Monday 23 September 2019

एनडीए सरकार का दूसरा कार्यकाल और अर्थव्यवस्था / विजय शंकर सिंह

अभी हाल ही में मोदी सरकार की दूसरी पाली के सौ दिन की उपलब्धियों पर चर्चा हुई। जैसे हर नागरिक को सरकार की आलोचना करने का अधिकार है वैसे ही सरकार को अपनी उपलब्धियों को प्रचारित करने का भी अधिकार है। सूचना और प्रसारण मंत्रालय सहित तमाम विज्ञापनों के लिये बजट इसी काम के लिये रखे जाते हैं। लेकिन इन सौ दिनों में आर्थिक स्थिति पर सरकार की कोई उपलब्धि न तो अखबारों ने बतायी और न ही खुद सरकार ने। जबकि सरकार का मुख्य दायित्व ही देश की अर्थव्यवस्था को सुदृढ करना है। आज का विमर्श, इन उपलब्धियों के बीच आर्थिक मुद्दे पर हम कहां खड़े हैं, इसी से जुड़ा है।

मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल का मोटो है सबका साथ, सबका विश्वास और सबका विकास। लोकतंत्र की अस्मिता की बात करें तो यह सबसे पवित्र नारा है। पर विडंबना यह है कि वास्तविकता इस बोधवाक्य की पवित्रता से बहुत दूर है। सरकार के पहले 100 दिनों में अप्रैल - जून तिमाही के लिए जीडीपी की वृद्धि दर 5% पर आयी तो इसे लेकर देश भर में सरकार की आलोचना हुयी। सरकार के इस दावे, कि हम 2024 तक 5 ट्रिलियन अर्थव्यवस्था पहुंचेंगे, पर सवाल उठे और उसका मज़ाक़ भी उड़ा । फिलहाल तो यह वृद्धि दर,  साल 2012 के बाद की सबसे कम वृद्धि दर है। अब चीन आर्थिक वृद्धि  दर में एशिया का सबसे तेजी से बढ़ने वाला देश है।  चीन की अर्थव्यवस्था $14.२ ट्रिलियन की है और इसकी वृद्धि दर, 6.3% है। चीन से तुलना इस लिये हो रही है कि भारत और चीन दोनों ही देश, दुनिया मे सबसे अधिक तेजी से विकसित हो रहे देश हैं और इनमें आपस मे प्रतिद्वंद्विता भी है। हालांकि दोनों का आर्थिक और विकास का मॉडल अलग अलग है।

विकास के सूचकांकों में सबसे अधिक चिंताजनक स्थिति निर्माण (मैन्युफैक्चरिंग) इकाइयों में आयी मंदी के संदर्भ में है। मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर,  किसी भी अर्थव्यवस्था का मुख्य आधार होता है। यह सेक्टर न केवल रोजगार में वृद्धि के अवसर उपलब्ध कराता है बल्कि यह निर्यात में भी अपना योगदान देकर व्यापार घाटा नियंत्रित करता है। लेकिन मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर में वृद्धि,  मात्र 0.6% दर की रही,  जो कि पिछले वर्ष के 12.1% की वृद्धि दर से बहुत कम है। निश्चित ही इसका मतलब केवल यही नहीं कि चीजें ही कम बनीं, बल्कि इसका अर्थ यह हुआ कि रोजगार के अवसर कम हुये और लोगों की नौकरियां गयीं। इस आर्थिक मंदी के प्रकोप से अर्थव्यवस्था का कोई भी क्षेत्र बचा नहीं है। ऑटोमोबाइल्स, बिस्किट, चाय, टेक्सटाइल, आदि लग्भग सभी सेक्टरों से निराशाजनक खबरें आ रही हैं।  यह घटती मांग और कम उत्पादन की वही कहानी है जो अंततः नौकरी के नुकसान का कारण बनती है।

भाजपा जब 2014 का चुनाव लड़ रही थी तो उसने 2 करोड़ रोजगार प्रतिवर्ष देने का वादा किया था। पर सरकार ने रोजगार सृजन हेतु, एक भी कदम नहीं उठाया। हालंकि सरकार ने मेक इन इंडिया, स्टार्ट अप इंडिया, स्किल इंडिया, और स्वरोजगार के लिये मुद्रा लोन जैसी कई योजनाएं शुरू कीं पर उनका लाभ नीचे तक नहीं आ पाया। यह सब आयोजन एक इवेंट बन कर रह गये। 2016 तक आते आते सरकार ने बेरोज़गारी के आंकड़े देने बंद कर दिये। पिछले एक साल से नोटबंदी और जीएसटी के मूर्खतापूर्ण तऱीके से लागू करने के कारण, जब आर्थिक मंदी ने पांव पसारना शुरू कर दिया तो रोजगार के नए अवसर तो खुले ही नहीं, बल्कि इसके विपरीत लोगों की लगी लगायी नौकरियां भी जाने लगीं। आज देश मे बेरोजगारी की दर, 8.3% की है जो पिछले 3 साल में सबसे अधिक है, और शहरी भारत में नौकरी का परिदृश्य विशेष रूप से चिंताजनक है, जो 9.5% पर, आ गया है।

शेयर मार्केट अर्थव्यवस्था का एक महत्वपूर्ण पैमाना होता है। इससे यह पता चलता है कि देश मे विदेशी निवेशक कितनी रुचि ले रहे हैं और वे कितना धन लगा रहे हैं। बजट 2019 के बाद शेयर बाजार में काफी कमी आयी और सभी शेयरों के भाव नीचे गिरे। सरकार के दूसरे कार्यकाल के पहले 100 दिनों के भीतर ही शेयर बाजार में निवेशकों को 14 लाख करोड़ रुपये की हानि हुयी। शेयर बाजार जब टूटता है तो उसका कारण विदेशी निवेशकों द्वारा शेयर बेचना होता है। विदेशी निवेशकों का जब सरकार पर विश्वास डगमगाता है तो वे अपना शेयर बेचने लगते हैं, और तभी बाजार टूटता है।  विदेशी पोर्टफोलियो निवेशकों ने अकेले अगस्त के महीने में 5900 करोड़ रुपये शेयर बाजार से निकाले हैं, इससे यह स्पष्ट है कि उनका विश्वास देश मे निवेश करने के प्रति कम हो रहा है।

इसी प्रकार भारतीय रुपया जो 2019  की शुरुआत से 2.5%  नीचे है, आज एशिया की सबसे खराब मुद्रा बन चुका है और उठते गिरते हुये आज 71 रुपये के आस पास है। इकोनॉमी वॉच के अनुसार, 5 ट्रिलियन अर्थव्यवस्था का लक्ष्य प्राप्त करने के लिये भारतीय अर्थव्यवस्था को अगले पांच वर्षों तक हर साल 9% की दर से विकास करना होगा ताकि वित्त वर्ष 2025 तक यह लक्ष्य हम प्राप्त कर सकें।  9% विकास दर पर निवेश की दर में भी वृद्धि होनी आवश्यक है। पिछले वित्तीय वर्ष में निवेश दर 31.3% पर थी इस आंकड़े को भी 38% के पार ले जाना होगा। हालांकि जानकारों का मानना है यह संभव नहीं है, पर उम्मीद और हौसला रखने में क्या हर्ज है।

सरकार ने यह स्वीकार नहीं किया है कि देश मे कोई आर्थिक मंदी जैसी चीज है। इसका कारण राजनैतिक अधिक है,  न कि आर्थिक। वर्तमान सरकार पिछले छह साल से है। 2014 के बाद जो नीतियां बनी हैं उन्ही का परिणाम वर्तमान आर्थिक स्थिति है। सरकार मंदी की स्थिति को स्वीकार करके अपनी राजनैतिक हैसियत कम नहीं होने देगी। लेकिन वास्तविकता से वह अपरिचित भी नहीं है । आज राजकोषीय घाटा यानी सरकार के आमदनी और व्यय में गम्भीर अंतर है। इसका कारण कर संग्रह कम हो रहा है। इस कमी का असर राज्यों की वित्तीय स्थिति पर भी पड़ रहा है। देश मे एक तरफ धीमी पड़ती कर वसूली तो दूसरी तरफ बजट 2019 में कॉरपोरेट कर में कमी के कारण सरकार की आय पर आगे और प्रभाव पड़ सकता है। इससे सरकारों को या तो अपने खर्च में कटौती करनी पड़ेगी या कर बढ़ाने पड़ेंगे। अगर इन दोनों उपायों में से कुछ भी नहीं किया गया तो, राजकोषीय घाटा बढ़ने की यह प्रवित्ति, आगे भी बनी रह सकती है। आंकडो के अनुसार देश के 16 प्रमुख राज्यों का कर राजस्व चालू वित्त वर्ष के पहले चार महीनों में 7 फीसदी कम हुआ है। हालांकि उनमें से 5 ने कर राजस्व में मामूली वृद्धि दर्ज भी की है। आंध्र प्रदेश, राजस्थान, पंजाब और कर्नाटक तुलनात्मक रूप से ज्यादा खराब स्थिति में हैं। उनमें से लगभग सभी आसन्न आर्थिक संकट से चिंतित हैं।

यह चिंता अधिकतर राज्यों के अनुमानित और वास्तविक कर राजस्व वृद्धि में भारी अंतर के कारण साफ नजर आती है। इसी कारण, 15 वें वित्त आयोग के चेयरमैन ने राज्यों से अपने वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) राजस्व में अधिक कर संग्रह करने का आग्रह किया है। वित्त आयोग के अनुसार, अर्थव्यवस्था की वृद्धि की तुलना में राजस्व में ज्यादा तेजी से वृद्धि होनी चाहिए। हाल में कॉरपोरेट कर में कटौती की गई है, जिससे सरकार को सकल कर राजस्व में 1.45 लाख करोड़ रुपये का नुकसान होगा। 14 वें वित्त आयोग के फॉर्मूले के मुताबिक अब सकल कर राजस्व में राज्यों का हिस्सा 42 फीसदी है, इसलिए इस कर राजस्व नुकसान में से सभी राज्यों को भी 60,000 करोड़ रुपये का नुकसान उठाना पड़ेगा। केरल के वित्त मंत्री ने कहा, 'कॉरपोरेट कर विभाजित होने वाले कोष का हिस्सा है, इसलिए कॉरपोरेट कर में कटौती से होने वाले नुकसान में 42 फीसदी बोझ राज्यों को उठाना होगा।

सरकार ने इस आर्थिक मंदी को कम करने के लिये उद्योगों को राहत पैकेज के रूप में कर लाभ की घोषणाएं की हैं। इससे कितना असर अर्थव्यवस्था पर पड़ेगा यह तो अभी नहीं कहा जा सकता है पर अर्थ विशेषज्ञ इस कदम को बहुत सकारात्मक और लाभप्रद नहीं मानते हैं। हाल के फैसले में केंद्र सरकार ने कॉरपोरेट कर की आधार दरें घटाई हैं, जबकि उपकर और अधिभार यथावत रखे हैं। केंद्र सरकार पिछले कुछ वर्षों से आयकर पर उपकर और अधिभार में लगातार बढ़ोतरी कर रही है। उपकर और अधिकार से प्राप्त होने वाली रकम राज्यों के साथ साझा नहीं की जाती है। इस साल जीएसटी राजस्व में पिछले साल की तुलना में मामूली वृद्धि रही है। ऐसे में राज्यों के राजस्व में कमी की भरपाई केंद्र को करनी होगी। केंद्र को वर्ष 2022 तक राज्यों को जीएसटी राजस्व में 14 फीसदी बढ़ोतरी मुहैया करानी होगी। यही वजह है कि राज्यों के वित्त मंत्री हालातों को देखते हुए जीएसटी दरों में कटौती के खिलाफ रुख अख्तियार कर रहे हैं।

कॉरपोरेट टैक्स में 10 फीसदी कटौती से जो सरकारी खजाने पर सालाना करीब 1.45 लाख करोड़ रुपये का बोझ आने वाला है सरकार उस घाटे की भरपाई विनिवेश के जरिए करने की योजना बना रही है। आखिर कहीं न कहीं से धन की व्यवस्था तो करनी ही है। यह धन, जब कर संग्रह गिर रहा है तो सरकारी उपक्रम में विनिवेश कर के ही प्राप्त किया जा सकता है। सरकारी कम्पनियों की हिस्सेदारी बेचने का एजेंडा इस सरकार का पुराना एजेंडा है। एक और रोचक तथ्य यह भी है कि, कार्पोरेट टैक्स में छूट से निजी कंपनियों के शेयरों के भाव तो  बढ़ रहे हैं वहीं सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियां को शेयर वृद्धि का वह लाभ नहीं मिल रहा है जो कॉरपोरेट को प्राप्त हो रहा है। एनटीपीसी जैसी बड़ी और लाभ कमाने वाली कम्पनी का शेयर 1.85 रुपए का गोता लगाकर 119.85 रुपए पर बंद हुआ है।

मंदी से निपटने के लिये वित्तमंत्री ने एक और बड़ी घोषणा की है कि, बैंक देश भर में कर्ज देने के इरादे से 3 से 7 अक्टूबर के बीच 200 जिलों में एनबीएफसी और खुदरा कर्जदारों के लिए कैंप लगाएंगे। सरकार ने इसे बैंक लोन मेला नाम दिया है। इसमे खास बात यह है कि जिन जिलों में इस लोन मेले का आयोजन किय़ा जाएगा, वहां के सांसद भी इस कार्यक्रम को सफल बनाने के लिए इस मुहिम में हिस्सा लेंगे'.

अब एक सवाल उठता है कि इस आर्थिक मंदी का कारण क्या है ? अब तक अर्थ विशेषज्ञों के जो भी निष्कर्ष हैं, उसके अनुसार, देश मे मांग कम हो रही है। मांग कम होने का कारण, लोगों के पास धन की कमी है और वे व्यय कम कर रहे हैं। जब लोग खर्च करेंगे तो इसका असर उत्पादों पर पड़ेगा क्योंकि उनका उत्पादन, मांग पर आधारित होता है। जब उत्पादन कम होगा तो उसका असर, कच्चे माल से लेकर रोजगार सहित व्यापार के सभी अंगों पर पड़ेगा और इस प्रकार यह एक श्रृंखला बनती है जो सब एक दूसरे को प्रभावित करते रहते हैं।

हो सकता है सरकार इन बैंक लोन के माध्यम से, जनता में धन अधिक से अधिक मात्रा में दे जिससे यह श्रृंखला चल पड़े। पर ऐसे लोन मेले का एक और दुष्प्रभाव पड़ता है कि बैंकों को अगर उनके लोन की अदायगी नहीं हुयी तो बैंकों की वित्तीय स्थिति गड़बड़ हो जाएगी और फिर तब एक और श्रृंखला प्रभावित हो जाएगी, जिसे उद्योगों को ऋण मिलता है और उद्योग लाभ कमाकर बैंकों को फिर ऋण चुकता करते हैं। आज बैंकों का कुल एनपीए 8.06 लाख करोड़ है। सरकार बैंकिंग सेक्टर की इस व्याधि से भी परिचित है । इसीलिए सरकार ने पीएनबी, ओरिएंटल बैंक ऑफ कॉमर्स, यूनाइटेड बैंक, कैनरा बैंक, को मिला कर एक बैंक में, सिंडिकेट बैंक, यूनियन बैंक ऑफ इंडिया, आंध्रा बैंक को एक बैंक मे, और कॉर्पोरेशन बैंक, इंडियन बैंक इलाहाबाद बैंक को मिला कर के एक बैंक बनाने की घोषणा की है। हालांकि बैंकों के अधिकारियों तथा कर्मचारियों की गुनियन इस विलय योजना का विरोध कर रही है। 

लोन मेलों के सबंध में आल इंडिया बैंक ऑफिसर्स कंफेडेरेशन के महासचिव डीटी फ्रैंको का यह कथन जो उन्होंने लगभग दो साल पहले कहा था, पठनीय है,
.‘मौजूदा सरकार के सत्ता में आने के बाद बैंकिंग सेक्टर पर भारी दबाव है। वो जहां भी जाते हैं लोन मेले लॉन्च करना चाहते हैं। एक ऐसा कार्यक्रम हुआ जहां बैंकर्स को बुलाया गया जिससे कि लोग ऋण के बारे में समझ सकें। लोन मेले के आयोजन में जब बैंकर्स गए तो देखा कि वो पूरी तरह बीजेपी के कार्यक्रम में तब्दील था. मंच पर मौजूद नेता और बाकी सारे नेता भी बीजेपी के ही थे। फ्रैंको ने आरोप लगाया था कि अनेक बीजेपी नेताओं की ओर से अपने लैटर पैड पर आवेदकों की सूची भेजी गई कि इन्हें इन्हें लोन दिया जाए.।'
फ्रैंको के अनुसार ऐसे लोन मेले अर्थव्यवस्था से अधिक राजनैतिक हित अधिक साधते हैं। लोन देने में प्रोफेशनलिज़्म के अभाव के कारण यह एक इवेंट बन कर रह जाता है जो राजनीतिक पूंजी तो बनाता है पर आर्थिक पूंजी गंवा देता है। बैंकों के इस भयावह एनपीए के पीछे राजनीतिक उद्देश्य अधिक है बजाय आर्थिक विकास के। इस एनपीए के लिये यूपीए और एनडीए दोनों ही सरकारें दोषी हैं।

कृषि अर्थशास्त्री देविन्दर शर्मा ने देश की कृषि अर्थव्यवस्था पर लिखे एक लेख में कॉरपोरेट को दी गयी कर राहत के बारे में कहा है कि, 2000 से 2017 के बीच कीमतों में कमी के आकलन के कारण किसानों को लग्भग 45 लाख करोड़ का नुकसान उठाना पड़ा है। यह आंकड़ा ओईसीडी - आईसीआरआईईआर द्वारा किये गए एक आर्थिक सर्वेक्षण से ज्ञात हुआ है। 2016 में किये गए एक अन्य आर्थिक सर्वेक्षण के अनुसार, देश के 17 राज्यों के किसानों की आय 20 हज़ार सालाना से कम है। बजाय इन किसानों या कृषि क्षेत्र के उत्थान हेतु राहत देने के, सरकार देश के कॉर्पोरेट सेक्टर को राहत दे रही है। अभी हाल ही में कॉरपोरेट को जो राहत दी गयी है उससे सरकार के राजकोष पर 1,45,000 लाख करोड़ का बोझ पड़ेगा।

डॉ शर्मा की यह टिप्पणी इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि देश का आर्थिक आधार कृषि है और खेती में कोई भी कमी या वृद्धि होती है तो इसका असर देश की अर्थव्यवस्था पर पड़ता है। देश की अधिकतर आबादी निम्न और मध्यम वर्ग तथा असंगठित क्षेत्र की है। असंगठित क्षेत्र में कृषि, छोटे और मध्यम दुकानदार, रीयल स्टेट की गतिविधियां, और छोटी तथा मध्यम श्रेणी की नौकरियां आती हैं। इस आर्थिक मंदी का सबसे अधिक असर इसी वर्ग पर पड़ता है और इस मंदी से पार पाने के लिये इसी वर्ग की क्रय क्षमता को मजबूत करना होगा। कॉरपोरेट को अपने लाभ की चिंता होती है पर देश की अधिसंख्य आबादी के सामने जीवन यापन की समस्या है। यही अधिसंख्य आबादी की क्रय क्षमता में कमी से उत्पादन से लेकर अर्थव्यवस्था तक को मंदी का दंश झेलना पड़ता है। अतः इस मंदी से उबरने के लिये जरूरी है कि, आर्थिक नीतियां इसी तबके को केंद्र में रख कर बनायीं जांय, जबकि सरकार की सारी नीतियों के केंद्र में कॉरपोरेट और पूंजीपति होते हैं।

अर्थक्षेत्र को सभी राजनीतिक दंद फंद और समीकरणों से ऊपर उठ कर देखा जाना चाहिये। पिछले छह सालों से जो नीतियां बनी हैं और जो आर्थिक फैसले हुये हैं वे देश की अर्थव्यवस्था के लिये घातक ही साबित हुये हैं। या तो हम आर्थिक क्षेत्र में प्रतिभासंपन्न अर्थशास्त्रियों की कमी से जूझ रहे हैं कॉरपोरेट के डिक्टेशन पर उनके हित की ही बात कर रहे हैं। सरकार को इस सत्य को स्वीकार करना होगा कि आर्थिक क्षेत्रो में वह विफल है और उसे उन विफलताओं का कारण ढूंढना होगा। जब तक रोग का कारण नहीं ढूंढा जा सकता है तब तक उसका निदान हो ही नहीं सकता है। कॉरपोरेट को 1,45000 करोड़ की राहत, आरबीआई से 1,76,000 करोड़ रूपये की निकासी, सरकारी कम्पनियों की बदहवासी में किया जा रहा विनिवेश इस मंदी को दूर करने के प्रयास के रूप में भले ही दिखें, पर इनसे न तो बाजार में मांग बढ़ेगी और न ही सुस्त होती अर्थव्यवस्था में गति ही आएगी। सरकार को प्रोफेशनल अर्थशास्त्रियों की एक कमेटी गठित करके इस मंदी से उबरने का हल ढूंढना होगा, अन्यथा यह मंदी और भी गहराएगी। अभी तो ऐसा ही लग रहा है।

© विजय शंकर सिंह

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