Monday 16 September 2019

जम्मूकश्मीर - फारुख अब्दुल्ला की निरुद्धि अनावश्यक है / विजय शंकर सिंह

कल 16 सितंबर को जम्मूकश्मीर नेशनल कांफ्रेंस के कद्दावर नेता और पूर्व मुख्यमंत्री फारुख अब्दुल्ला को पब्लिक सेफ्टी एक्ट के अंतर्गत गिरफ्तार कर लिया गया है। उनकी गिरफ्तारी सुप्रीम कोर्ट में एमडीएमके नेता वाइको द्वारा दायर बंदी प्रत्यक्षीकरण (.हैबियस कॉर्पस ) की एक याचिका पर सुनवायी के दौरान की गयी है। 16 सितंबर को दोपहर 1 बजे उन्हें निरुद्धि आदेश दिया गया। हालांकि गिरफ्तारी के औपचारिक आदेश 16 सितंबर को जारी किए गए हैं पर वे अपने घर मे 5 अगस्त से ही हैं जिस दिन अनुच्छेद 370 की समाप्ति से जुड़ा जम्मूकश्मीर राज्य पुनर्गठन बिल संसद में पेश किया गया था। 11 सितंबर को जम्मूकश्मीर हाईकोर्ट ने नेशनल कांफ्रेंस के नेताओ को फारुख अब्दुल्ला से मिलने की अनुमति इस शर्त पर दी थी, कि, वे मीडिया से इस संबंध में कोई बातचीत नहीं करेंगे। सच तो यह है कि 16 सितंबर के औपचारिक गिरफ्तारी के आदेश के बहुत पहले से ही वह अपने घर मे निरुद्ध किये गए हैं।

अब एक नज़र इस कानून पर जिसके अंतर्गत फारुख अब्दुल्ला को निरूद्ध किया गया है। यह कानून, जम्मूकश्मीर पब्लिक सेफ्टी एक्ट 1978 के नाम से जाना जाता है और यह राज्य का कानून है,। यह कानून, 1978 में जब शेख अब्दुल्ला जम्मूकश्मीर के मुख्यमंत्री थे तब राज्य की सुरक्षा के लिये पारित किया गया था। इस कानून के अंतर्गत, राज्य के किसी भी क्षेत्र को सुरक्षित और प्रतिबंधित घोषित करने और किसी भी दस्तावेज को राज्य के हित के विरुद्ध उसके प्रसारण को रोकने का अधिकार प्राप्त है।

इस एक्ट की धारा 8 के अंतर्गत राज्य को किसी भी व्यक्ति की निरुद्धि का अधिकार है। इस प्राविधान के अनुसार,
● सरकार किसी को भी अगर उसे यह संज्ञान हो जाय कि वह व्यक्ति राज्य की सुरक्षा और लोक व्यवस्था के लिए खतरा बन रहा है तो उसे निरुद्ध किया जा सकता है।

धारा 8 के अंतर्गत लोकव्यवस्था को खतरा के संदर्भ में जो परिभाषा दी गयी है, उसके अनुसार,
1. वह व्यक्ति जो धर्म, जाति नस्ल समुदाय और क्षेत्र के आधार पर अगर वैमनस्यता फैलाता है,
2. इन सब के लिये अगर वह व्यक्ति ऐसा कोई उपक्रम करता है जिससे यह वैमनस्यता फैले, जैसे किसी को उकसाता, है, भड़काता है या हिंसा का सहारा लेता है,
3. रणबीर पैनल कोड की धारा 425 के अंतर्गत वर्णित अपराध के लिये किसी को भड़काता, उकसाता और हिंसा फैलाता है जिससे लोक व्यवस्था भंग होती है
4. ऐसे किसी अपराध जिसकी सज़ा राज्य के कानून में मृत्युदंड अथवा आजीवन कारावास है को करने के लिये किसी को उकसाता, भड़काता और हिंसा का सहारा लेता है,
तो ऐसे व्यक्ति को जिला मैजिस्ट्रेट, या मंडलायुक्त द्वारा कोई प्राधिकृत अधिकारी इस धारा के अंतर्गत निरुद्ध कर सकता है।

लेकिन इसी कानून की धारा 13(1) के अंतर्गत निरुद्ध व्यक्ति को यह अधिकार है कि वह राज्य से अपनी निरुद्धि का कारण जाने और वह अपनी निरुद्धि को अदालत में संविधान के अनुच्छेद 22(5) के अंतर्गत न्यायालय में चुनौती भी दे सकता है।
अगर सरकार, निरुद्ध व्यक्ति को धारा 13(2) के अंतर्गत निरुद्धि का कारण नहीं बताती है तो यह मामला अदालत में कमज़ोर पड़ सकता है और इसका लाभ निरुद्ध व्यक्ति को मिल सकता है।
इस अधिनियम के अंतर्गत अधिकतम निरुद्धि की अवधि 2 साल की है। लेकिन निरुद्धि के चार सप्ताह के अंतर्गत सरकार इस मामले को एक एडवायजरी कमेटी जिसकी अध्यक्ष हाईकोर्ट के नियमित जज होंगे, के पास भेजेगी और यह कमेटी, निरुद्धि की वैधता पर 8 सप्ताह में अपना निर्णय सुनाएगी।

अब यह देखना महत्वपूर्ण है कि क्या फारुख अब्दुल्ला की अब्दुल्ला की इस धारा में निरुद्धि विधि सम्मत है ? लेकिन अगर अखबारों को ही श्रोत माना जाय तो फारुख अब्दुल्ला की गिरफ्तारी इस धारा में उचित नहीं लग रही है। फारुख का जो इतिहास रहा है उसके अनुसार वे एक जिम्मेदार नेता रहे हैं और न केवल राज्य के मुख्यमंत्री रहे हैं, बल्कि भारत सरकार में भी वह मुख्यमंत्री रहे हैं। वे अनुच्छेद 370 के हटाये जाने के खिलाफ रहे हैं। और यह उनकी अपनी सोच है कि वे जिस राज्य से आते हैं उसका विशिष्ट दर्जा वह बरकरार रखना चाहते हैं। जम्मूकश्मीर का कोई भी राजनेता इस अनुच्छेद के हटाये जाने के पक्ष में नहीं है। यही नहीं बल्कि 371, 372 आदि संविधान के अनुच्छेद जो देश के नार्थ ईस्ट के विभिन्न राज्यों को विशेषाधिकार प्रदान करते हैं के हटाने का भी विरोध वे राज्य करते हैं जिन्हें इन अनुच्छेदों के अंतर्गत विशेष दर्जा प्राप्त है। यह विशिष्ठ दर्जा देने वाला अनुच्छेद 370 हटाने का विरोध करना किसी राज्य की लोक व्यवस्था के लिये कैसे खतरा बन सकता है यह विश्वास दिलाना राज्य का काम है। हो सकता है इस निरुद्धि को अदालत में चुनौती दी जाय और जब सरकार और निरुद्ध व्यक्ति दोनों के तर्क सामने आये तभी कुछ कहा जा सकता है।

इस कानूनी तर्क वितर्क को अगर दरकिनार कर के राजनैतिक आधार पर सरकार के इस कदम को देखें तो, फारुख अब्दुल्ला की पब्लिक सेफ्टी एक्ट में गिरफ्तारी, जम्मूकश्मीर के उलझे मसले को और भी पेचीदा बनाएगी। फारुख जम्मूकश्मीर राज्य पुनर्गठन बिल 2019 के पारित होने के पहले से ही अपने घर मे नज़रबंद है। तब से न तो उनकी गतिविधि सामने आयी और न ही उनका कोई बयान। अनुच्छेद 370 के खत्म करने के विरोध में बोलना कोई असंवैधानिक कृत्य नहीं है। यह  व्यक्ति का मौलिक अधिकार है कि वह वैधानिक रूप से किसी की भी आलोचना कर सकता है। सच तो यह है कि जिस तरह से यह अनुच्छेद शिथिल किया गया है उसकी प्रक्रिया पर भी सवाल उठा है। सुप्रीम कोर्ट में नेशनल कांफ्रेंस ने असंवैधानिक तरीके से अनुच्छेद 370 के शिथिल करने के संबंध में, एक याचिका भी दायर कर रखी है। इस समय सुप्रीम कोर्ट में कुल सात याचिकाएं अनुच्छेद 370 के संदर्भ में चल रही है। फारुख अब्दुल्ला के निरुद्धि के खिलाफ भी एक याचिका सुप्रीम कोर्ट में दायर की गयी है जिस पर अदालत ने सरकार को एक नोटिस भी जारी किया है। इसी बीच फारुख अब्दुल्ला को पीएसए के अंतर्गत बंदी बना लिया गया है। फारुख अब्दुल्ला की गिरफ्तारी से अलगाववादी संगठन हुर्रियत कांफ्रेंस का ही हित पूरा करेगी, क्योंकि हुर्रियत के चुनाव बहिष्कार के आह्वान के विरुद्ध फारुख अब्दुल्ला और उनकी नेशनल कांफ्रेंस तथा महबूबा मुफ्ती और उनकी पीडीपी खड़ी रही है। यह भी एक तथ्य है कि नेशनल कांफ्रेंस अटल सरकार में उनकी एक भागीदार रही है।

40 दिन से अधिक कर्फ्यू ग्रस्त जम्मू कश्मीर में फारुख एक ऐसे नेता हैं जो न केवल अपना एक अच्छा खासा प्रभाव रखते हैं बल्कि उनका और उनकी पार्टी का दृष्टिकोण बराबर भारत की मुख्य धारा के पक्ष में रहा है। अनुच्छेद 370 के समाप्ति के पीछे अगर जम्मूकश्मीर को जोड़ने का उद्देश्य है तो इतने लंबे समय तक निषेधाज्ञा लागू करना और फारुख अब्दुल्ला जैसे वरिष्ठ और लोकतांत्रिक नेता जिन्होंने गंभीर आतंकवाद के समय मे भी चुनावी राजनीति में खुल कर भाग लिया और भारतीय संविधान के साथ पूरी पार्टी के साथ खड़े रहे हैं, को पीएसए के अंतर्गत निरुद्ध करना, जम्मूकश्मीर को भारत से मनोवैज्ञानिक रूप से औऱ अलग करेगा।  जम्मूकश्मीर, विशेषकर कश्मीर घाटी में सदैव तो कर्फ्यू नहीं लगाया जा सकता है और न ही अनन्त काल तक वहां गवर्नर शासन रखा जा सकता है। कभी न कभी तो चुनाव होगा ही। केंद्र शासित राज्य बन जाने के बाद भी तो राज्य की एक विधानसभा तो रहेगी ही, और उसका चुनाव भी होगा। चाहे जब भी कर्फ्यू हटे, एक बार यह जनाक्रोश उबलेगा और फिर उस समय पुनः यही निषेधाज्ञाये लगायी जाएंगी और एक कर्फ्यू फिर आक्रोश औऱ फिर कर्फ्यू का एक लंबा सिलसिला चलेगा। कश्मीर घाटी फिर अशांत होगी और अशांत कश्मीर दुनिया की खबरों में बराबर बना रहेगा। उस समय कश्मीर में कोई भी ऐसा लोकप्रिय और प्रभाव शाली नेता भारत सरकार के पक्ष की ओर से खड़ा नहीं होगा जो कश्मीर की जनता के साथ संवाद कर सके। नेतृत्व शून्यता की स्थिति में बातचीत किससे की जाएगी और भारत सरकार की बात पर विश्वास भी कम ही लोग करेंगे।

अनुच्छेद 370 के हटने का पूरा देश चाहे भले ही समर्थन करे पर अगर जम्मूकश्मीर की जनता ने उसे नकार दिया, तो फिर राज्य को सामान्य बनाने में बहुत कठिनाइ आएगी। जम्मूकश्मीर का यह मसला अब केवल कानून व्यवस्था का नहीं रहा और यह कर्फ्यू, सुरक्षा बल आदि के भरोसे हल नहीं किया जा सकता है। बल्कि इसके लिये राजनीतिक समाधान ढूंढाना ही होगा। राजनीतिक समाधान के लिये फारुख अब्दुल्ला और महबूबा मुफ़्ती दोनों को विश्वास में लेना होगा। क्योंकि कश्मीर में कोई भी फिलहाल ऐसा नहीं है जिसका इन दोनों नेताओं जितना व्यापक प्रभाव हो।  कश्मीर में नया नेतृत्व अभी दूर दूर तक दिख नहीं रहा है। पाकिस्तान, न तो कश्मीर का हित और न ही वहां के मुसलमानों का हित चाहता है। पाकिस्तान को सदैव एक ऐसा कश्मीर चाहिये जहां उसके आतंकी भी खून खराबा करते रहें और हमारे सुरक्षा बल भी कानून व्यवस्था के नाम पर कर्फ्यू की कैद बनाये रखे । इस निरंतर दबाव से वहां की जनता का आक्रोश समझा जा सकता है। एक शांत और समृद्ध जम्मूकश्मीर पाकिस्तान के उद्देश्य के विपरीत है।

© विजय शंकर सिंह

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