Tuesday 3 September 2019

कविता - टूट और बिखराव / विजय शंकर सिंह

जो टूटा है, और जो बिखरा है,
न तुम्हे दिखेगा,
और न दिखता है सबको,
वह सब कहीं महफूज है,
चिटके हुये शीशे की तरह,
चिटक कर पड़ा तो है,
पर बिखरता नहीं है।

टुकड़े उसके,
एक दूसरे से लगे,
पर जुदा जुदा,
न जाने किस उम्मीद में बाबस्ता,
न जाने किस
फरिश्ते की आस में मुन्तज़िर,
कि कोई आये तो जोड़े उन्हें,
जस के तस यूंही पड़े हैं।

जो हादसा हुआ है,
वह भीतर है बस,
बाहर एक ओढ़ी हुयी हंसी,
चिपकी हुयी मुस्कान
अनगढ़ पत्थरों के बीच,
बारीक सांसो से यह 
बूंद बूंद जल जैसी रिसती हुयी खुशी,
यह सब,
एक ओढा हुआ आडंबर है।

खुद को तसल्ली देती हुयी,
रौनक़ों से भरपूर,
यह बाहर की दुनिया,
अंदर की दुनिया से बिलकुल अलग है।
उस टूटे शीशे की तरह,
अलग अलग और
साथ साथ रहते हुए भी,
हर पल,
कुछ न कुछ अयाँ नहीं होने देते !!

© विजय शंकर सिंह

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