती है।   एक ओर  एक  श्रेष्ठतर  सांस्कृतिक दाय का  शिष्य भाव से  अनुकरण  और   वैसा बनने की  उत्कट लालसा और दूसरी ओर इतना ही उग्र प्रतिरोध,  जिसमें ईरानियों से भी अधिक उग्रता से भारतीयता विरोध दोखने में आता है। इन्हें वे एशियाटिक रूप में जानते थे, उनसे  नफरत भी करते थे। एशियाटिक और भारतीय उसी समय से एक दूसरे के पर्याय हैं।  उनके पास अपनी  हीनता ग्रंथि से  मुक्ति का  यही  एकमात्र उपाय था,  यद्यपि   इसका ही दूसरा नाम  कृतज्ञता है। 

4.  यह सांस्कृतिक  विद्वेष  होमर के कृतित्व में है।  होमर स्वयं एशियाई ग्रीक था।  पहले इस शब्द के उच्चारण पर ध्यान दें। ग्रीक में  ‘ह’ का  उच्चारण  नहीं होता।   अब होमर ओमर या ओम: हो जाएगा। इसे आगे बढ़ाया जा सकता है।  ग्रीक किसी भाषा के किसी भी शब्द का सही उच्चारण  नहीं कर पाते थे और अंग्रेज उनसे भी आगे थे, जो ग्रीक नामों को  भी  बिगाड़  कर पेश करते रहे,  और अरब अपनी व्यंजन प्रधान भाषा के कारण दूसरे ढंग से  पेश करते रहे।   ऐसे में ग्रीक नामों का सही उच्चारण पता नहीं है और यदि भाषा की अनन्यता थी तो  सुकरात को सुकर्त/ सुक्रतु, अफलातून को अभ्रतन, अरस्तू को अरिस्त्रात के रूप में उसी तरह याद किया जा सकता है जैसे सिकंदर को राहुल जी ने अलीक सुंदर  के रूप में चित्रित किया था।   परंतु इससे कोई नई बात सिद्ध नहीं होती इसलिए इसका पार्श्विक  महत्व ही है।   इससे अधिक  सार्थकता इस बात में  है कि  ग्रीक का  आदर्श रूप एशिया में विकसित हुआ और  उस हीनता ग्रंथि का भी उद्घाटन सबसे पहले एशियाई ग्रीकों के माध्यम से हुआ।

5. सटे पास में   विश्व विख्यात  मिस्री सभ्यता,  दूसरी निकटस्थ  मेसोपोटामियाई  सभ्यता  को  तिरस्कृत करती हुई भारतीय सभ्यता इन सबको घेर कर छाई रही ।  दूसरी सभ्यताएं अपनी भौगोलिक सीमा में सिमटी रहीं  और यह अकेली सभ्यता अपने सांस्कृतिक उपादान, भाषा,  उपाख्यान,  पुराण,  मिथक,  देव शास्त्र,  विचार और दर्शन के साथ  इतने बड़े भौगोलिक क्षेत्र में व्याप्त रही  यह प्राचीन विश्व सभ्यताओं की तुलना में भारतीय सभ्यता के वर्चस्व का  अकाट्य प्रमाण है,  जिसका ज्ञान  आरंभ से आज तक पश्चिमी जगत को रहा है और जिसे  नकारने की चेष्टा में उसने मानविकी के सभी क्षेत्रों के अध्ययनों को  विषाक्त कर दिया फिर भी  जिस झूठ का बचाव नहीं कर सकी।

6. यह नहीं भूलना चाहिए कि ग्रीक सभ्यता का उन्मेष  इस सभ्यता के यूनान में प्रवेश के लगभग 1000 साल बाद आरंभ होता है  जिसमें अपना अतीत तक विस्मृत हो चुका या अप्रिय टीस होने के कारण अवजेतन में जा चुकी है। 

7.  एक  अन्य  बात यह कि पश्चिमी एशिया में अपनी सत्ता कायम करने वाले  अपने भारतीय  पूर्वजों की तुलना में अनेक नए अनुभवों  से गुजरने के कारण  अधिक प्रखर थे और वे  पद्य की अपेक्षा गद्य में अपनी बात कहते थे।  इसका परिणाम यह कि छन्द और मात्रा के दबाव में अभिव्यक्ति जिस तरह बाधित हो जाती है उस तरह की बाधा उनके विचारों और  अभिव्यक्ति में  नहीं दिखाई देती।

इस परिपेक्ष में ही हम यूनानी सहित यूरोपीय भाषाचिंंतन की तुलना कर सकते हैं, परन्तु यह काम कल ही हो सकता है।

भगवान सिंह
( Bhagwan Singh )


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