Wednesday 18 September 2019

कानून - जम्मूकश्मीर पब्लिक सेफ्टी एक्ट 1978 ( JK Public Safety Act 1978 ) / विजय शंकर सिंह

जम्मूकश्मीर के नेशनल कांफ्रेंस के बड़े नेता फारुख अब्दुल्ला की पब्लिक सेफ्टी एक्ट 1978 के अंर्तगत की गयी गिरफ्तारी से यह कानून अचानक खबरों में आ गया। इस नाम से दुनियाभर में दो कानून बने हैं, एक दक्षिण अफ्रीका में और दूसरा जम्मूकश्मीर में। लेकिन सभी सरकारों ने देश के आसन्न खतरों के संदर्भ में अपने अपने दृष्टिकोण से सुरक्षा कानून बना रखे हैं। 

भारत मे सबसे पहले इस तरह का प्रमुख कानून, डीआईआर, डिफेंस ऑफ एक्ट रूल्स 1915, प्रथम विश्व युद्ध के बाद देश मे बढ़ रही स्वातंत्र्य चेतना को दबाने के लिये बनाया गया। फिर इसे 1939 में द्वितीय विश्वयुद्ध के समय पुनः संशोधित किया गया। 1971 में देश मे जब भारत पाक के बीच बांग्लादेश का मुक्ति युद्ध हुआ तो मेंटेनेंस ऑफ इंटरनल सिक्युरिटी एक्ट, 1971, ( MISA) मीसा कानून बनाया गया। 1975 के आपातकाल में इसे और डीआईआर का इतना प्रयोग हुआ कि यह एक्ट बेहद आलोचना का केंद बना। फिर 1980 में नेशनल सिक्युरिटी एक्ट 1980, राष्ट्रीय सुरक्षा कानून संसद से पारित हुआ और वह कानून अब देश भर में लागू है। 

संविधान के अनुच्छेद 370 के अंतर्गत मिले विशेष दर्जे के कारण जम्मूकश्मीर राज्य को यह अधिकार प्राप्त था कि, वह अपने दंडात्मक कानून लागू कर सकता है। इसी आधार पर भारतीय दंड संहिता 1860, ( आइपीसी ) वहां लागू नहीं है। इसके बजाय रणबीर पेनल कोड लागू है। इसी प्रकार जम्मूकश्मीर के राज्य ने अपने राज्य की सुरक्षा को ध्यान में रखते हुये पब्लिक सेफ्टी एक्ट 1978 का कानून बनाया। उक्त कानून के संदर्भ में तथ्यात्मक जानकारी यहां दी जा रही है। 

जम्मूकश्मीर पब्लिक सेफ्टी एक्ट 1978.
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जम्मूकश्मीर पब्लिक सेफ्टी एक्ट 1978 राज्य का कानून है, जिसके अंतर्गत यह निरुद्धि आदेश दिया गया है। यह कानून, जब शेख अब्दुल्ला जम्मूकश्मीर के मुख्यमंत्री थे तब राज्य की सुरक्षा के लिये पारित किया गया था। इस कानून के अंतर्गत, राज्य को किसी भी क्षेत्र को सुरक्षित और प्रतिबंधित घोषित करने और किसी भी दस्तावेज को राज्य के हित के विरुद्ध उसके प्रसारण को रोकने का अधिकार प्राप्त है। 

इस एक्ट की धारा 8 के अंतर्गत राज्य को व्यक्ति की निरुद्धि का अधिकार है। इस प्राविधान के अनुसार, 

● सरकार किसी को भी अगर उसे यह संज्ञान हो जाय कि वह व्यक्ति राज्य की सुरक्षा और लोक व्यवस्था के लिए खतरा बन रहा है तो उसे निरुद्ध किया जा सकता है। 

● धारा 8 के अंतर्गत लोकव्यवस्था को खतरा के संदर्भ में जो परिभाषा दी गयी है, उसके अनुसार, 

1. वह व्यक्ति जो धर्म, जाति नस्ल समुदाय और क्षेत्र के आधार पर अगर वैमनस्यता फैलाता है, 
2. इन सब के लिये अगर वह व्यक्ति ऐसा कोई उपक्रम करता है जिससे यह वैमनस्यता फैले, जैसे किसी को उकसाता, है, भड़काता है या हिंसा का सहारा लेता है, 
3. रणबीर पैनल कोड की धारा 425 के अंतर्गत वर्णित अपराध के लिये किसी को भड़काता, उकसाता और हिंसा फैलाता है जिससे लोक व्यवस्था भंग होती है 
4. ऐसे किसी अपराध जिसकी सज़ा राज्य के कानून में मृत्युदंड अथवा आजीवन कारावास है को करने के लिये किसी को उकसाता, भड़काता और हिंसा का सहारा लेता है, 

तो ऐसे व्यक्ति को जिला मैजिस्ट्रेट, या मंडलायुक्त द्वारा कोई प्राधिकृत अधिकारी इस धारा के अंतर्गत निरुद्ध कर सकता है। 

● लेकिन इसी कानून की धारा 13(1) के अंतर्गत निरुद्ध व्यक्ति को यह अधिकार है कि वह राज्य से अपनी निरुद्धि का कारण जाने और वह अपनी निरुद्धि को अदालत में संविधान के अनुच्छेद 22(5) के अंतर्गत न्यायालय में चुनौती भी दे सकता है। 
अगर सरकार, निरुद्ध व्यक्ति को धारा 13(2) के अंतर्गत निरुद्धि का कारण नहीं बताती है तो यह मामला अदालत में कमज़ोर पड़ सकता है और इसका लाभ निरुद्ध व्यक्ति को मिल सकता है। 

निरुद्धि की अवधि
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● इस कानून के अंतर्गत अगर, निरुद्धि का आधार राज्य के लिये व्यक्ति खतरा बन रहा है तो उसकी अधिकतम अवधि दो साल की है। 

● अगर लोक व्यवस्था के लिये वह खतरा बन रहा है तो उसकी अधिकतम अवधि 12 महीना है।

● निरुद्धि आदेश जारी होने के चार सप्ताह के अंतर्गत सरकार इस मामले को एक एडवायजरी बोर्ड जिसकी अध्यक्ष हाईकोर्ट के नियमित जज सहित दो अन्य सदस्य होंगे, के पास भेजेगी और यह कमेटी, निरुद्धि की वैधता पर 8 सप्ताह में अपना निर्णय सुनाएगी।

● यदि एडवाजरी बोर्ड इस निष्कर्ष पर पहुंचता है कि, निरुद्धि के पर्याप्त और संतोषजनक कारण है तो वह सरकार के इस आदेश को सही मान लेता है और अब यह राज्य पर निर्भर करता है, कि वह निरुद्ध व्यक्ति को कब तक निरुद्ध रखता है, लेकिन अधिकतम अवधि 2 साल से अधिक नहीं होगी। राज्य सरकार चाहे तो बीच मे भी छोड़ सकती है। 

निरुद्धि को चुनौती
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● एडवायजरी बोर्ड को यह पूरा अधिकार है कि वह निरुद्धि के सभी कारणों की पड़ताल करे। 

● यहां यह उल्लेखनीय है कि निरुद्ध व्यक्ति को अपना पक्ष स्वतः एडवायजरी बोर्ड के समक्ष प्रस्तुत करना होगा। वहां कोई वकील या लीगल काउंसिल निरुद्ध के पक्ष में नहीं खड़ा हो सकता है। 

● एडवायजरी बोर्ड यह भी तय करेगा कि निरुद्धि के आधार, बताये जाना जनहित में जरूरी है या नही। 

● यदि एडवायजरी बोर्ड यह नहीं चाहता है कि उसका निर्णय निरुद्ध व्यक्ति को बताया जाय तो वह उसे गोपनीय रख सकता है, निरुद्ध व्यक्ति उस निर्णय को प्राप्त करने के लिये कानूनी रूप से दबाव नहीं डाल सकता है। 

● निरुद्धि आदेश को संविधान के अनुच्छेद 226 के अंतर्गत हाईकोर्ट में चुनौती दी जा सकती है। लेकिन प्रक्रियागत जटिलताओं के कारण यह उतना आसान भी नही है। 

निरुद्धि आदेश रद्द करने के आधार
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● किसी भी न्यायिक आदेश के पीछे विवेक के उचित प्रयोग की अपेक्षा सदैव की जाती है। कानूनी भाषा मे इसे, एप्पलीकेशन ऑफ माइंड या नॉन एप्पलीकेशन ऑफ माइंड कहते हैं। 

● यदि हाईकोर्ट को यह प्रतीत होता है कि, निरुद्धि का आदेश जारी करते समय या निरुद्ध व्यक्ति को निरुद्धि के आधार सूचित करते समय, विवेक का समुचित प्रयोग ( एप्पलीकेशन ऑफ माइंड ) नहीं किया गया है तो वह इस आदेश को रद्द कर सकती है। 

( शोएब अहमद बनाम जम्मूकश्मीर राज्य के मामले में हाईकोर्ट ने निरुद्ध व्यक्ति को निरुद्धि आदेश के आधार सरकार द्वारा नहीं बताने पर निरुद्धि को रद्द कर दिया था। इस मामले में हाईकोर्ट ने आदेश को नॉन एप्पलीकेशन ऑफ माइंड से जारी आदेश माना था। )

● जिला मैजिस्ट्रेट जिसके हस्ताक्षर से यह निरुद्धि आदेश जारी होता है के लिये यह आवश्यक है कि वह ऐसा आदेश जारी करते समय अपने विवेक का समुचित प्रयोग ( एप्पलीकेशन ऑफ माइंड ) करे। 
यदि जिला मैजिस्ट्रेट ने पुलिस द्वारा भेजी गयी रिपोर्ट को जस का तस ही निरुद्धि आदेश के आधार के रूप में जारी कर दिया तो, इसे अदालत विवेक का समुचित प्रयोग नॉन एप्पलीकेशन ऑफ माइंड मानती है और वह निरुद्धि आदेश इस आधार पर रद्द कर सकती है।

( मुहम्मद रफीक बनाम जम्मूकश्मीर राज्य के मामले में हाईकोर्ट ने जिला मैजिस्ट्रेट द्वारा पारित निरुद्धि आदेश को पुलिस रिपोर्ट की हूबहू प्रतिलिपि के रूप में पाए जाने पर निरुद्धि आदेश रद्द कर दिया था। )

● आगर निरुद्ध व्यक्ति को निरुद्धि आदेश के आधार से जुड़े सम्बंधित दस्तावेज नहीं दिए गए हैं तो इस आधर पर भी हाईकोर्ट, निरुद्धि आदेश को रद्द कर सकता है। 

( बिलाल अहमद डार बनाम जम्मूकश्मीर राज्य के मामले में हाईकोर्ट निरुद्धि आदेश रद्द कर चुका है। )

● निरुद्धि का आदेश, आशुलिपि या संकेताक्षरों या किसी ऐसी कूटभाषा में हो जो केवल आदेश करने वाला अधिकारी ही पढ़ और समझ सके तो इस आधार पर भी निरुद्धि रद्द की जा सकती है। 

( तनवीर अहमद बनाम स्टेट के मामले में अस्पष्ट आदेश के कारण हाईकोर्ट ने निरुद्धि आदेश रद्द कर दिया था। )

हालांकि हाईकोर्ट उन विन्दुओं पर तब तक गौर नहीं करती जिन आधारों पर किसी को निरुद्ध किया गया है। यह जिला मैजिस्ट्रेट और पुलिस का क्षेत्र है कि वह क्यो किसी व्यक्ति की निरुद्धि को राज्य के हित में ज़रूरी समझती है। लेकिन यदि हाईकोर्ट को यह लगता है आधार बनाते समय कोई स्पष्ट वैधानिक चूक की गयी है तो वह उस विंदु को भी संज्ञान में लेती है। 

अब एक नजर दक्षिण अफ्रीका के पब्लिक सेफ्टी एक्ट 1953 के बारे में भी थोड़ी जानकारी पढ़ लें। 
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दक्षिण अफ्रीका ने भी 1953 में पब्लिक सेफ्टी एक्ट के नाम से एक कानून बनाया था, जो 4 मार्च 1953 को लागू किया गया था। दक्षिण अफ्रीका के प्रख्यात नेता नेल्सन मंडेला को भी इस कानून के अंतर्गत बंदी बनाया गया था। यह कानून मुख्यतः रंगभेद विरोधी आन्दोलमकरियो के खिलाफ वहां लागू किया गया था। इस कानून के । दक्षिण अफ्रीका की सरकार को यह अधिकार प्राप्त था कि वह पूरे देश या देश के किसी हिस्से मे आपातकाल की घोषणा कर सकती थी। पर 1953 के इस कानून को 6 अक्टूबर 1995 को दक्षिण अफ्रीका की सरकार ने रद्द कर दिया। 

© विजय शंकर सिंह

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