Monday 16 September 2019

आर्थिक मंदी के मुहाने पर हम और अब आगे क्या ? / विजय शंकर सिंह

विकास दर से सम्बंधित, जब अप्रैल मई जून 19 के तिमाही आंकड़े जारी हुए तो देश की विकास दर 5 % पर बतायी गयी। यह विकास दर एक ऐसे देश की अर्थव्यवस्था के लिये जो 2024 में पांच ट्रिलियन की अर्थव्यवस्था बनने और 2022 में किसानों की आय दुगुना करने के मंसूबे बांध रहा हो, के लिये आघात की तरह है। इस आंकड़े के अनुसार, भारत एशिया में सबसे तेज गति से विकास करने वाले देश की दौड़ से बाहर हो गया है। इस आंकड़े को लेकर, जब सरकार जवाब तलबी की गई तो सरकार ने न तो  भविष्य में सुधार का कोई रोडमैप बताया और न ही सरकार के मंत्रियों और वित्त मंत्रालय में कोई खलबली मची।  सरकारी आंकड़ों के मुताबिक जीडीपी दर पहली तिमाही में 5.8 फीसदी से घटकर 5 फीसदी पर पहुंच गई. जो 6 साल में इसका सबसे निचला स्‍तर है। यही नहीं सभी आर्थिक इंडिकेटर यही बता रहे हैं कि देश में आर्थिक मंदी है। आज का विमर्श इसी मुद्दे पर है।

2014 में यूपीए को अपदस्थ कर जब एनडीए  सरकार आयी तो लोगों को इस सरकार से बहुत आशाएं थीं। यूपीए 2 के अंतिम तीन साल घोटालों के खबरों से भरे पड़े थे। इसलिए जब 2014 में नरेन्द्र मोदी देश के प्रधानमंत्री के पद पर नियुक्त हुये तो लगा कि देश मे कुछ बेहतर होगा। पर जो वादे सरकार बनाने के लिये सत्तारूढ़ दल ने अपने संकल्पपत्र मे किये थे वे वहीं संकल्पपत्र में ही पड़े रहे और जो आर्थिक रोडमैप सरकार का सामने आया वह कॉरपोरेट के पक्ष में अधिक और जनता के पक्ष में कम था। इसका अर्थ यह नहीं कि कांग्रेस या यूपीए का रुझान कॉरपोरेट की तरफ नहीं था। बल्कि 1991 में जब डॉ मनमोहन सिंह देश के वित्तमंत्री और पीवी नरसिम्हा राव प्रधानमंत्री बने थे तो लागू की गयी नयी आर्थिक नीति और मुक्त अर्थव्यवस्था, कॉरपोरेट के पक्ष में ही थी। लेकिन 2004 के बाद जब यूपीए सत्ता में आयी तो कई जनहितकारी योजनाओं की शुरुआत भी हुयी और प्रधानमंत्री जो स्वयं एक सुयोग्य अर्थशास्त्री थे ने 2008 की आर्थिक मंदी के बावजूद वे देश को उस भंवर से निकाल ले जाने में सफल रहे।

पर 2014 से 2016 तक देश के आर्थिक स्थिति में कोई बड़ा फेरबदल नही हुआ। पर अचानक 8 नवंबर 2016 को सरकार ने जब 1000 और 500 रुपये के नोटो को, जो कुल मुद्रा का 86 % अंश था, चलन से बाहर कर दिया तो, तब अर्थजगत के विद्वानों की अलग अलग राय इस नोटबंदी पर सामने आयी। अधिकतर अर्थशास्त्रियों ने यह आशंका जताई कि यह कदम देश की विकास गति को कम करेगा और इसका असर असंगठित क्षेत्र पर बुरी तरह पड़ेगा। सरकार के इस कदम के समर्थक अर्थशास्त्रियों ने इस कदम को नकली मुद्रा का चलन खत्म करने, आतंकी फंडिंग को कम करने और काले धन को खत्म करने के सरकार के दावे और उद्देश्य का समर्थन किया। पर बाद में विकास की गति को कम करने की आशंका जिन अर्थशास्त्रियों ने जतायी थी उनकी बात सच साबित हुयी। डॉ मनमोहन सिंह ने भी 24 नवंबर 2016 को राज्यसभा में अपने स्वभाव के विपरीत एक बेबाक बयान दिया था, कि यह एक संगठित लूट और कानूनी रूप से की गयी डकैती है। इससे जीडीपी 2% तक कम हो जाएगी। डॉ सिंह की यह भविष्यवाणी सच साबित हुयी।

2018 ई के आते आते, नोटबंदी का असर दिखने लगा। कालाधन के बारे में सरकार न तो देश मे कुछ कर सकी और न ही विदेश में।आतंकी फंडिंग भी कम हुयी हो, सरकार के पास इसका भी कोई आंकड़ा नहीं है। इसके विपरीत नक़ली नोटों की समस्या और बढ़ गयी, जैसा कि रिज़र्व बैंक के निम्न आंकडो से स्पष्ट है। रिजर्व बैंक की एक रिपोर्ट के मुताबिक 2000 रुपये और 500 रुपये के नकली नोटों में क्रमश: 21.9 फीसदी और 221 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है. वहीं 200 रुपये के नकली नोटों में 161 गुना की वृद्धि हुई.

नोटबंदी के कुछ महीने बाद सरकार ने 'एक देश एक कर' के शिगूफे से गुड्स एंड सर्विस टैक्स जीएसटी के नाम से एक कर सुधार लागू किया। यह एक पुराना प्रस्ताव था, जो यूपीए के समय से आकार ले रहा था। पर इसे लागू भाजपा सरकार ने किया । अपनी जटिल प्रक्रिया के कारण यह नया कर सुधार बहुत सफल नहीं हुआ। ऐसा लगता है कि सरकार ने इसे पूरी तरह होम वर्क कर के लागू नहीं किया था। इस नए कर सिस्टम से व्यापारी समुदाय असहज हो गया और इसका असर मझोले और छोटे व्यपारी वर्ग पर जो बाजार का एक मुख्य अंग होता है में निराशा फैली और बाजार कमज़ोर हुआ। अब तक बाजार इस 'कर सुधार' से संभला नहीं है।

अतः जब 2018 में अर्थव्यवस्था गड़बड़ होने लगी तो पीएमओ ने इसे सुधारने के लिये खुद ही कमर कस ली। संडे गार्जियन की 15 सितंबर 2018 को छपी खबर के अनुसार, अर्थव्यवस्था में सुस्ती का दौर प्रधानमंत्री ने भांप लिया था। तभी उसे सीधे अपने अधीन लेने का निर्णय किया गया। पर पीएमओ के सीधे दखल और निर्देश के बाद भी एक साल से ही कम समय मे आज हालत सचमुच में चिंताजनक हो गये है।

एक और चिंताजनक पक्ष यह भी है कि सरकार की अस्पष्ट अर्थिक नीति के कारण , नोटबंदी के पहले से ही, सरकार के साथ जुड़े अर्थ विशेषज्ञों ने सरकार का साथ छोड़ना शुरू कर दिया था।

जैसे निम्न तथ्य देखे,
● रघुरामराजन को आरबीआई गवर्नर के रूप में विस्तार नहीं मिला या उन्होंने नहीं लिया, पर उन्होंने सबसे पहले सरकार का साथ छोड़ा।
● फिर 2014 में योजन आयोग को रद्द कर के नीति जैसे भारी भरकम नाम वाले आयोग का गठन हुआ और उसके प्रमुख बने अरविंद पनगढ़िया। उन्होंने भी अपनी यूएस में नौकरी और निजी कारणों का हवाला देकर सरकार से इस्तीफा दे दिया।
● फिर उर्जित पटेल,आरबीआई गवर्नर, जिनके समय मे नोटबंदी हुयी, अब यह उनकी मर्जी से हुयी या बेमर्जी से, यह अभी स्पष्ट नहीं है । जब सरकार को धन की कमी महसूस हुयी तो सरकार की नज़र, रिज़र्व धन पर पड़ी, सरकार ने उसे लेना चाहा, पर ऊर्जित पटेल ने इतना अधिक झुक कर अपनी स्वायत्तता से समझौता करना स्वीकार नहीं किया, तो उन्होंने अपने पद से इस्तीफा दे दिया।
● फिर, नोटबंदी और जीएसटी के रणनीतिकार, और जीएसटी के पहले कमिश्नर, हँसमुख आंधियां रिटायर हो गए और उन्होंने दुबारा सरकार में किसी पद पर पुनर्नियुक्ति नहीं ली।
● फिर सेंट्रल स्टेटिस्टिकल सर्वे संगठन, जो वित्तीय आंकड़े जुटाता और इकट्ठा कर उसका विश्लेषण करता है, ने इस आधार पर त्यागपत्र दे दिया कि फर्जी आंकड़ेबाजी के लिए उन पर दबाव था।
● फिर, आरबीआई के डिप्टी गवर्नर विरल आचार्य ने आरबीआई रिजर्व से धन देने की बात पर त्यागपत्र दे दिया।

1971 में जन्मे बांग्लादेश की अर्थव्यवस्था आज एशिया की सबसे तेज गति से विकास करने वाली अर्थव्यवस्था बन गयी है। उसकी विकास दर, 8.13 % है, और भारत की विकास दर 5 % है। विगत हफ्तों में देश का विदेशी मुद्रा भंडार रिकॉर्ड ऊंचाईयों को छूने के बाद 23 अगस्त को समाप्त सप्ताह में 1.45 अरब डॉलर की भारी गिरावट के साथ 429.050 अरब डॉलर रह गया। इसकी वजह विदेशी मुद्रा परिसंपत्तियों में गिरावट आना है। रिजर्व बैंक की ओर से जारी ताजा आंकड़ों में यह जानकारी दी गई है।

आखिर क्या कारण है कि, यूपीए के समय मे जीडीपी ने 10.08 % की विकास दर स्पर्श की, जबकि तब, देश मे एक बहुमत की सरकार नहीं बल्कि बहुदलीय सरकार थी, दुनिया मे मंदी का दौर था, और कच्चे तेल की कीमतें सबसे अधिक थीं।
इसके विपरीत, 2014 से चले आ रहे भाजपा सरकार के समय मे जीडीपी, 5 % के आंकड़े पर आ पहुंची है, जबकि, उनके पास पूर्ण बहुमत है, तुलनात्मक रूप से वैश्विक अर्थव्यवस्था में स्थिरता है, और कच्चे तेल की कीमतें, यूपीए के समय की कीमतों के सापेक्ष बहुत  गिरी हुयी हैं ? फिर ऐसी स्थिति में आज अर्थव्यवस्था में विकास की रफ्तार सुस्त क्यों है और हम ऐसी स्थिति में आ गए हैं कि, बजट प्रस्तावों, विभिन्न विभागों की बजट राशि मे कटौतियां कर रह रहे हैं और कभी सार्वजनिक क्षेत्र की कम्पनियां बेच रहे हैं तो आरबीआई से पैसा ले रहे हैं।

आखिर ऐसी स्थिति आयी ही क्योँ ? सरकार 2019 से पूर्ण बहुमत में भी है, और 2019 के पहले भी यह सरकार कमज़ोर नहीं थी। सरकार में और पार्टी में भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को किसी तरफ से कोई चुनौती भी नहीं है। सरकार अपना तयशुदा आर्थिक एजेंडा इत्मीनान से पूरा कर सकती है। देश का कॉरपोरेट भी सरकार का साथ खुल कर दे रहा है। सरकार और भाजपा की मानें तो, 2014 के बाद, कोई बड़ा घोटाला भी नहीं हुआ है। प्रधानमंत्री अठारह अठारह घँटे काम भी करते हैं, और उनपर कोई दबाव भी नहीं है। सारे दबाव समूह फिलहाल शांत हैं। वे 12 साल तक एक राज्य के मुख्यमंत्री रह चुके हैं और पिछले 6 साल से देश के प्रधानमंत्री भी हैं। देखा जाय तो उनका प्रशासनिक अनुभव भी  कम नहीं है। फिर आखिर ऐसी कौन सी बात हो गयी कि अच्छी खासी चलती हुयी अर्थव्यवस्था बेपटरी होने लगी ? यह सवाल क्या आप सबके मन मे नहीं कौंधता है ?

अब इस मंदी के बचाव में यह कहा जा रहा है कि पिछली सरकार की कमियों और घोटालों के कारण अर्थव्यवस्था आज सुस्त हो गयी है। हो सकता है इस बात में भी कुछ दम हो। यह भी कहा जा रहा है कि नोटबंदी का निर्णय और जीएसटी की जटिलता ने स्थिति को और बिगाड़ा है। पर नोटबंदी और जीएसटी की विफलता का आरोप सरकार विरोधी लोगों का है जबकि पिछली सरकार को दोषी मानने वाले सरकार के समर्थक हैं। अब इस समस्या का मूल कारण क्या है यह तो तभी पता चल सकेगा जब सरकार अर्थव्यवस्था के संदर्भ में एक विस्तृत श्वेत पत्र लाये।

जनता को निम्न तथ्य जानने का अधिकार है कि आज देश की अर्थव्यवस्था की गति सुस्त क्यो है। अगर यह गलती यूपीए सरकार, जो 2014 के पहले थी की, कुछ नीतियों की विफलता का परिणाम है तो उसका पूरा विवरण साक्ष्यों और आंकडो सहित सार्वजनिक किया जाना  चहिए।

● 2014 में किस आर्थिक स्थिति में वर्तमान सरकार ने, यूपीए सरकार से अपनी आर्थिक विरासत ग्रहण की थी।
● अगर नोटबंदी इसका कारण है तो नोटबंदी के फैसले में कौन कौन लोग शामिल रहे हैं और वे कौन से कारण और उद्देश्य थे जिनके कारण ऐसा अभूतपूर्व निर्णय लेने की आवश्यकता पड़ी ?
● नोटबंदी के जो उद्देश्य तब सरकार और खुद प्रधानमंत्री द्वारा गिनाये गये थे, वह किन कारणों से पूरे नहीं हो पाए ?
कोई भी योजना बनती है तो उसके हर पहलू पर विचार किया जाता है और किसी आकस्मिकता की स्थिति में क्या कार्यवाही की जाएगी इसका भी ब्ल्यू प्रिंट तैयार किया जाता  है।
तीन महीने में 125 से अधिक आदेश और निर्देश नोटबंदी के संदर्भ में 8 नवम्बर 2016 को जब यह योजना शुरू हुयी थी तो निर्गत हुये थे। इतनी अधिक संख्या में और कभी कभी तो परस्पर विरोधी आदेश जारी करना सरकार की बदहवासी ही बताता है।
याद कीजिए, प्रधानमंत्री जी का गुजरात मे दिया गया वह भाषण जिसमें वे जनता से केवल पचास दिन की, समस्या के समाधान के लिये याचना कर रहे हैं ।
● जीएसटी के कारण व्यापार को बहुत नुकसान हुआ है। यह हानि कराधान के कारण उतनी नहीं हुयी है जितनी जीएसटी की जटिल प्रक्रिया के कारण।
सरकार को उक्त श्वेत पत्र में इसे भी स्पष्ट करना चाहिये।
● बैंकों का एनपीए बहुत बढ़ गया है। यह भी आरोप है कि यूपीए काल मे जो बेतहाशा ऋण दे कर अपने अपने लोगों को उपकृत किया गया है, वह एनपीए बढ़ने का कारण है। सरकार को चाहिये कि वह 2004 को आधार वर्ष मान कर सभी बैंकों से दिए जाने वाले ऋणों के आंकड़े सार्वजनिक करे जिससे यह स्पष्ट हो सके कि किसके कार्यकाल में किस पूंजीपति को कितना लोन मिला, कितना वापस हुआ, कितना शेष है, और कितना राइट ऑफ हुआ। सरकार बड़े ऋण की एक धन सीमा बांध सकती है।
ज्ञातव्य है कि सुप्रीम कोर्ट के कहने के बावजूद आज तक सरकार ने डिफॉल्टर हुये उन पूंजीपतियों की सूची जारी नहीं की है, जो डॉ रघुरामराजन ने 2015 में प्रधानमंत्री को खुद भेजी थी। आरटीआई के अंतर्गत भी सूचना मांगने पर वह सूची नहीं दी गयी है। बल्कि आरटीआई को ही कमज़ोर कर दिया गया है। अगर एनपीए के समय मे ही बैंकिग सिस्टम कमज़ोर कर दिया गया था तो यह भी सरकार सार्वजनिक कर सकती है।
● वर्तमान सरकार के समय, 2016-17 में बैंकों में 24 हजार करोड़ रु के फ्रॉड हुए। 2017-18 में 41 हजार करोड़ रु के
2018 -19 में फ्रॉड बढ़कर 71 हजार करोड़ रु हो गए।
निश्चय ही, यूपीए के काल मे भी फ्रॉड हुये होंगे। सरकार को उन आंकडो को भी सार्वजनिक कर के यह भी बताना चाहिये कि इन फ्रॉड के मामलों में क्या वैधानिक कार्यवाही की गयी है ? 
इन कुछ सवालों के जवाब, अर्थव्यवस्था की मौजूदा स्थिति को समझने के लिये जरूरी हैं।

अंत मे अब सरकार के पास इस सुस्त रफ्तार अर्थव्यवस्था से निपटने के लिये क्या उपाय है ? निश्चित ही सरकार चुप नहीं बैठी होगी, कुछ न कुछ कर रही होगी। पर उसकी दिशा क्या है, नीतियां क्या होंगी और इन सब कार्यों के लिये सरकार के पास अर्थ विशेषज्ञ हैं भी कि नहीं, यह भी देखना सरकार का एक मुख्य काम है। भाजपा सांसद सुब्रमण्यम स्वामी जो एक अर्थशास्त्री भी हैं ने जो कहा है उससे लगता है कि सरकार फिलहाल इस दिशा में भ्रम में हैं। उनके ट्वीट के अनुसार,
" अगर नयी आर्थिक नीति नहीं अपनायी जाती है तो 5 ट्रिलियन अर्थव्यवस्था को अलविदा कहने के लिये तैयार रहिये। न तो केवल साहस और न ही केवल अर्थशास्त्र का ज्ञान भी इसे गर्त में जाने से बचा सकता है। आज उपरोक्त दोनों की ज़रूरत है हमे, पर दोनों ही आज हमारे पास नहीं है। "

सरकार ने यह तो सीधे नहीं माना है कि, देश मे आर्थिक मंदी है पर इस सुस्ती को सुधारने के लिये जीएसटी कम करने औऱ शॉपिंग मेला लगाने की योजना ज़रूर बनायी है। डॉ मनमोहन सिंह ने एक पेशेवर अर्थशास्त्री के रूप में  आर्थिक हालात सुधारने के लिए  जीएसटी को तर्कसंगत करने,  ग्रामीण खपत बढ़ाने और कृषि को पुनर्जीवित करने, पूंजी निर्माण के लिए कर्ज की कमी दूर करने, कपड़ा, ऑटो, इलेक्ट्रॉनिक्स और रियायती आवास जैसे प्रमुख नौकरी देने वाले क्षेत्रों को पुनर्जीवित करने और,  अमेरिका-चीन में चल रहे ट्रेडवॉर के चलते खुल रहे नए निर्यात बाजारों काे पहचानने जैसे कदमो को उठाने की सलाह दी है। सरकार को बिना किसी राजनैतिक पूर्वाग्रह के देश की प्रमुख आर्थिक प्रतिभाओ का एक कार्यदल बनाना चाहिये जो इस आर्थिक मंदी से निपटने के लिये सरकार को उचित मार्ग बताये जिससे इस संकट से जो आने वाले दिनों में और गहरा सकता है से देश और जनता बच सके।

© विजय शंकर सिंह

1 comment: