Sunday 8 September 2019

सिविक सेंस को जागरूक किये बिना, ट्रैफिक सुधारना संभव नहीं है / विजय शंकर सिंह

एक वक्त ऐसा था जब भारत में कारों की गिनती कुछ गिनी चुनी ही थी।  अपने बचपन मे कभी कभी कोई कार देहात की कच्ची सड़क पर दिख जाती थी, उसकी उड़ती धूल में नहाते हुये हम बच्चे उत्सुकता और उत्कंठा से उसके पीछे भागते रहते थे। पर आज,  कारों की भीड़ की वजह से शहर तो शहर, बल्कि गांव और कस्बों की सड़कों पर भी जाम लगने लगा है। भारत में चलने वाली महली मोटर कार 1897 में  कलकत्ता में मिस्टर फोस्टर के मालिक क्रॉम्पटन ग्रीवस  ने खरीदी थी। इसी के साथ मुंबई शहर में सन् 1898 में चार कारें खरीदी गई थी। धीरे धीरे कारो की तकनीक बदलती गयी और लोगों की ज़रूरतें भी। आज यह हाल है कि पूरे देश मे, मई 2017 के सरकारी आंकड़ों के अनुसार, देश मे कुल पंजीकृत वाहनों की संख्या 25,23,24,000 है। 1897 की एक कार से सवा सौ साल बाद इतने वाहनों का सफर इस बात का भी प्रतीक है कि हमारी जीवन शैली, समृद्धि और दिनचर्या में पर्याप्त प्रगति हुयी है। 1951 में यह आंकड़ा 3,06,000 का था।

सड़क पर हमारा व्यवहार, हमारी सभ्यता को भी प्रदर्शित करता है। आज से चालीस पचास साल पहले जब हम सब स्कूलों में पढ़ते थे, तो सड़क पर चलने की मूलभूत बातें स्कूलों में और घर मे भी बतायी जाती थीं। जैसे, फुटपाथ पर चलना, बाएं तरफ ही चलना, सड़क पार करते समय दायें बायें देख कर उसे पार करना चाहिए। तब अधिकतर के पास एक अदद सायकिल होती थी जो तब मिली जब हम विश्वविद्यालय में दाखिल हुये । कोई मोटर वाहन था नहीं तो लाइसेंस आदि का कोई बवाल भी नहीं था। विश्वविद्यालय में इक्का दुक्का मित्र मोटरसाइकिल या स्कूटर से आते थे, न वे हमें लिफ्ट देते थे और न हम उन्हें, क्योंकि वे हमारी मित्र मंडली में थे भी नहीं।

तक दो ही मोटर कारें लोकप्रिय थीं। एक एम्बेसेडर और दूसरी फिएट। 1985 से मारुति ने ज़रूर अपना सबसे पहला मॉडल निकाला था, पर वह तब लोकप्रिय नहीं था। धीरे धीरे वक़्त बदला और मारुति आज देश की सबसे बड़ी कार निर्माता कम्पनी बन गयी। पुलिस ट्रेनिंग के दौरान जब पीटीसी अब पुलिस ट्रेनिंग एकेडमी से पास आउट होकर बाहर निकले तो जीप चलाना आ गया था और लाइसेंस भी बन गया था। 1991 में होने वाली मुक्त अर्थव्यवस्था ने दुनियाभर के कर निर्माताओ को भारत की ओर आकर्षित किया। आज देश मे हर मॉडल की हर बड़ी कंपनी की मोटरसाइकिल, कार, व्यावसायिक वाहन उपलब्ध हैं। भारत मे मोटर वाहनों का इतिहास लगभग सवा सौ साल पुराना है।

हत्या के अपराध की सज़ा फांसी है। लेकिन इस सज़ा से, हममें से वे सब जानते हैं कि हत्या जैसा जुर्म उनसे नहीं हो सकता है, नहीं डरते हैं। यह फांसी या आजीवन कारावास की सज़ा का भय नहीं बल्कि यह मन के अंदर कहीं यह बैठा हुआ है कि किसी की हत्या एक जघन्य अपराध है, पाप है। वही अपराध बोध हमें वह, अपराध करने से रोक देता है। यहां हम एक विधिपालक व्यक्ति बन जाते हैं। पर जब हम सड़क पर चलते हैं तो सड़क पर चलने के कानून का पालन करते हुए, विधिपालक के बजाय एक ऐसे असरदार व्यक्तित्व के रूप में दिखना चाहते हैं कि सड़क पर हम अपनी मनमर्जी से सारे सड़क कानून को धता बताते हुए चल रहे हैं और निश्चिंत रहते कि, तब न सड़क कानून तथा न उक्त कानून का पालन कराने वाला हमारा कुछ बिगाड़ सकता है। हम, 'जहां तक मैं देखता हूँ, मेरा ही साम्राज्य है,' के मनोभाव के अतिरेक में डूब जाते हैं। कानून दोनों ही हैं, सज़ा दोनों में ही है, पर हमारा दृष्टिकोण दोनों ही कानूनों के प्रति अलग अलग हो जाता है ।

हर वैधानिक अधिकार के दो पक्ष होते हैं, जिसे कानून की भाषा मे पॉजिटिव और निगेटिव ओबलीगेशन कहते हैं। जैसे अभिव्यक्ति का अधिकार एक मौलिक अधिकार है, हर व्यक्ति को यह अधिकार संविधान से प्राप्त है। पर इस अधिकार का हर व्यक्ति उपभोग कर सके, यह जिम्मेदारी राज्य की है। वह फ्री प्रेस, मुक्त आवागमन, सेमिनार, गोष्ठियां, आदि बेरोकटोक हों यह सुनिश्चित करना राज्य का काम है । वैसे ही, सड़क पर हर व्यक्ति का अधिकार है कि वह सुरक्षित चले, पर यह सुरक्षा तभी संभव होगी जब हर व्यक्ति  कानून का पालन करे और राज्य का यह दायित्व है कि वह यह सुनिश्चित करे कि सभी सड़क पर चलने वाले लोग, कानून के अनुसार चलें।  राज्य, जो कानून का पालन कराने के लिये अनेक दंडात्मक शक्तियां रखता है, उसका यह भी  दायित्व है कि वह यह सुनिश्चित करे कि राज्य वैधानिक रूप से निष्पक्षता पूर्वक, कानून का पालन करा रहा है। पर क्या यातायात नियंत्रण के संदर्भ में यह होता है ? अफसोस, यह नहीं होता है।

अब कुछ ऐसे उदाहरण पढिये जो आप सबके सामने भी निश्चय ही घटा होगा, जहां ट्रैफिक नियमों का जमकर उल्लंघन होता है और कार्यवाही शून्य होती है।
● राजनीतिक दलों के जुलूस में जब झुंड के झुंड बाइकर्स अपने नेता के पीछे नारे लगाते हुये चलते हैं तो, न तो वे हेलमेट पहने होते हैं और न ही एक बाइक पर दो ही सवारी बैठी होती है। कागज़ हैं या नहीं यह तो बाईक वाला जाने।
● राजनीतिक दलों के जुलूस में चलने वाले नेता, या तो कार के ऊपर बैठे या बाहर निकल कर दरवाजे खोल कर फुटबोर्ड पर खड़े रहते हैं। सीट बेल्ट उल्लंघन भूल जाइए।
● धार्मिक जुलूसों में भी ऐसे बाइकर्स और वाहन अराजक होकर चलते हैं, और उनके साथ पुलिस भी रहती है, पर यहां भी कानून की धज्जियां उड़ाई जाती हैं और कोई कार्यवाही नहीं होती है।
आप यह कह सकते हैं कि यातायात चेकिंग से अधिक ज़रूरी है शांतिपूर्ण तरीके से यह जुलूस निकलवा देना। यह बात बिलकुल सही है। लेकिन यह सार्वजनिक, और पुलिस तथा मीडिया के सामने किया गया ट्रैफिक उल्लंघन अधिकतर विशेषकर युवा मन मे यह धारणा बैठा देता है कि, ट्रैफिक कानून कोई कानून ही नहीं है, इसे तोड़ने में कोई हर्ज नहीं है, और इसे लागू करने वाली पुलिस या तो नागरिकों को तंग करने के लिये चौराहे चौराहे पर चेकिंग करने के लिये रहती है या फिर पैसा वसूली के लिये रहती है। हालांकि यह आरोप बेवजह नहीं है पर ट्रैफिक चेकिंग का उद्देश्य भी यह नही  है।

नये अधिनियम में जुर्माने की राशि तीन गुनी कर दी गयी है। अब इस अधिनियम के आने के बाद जो जुर्माने लगाए गए हैं वे इतने अधिक हैं कि लोग न केवल आक्रोशित हैं बल्कि जगह जगह पुलिस से मारपीट की भी खबरें आ रही हैं। आजकल सबके पास वीडियो कैमरा है, नेंट कनेक्शन सुलभ है, लोग तुरन्त वीडियो शूट करते हैं और उसे सोशल मीडिया पर डाल देते हैं। घँटे भर में वह खबर हज़ारों दर्शको तक पहुंच जाती है। ऐसी खबरें न केवल आक्रोश उपजाती हैं बल्कि समूह को विधिविरुद्ध होने के लिये भी उकसाती हैं। 

अर्थदंड की अवधारणा के पीछे यह बात भी सरकार को ध्यान में रखनी चाहिये कि जिस जनता पर यह दंड लगाया जा रहा है क्या उसकी भुगतान क्षमता इतनी है भी। सबसे अधिक चालान दोपहिया वाहनों के होते हैं। पर यह तबका जिस वर्ग से आता है वह निम्न मध्यवर्ग या अधिकतर मध्यवर्ग का होता है। अधिकतर छात्र या छोटी नौकरियों के साधारण लोग,  इस तबके में आते हैं। वे इतना जुर्माना नहीं दे सकते हैं। उनकी इस बढ़े जुर्माने की तुलना में इतनी आय भी नहीं है। इसका परिणाम या तो सड़कों पर झगड़े होंगे या पुलिस पर आरोप लगेंगे। अक्सर यह तर्क दिया जाता है कि विदेशों में चालान की दरें बहुत अधिक हैं। वहां पर सड़क अनुशासन भी हमारे यहां की तुलना में कहीं  अधिक है। हमारे समाज को सड़क पर चलने के किसी नियम को गंभीरता से लेने की आदत भी नहीं है। जबकि विदेशों में ऐसा बिल्कुल नहीं है।

सड़कों पर चलने का पहला अधिकार पैदल चलने वाले को है। यह ट्रैफिक का एक सिद्धांत है। पर शायद ही कोई शहर हो, जहां के फुटपाथ, अतिक्रमण से भर कर बाज़ार न हो गए हों, सड़के पार्किंग केंद्र न बन गयीं  हों, चौराहो पर पान आदि की दुकानें, ठेले वाले न जमें रहते हों, ऐसे आवागमन वाले मार्ग पर केवल जुर्माना लगा कर जब ट्रैफिक रेगुलेट करने की बात सरकार सोचेगी तो लोगों में आक्रोश उपजेगा ही । सड़क पर लोगों के सुरक्षित रूप से चलने के अधिकार को सुनिश्चित करने के लिये यह राज्य का सकारात्मक दायित्व है कि वह अतिक्रमण और गड्ढामुक्त  सड़कें उपलब्ध कराए। केवल सघन चेकिंग के साथ और चौराहो पर दौड़ा कर चालान काट कर के ही इस समस्या का समाधान नहीं किया जा सकता है।

यातायात पुलिस, यातायात जागरूकता कार्यक्रम आदि मनाती रहती है। मैं कानपुर में एसपी ट्रैफिक रहा हूँ। अक्सर हम स्कूलों में बच्चों को यातायात के नियमों से जागरूक करने के लिये स्कूलों के सहयोग से कार्यक्रम करते रहते थे, और उसका लाभ भी मिलता था। अब भी यह कार्यक्रम चलता रहता है। न केवल कानपुर में बल्कि देशभर में ऐसे कार्यक्रम आयोजित होते हैं। एक सप्ताह का कार्यक्रम, जिसे सड़क सुरक्षा सप्ताह कहते हैं पूरे भारत मे व्यापक रूप से मनाया जाता है। बच्चों को चौराहों पर खड़ा करके उन्हें यातायात के नियमों से अवगत भी कराया जाता है। सड़क और परिवहन मंत्रालय के अतिरिक्त यातायात पुलिस विभिन्न प्रायोजित विज्ञापनों द्वारा भी लोगों को जागरूक करती रहती है। पर अभी भी जिस स्तर के नागरिक बोध की आवश्यकता है उसका अभाव है। यातायात नियमो के उल्लंघन को केवल जुर्माना बढाकर ही नहीं रोका जा सकता है, बल्कि यह अपराध, सीधे सीधे हमारे सिविक सेंस, नागरिक बोध से जुड़ा है। जिसे धैर्य और बिना उत्तेजित हुये लोगों को जागरूक करके ही किया जा सकता है।

© विजय शंकर सिंह

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