Saturday 28 September 2019

कानून- चुप रहना भी एक कानूनी अधिकार है

कलकत्ता हाईकोर्ट ने एक मुक़दमे में एक चुप रहने यानी चुप्पी, मौन को भी एक कानूनी अधिकार माना है। कलकत्ता उच्च न्यायालय ने  हाल ही में,  धारा 302 के तहत हत्या के आरोप में दोषी एक व्यक्ति को यह कहते हुए दोषमुक्त कर दिया, कि भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 106 उचित संदेह से परे अपने मामले को साबित करने से अभियोजन पक्ष को छूट नहीं देती है और एक आरोपी को बिना प्रतिकूल प्रभाव के चुप्पी का/चुप रहने का अधिकार है। " केवल चुप्पी  को ही अपराध की स्वीकृति नहीं माना जा सकता," कलकत्ता हाईकोर्ट ने अपने एक फैसले में कहा है।

प्रशांत विश्वास नामक एक व्यक्ति, जो, पश्चिम बंगाल में हुये हत्या के एक मामले में अभियुक्त और सेशन अदालत से सजायाफ्ता था, ने सेशन कोर्ट के फैसले के विरुद्ध एक अपील, कलकत्ता हाईकोर्ट में की थी। इसमें, रानाघाट के अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश ने उसकी पत्नी की हत्या के लिए उसे आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी। अभियोजन का तर्क यह था कि " अपीलकर्ता पीड़िता को प्रताड़ित करता था और उसने अपने गांव की एक महिला स्वप्ना के साथ अवैध संबंध बनाए रखने के लिए उसकी हत्या कर दी होगी।"  हालांकि, अभियोजन के गवाहो में से किसी ने भी अपीलकर्ता को स्वप्ना के साथ मिलते हुए नहीं देखा था।

सीआरपीसी की धारा 313 के तहत अपीलकर्ता द्वारा दिए गए बयानों में उसने अपने खिलाफ लगाए गए सभी आरोपों से इनकार, यह दावा करते हुए किया कि वह कथित घटना के समय घर पर ही नहीं था।

सजा का आदेश पारित करते हुए अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश ने कहा कि " अभियुक्त को उन तथ्यों और परिस्थितियों का विशेष ज्ञान था, जिसमें उसकी पत्नी की हत्या की गई थी और उन परिस्थितियों को समझाने का भार भी उस पर था। हालांकि, इस तरह के भार को डिस्चार्ज नहीं किया गया था और घटना के समय केवल अपनी उपस्थिति से इनकार करने से आरोपी को 'अलेबाई' (alibi) का लाभ नहीं मिल सकेगा। इस संबंध में साक्ष्य अधिनियम की धारा 106 पर भरोसा किया गया था, जिसमें यह कहा गया है कि जब कोई भी तथ्य, विशेष रूप से किसी व्यक्ति के ज्ञान में होता है, तो उस तथ्य को साबित करने का भार उस व्यक्ति पर होता है। "

लाइवलॉ वेबसाइट के अनुसार, प्रशांत बिस्वास बनाम पश्चिम बंगाल राज्य" की अपील पर सुनवाई करते हुए मुख्य न्यायाधीश थोट्टिल बी. राधाकृष्णन और न्यायमूर्ति अरिजीत बैनर्जी की पीठ ने यह विचार किया कि " अपीलकर्ता की सजा ट्रायल कोर्ट के विचार में एक मजबूत संदेह द्वारा प्रेरित थी। " उन्होंने नोट किया कि " आरोपी को उसकी पत्नी की हत्या से जोड़ने के लिए रिकॉर्ड पर कुछ भी मौजूद नहीं था। "

अदालत ने कहा कि " अभियोजन पक्ष द्वारा, घटना के घटित होने के समय या उसके आसपास अपीलकर्ता की अपने घर में उपस्थिति को स्थापित करने के लिए पुख्ता सबूतों के नाम पर कुछ भी रिकॉर्ड पर लाया नहीं गया था। अन्वेषण अधिकारी की ओर से यह पता लगाने का कोई प्रयास नहीं किया गया कि घटना के समय आरोपी कहां था। "

अदालत नेे यह पाया कि, " अभियोजन पक्ष के किसी भी गवाह के पास इस घटना के बारे में कहने के लिए कुछ भी नहीं था और उन्होंने जो कुछ भी कहा वो आरोपी को दोषी साबित करने के लिए पर्याप्त नहीं था। इसके अलावा, अपीलकर्ता के स्वप्ना के साथ अवैध संबंध होने का आरोप भी निराधार था, इसलिए अदालत का मत था कि ऐसा कोई निश्चित निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता है कि अभियुक्त, अपराधी था। "

अदालत ने जसपाल सिंह बनाम पंजाब राज्य, (2012) 1 SCC (Cri) 1 में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले पर भी भरोसा किया, जिसमें यह माना गया था कि " साक्ष्य अधिनियम की धारा 106 का उद्देश्य, उचित संदेह से परे (beyond reasonable doubt) अपने मामले को साबित करने से अभियोजन पक्ष को छूट देना नहीं था। "

"धारा 106 तब लागू होती, जब यह स्थापित किया गया होता कि अपीलकर्ता घटना के समय या उसके आसपास मृतका के साथ था या मृतका को अंतिम बार उसके साथ देखा गया था। केवल यह तथ्य कि अपीलकर्ता और पीड़िता विवाहित थे, इस कारण के चलते अधिनियम की धारा 106 को आकर्षित नहीं किया जा सकता है, भले ही घटना के समय अपीलकर्ता कहीं भी रहा हो,"

खंडपीठ ने आगे कहा कि " आरोपी को सीआरपीसी की धारा 313 के तहत यह बताने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता कि वह घटना की रात कहां था। "

"किसी भी अभियुक्त को चुप रहने का अधिकार है और इस तरह की चुप्पी को उसके खिलाफ लाए गए किसी भी आरोप की स्वीकृति के रूप में नहीं माना जा सकता है। एक अभियुक्त को दोषी साबित होने तक निर्दोष माना जाता है। उसे दोषी साबित करने का भार अभियोजन पक्ष पर है। अभियुक्त को कुछ भी कहने की आवश्यकता नहीं है", पीठ ने यह निष्कर्ष निकाला।

संविधान के अंतर्गत अभिव्यक्ति का अधिकार एक मौलिक अधिकार है। यह अधिकार लोकतांत्रिक अधिकारों का मूल है। पर किसी अपराध पर अगर अभियुक्त के विरुद्ध कोई अन्य साक्ष्य नही  हैं और वह केवल चुप है और कुछ बता नही  रहा है तो उसे मात्र इसी आधार पर दोषी नहीं माना जा सकता है। अगर यह खामोशी दंड भय से है तो अन्य सुबूतों के द्वारा, जिसमे परिस्थिति जन्य साक्ष्य भी न हों तो दोषसिद्धि और दंडित किये जाने का एक मात्र आधार नहीं हो सकता है। विवेचक को अन्य सुबूत जुटाने ही होंगे और उसे साबित भी करना होगा। कलकत्ता हाईकोर्ट के इस फैसले पर सुप्रीम कोर्ट में अगर अपील होती है तो क्या रुख रहता है यह देखना होगा।

© विजय शंकर सिंह

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