Saturday, 30 April 2022

प्रवीण झा / रोम का इतिहास (10)

रोम में तानाशाहों का चुनाव एक अलहदा रीति थी। यह आज के समय में भी संवैधानिक आपातकाल के समय देखा जाता है, लेकिन ऐसी स्थिति नहीं होती कि जनता या संसद ही तानाशाह चुन ले। अगर चुन भी ले, तो वह एक साल बाद पद त्याग दे, इसकी क्या गारंटी है? 

रोम में चूँकि दो प्रधान थे, उनमें से एक मर जाता या किसी कारणवश पदच्युत हो जाता, तो दूसरा थोड़े समय के लिए तानाशाह पद पर आ जाता। इस तानाशाह (dictator) का वह अर्थ नहीं, जो हम आधुनिक काल में समझते हैं। यह एक तरह से गणतांत्रिक राजा ही होता, जो अकेला गद्दी पर बैठा होता। 

458 ईसा पूर्व में जब रोम की सेना युद्ध लड़ रही थी, तो शत्रु राज्य एकी ने उनके प्रधान को सेना सहित घेर लिया। उस समय सिनेट एक कमांडर के पास गयी, जो सेना छोड़ कर खेती-बाड़ी में लग गए थे। वे उस समय टाइबर नदी किनारे फावड़ा हाथ में लिए मिट्टी खोद रहे थे। उनसे कहा गया कि आप हमारे तानाशाह बन जाएँ, और सेना का भार संभालें। 

उस घुँघराले बालों वाले व्यक्ति सिनसिनाटस ‘कर्ली’ ने तत्काल सेना को एकत्रित किया, और एक योजना बनायी कि वे रात को चुपके से आक्रमण करेंगे। उनकी यह योजना सफल रही, और वह प्रधान को छुड़ाने में सफल रहे। सेना विजयी होकर रोम लौटी। 

उत्सव का माहौल था। सभी जनरल रथ पर बैठे हुए रोम की सड़कों से गुजरे। उनके पीछे गाजे-बाजे चल रहे थे। एक रस्म यह भी थी कि सेना अपने सेनापति यानी तानाशाह सिनसिनाटस को गंदी गालियाँ देगी। सिनेट के बुजुर्गों ने उन्हें ताड़ के पत्तों से सजे वस्त्र पहनाए। एक सोने का पट्टा सर पर बाँधा गया।

सिनसिनाटस अपने घुटनों के बल जूपिटर मंदिर की सीढ़ियों पर चढ़ने लगे। यही रीति उनके बाद अधिकांश विजयी राजाओं ने निभायी, और जूलियस सीज़र तक इसी तरह मंदिर जाते थे।

रोम की जनता जोश में चिल्लायी, “तुम ही हो जूपिटर! हमारे जूपिटर!”

सिनसिनाटस ने अपना मुकुट उतारते हुए कहा, “मैं कोई देवता या राजा नहीं, मैं एक किसान हूँ। मेरा कार्य सिर्फ़ युद्ध तक था। अब मैं अपना पद त्यागता हूँ। मेरे खेत मुझे बुला रहे हैं।”

वह अपनी तानाशाही छोड़ कर खेतों में लौट गए। यह क़िस्सा कुछ-कुछ जॉर्ज वाशिंगटन की याद दिलाता है, जिन्हें यूँ ही माउंट वर्नॉन के खेतों से वापस बुला कर सेनापति बनाया गया था।

इस छोटी विजय के बाद रोम को अब बड़ी जीत की ज़रूरत थी। उनके पड़ोस में सबसे बड़े प्रतिद्वंद्वी थे एत्रुस्कन। उनसे अच्छे संबंध रहे थे, लेकिन अब रोम को अपने विस्तार के लिए उन पर चढ़ाई करनी थी। पुन: एक तानाशाह कैमिलस नियुक्त किए गए।

कैमिलस कुछ अधिक कठोर सेनापति थे, जो रोम की सेना को फौलादी बनाना चाहते थे। वह दस वर्ष तक एत्रुस्कन से लड़ते रहे। इस मध्य उनका एक गुप्त प्रोजेक्ट चल रहा था। वे रोम से एत्रुस्कन के गढ़ वेई तक एक सुरंग बना रहे थे। आखिर यह सुरंग पूरी हुई, और रोमन सेना सीधे शत्रु के गढ़ में प्रवेश कर गयी। इन्होंने पूरे शहर को खूब लूटा, रक्तपात किए। लेकिन, उनके सामने प्रश्न यह था कि मंदिरों का क्या करें? 

वहाँ यूनो (juno) देवी का मंदिर था, जो रोमन पुरोहितों की नज़र में पवित्र था। उन देवी का वाहन था मोर। रोमन पुरोहित मानते थे कि इस युद्ध से देवी नाराज़ हैं। उनकी ‘मूर्ति’ से क्षमा-याचना की गयी और पूजा विधियों के साथ देवी को रोम ले आया गया। उसके बाद रोमन जूपिटर देव के साथ-साथ यूनो देवी के भी पूजक बन गए।

एत्रुस्कन का गिरना रोम की विजय तो थी, मगर इसके साथ ही यह एक बड़े खतरे की घंटी थी। इतने वर्षों तक वीर एत्रुस्कनों ने यूरोप के एक खूँखार लड़ाका समुदाय को जैसे-तैसे रोक रखा था। अब रोम को उनसे अकेले भिड़ना था। उनका न कोई राज्य था, न कोई स्थापित गणतंत्र, न कोई राजा। वे टिड्डियों की तरह झुंड में आते, और खून की नदियाँ बहा कर चले जाते। 

सदियों का बसा-बसाया रोम नेस्तनाबूद हुआ, जब आए- गॉल (Gauls)! 
(क्रमशः)

प्रवीण झा
© Praveen Jha

रोम का इतिहास (9) 
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2022/04/9.html 
#vss 

(चित्र: देवी यूनो की मूर्ति)

Friday, 29 April 2022

भगवान सिंह / इतिहास में राम की जगह - प्रस्तावना (3)

कुछ लोगों का खयाल है की वाल्मीकि रामायण में राम को मनुष्य के रूप में चित्रित किया गया था और तुलसी ने उसमें अवतारवाद घुसेड़ दिया। यह इस बात का प्रमाण है कि जिन विषयों के बारे में हमें बहुत अच्छी जानकारी होनी चाहिए उनको भी हम कितने सतही रूप में जानते हैं। 

आदि कवि ने देव समाज के उस नायक की गाथा गाई थी, जिसने स्थाई कृषि का आरंभ और  विस्तार किया था। यह और कोई नहीं, स्वयं अग्निदेव थे, विष्णु ने स्वयं मानव रूप धारण किया था। यहीं नारायण बने थे, वैदिक काल में यही इंद्र बने थे। इसी विष्णु ने राम का अवतार लिया था,  यही अग्नि यदि अपने माया रूप को त्याग दें दो इनके भृकुटि विलास से सृष्टि लय हो सकती है। इसलिए रामावतार से भी पहले से, आदि गाथा के समय से ही देववाद और विष्णुवाद घुला रहा है। 
  
असुरों/राक्षसों/दानवों द्वारा जिस यज्ञ का विरोध किया जाता था, वेदी बना कर आग में समिधा डाल कर धुंआ पैदा करने वाला यज्ञ न था।  यह वनो और आरण्यक क्षेत्रों को आग लगा कर कृषि के लिए भू विस्तार का यज्ञ (यज्ञेन यज्ञं तनयन्त देवा तानि धर्माणि प्रथमानि आसन्) था,  इसकी ही चपेट में राक्षस स्वयं भी आ सकते थे ।  यह रक्षोहा अग्नि थे।  विष्णु राक्षसों का संहार करने के लिए नहीं अवतार लेते हैं,  राक्षसों द्वारा भूविस्तार का संगठित हो कर या कूटयुद्ध (गुरिल्ला युद्ध) बढ़ जाने के बाद स्वयं देवोे का काम आसान बनाने को अवतार लेते हैं।   

आग को विष्णु इसलिए कहा गया कि यह बहुत तेजी से ‘फैलता’ है।  ‘विष’ का अर्थ है तेजी के फैलना - समाहित करना।  विश्व समस्त।  आग की एक मामूली सी चिनगारी विकराल रूप धारण कर पूरे जंगल को भस्म कर देती है और पहले यदि सारी धरती जंगलों और जांगल क्षेत्रों से भरी थी तो पूरी धरती का सफाया संभव था। परंतु यज्ञ का अपना विज्ञान था। समय का चुनाव, दिशा का ध्यान और इस बात की सावधानी कि यह अधिक इधर उधर न फैले। बाद की पुरोहिती भाषा में इसे तीन दिशाओं से तीन छंदों से बाधने और केवल पूर्व की ओर खुला रखने का रूपक तैयार किया गया है।
[ते प्राञ्चं विष्णुं निपाद्य । च्छन्दोभिरभितः पर्यगृह्णन्गायत्रेण त्वा च्छन्दसा परिगृह्णामीति दक्षिणतस्त्रैष्टुभेन त्वा च्छन्दसा परिगृह्णामीति पश्चाज्जागतेन त्वा च्छन्दसा परिगृह्णामीत्युत्तरतः। ] 
इसका अर्थ है इस अभियान का आयोजन पछुआ हवा के समय इस तरह आषाढ़ से ठीक पहले  इस तरह किया जाता था कि किसी जल स्थान तक आग रुक जाए या हल्के दबाव का क्षेत्र तैयार होने से बरसात हो जाए और आग बुझ जाए। 
 
विष्णु का काम है रक्षा करना। देव जब भी संकट में पड़ते हैं दौड़ कर विष्णु के पास जाते हैं और वह इन्हें रक्षा का उपाय सुझाते हैं या स्वयं प्रकट होकर समस्या का समाधान करते हैं, या यदि अत्याचार अधिक बढ़ गया हो तो उससे अवतार ले कर उसका निवारण करते  हैं।  यह उनका माया रूप होता है और इसमें छल-बल से भी काम लिया जाता है। 

आदिकवि का नायक वामन,  विष्णु का मायावी और छली रूप है । शतपथ  ब्रा. में आई जिस कथा का हमने पीछे हवाला दिया है उसको ही मोटे तौर पर आदिकाव्य का सार कहा जा सकता है। शतपथ  में कथा आदिकाव्य की रचना के चार पांच हजार साल बाद लिपिबद्ध हुई।  उस समय तक वह  दंतपरंपरा से चलती आई थी। दंत परंपरा की विशेषता यह कि इसका सार सत्य अनंत काल तक जीवित रहता है और इस मामले में यह लिखित आलेखों - भले वे पत्थर या धीतुपत्र पर ही लिखे गए हों - से अधिक अतिजीवी, व्यापक और ग्राह्य होता है।  माध्यम की सीमा के कारण इसके कई रूप हो जाते हैं। यह संभव है बाल्मीकि के समय में भी मूल कथा के  कई रूप रहे हों और वाल्मीकि ने उनमें से ही किसी एक को लेकर अपनी कथा रची हो। उनकी कथा की लेकप्रियता के कारण दूसरे गायकों ने अपनी गाथाएं रची हों। रामायण शतकोटि अपारा में यह विविधता भी शामिल हो। हम केवल यह जानते हैं कि ऋघ्वेद में इसे अनेक कथारीपों में पाया जाता ह, जब कि रामायण में इन सभी को एक योजना के भीतर समाहित करने का प्रयत्न किया गया।

इस बात को कभी आंखों से ओझल नहीं होने लेना चाहिए कि “देव और असुर दोनों  प्रतापति की संतानें (थीं)। इसका यह अर्थ नहीं कि असुर और राक्षस गणों में  अनेक जातीयताओं और संस्कृतियों के लोग नहीं थे, बल्कि यह कि इन विविधताओं के बाद भी उनमें हितों की एक समानता थी - उनकी जीविका का आधार एक था।

प्रजापति का नस्ली  अर्थ नहीं लिया जाना चाहिए।  इसका अर्थ है,  ‘वह’ जो प्रजा का पालन करता हो या जिसकी उपेक्षा से जीवन संकट में पड़ जाए। इसलिए यज्ञ, ऋतुएं, ओषधियां, द्रोणकलश, संवत्सर. वायु,  वाणी, सत्य आदि को प्रजापति कहा गया है।  कहानी की जरूरत से प्रजापति के मानवीय नाम दे दिए गए। इनकी  केवल  सांकेतिक अर्थ होता है न कि जैव। अब हम उस गाथा पर द्यान दें जिसे हमने आदि काव्य के निकट माना है। 

वेद और असुर दोनों एक ही प्रजापति की दो माताओं (जीविका के साधनों) पर निर्भर संतानें थीं। दोनों संतानों में होड़ लग गई। असुर मानते थे  कि सारी धरती उनकी है।
 
[कृषि के आरंभ से पहले तक दुनिया में सभी प्रकृति पर निर्भर रह कर अपना जीवन यापन करते थे। किसी एक को खाद्य अन्नों (ओषधियों) के बीज एकत्र कर बो कर, उनकी रखवाली करते हुए अभाव के दिनों के संकट से बचने का विचार आया था और उन्होंने  जंगल को जलाकर खेती बारी करने का संकल्प लिया जिनको असुर  मार कर भगा दिया करते थे। धरती पर और वनस्पतियों अलग से दावा नहीं कर सकते थे। सच कहें तो सौतेले भाई नई सूझ वाले नई सोच वाले लोग ही थे। और इस बात की पूरी संभावना है की इनके उपग्रहों को रोकने के लिए ही घुमक्कड़ जनों ने धरती को बांटकर सुरक्षित करने का संकल्प लिया था।]

“देवों ने सुना कि असुर पूरी दुनिया को आपस में  बांट रहे हैं तो उन्होंने समझा कि हमें भी चलकर अपने लिए कुछ जगह मांगनी चाहिए जहां हम  खेती करके अपने तरीके से रह सके। वे विष्णु को, या थोडी सी आग लिए उनके पास पहुंचे और कहा, आप लोग धरती का बंटवारा कर रहे है तो हमें भी तो हमारा हिस्सा दें। असुरो ने तिरस्कार पूर्वक कहा, ‘चलो, जितनी जगह  विष्णु या इस आग को रहने के लिए चाहिए उतनी तुम्हें दे देंगे। विष्णु ने तो वामन रूप धारण कर रखा था इसलिए वे धोखे में आ गए। देवों ने कहा हमें अधिक की चाह भी नहीं है। यज्ञ की स्थापना  के लिए थोडी सी जगह ही हमारे लिए बहुत है। इसके बाद उन्होंने विष्णु को उत्तर, दक्षिण  और पश्चिम से क्रमशः गायत्री, त्रिष्टुप, जगती छंदों से बांध दिया। अब अग्नि (विष्णु) को आगे (पूर्व की ओर) रख कर उसकी अर्चना और श्रम करते रहे (और इसने विराट रूप धारण किया और सारी धरती को अपने लपेटे में ले  लिया और फिर देवों ने अपने सौतेले भाइयों, असुरो, से कहा कि बंटवारा तो हो गया। अब  हमें हमारा हिस्सा सौंप दो।’ जला हुआ भूभाग प्रकृति पर निर्भर करने वाले असुरों के किसी काम का तो रह नहीं गया इसलिए उन्होंने उसे छोड़ दिया या कहें देवों के हिस्से में दे दिया। 
 
“इसके बाद विष्णु थक गया [आग बुझ गई]।  सतह पर जलाने को कुछ बचा ही नहीं पर वनस्पतियों की जड़ें सुलगती रहीं, कुछ यू्ं कि  आग उन पादपों की जड़ों की ओर उतर गई हो। अब देव (हैरान हो कर) आपस में कानाफूसी करने लगे कि विष्णु को क्या हुआ, वह कहां चला गया। (आग बुझ तो गई पर वह गया कहां?) भाग तो सकता नहीं। फिर वे उसकी खोज करते हुए धरती  को खोदने लगे। तीन अंगुल खोदा तो पाया वह ओषधियों की जड़ों में छिपा हुआ था। उन्होंने तीन अंगुल की खुदाई की के बाद उसे  पाया था इसलिए यज्ञ की वेदी तीन अंगुल ऊंची होती है। विष्णु को उन्होंने जमीन को खोदने पर पाया था इसलिए इस भेद को समझने के बाद उन्होंनें धरती को खोद कर पोली, सुथरी, स्थायी णावाल के योग्य बनाया, और इस तरह जीवन यापन करने लगे।” शतपथ ब्राह्मण १.२.५.1-११

कथा के इस रूप में न बलि का नाम आया है, न असुरों के गुऱु शुक्राचार्य का, न तीन डगों में धरती को नापने और बलि को पाताल भेजने का। ऋग्वेद में विष्णु  के इस कारनामें को एक सूक्त में उसको को लंबे डगों वाला, उरुगाय कहा गया है, और यह भी कहा है कि उन्होंने तीन डगों में इस रूप में रखा गया हैः

अतो देवा अवन्तु नो यतो विष्णुर्विचक्रमे । पृथिव्याः सप्तधामभिः ।। 1.22.16 
इदं विष्णुर्वि चक्रमे त्रेधा नि दधे पदम् । समूळ्हमस्य पांसुरे ।। 1.22.17
त्रणि पदा वि चक्रमे विष्णुर्गोपा अदाभ्यः । अतो धर्माणि धारयन् ।। 1.22.18
विष्णोः कर्माणि पश्यत यतो व्रतानि पस्पशे । इन्द्रस्य युज्यः सखा ।। 1.22.19
तद् विष्णोः परमं पदं सदा पश्यन्ति सूरयः । दिवीव चक्षुराततम् ।। 1.22.20
तद् विप्रासो विपन्यवो जागृवांसः समिन्धते। विष्णोर्यत् परमं पदम् । 1.22.21

पर बलि का नाम इसमें भी नहीं आया है।  यह व्यक्तिसूचक हो भी नहीं सकता। गणों में राजा नहीं होता था, इसलिए यह असुरों  के संख्या में अधिक  और बलवान (भूयांसः च बलीयांसश्च असुराः) का सामूहिक अभिज्ञान है।   कवि उशना का भी जिक्र नहीं है। उनके पुत्र उशना काव्य का पाच सात बार आया है पर है बहुत महत्व के साथ। 

जिस कथा का प्रचार अधिक है वह बहुुत बाद में  गढ़ी गई है। यह किसी चरित्र विशेष की गाथा न हो कर एक उन्नत अर्व्यवस्था की गाथा है। पात्र बदलते हैं, संदर्भ बदलते हैं, कथा का आंतरिक संगीत नहीं बदलता। यह संभव है कि विष्णु और इन्द्र के बीच नारायण के नाम से भी कुछ समय तक गाथाएं गाई जाती रही हों। नारायण के दो अर्थ हैेे -  सर्वगामी (वैश्वानर - अघ्नि, सूर्य) और प्रवहमान - जिससे नारायणी का नामकरण हुआ लगता है।  इसका गंडकी नाम भैसों और गैंडो की बहुलता के आधार पर पड़ा हो सकता है। 

हम पीछे कई संदर्भों में यह बता चुके हैं कि आबादी बढने के बाद नई कृषिभूमि की तलाश  में ये कृषिकर्मी नीचे उतरे और नदियों के कछारों में, तालाबों-झीलों के आसपास खेती करते रहे। देवरिया, देवकली. देवार, देवास, देवली, लहुरादेवा जैसे नामों में इसकी स्मृति बची रही। पहले इन्होंने मध्य गंगा घाटी पर अधिकार किया और उसके बाद क्रमशः पश्चिम की ओर बढ़े और सरस्वती, दृषद्वती ओर आपया के इर्वर कछार मेंआज से लगभग 8500 साल पहुंचे। । 

यदि उनके पूर्निवास का नाम सचमुच अयोध्या था तो स्वाभाविक था कि, वे मैदानी भाग में उतरने के बाद, भी कोई वस्ती इसी नाम से बसाते, पर जिस स्थान पर उन्होंने यह बस्ती बसाई वह आज की ही अयोध्या है। रामायण के अनुसार  विश्वामित्र राम लक्ष्मण को ले कर चलते हैं तो सरयू नदी अयोध्या से आधे योजन या लगभग छह किलोमीटर की दूरी पर मिलती है जहां वे विश्राम करते हैं ( अभ्यर्धयोजनं गत्वा सरव्यां दक्षिणे तटे) । यदि नदी ने इतनी तेजी से कटाव किए हों तो संभव है प्राचीनतम अयोध्या नदी के गर्भ में चली गई हो। बी.बी.लाल को, अयोध्या की खुदाई में वहां बस्ती के बहुत पुराने प्रमाण नहीं मिले थे।

दूसरी  समस्या,  सूर्यवंश और सोमवंश से  संबंधित है।  इसको कृषिकर्म से जोड़कर देखें तो कृषि में पहल करने वाले विष्णु के वंशज, आग का उपयोग करते हुए यज्ञ विस्तार करने वाले। राम का जन्म यज्ञ से होता है, या राम उस वंश परंपरा में आते हैं जिसने अग्नि के सहारे कृषिकर्म आरंभ और उसका प्रसार किया था। विष्णु अग्नि है, यज्ञ है, सूर्य है, तो जिनको इस बात पर गर्व था कि कृषि की दिशा में पहल उन्होंने की थी, वे अपने को सूर्यवंशी मानें. सीधे विवस्वान से अपना संबंध ही न जोड़े -- विवस्वान् के संपर्क में भी रहें - मनु वैवस्वत् ही नहीं हैं, उनसे संपर्क में भी हैं - विवस्वान मनवे प्राह,  मनु इक्ष्वाकवे ब्रवीत।  राम सूर्यवंशी हैं यह माना, पर चंद्र कैसे हो सकते है।  इसका रहस्य मेरे पुराने लेखन में मिलेगा जिसमें मैंने यह सिद्ध करने के प्रमाण दिए हैं कि सोम गन्ना था। सोमयाज और सोमविद्या -मधुविद्या और सर्वमंगल की -जनकल्याण की आकांक्षा से जुडी भावधारा थी।  मनु इक्ष्वाकवे ब्रवीत - में दोनों  को रास भी आता था। इसकी पेचीदगी में जाने का समय नहीं।

© भगवान सिंह

इतिहास में राम की जगह - प्रस्तावना (2) 
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भगवान सिंह / इतिहास में राम का स्थान - प्रस्तावना (2)

बचपन में हम भोजपुरीभाषी होने के कारण एक फिकरा जड़ा करते थे - काना माना दोस, बुढ़िया भरोस।   अनर्गल लगने वाले इस फिकरे का अर्थ आज और अभी समझ में आया - अर्थ है "यदि गौर से देखोगे तो गलतियां मिलेंगी, परंतु यह भरोसा है कि इसमें कुछ अच्छा भी मिलेगा।" यह फिकरा अपने अर्थ के साथ इसलिए प्रकट हुआ कि संपादन का समय नहीं है। तुरीयावस्था में संपादन हो भी नहीं सकता, इसलिए यथालिखित को यथा पठनीय मान कर पढ़ें।  मैं संपादन कल करूंगा। सोचा था आज इस समस्या से निस्तार मिल जाएगा।  अब आपका एक दिन और खराब होगा। 

कल की पोस्ट से  यह स्पष्ट हो गया होगा कि जिन गाथाओं या इतिहास कथाओं तथा पौराणिक विवरणों के आधार पर ऋग्वेद की व्याख्या संभव है वे बहुत बाद में संकलित होने वाले पुराणों की कथाओं से कई दृष्टियों से भिन्न गाथाएं और कथाएं थी। वास्तव में यदि उन चरणों को किन्ही पात्रों और कथाओं के माध्यम से प्रस्तुत न किया गया होता तो ठीक वही दशा होती जो दूसरे देशों की रही है। किसी दूसरे देश के पुराणों में अतीत के इतने पिछले चरण से आरंभ। हो कर  उन्नत नागर चरण तक के विकास का इतिहास नहीं मिलता यद्यपि भारत में कथा बंद होने के कारण इस सामग्री को व्यवस्थित करके ही इतिहास की सचाई को जाना जा सकता है।
हम ऋग्वेद की व्याख्या में उपयोगी जिन कथाओं की बात  कर रहे हैं, उनमें सबसे प्रधान है राम कथा। पहले हमारी समझ उल्टी थी। रामायण और ऋग्वेद के आख्यान में अनेक ऐसी समानताएं हैं जिनके कारण मैंने यह धारणा बना रखी थी रामायण की रचना करने वाले कवियों को ऋग्वेद की बहुत अच्छी जानकारी रही होगी और उन्होंने उन प्रसंगों का बहुत कुशलता से प्रयोग किया होगा। ऋग्वेद की गुत्थियों को सुलझाते हुए ही मैंने पाया की रामकथा का रूप जो भी रहा हो, इसका नाम जो भी रहा हो, परन्तु यह कथा ऋग्वेद से कई हजार साल पुरानी है। इसकी उत्पत्ति देव युग में हुई थी ।  यह कृषि (यज्ञ) की स्थाई (संस्थित होने) और प्रसार (यज्ञविष्टार) या तन्वन (यज्ञं तन्वन्ति कवयः सुधीतिभिः) की कथा है। हमने  आज से तीन साल पहले अपने तीन लेखों - ‘वैदिक की दादी भोजपुरी’,  ‘संस्कृत की निर्माण प्रक्रिया’ और  ‘देववाणी’ में हम  यह स्पष्ट कर चुके है कि देवभूमि या स्थाई खेती का आरंभ पूर्वोत्तर की दिशा में नेपाल के उस भाग में था जो नारायणी के किनारे था भैंसा लोटन (भैंसा में संभवतः गैड़ा भी शामिल है जिसकी बहुलता के आधार पर नारायणी का एक नाम गंडक है। इसके पुराने नाम सदानीरा और करतोया रहे है) से दक्षिण उस क्षेत्र  में रहा लगता है, जहां लोकविश्वास के अनुसार  वाल्मीकि का आश्रम हुआ करता था। 
एक साल पहले नेपाल के प्धानमंत्री ने  केपी शर्मा ओली ने असली अयोध्या नेपाल में थी।  “ओली ने दावा किया कि भगवान श्रीराम की नगरी अयोध्या भारत के उत्तर प्रदेश में नहीं बल्कि नेपाल के वाल्मीकि आश्रम के पास है। ओली ने कहा कि हम लोग आज तक इस भ्रम में हैं कि सीताजी का विवाह जिस भगवान श्रीराम से हुआ है, वो भारतीय हैं। भगवान श्रीराम भारतीय नहीं बल्कि नेपाल के हैं।”  नेपाली कवि भानुभक्त आचार्य की 206वीं जयंती पर उन्होंने यह दावा कियाथा।(हिंदी आउटलुक टीम,14 जुलाई 2020)
उनके अनुसार भगवान राम का जन्म नेपाल के चितवन जिले में अयोध्यापुरी के नाम से जाना जाने वाले माडी क्षेत्र में हुआ था, भारत के अयोध्या में नहीं है। उन्होंने वहां भगवान राम, सीता, लक्ष्मण और अन्य के विशाल मंदिरों के निर्माण का आदेश दिया था। उन्होंने कहा, 'अयोध्यापुरी नेपाल में था। बाल्मीकि आश्रम भी अयोध्यापुरी के पास नेपाल में था। सीता की मृत्यु देवघाट में हुई थी, जो नेपाल में अयोध्यापुरी और बाल्मीकि आश्रम के करीब है।' (Jun 21, 2021 | 17:47 IST | टाइम्स नाउ डिजिटल)
ओली के कहने के ढंग में जो भी अनगढ़ता हो, उनके राजनीतिक निहितार्थ जो भी हों, इस कघन के पीछे
परंपरा का हाथ था ।  यदि उनके बयान में राजनीति थी तो उसके पाठ में भी राजनीति का कम हाथ नहीं दिखाई देता। हमें उस परंपरा का ज्ञान नहीं था परहम उससे वहुत पहले भाषाई साक्ष्यों के आधार पर पहुंचे थे। एक पृथक राज्य के रूप में नेपाल का जन्म बहुत पुराना नहीं है।  सांस्कृतिक दृष्टि से नेपाल आहार संग्रह के चरण से ही भारत का, या उस भौगोलिक इकाई का हिस्सा रहा है जिसका बहुत बाद में भारत नाम पड़ा, और यदि भारत का अर्थ भरण-पोषण का क्षेत्र मानें तो आहार संग्रह के चरण पर भी उस विचरण क्षेत्र का हिस्सा रहा है जिसके लिए भारत की संज्ञा सर्वाधिक उपयुक्त है। देवभूमि शब्द का विस्तार पूरे हिमालय के क्षेत्र तक हुआ था। स्वरंग की कल्पना हिमालय पाार के भूभाग के लिए किया जाता रहा है।  हमारी समझ से इस विश्वास के पीछे विगत हिमयुग में साइबेरियाई क्षेत्र से भारत पहुंचने वालों का हाथ जा पहले महागजों क् शिकार किया करते थे और भारत पहुंचने के बाद भी ऐतिहासिक कालों तक ऐसा करते रहे।  अघोरी शिव इन्हीं के देव थे जिनके निवास के लिए उन्होंने कैलाश का हिमानी शिखर चुना था। कीलिदास के कुमारसंभव के शिव शिकार किए गए गज की  खाल ओढ़े उन्हीं की प्रतिरूप हैं। हिमालय तपोभूमि रहा है, तार्थक्षेत्र रहा है, इसलिए ओली के दोनों कथनों पर हंगामा खड़ा करने से अधिक अच्छा होता इसकी गहराई से छानबीन की गई होती।

अयोध्या नामक नगरी नेपाल में रही हो या नहीं, पहली स्थाई बस्ती नेपाल में ही बसाई गई थी, और (संभवतः कुरु क्षेत्र से)  इसे पूर्वोत्तर की दिशा में स्थित माना गया  है।  इस दिशा को अपराजिता दिशा कहा गया है  जिसका अर्थ अयोध्या होता है, और इस नामकरण का कारण भी यह बताया गया है कि पहले असुर कृषिकर्मियों को कहीं टिकने नही देते थे, पराजित करके भगा देते थे,  इस दिशा में ठिकाना बनाने के बाद वे कभी पराजित न हुए, इसलिए यहीं  यज्ञ स्थापित हुआ।  अयोध्या नासकरण का इतना तार्किक आधार अवध की अयोध्या के विषय में उपलब्ध नहीं है:
अपराजित a. Unconquered, invincible, unsurpassed; ˚ता दिक् the north-east direction, (ऐशानी) so called because the Gods were not defeated there; ते (देवासुराः) उदीच्यां प्राच्यां दिश्ययतन्त ते ततो न पराजयन्त सैषा दिगपराजिता Ait. Br., अपराजितां वास्थाय व्रजेद्दिशमजिह्मगः Ms.6.31. -तः 1 A sort of poisonous insect. -2 Name of Viṣṇu; Name of Śiva. अपराजित -अप्रतिहत -जयन्त -वैजयन्त -कोष्ठकान् ...पुरमध्ये कारयेत् Kau. A.2.4. -3 One of the 11 Rudras. -4 A class of divinities forming a portion of the अनुत्तर divinities of the Jainas. -5 Name of a sage. -ता Name of Durgā, to be worshipped on the Vijayādaśamī or Dasarā day; तिष्ठ देवि शिखाबन्धे चामुण्डे ह्यपराजिते Sandhyā; दशम्यां च नरैः सम्यक् पूजनीया$पराजिता । ...ददाति विजयं देवी पूजिता जयवर्धिनी Skanda P.  (http://www.sanskritdictionary.com › aparājita)

रामकथा कृषिकथा है तो राम के उस पूर्वरूप का निवास उसी भाग में पड़ना चाहिए जो आज के नेपाल में  है न और आदिकवि ने अपनी गाथा देववाणी, अर्थात् पुरानी भोजपुरी में ही लिखी होगी। ऋग्वेद में आए प्रसंगों से ऐसा लगता है कि भले मूल गाथा या सबसे लोकप्रिय गाथा वाल्मीकि नामक किसी व्यक्ति ने लिखी हो कथा का रूप बहुत छोटा था, एक गीत जैसा, पर इसकी लोकप्रियता से प्रेरित हो कर दूसरों अनेक गायकों ने अलग गाथाएं लिखीं जिन्हें उस चरित्र से जोड़ा जाता रहा जिसे वाल्मीकि की कथा में कृषि की दिशा में पहल का प्रतीक पुरुष बनाया गया था।  उसका नाम राम नहीं था। होता तो ऋग्वेद में यह इन्द्र न हो जाता।  इसलिए उसका नाम विष्णु रहा हो सकता है जिसने बार बार प्रताड़ित किए जाने के बाद असुरराज बलि से थोडी सी जगह मांगी जहां वह निर्विघ्न अपनी तरह से जीविका का प्रबंध कर सकें और संभवतः असुरों ने अपनी समझ से सबसे अनुपयोगी गयन्दबहुल क्षेत्र सौंप दिया और यहां वे इस तरह जमे कि अधिक संगठितहोने के कारण जिन असुरों से  कांपते रहते थे, उन पर भारी पड़े और  हालत यह हो गई कि उनका कोई ठिकाना न रहा।  हो सकता है मेरी प्रस्तुति में कोई चूक हो रही हो इसलिए शतपथ ब्राह्मण सें इसे जिस रूप में प्रस्तुत किया गया है उस पर ध्यान दें। मैं इनका अनुवाद करूं तो विस्तार हो जाएगा और कुछ जरूरी बातें कही न जा सकेंगी या संदर्भ से हट जाएंगी:

देवाश्च वा असुराश्च । उभये प्राजापत्याः पस्पृधिरे ततो देवा अनुव्यमिवासुरथ हासुरा मेनिरेऽस्माकमेवेदं खलु भुवनमिति - १.२.५.१
ते होचुः । हन्तेमां पृथिवीं विभजामहै तां विभज्योपजीवामेति तामौक्ष्णैश्चर्मभिः पश्चात्प्राञ्चो विभजमाना अभीयुः - १.२.५.२
तद्वै देवाः शुश्रुवुः । विभजन्ते ह वा इमामसुराः पृथिवीं प्रेत तदेष्यामो यत्रेमामसुरा विभजन्ते के ततः स्याम यदस्यै न भजेमहीति ते यज्ञमेव विष्णुं पुरस्कृत्येयुः - १.२.५.३
ते होचुः । अनु नोऽस्यां पृथिव्यामाभजतास्त्वेव नोऽप्यस्यां भाग इति ते हासुरा असूयन्त इवोचुर्यावदेवैष विष्णुरभिशेते तावद्वो दद्म इति - १.२.५.४
वामनो ह विष्णुरास । तद्देवा न जिहीडिरे महद्वै नोऽदुर्ये नो यज्ञसंमितमदुरिति - १.२.५.५
ते प्राञ्चं विष्णुं निपाद्य । च्छन्दोभिरभितः पर्यगृह्णन्गायत्रेण त्वा च्छन्दसा परिगृह्णामीति दक्षिणतस्त्रैष्टुभेन त्वा च्छन्दसा परिगृह्णामीति पश्चाज्जागतेन त्वा च्छन्दसा परिगृह्णामीत्युत्तरतः - १.२.५.६
तं छन्दोभिरभितः परिगृह्य । अग्निं पुरस्तात्समाधाय तेनार्चन्तः श्राम्यन्तश्चेरुस्तेनेमां सर्वां पृथिवीं समविन्दन्त तद्यदेनेनेमां सर्वां समविन्दन्त तस्माद्वेदिर्नाम तस्मादाहुर्यावती वेदिस्तावती पृथिवीत्येतया हीमां सर्वां समविन्दन्तैवं ह वा इमां सर्वां सपत्नानां सम्वृङ्क्ते निर्भजत्यस्यै सपत्नान्य एवमेतद्वेद - १.२.५.७
सोऽयं विष्णुर्ग्लानः । छन्दोभिरभितः परिगृहीतोऽग्निः पुरस्तान्नापक्रमणमास स तत एवौषधीनां मूलान्युपमुम्लोच - १.२.५.८
ते ह देवा ऊचुः । क्व नु विष्णुरभूत्क्व नु यज्ञोऽभूदिति ते होचुश्छन्दोभिरभितः परिगृहीतोऽग्निः पुरस्तान्नापक्रमणमस्त्यत्रैवान्विच्छतेति तं खनन्त इवान्वीषुस्तं त्र्यङ्गुलेऽन्वविन्दंस्तम्मात्त्र्यङ्गुला वेदिः स्यात्तदु हापि पाञ्चिस्त्र्यङ्गुलामेव सौम्यस्याध्वरस्य वेदिं चक्रे - १.२.५.९
तदु तथा न कुर्यात् । ओषधीनां वै स मूलान्युपाम्लोचत्तस्मादोषधीनामेव मूलान्युच्छेत्तवै ब्रूयाद्यन्न्वेवात्र विष्णुमन्वविन्दंस्तस्माद्वेदिर्नाम - १.२.५.१०
तमनुविद्योत्तरेण परिग्रहेण पर्यगृह्णन् । सुक्ष्मा चासि शिवा चासीति दक्षिणत इमामेवैतत्पृथिवीं संविद्य सुक्ष्मां शिवामकुर्वत स्योना चासि सुषदा चासीति पश्चादिमामेवैतत्पृथिवीं संविद्य स्योनां सुषदामकुर्वतोर्जस्वती चासि पयस्वती चेत्युत्तरत इमामेवैतत्पृथिवीं संविद्य रसवतीमुपजीवनीयामकुर्वत - १.२.५.११

इसको न समझ पाने वाले मेरे इस कथन पर भरोसा करें कि (1) यज्ञ का अर्थ उत्पादन ही नहीं कृत्रिम उत्पादन (कषि) है, यदि यह समतिवृद्धि होता (डांगे)  तो वे यज्ञ का विरोध न करते और यदि संस्कार होते (बृहदारण्यक उप.) तो विरोध के अवसर होते।  इसका अर्थ जैव नहीं, उत्कृष्ट कर्म है - यज्ञो वै श्रेष्ठतमं कर्म। वह श्रेष्ठतम कर्म - कृषिं कृषस्व वित्ते रमस्व।
बात आज भी पूरी नहीं हुई।

© भगवान सिंह 

प्रस्तावना (1)
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प्रवीण झा / रोम का इतिहास (9)

    चित्र: कुलीन (patrician) और अ-कुलीन           (plebeian)

रोम में बारह तख़्तियाँ लग गयी, और वर्ग-भेद खत्म हो गया? अगर यह इतना ही आसान था, तो आज तो तख़्तियाँ क्या, दर्जनों मोटे-मोटे संविधान दुनिया में हैं। हर संविधान में यह बात लिखी है कि जन्म के आधार पर भेद-भाव नहीं किया जाएगा। पिछड़े वर्गों के लिए विशेष कानून बने हैं। मगर यह भेद तो कायम ही है। 

रोमन कुलीनों को उनकी कुलीनता विरासत में मिली, वे तो त्यागने से रहे। उन्होंने बहलाने-फुसलाने के लिए जनता को कुछ प्रतिनिधित्व दे दिए, लेकिन वह आम जनता रही अ-कुलीन (plebeian) ही। उनकी कुव्वत नहीं थी कि कुलीनों से ऊँचे स्वर में बात कर सकें, टोगा पहन सकें, या हाथी-दाँत की कुर्सी पर बैठ सकें।

एक उदाहरण देता हूँ। ईसा पूर्व पाँचवी सदी में रोम में भयंकर अकाल आया। उन्हें सिसली द्वीप से अनाज आयात करना पड़ा।

उस समय सिनेट में एक बुजुर्ग खड़े हुए और कहा, “हमें इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि गरीबों को कम दाम पर या मुफ़्त अनाज मुहैया करायी जाए”

इस पर विमर्श चल ही रहा था कि एक कुलीन युवक कोरियोलैनस ने भड़क कर कहा, “क्यों? हमने क्या उनका ठेका ले रखा है? बल्कि यही मौका है उन्हें दबाने का। अनाज हमारे गोदाम में रहेंगे। वे खुद ही गिड़गिड़ाते हुए हमारे पास आएँगे। उस समय हम शर्त रखें कि उनका प्रतिनिधित्व खत्म किया जाए।”

“यह तुम क्या कह रहे हो? हमारे जन-प्रतिनिधि हमारे मध्य यहाँ बैठे हैं। तुम ऐसा सोच भी कैसे सकते हो?”

“मुझे यही बात तो खल रही है कि ये नीच लोग हमारे साथ बैठे हैं। निकाल बाहर करिए इन्हें।”

“बदतमीज़! वे कहीं नहीं जाएँगे। आज से तुम्हारी सदस्यता रद्द की जाती है। कभी यहाँ अपना मुँह मत दिखाना।”, सिनेटर ने भड़क कर कहा।

“जा रहा हूँ। लेकिन, जब लौटूँगा तो इस रोम और आप जैसे कायरों को खत्म कर दूँगा। राज वही करेंगे, जिनका वंश राजाओं का रहा हो।”

यह कह कर कोरियोलैनस न सिर्फ़ सिनेट, बल्कि रोम छोड़ कर चले गए, और पड़ोसी शत्रुओं ‘वॉल्सियन’ से मिल गए। कुछ वर्षों बाद उन्होंने एक बड़ी सेना लेकर रोम पर आक्रमण कर दिया।

कोरियोलैनस एक काबिल सेनापति थे, और रोम की सेना उनके सामने टिक नहीं पा रही थी। उनको मनाने के लिए पहले कुछ दूतों को भेजा गया, वह नहीं माने। पुरोहितों ने जाकर धर्म की दुहाई दी, मगर वह टस से मस न हुए।

लिवि वर्णन करते हैं कि जब कोरियोलैनस रोम को ध्वस्त करने के लिए आगे बढ़ रहे थे, एक स्त्री आकर उनके सामने खड़ी हो गयी। कोरियोलैनस रुक गए। आखिर यह स्त्री उनकी माँ वेचुरिया थी। वह भागते हुए अपनी माँ को गले लगाने पहुँचे, मगर उन्होंने हाथ झटकाते हुए कहा,

“मुझे छूने से पहले यह बताओ कि मैं अपने पुत्र से बात कर रही हूँ या शत्रु से? मैं तुम्हारी कैदी हूँ या माँ? क्या इस उम्र में मेरा यही भाग्य था कि अपने पुत्र को शत्रुओं के खेमे में देखूँ? तुमने अपनी मातृभूमि के ख़िलाफ़ युद्ध छेड़ी है, तो किस मुँह से अपनी माँ को गले लगाने आए हो? तुम मेरे पुत्र नहीं, एक गद्दार हो! 

अगर मैंने तुम्हें जन्म नहीं दिया होता, तो आज रोम पर यह आक्रमण नहीं होता। मैं बिना पुत्र के मर जाती, लेकिन एक स्वतंत्र रोम में मरती।”

कोरियोलैनस शर्म से गड़ गया, और उसने सैनिकों को वापस लौट जाने कहा। 

यह युद्ध तो टल गया, लेकिन रोमन गणतंत्र को अपनी कमजोरी का अहसास भी हुआ। इतने वर्षों में रोम ने अपना अधिक विस्तार नहीं किया था। उसकी सेना पड़ोसी सेनाओं के मुक़ाबले कमजोर थी। रोम को अब युद्ध न सिर्फ़ लड़ने थे, बल्कि जीतने थे। इसके लिए गणतंत्र को अपना वह पत्ता खोलना था, जो सिर्फ़ आपातकाल के लिए रखा गया था।

रोमन गणतंत्र ने तानाशाह (dictator) ‘चुनने’ का निर्णय किया। 
(क्रमशः)

प्रवीण झा
© Praveen Jha

रोम का इतिहास (8)
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Thursday, 28 April 2022

भगवान सिंह / इतिहास में राम की जगह - प्रस्तावना (1)

प्राचीन  विद्वानों का यह  सुझाव रहा है कि ऋग्वेद की व्याख्या इतिहास और पुराण दोनों के आधार पर की जानी चाहिए -  इतिहास पुराणाभ्यां वेदं समुपबृंहयेत् ।  

यह परामर्श अधिकांश विद्वानों को उलझन में डाल देता है।   माना जाता है कि पुराण बहुत बाद में लिखे गए और इतिहास तो हमारे यहां था ही नहीं।  महाभारत में बार-बार पुरातन इतिहास के हवाले आते है. पर इन सभी से केवल इस बात की पुष्टि होती है कि ये उपदेश या दूसरे प्रयोजन से जो कहानिया गढ़ी गई थी. उनको ही इतिहास कहा जाता था।

भविष्य पुराण में भी  इतिहास का जिस  आशय में प्रयोग किया गया है उससे लगता है दृष्टांत देने के लिए गढ़ी गई कहानियों के लिए भी इसका प्रयोग हो सकता था।  इनके पात्रों का मनुष्य होना भी जरूरी न था। 

हम शब्द पर न जाएं तो ऋग्वेद में दो परिपाटियों (स्रुतियों) का उल्लेख है, जिनमें से एक देवों से संबंधित  है और दूसरी मनुष्यों से - द्वे स्रुती अशृण्वं पितृणां अहं देवानां उत मर्त्यानाम्।  ये स्रुतियां सामाजिक इतिहास से जुड़ी हुई हैं। देवों ने कृषि का आरंभ किया था। हजारों वर्षों के बाद संभवतः कृषि कर्मियों की शक्ति में विस्तार के साथ वन्य क्षेत्रों के संकुचित और जीविका के प्राकृतिक संसाधनों के क्षीण  होने के कारण असुरों ने विवश होकर देवों की सेवा के बदले कृषिउत्पाद में हिस्सा पाने का विकल्प चुना। इसके बाद उन उन युक्तियों और विशेषज्ञताओं का आरंभ हुआ जिसने उद्योगों का और आगे चल कर व्यापार और वाणिज्य का जाल फैला। यह तथ्य मैं कई  बार दुहरा चुका हूं कि भले भू संपदा पर आसुरी पृष्ठभूमि से आए जनों का अधिकार न था ( वे खेती करने के पाप समझते थे), परन्तु उन्नत खेती के लिए अपेक्षित सभी उपाय - पशुपालन, पशुसाधन (प्रशिक्षण और नाथने बांधने के तरीके), पहिए और रथ का क्रमिक आविष्कार और वहन, नौचालन - सभी को श्रेय उन्हें जाता है। इनके योगदान से ही कृषि में वह समृद्धि आई जिससे उद्योग और वाणिज्य का आरंभ हुआ और पुराने भूपतियों में से बहुतों ने कृषि की अपेक्षा व्यापार को प्रधानता दी।  वे भू संपदा पर अपने पुराने अधिकार को सुरक्षित रखते हुए,  अपना हिस्सा वसूल करते,  स्वयं खेती के काम से मुक्त हो गए। 

 इसकी  प्रकृति  ठीक क्या थी  यह हमारी समझ में नहीं आता, पर यह स्पष्ट है कि ठीक यहीं से  मनुष्यों का युग आरंभ होता है। दूसरे शब्दों में कहें तो देवयुग अविकसित कृषि व्यवस्था  तक सीमित था  और उसके बाद ( आज से 7000 साल पहले, गोपालन और  उन्नत खेती के समय से ) मानव युग आरंभ होता है। संहिताओं, ब्राह्मणों  और उपनिषदों में इन दोनों अवस्थाओं का किंचित अधिक खुला वर्णन पाया जाता है। इसके ऐतिहासिक महत्व को समझने में चूक की जाती रही है, क्योंकि आज भी लगभग सभी इतिहास आंखें बंद और कान खोल कर उपनिवेसवादियों के निर्देश का पालन करते हुए पढ़े जाते हैं।  इसलिए पहले इस ओर किसी ने ध्यान नहीं दिया जब कि आहार संचय की अवस्था से ले कर व्यापार और उद्योग के आरंभ तक का सामाजिक इतिहास इससे स्पष्ट और निर्णायक प्रमाणों के साथ कहीं नहीं पाया जा सकता।

संक्षेप में कहें तो पहले यह सारी पृथ्वी असुरों की थी, या पूरी मानवता आसुरी अवस्था में थी।  देवों (उन जनों ने जिन्हें खेती करने की सूझी) ने उनसे अपने लिए थोडी सी भूमि मांगी और फिर जो विभाजन हुआ उसके बाद देवों ने असुरों को क्रमशः बेदखल करना शुरू किया और  फिर तो वे आगे बढ़ गए, और असुर पिछड़ गए।  देवों के खेती के औजार बहुत अविकसित थे। नुकीला डंडा, फिर सींग का नुकीला सिरा, और उसके बाद सीग के खोखल में नुकीला पत्थर ( क्षुरपवि) फंसा कर जमीन को खरोंच कर उसमें बीज डाले ताते थे।  इस दिशा में विस्तार में जाना उचित नही है पर दो वातों का संकेत करना जरूरी है ।  एक तो यह कि देवयुग में पशुपालन बकरी और गधे तक सीमित था,जब कि मानव युग के साथ गोरू का पालन और उपयोग आरंभ हुआ;  दूसरा  यह कि देव युग में, देवभूमि में, जो वाणी (बोली) - देववााणी - बोली जाती थी  वह भी देवयुग के दूसरे अविकसित उपादानों की  तरह बहुत पिछड़ी बोली थी जिसके अनेकानेक लक्षणों को भोजपुरी को सामने रख कर समझा जा सकता है, यद्यपि आज की भोजपुरी से वह बहुत भिन्न थी। 

दूसरे जिसे इतिहास कहते थे, उसे ही हम पुराण - पहले जो कुछ घटित हुआ उसका सार - कहते थे। यही सभी प्राचीन समाजों और सभ्यताओं के पास था। 

व्यक्तिपरक इतिहास को हमारे चिंतकों ने मूर्खता  मान रखा था। अस्तित्व में आना- भव - है, जिसे दुख समझा गया, जीवन को भवसागर  - दुख का सागर समझा गया, जिसमे डूबना नहीं,  जिससे पार पाना ही लक्ष्य है। जीवन बंधन है। परम उपलब्धि जीवन चक्र से मुक्ति है। कर्म में आसक्ति बंधन है, जिसका परिणाम है फल - सुख दुख का भोग और इस भोग के लिए पुनर्जन्म (जीवन चक्र का बंधन)। इसलिए  इससे मुक्ति या बंधन को खोलने या इससे बचे रहने  - मोक्ष -  के लिए अनासक्त भाव से काम करना है। अपवर्ग के सामने स्वर्ग का सुख भी हेय है, क्योंकि उसके भोग के बाद पुनः जीवन चक्र आरंभ हो जाएगा। यह दुर्लभ मानव जीवन मिला ही इसलिए है कि मनुष्य ही योग, तप, भक्ति, या निष्काम कर्म से माया से मुुक्त  हो कर परमात्मा में लीन  हो सकता है और अपनी खोई हुई महिमा को पा सकता है। 

जीवन चक्र वाली अवधारणा में मृत व्यक्ति की आत्मा शरीर त्यागने के बाद प्रेतयोनि में चली जाती है और उससे अभिन्न रूप से जुड़ी कोई निजी वस्तु शेष रह जाए तो भटकती  प्रेतात्मा उसमें प्रवेश कर सकती है, इसलिए उससे संबंधित हर चीज, यहां तक कि उसकी जन्मपत्री तक फाड़ या जला दी जाती है, जो बची रहती तो कम से कम उसके काल निर्धारण में तो काम आती। 

यही मानसिकता थी जिसमें राजाओं महाराजाओं (ईश्वर के प्रतिनिधियों) के पास प्रशंसा और वंदना  करने के लिए बंदीजन, सूत और मागध थे, परंतु उनके कीर्तिमान से बाद के लोगों को परिचित कराने के लिए उन्हें लिपिबद्ध करा कर छोड़ जाने की चाह न थी।  वे जो कुछ कर रहे थे वह प्रभु के प्रतिनिधि के रूप में कर्तव्यपालन था।  मूर्तिकारों ने  मूर्तियां बनाई, वास्तुकारों ने अविस्मरणीय निर्मितियां कीं  परंतु इस बात का निशान नहीं छोड़ा कि मूर्तिकार या स्थपति या चित्रकार  बनाई किसने है।  राजाओं ने देवालय बनवाए, देवताओं की मूर्तियां बनाईं,  परंतु किसी ने अपनी मूर्ति नहीं बनवाई,। राजाओं ने सिक्को पर अपने नाम या छाप नहीं अंकित कराए। । गौतम बुद्ध ने मना कर दिया था कि मेरी न तो मूर्ति बनाई जाएगी, न चित्र बनाया जाएगा । यह दूसरी बात है कि सबसे पहले यदि किसी की मूर्तियां बनी तो उनकी।  किसी के पिछले जन्मों से लेकर इस जीवन  तक की कहानियां गढ़ी गईं तो उनकी। परंतु उनके व्यक्तित्व को उनके जीवनकाल में ही देवोपम बना दिया गया था। लोग उन्हें संबोधित करते हुए भगवा अर्थात् भगवान का प्रयोग करते थे ।  

तात्पर्य  यह  कि  व्यक्तिपरक इतिहास का अभाव इतिहास लेखन की योग्यता का अभाव नहीं है।  ज्ञान की विविध शाखाओं में  तथ्यपरकता का  और पूर्ववर्तियों के विचारों के अंकित करने और उनसे असहमत होने के कारण बताते हुए अपनी मान्यता को  स्थापित करने की अपेक्षा का निर्वाह सभी शाखाओं में  किया गया।

 कर्म के प्रति यह अनासक्ति भाव बहुत प्राचीन अवस्था में ही - जीव और आत्मा,  माया और ब्रह्म के भेद के कारण बद्धमूल हो गया था।  

कुछ भारतीय विद्वानों को लगता रहा कि व्यक्तिपरक रचनाओं अर्थात् गाथाओं को ही बाद में इतिहास कहा गया और ये पुराणों से अलग थीं।  यह भेद सही नहीं लगता। यह एक ऋचा का सही पाठ न करने से पैदा हुआ विभाजन है।  इसमें गाथा और पुराण अलग नहीं है, पुराण्या (पुरानी के द्वारा) गाथया (गाथा के द्वारा) का विशेषण है।  इसे बहुत बाद के महाभारत में आए इतिहासं पुरातनं - पुराने इतिहास - का पूर्व रूप समझा जाना चाहिए।  आश्चर्य है कि वैदिक की इतनी सतही समझ रखने वाले लंबे साय तक वैदिक के विद्वान इसलिए माने जाते रहे कि इसे डरावना क्षेत्र मान कर किसी ने कुछ कह दिया तो लोग उसे परखने तक का साहस नहीं करते थे।

© भगवान सिंह

प्रवीण झा / रोम का इतिहास (8)

वर्ग-भेद। यह हज़ारों वर्ष से दुनिया में कायम है। रोम जैसे छोटे से राज्य की संरचना ही वर्ग-भेद पर बनी थी। दो-चार नहीं, बल्कि दर्जन वर्ग थे। जबकि सभी मिला-जुला कर एक जैसी ही नस्ल के थे, एक जैसा रंग, एक ही संस्कृति। फिर भी, उनके पुरोहितों, उनके सामंतों और शाही परिवार का ओहदा कहीं ऊँचा था। उनके महल-नुमा घर होते, जिसमें विशाल आगार, कई कमरे और लगभग पचास दास-दासियाँ होती। उनके अधिकार में कई खेत और उन खेतों में परिश्रम करते किसान होते। वे टोगा पहन कर सीनेट में बैठते या किसी उच्च पद पर होते।

इसके विपरीत रोम के सर्वहारा वर्ग के बड़े परिवारों को भी एक कमरे में रह कर संतोष करना होता। कइयों के पास तो वह भी नहीं थी। गणतंत्र में भी उनके अधिकार सीमित थे, और उन्हें किसी उच्च वर्ग के व्यक्ति को ही ‘ट्रिब्यून’ के लिए चुनना होता। ऐसे भी क़िस्से मिलते हैं कि सामंत उनका खयाल रखते थे, लेकिन यह उनके सामंतों पर आश्रित होने को ही सत्यापित करता है।

विडंबना यह कि आम जनता का विभाजन राजा सर्वियस ने किया, जो स्वयं दास-पुत्र थे। उनकी चर्चा मैंने पहले की है। मुमकिन है कि कुलीनों के समर्थन से अपनी सत्ता को मज़बूत करने के लिए किया हो; या सेना की बेहतर संरचना के लिए किया हो। उन्होंने आर्थिक आधार पर छह वर्ग बनाए, जो सेना में भिन्न-भिन्न भूमिका रखते। पहले वर्ग को हेल्मेट, कवच, तलवारें आदि मिलती। दूसरे को कवच नहीं मिलता। इसी तरह किसी को सिर्फ़ भाला, और किसी को बिगुल बजाने मिलता। 

आखिर वर्ग वह था, जो सबसे गरीब था। उन्हें सेना से मुक्त रखा जाता, और वे बंधुआ मजदूर बन कर काम करते। उनके लिए कहा जाता कि ये सिर्फ़ प्रोल (prole) यानी बच्चा पैदा करने के लिए है। उसी से शब्द जन्मा प्रोलिटैरियट यानी सर्वहारा। पीढ़ी-दर-पीढ़ी यह विभाजन कायम रहा।

गणतंत्र बनने के बाद ब्रूटस और कौलिनेटस पहले प्रधान बने। यूँ तो कौलिनेटस की पत्नी के बलात्कार से ही गणतंत्र की नींव पड़ी थी; लेकिन चूँकि वह क्रूर राजा टारक्विन के परिवार से ही थे और वही उपनाम रखते थे, इस कारण उन्हें पद त्यागना पड़ा। ब्रूटस की भी मृत्यु हो गयी।

अब इस कमजोर गणतंत्र पर चारों तरफ़ से हमले होने लगे, और इस कारण आम जनता खेतों को छोड़ कर युद्ध लड़ने लगी। कई सैनिक युद्ध में मर जाते, और उनका परिवार अनाथ हो जाता। सामंत उनके खेत हड़प लेते। उनकी ग़ैरमौजूदगी में उनकी पत्नी और बहनों के साथ ज़बरदस्ती भी की जाती। जब पानी सर से ऊपर जाने लगा, तो आखिर हुआ- विद्रोह। 

यह विद्रोह किसी लाठी-भाले से नहीं हुआ। बल्कि, एक दिन जनता ने यह निर्णय लिया कि वह रोम छोड़ कर चले जाएँगे। वे रातों-रात बोरिया-बिस्तर बाँध कर रोम से चले गए। सड़कें वीरान हो गयी, दुकानें बंद हो गयी, खेत सूने पड़ गए। जब रोम के कुलीन सो कर उठे, रोम किसी मरघट की तरह दिख रहा था।

आखिर रोमन कुलीन उन्हें मनाने के लिए लिए उस पहाड़ी पर गए, जहाँ जनता जाकर बस गयी थी। सीनेटर मेनेनियस ने वहाँ उन्हें कहा,

“एक क़िस्सा सुनो। एक दिन शरीर के सभी अंगों ने सोचा कि हम हाथ लड़ते हैं, हम दाँत चबा कर देते हैं, हम जीभ निवाला बनाते हैं, और यह पेट आराम से बैठ कर सिर्फ़ खाता है। उन अंगों ने यह निर्णय लिया कि अब हम काम नहीं करेंगे, पेट भूखा मर जाएगा। लेकिन, अंतत: उस पेट को भूखा मारने के फेर में शरीर सूखा पड़ता गया और सभी एक साथ मर गए।”

इस कथा के साथ उन्होंने कहा कि रोम अब यह ध्यान रखेगा कि पेट से चीजें हर अंग तक पहुँचे, और पूरा शरीर स्वस्थ रहे। इस बात की तस्दीक़ के लिए रोम में बारह तख़्तियाँ (Twelve tables) टांगी गयी, जो एक तरह से उनका संविधान बना। उसमें जनता के अधिकार और सीमाएँ स्पष्ट रूप से लिखी गयी।

यह शुरुआत थी एक गण-तंत्र को जन-तंत्र में बदलने की। रोम को वे चार अक्षर देने की, जो उस समय से आज तक रोम की गली-गली में उकेरे दिख सकता है। 

SPQR - Senatum Populis Que Romanus अर्थात संसद और रोम की जनता

अब इन्हीं अक्षरों के झंडे बना कर रोम को कई युद्ध लड़ने थे। एक छोटे से नगर को साम्राज्य में बदलना था। कई बार गिर कर फिर से खड़ा होना था। 
(क्रमशः)

प्रवीण झा
© Praveen Jha 

रोम का इतिहास (7)
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Wednesday, 27 April 2022

प्रवीण झा / रोम का इतिहास (7)

गणतंत्र शब्द ‘गण’ और ‘तंत्र’ से बना है, जो अंदाज़न ईसा से सात सदी पूर्व भारत के वज्जि आदि महाजनपदों में जन्मा। उसके दो सदी बाद 509 ई. में रोम में रेस पब्लिका (res publica) बनायी गयी, जिससे रिपब्लिक शब्द बना। इस मध्य या इससे पूर्व भी दुनिया के छोटे-छोटे नगरों ने राजा से मुक्ति पा ली थी। ग्रीस में सिकंदर शासित तेरह वर्ष (336-323 ई.पू.) छोड़ दिया जाए, तो वहाँ के अधिकांश नगर राजाओं द्वारा शासित नहीं थे। 

लेकिन, यह व्यवस्था आज के संसद जैसी नहीं थी। पूरे देश में लोकसभा और विधानसभा के आम चुनाव नहीं होते थे। इसे कुलीनतंत्र या अल्पतंत्र (oligarchy) जैसा माना जा सकता है, जहाँ बहुधा कुलीन वर्ग के पुरुष महत्वपूर्ण निर्णय लेते थे। मसलन भारत के वज्जि महाजनपद में सात हज़ार से अधिक राजाओं* की चर्चा होती है, जो आज पूरे भारत के लोकसभा सांसद संख्या के दस गुणे से भी अधिक है। इनमें कितनी सहमति बनती होगी और कितने द्वंद्व होते होंगे? मगध नरेश अजातशत्रु द्वारा उन पर विजय पाना और धीरे-धीरे गणतंत्र का खत्म होना इस विषय पर कुछ संकेत देता है। लेकिन तीन सदियों से अधिक तक गणतंत्र का होना भी एक सफलता थी।

रोम तो विश्व के मानचित्र पर छोटी जगह थी। वहाँ कुलीनों की संख्या बहुत कम थी। इसलिए हज़ार राजा चुनने की विवशता नहीं थी। वहाँ यह निर्णय हुआ कि हर वर्ष दो प्रधान (Consul) चुने जाएँगे। एक के हाथ में सेना होगी, और दूसरे राज्य प्रशासन देखेंगे। ऐसे प्रधान की न्यूनतम आयु सीमा 42 वर्ष थी। 

उन दोनों प्रधानों के पास एक-दूसरे के निर्णय को काटने या विरोध करने की शक्ति थे। वे सर पर मुकुट तो नहीं पहनते, मगर वे एक वर्ष के राजा की भूमिका में रहते। उनके टोगा वस्त्र पर एक चौड़ी बैगनी रंग की पट्टी होती, और वे एक हाथी दाँत की बनी शाही कुर्सी पर बैठते। उस वर्ष का नाम भी उनके नाम पर दर्ज़ कर दिया जाता। जैसे अगर ‘मनोज’ और ‘बहादुर’ नाम के दो व्यक्ति चुने गए, तो वह वर्ष ‘मनोज बहादुर वर्ष’ कहलाएगा।

अगर युद्ध छिड़ जाए या कोई आपातकाल आ जाए तो? उस समय तो शीघ्र निर्णय लेने होते, फिर क्या किया जाता? 

छोटे-मोटे युद्धों का निर्णय विमर्श कर ही किया जाता, या सेना के प्रधान कर लेते। लेकिन, भीषण आपातकाल की स्थितियों में संसद अनिश्चितकाल के लिए एक निरंकुश राजा (Dictator) चुन सकती थी। आपातकाल के बाद उनको गद्दी छोड़ देनी होती।

इसके अतिरिक्त सात-आठ प्रीटर (Praetor) होते, जो विधि-व्यवस्था देखते और प्रतिनिधियों के मुख्य सलाहकार होते। वे भी हाथी दाँत की कुर्सी पर बैठते। ‘क्वेस्टर’ खजाना देखते। ‘सेंसर’ जनगणना करते। ‘एडील्स’ के हाथ में नगर-निर्माण होता। 

एक ऐसा अंग था, जो आम चुनाव से जनता द्वारा चुना जाता। यह कहलाता- ‘ट्रिब्यून’। इसे आज के लोकसभा जैसा समझा जा सकता है, जो राज्य के फैसलों को रोकने (veto) की भी क़ुव्वत रखती थी। जैसा हमने पहले पढ़ा कि एक सर्वहारा वर्ग के व्यक्ति टाइबेरियस ने ट्रिब्यून में जाकर गणतंत्र हिला कर रख दिया था।

लेकिन, इन सबसे अलग और कई मामलों में सबसे अधिक नाक घुसेड़ने वाली भी एक संस्था थी। वह चुनी नहीं जाती, बल्कि उसमें अवैतनिक आजीवन सदस्य होते। प्रधान और अन्य प्रतिनिधि बदलते रहते, मगर वे नहीं बदलते। वहाँ बुजुर्ग पूर्व प्रतिनिधि, रसूखदार कुलीन, जमींदार, बुद्धिजीवी बैठा करते। वहाँ किसी के बोलने की कोई समय-सीमा नहीं थी। एक व्यक्ति खड़ा होता तो घंटे भर बोलता रहता। इससे मिलती-जुलती संस्था वज्जि महाजनपद में ‘सभा’ कहलाती, जो बैठ कर नियमित विमर्श करती और ‘गण’ को सुझाव देती। वर्तमान भारत में ‘राज्यसभा’ थोड़ी-बहुत इस ढर्रे पर है। 

उस संस्था के पास कानून बनाने का या बदलने का अधिकार नहीं था, मगर रोमन गणराज्य इतिहास में उसे भुलाना कठिन है। वह संस्था कहलाती- ‘सीनेट’! 
(क्रमश:)

* वज्जि के गण में कई राजा होते, जिनका अर्थ पूरे महाजनपद के राजा रूप में नहीं था। 

प्रवीण झा
© Praveen Jha

रोम का इतिहास (6)
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Tuesday, 26 April 2022

दिल्ली हाईकोर्ट में पीएम केयर्स का मुकदमा / विजय संकर सिंह


पीएम केयर्स फंड की वैधानिकता और क्या प्रधान मंत्री और अन्य मंत्री के पदेन रहते हुए कोई ट्रस्ट या फंड बनाया जा सकता है, के कानूनी विंदु पर,  दिल्ली हाइकोर्ट में एक याचिका की सुनवाई हो रही है। याचिकाकर्ता के वकील श्याम दीवान हैं। अपनी बात रखते हुए, वरिष्ठ अधिवक्ता श्याम दीवान ने आज दिल्ली उच्च न्यायालय को बताया कि संवैधानिक पदाधिकारी होने के नाते प्रधानमंत्री और कैबिनेट के विभिन्न मंत्रियों को पीएम केयर्स फंड के नाम पर "निजी शो" चलाने की अनुमति नहीं दी जा सकती है।

संविधान के अनुच्छेद 12 के तहत फंड को "राज्य" घोषित करने की मांग करने वाली याचिका की सुनवाई में यह प्रगति हुई है। सुनवाई में यह प्रगति, प्रधानमंत्री कार्यालय (पीएमओ) द्वारा सूचना के अधिकार अधिनियम, 2005 के तहत फंड के बारे में जानकारी देने से इनकार करने के बाद  आया है।

श्याम दीवान ने जनहित याचिका याचिकाकर्ता सम्यक गंगवाल की ओर से दलील दी,

" प्राथमिक प्रश्न यह है कि क्या संवैधानिक पदाधिकारी एक पूल बना सकते हैं और यह तय कर सकते हैं कि यह संविधान के दायरे से बाहर काम करेंगे? पीएम केयर फंड भारत के प्रधान मंत्री के पदनाम के साथ बहुत निकटता से जुड़ा हुआ है। इसके न्यासी बोर्ड में, महत्वपूर्ण मंत्री भी शामिल हैं।  रक्षा मंत्री, गृह मंत्री और वित्त मंत्री, सभी अपनी पदेन क्षमता के कारण इस फंड से जुड़े हैं।"

उन्होंने तर्क दिया कि,
"जिस क्षण "पदेन" शब्द चित्र में आता है, इसका अर्थ है "कार्यालय के आधार पर।"
"इसलिए, वे एक समानांतर प्रणाली में कैसे प्रवेश कर सकते हैं, जिसमें राज्य के नियम, कायदे कठोरता लागू नहीं होते हैं?" 
श्याम दीवान ने कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश विपिन सांघी और न्यायमूर्ति नवीन चावला की पीठ से पूछा।
"क्या आप संविधान से बाहर अनुबंध कर सकते हैं? जब तक आप पद पर नियुक्त हैं, संविधान से आप नियंत्रित हैं।आप पदेन हैं, आप पद की शपथ ले रहे हैं और आपकी निष्ठा संविधान के प्रति है।"

इस तर्क पर, बेंच ने पूछा कि 
"क्या यह उनकी दलील है कि इस तरह का ट्रस्ट स्थापित नहीं किया जा सकता था।" 

इस पर दीवान ने जवाब दिया,
"ट्रस्ट स्थापित किया जा सकता है। लेकिन क्या यह एक राज्य है? हां, निर्विवाद रूप से। और संविधान की सभी कठोरता यहां लागू होनी चाहिए। ट्रस्ट स्थापित किया जा सकता है लेकिन यह राज्य की धारणा के भीतर होगा। आप अनुबंध नहीं कर सकते। आज यह एक ट्रस्ट है, कल यह एक निजी कंपनी हो सकती है!"

न्यायमूर्ति चावला ने तब दीवान से पूछा कि,
"क्या संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत उच्च न्यायालय के रिट क्षेत्राधिकार का किसी शून्य में प्रयोग किया जा सकता है? केवल यह घोषणा करें कि कोई निकाय निजी है या नहीं?"
आगे पीठ ने कहा,
"हम समझ सकते हैं कि क्या यह प्रश्न कार्रवाई के कारण उत्पन्न हुआ था। लेकिन अनुच्छेद 226 का अर्थ शून्य में प्रयोग करने के लिए नहीं है।"

हालांकि, दीवान ने जवाब दिया कि,
"प्रावधान ऐसे परिदृश्य पर विचार करता है।" 
इस संबंध में, उन्होंने केके कोचुनी मामले, एआईआर 1959 एससी 725 का उल्लेख किया, जहां सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि "रिट अधिकार क्षेत्र के तहत शक्तियां एक घोषणात्मक आदेश बनाने के लिए पर्याप्त हैं जहां पीड़ित को उचित राहत दी जानी है।"

दीवान ने प्रस्तुत किया कि 
"यदि मामला याचिकाकर्ता द्वारा सूचना का अधिकार अधिनियम, 2015 के तहत निधि के विवरण के साथ मांगी गई राहत से संबंधित है।"
फिर उन्होंने आगे कहा,
"मुख्य मुद्दा सार्वजनिक जवाबदेही का है। कानून के शासन और संवैधानिक लोकतंत्र के संरक्षण के लिए सुशासन और खुली सरकार आवश्यक है। हमारे पास ऐसी स्थितियां नहीं हो सकती हैं जहां 3,100 करोड़ एकत्र किए जाते हैं और यह नहीं पता कि किस कॉर्पोरेट से? पारदर्शिता?  संवैधानिक ताने-बाने के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है।"

पीठ 12 जुलाई को सुनवाई जारी रखेगी, जिस पर केंद्र सरकार द्वारा दलील देने की संभावना है, जिसमें पोषणीयता और याचिका की स्थिरता के मुद्दे भी शामिल हैं।

पीएम केयर्स मामले के बारे में

याचिकाकर्ता ने पीएम केयर्स फंड को राज्य फंड घोषित करने की मांग की है।  उन्होंने कहा, निम्नलिखित के लिए न्यायालय निर्देश जारी करे,
(i) समय-समय पर फंड की ऑडिट रिपोर्ट का खुलासा करना;  
(ii) प्राप्त किए गए दान, उसके उपयोग और दान के व्यय पर प्रस्तावों के फंड के तिमाही विवरण का खुलासा करना।

विकल्प में यह तर्क दिया जाता है कि यदि अनुच्छेद 12 के तहत पीएम केयर्स फंड राज्य नहीं है, तो: 
(i) केंद्र को व्यापक रूप से प्रचार करना चाहिए कि पीएम केयर्स सरकार के स्वामित्व वाला फंड नहीं है;  
(ii) पीएम केयर्स फंड को अपने नाम/वेबसाइट में "पीएम" का उपयोग करने से रोका जाना चाहिए;  
(iii) PM CARES फंड को राज्य के प्रतीक का उपयोग करने से रोका जाना चाहिए;  
(iv) PM CARES फंड को अपनी वेबसाइट में डोमेन नाम "gov" का उपयोग करने से रोका जाना चाहिए;  
(v) पीएम केयर्स फंड को अपने आधिकारिक पते के रूप में पीएम के कार्यालय का उपयोग करने से रोका जाना चाहिए;  
(vi) केंद्र को कोष में कोई सचिवीय सहायता नहीं देनी चाहिए।

दूसरी ओर, पीएम केयर्स फंड ने याचिका की स्थिरता पर आपत्ति जताते हुए कहा कि आरटीआई अधिनियम, 2005 के तहत याचिकाकर्ता के लिए वैकल्पिक वैधानिक उपाय उपलब्ध हैं।

योग्यता के आधार पर, फंड यह कहता है कि,
"यह आरटीआई अधिनियम की धारा 2 (एच) के अर्थ के भीतर "सार्वजनिक प्राधिकरण" नहीं है, क्योंकि प्रावधान की अनिवार्य वैधानिक आवश्यकताएं अस्तित्व में नहीं हैं।  फंड का दावा है, "ट्रस्ट के कामकाज में केंद्र सरकार या किसी राज्य सरकार का प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से कोई नियंत्रण नहीं है।"

पीएम केयर्स फंड ट्रस्ट के कामकाज में केंद्र या राज्य सरकारों का कोई नियंत्रण नहीं: पीएमओ ने दिल्ली हाई कोर्ट को बताया।

यह आगे दावा किया गया है कि,
"ट्रस्ट पारदर्शिता के साथ कार्य करता है और इसकी निधियों की लेखा परीक्षा एक लेखा परीक्षक द्वारा की जाती है जो भारत के नियंत्रक और महालेखा परीक्षक द्वारा तैयार किए गए पैनल से चार्टर्ड एकाउंटेंट है।"

गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट ने पहले देखा था कि भारत के नियंत्रक और महालेखा परीक्षक द्वारा पीएम केयर्स फंड के ऑडिट का कोई अवसर नहीं है क्योंकि यह एक सार्वजनिक धर्मार्थ ट्रस्ट है।
अभी सुनवाई जारी है।

(विजय शंकर सिंह)

Sunday, 24 April 2022

प्रवीण झा / रोम का इतिहास (6)

इतिहास जानने और भविष्य जानने में विकल्प मिले तो हम क्या चुनेंगे? मैंने आइसलैंड पर संस्मरण (भूतों के देश में) में वहाँ के औघरों और भविष्यवक्ताओं की बात लिखी है। रोम इन औघरों का गढ़ हुआ करता था, और ख़ास कर एत्रुस्कन इस विद्या में दक्ष थे। यह औघरी अंग्रेज़ी में Augury कहलाती है, और रोमन अपने जीवन के अहम फैसले इन भविष्यवाणियों के आधार पर ही लेते थे। यह इस हद तक था कि शत्रु सेना द्वार पर होती, और राजा उस समय तक अपनी सेना नहीं भेजते जब तक भविष्यवक्ता हरी झंडी नहीं देते।

एक दफ़े राजा टारक्विन के महल में एक खंभे से साँप निकल कर आया। राजा इसे अपशकुन मान बैठे और अपने पुत्र को कहा, 

“तुम लोग डेल्फी के अपोलो मंदिर जाओ। वहाँ के औघर से इसका अर्थ पूछो। अपने साथ ब्रूटस को भी लिए जाओ। तुम्हारा मनोरंजन हो जाएगा।”

वे राजकुमार पूरे रास्ते ब्रूटस का मखौल उड़ाते हुए डेल्फी तक पहुँचे। ब्रूटस भी उनके भय से सब सहते रहते। वह अपोलो देवता को अर्पित करने लिए एक सोने की छड़ी छुपा कर लाए थे।

राजकुमारों ने डेल्फी पहुँच कर औघर से पूछा, “रोम का भविष्य क्या है? अगला राजा हम में से कौन होगा?”

औघर ने एक पशु का पित्ताशय हाथ में लेकर कुछ मंत्र पढ़ते हुए कहा, “जो अपनी माँ का माथा सबसे पहले चूमेगा, वही रोम का अगला राजा होगा”

यह सुन कर राजकुमार हड़बड़ी में अपनी माँ तक पहुँचने के लिए भागे। लिवि बड़े नाटकीय अंदाज़ में वर्णन करते हैं कि उस समय ब्रूटस कुछ पीछे चलते हुए नीचे झुक गए, और रोम की मिट्टी को चूम लिया!

कुछ समय बाद रोमन राजकुमार कुछ कुलीनों के साथ पार्टी कर रहे थे। शराब के नशे में उन्होंने बाज़ी लगायी कि किसकी पत्नी बेहतर गृहणी है। वे छुप-छुप कर सभी के घरों में झाँकने गए। अधिकांश पत्नियाँ बैठ गप्पें लड़ा रही थी, या दासियों से सेवा ले रही थी। लेकिन कौलेटिनस की पत्नी लुक्रेशिया बैठ कर सूत कात रही थी। उन्हें देख कर राजकुमार सेक्सटस की काम-वासना जाग उठी।

कुछ दिनों बाद जब लुक्रेशिया घर में अकेली थी, सेक्सटस वहाँ धमक पड़े। लुक्रेशिया ने राजकुमार को आदरपूर्वक बिठा कर स्वागत किया। राजकुमार ने कहा कि वह उन्हें पत्नी बनाना चाहते हैं। जब लुक्रेशिया ने उनके प्रस्ताव को ठुकराया तो उन्होंने कहा,

“पत्नी नहीं बन सकती, तो मेरी वासना मिटाओ। अन्यथा मैं तुम्हें मार कर एक गुलाम के साथ नंगा लिटा दूँगा। कह दूँगा कि तुम व्यभिचार में लिप्त थी, इसलिए सजा देनी पड़ी।”

लुक्रेशिया भयभीत हो गयी और सेक्सटस ने जबरन बलात्कार किया। इस घटना के बाद वह रोते हुए ब्रूटस के पास पहुँची, और आप-बीती सुनाई। उन्होंने सहानुभूति जतायी लेकिन वह असमर्थ थे। अगले ही दिन लुक्रेशिया ने स्वयं को चाकू मार कर आत्महत्या कर ली। 

जब ब्रूटस ने उसका रक्तरंजित शरीर देखा, उनकी आँखें लाल हो उठी। उस समय उन्होंने लुक्रेशिया के पेट से चाकू निकाल कर अपने हाथ में लेते हुए सार्वजनिक रूप से सौगंध ली,

“मैं लुसियस यूनियस ब्रूटस यह शपथ लेता हूँ कि अब रोम में कोई राजा नहीं होगा…इस पवित्र स्त्री के खून की सौगंध लेकर और देवताओं को साक्षी मान कर मैं वचन देता हूँ कि राजा टारक्विन सुपरबस पर अभियोग लगाउँगा। उसे, उसकी शातिर पत्नी और उसके बेटों को रोम से निकाल फेंकूँगा। चाहे तलवार से, चाहे आग से, या किसी भी माध्यम से, इस राजतंत्र का हमेशा के लिए अंत कर दूँगा।”

एक मूर्ख और दब्बू माने जाने वाले ब्रूटस की इस शपथ से रोम की शेष भीरू जनता का भी खून खौल उठा। पूरा रोम इस बलात्कार के बाद राजपरिवार का अंत चाहता था। राजा टारक्विन के पास परिवार सहित भागने के सिवाय कोई रास्ता नहीं था।

ब्रूटस ने स्वयं राजा बनने के बजाय संपूर्ण रोम के साथ यह शपथ दोहराया कि अब इस राज्य में कभी कोई राजा नहीं होगा। वहाँ गणतंत्र की स्थापना होगी। लेकिन, जल्द ही ब्रूटस के समक्ष एक कठिन अग्निपरीक्षा आ गयी।

सूचना मिली कि पूर्व राजा टारक्विन फिर से सत्ता पाने के लिए षडयंत्र कर रहे हैं, और इस षडयंत्र में ब्रूटस के दो पुत्र शामिल हैं।

रोम की मिट्टी को अपनी माँ का दर्जा देने वाले ब्रूटस ने कहा, “वे मेरे पुत्र हैं, लेकिन इस मातृभूमि के पुत्र नहीं। उन्हें वही सजा दी जाएगी, जो किसी राजद्रोही को दी जाती है।”

ब्रूटस के सामने उनके पुत्रों का गला काटा गया, और वह अपनी पथराई आँखों से देखते रहे। यह स्पष्ट हो गया था कि अब कोई प्रलोभन, कोई षडयंत्र, कोई भी मोह गणतंत्र के रास्ते में नहीं आ सकता था। 

औघर की भविष्यवाणी अपनी जगह ठीक ही थी। मिट्टी किसी एक की माँ नहीं थी। उसे चूमने वाला हर नागरिक अब राजा था।
(क्रमशः)

प्रवीण झा
© Praveen Jha

रोम का इतिहास (5)
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प्रवीण झा / रोम का इतिहास (5)



चित्र: Lucius Junius Brutus [यह जूलियस सीजर के समय के Marcus Junius Brutus के पूर्वज थे।

कूटनीति सफल साम्राज्यों की कुंजी थी। अन्यथा यूरोप के सबसे ताकतवर और खूँखार ‘जर्मैनिक’ थे, जिन्हें असभ्य (barbarians) कहा जाता। उनका रहन-सहन, खान-पान रोम की तरह व्यवस्थित नहीं था। वे कई अर्थों में बाद में आए मंगोलों और वाइकिंगों के समकक्ष थे। उनकी चर्चा आगे करूँगा कि किस तरह उन्होंने सदियों तक यूरोप से अफ़्रीका तक धौंस जमा कर रखी। 

लेकिन, आज हम जानते हैं कि भविष्य न तो मंगोलों, न वाइकिंगों और न जर्मैनिक असभ्यों के हाथ में था। वह रोमनों के हाथ में था। इस प्रक्रिया को समझने की ज़रूरत है। 

राजा टारक्विन सुपरबस के साथ पहली समस्या थी कि वह लातिन नहीं, एत्रुस्कन जाति के थे। वह तो खैर उनके पिता भी थे। एत्रुस्कन कुछ टेक्निकल दिमाग के लोग थे, जो खेती-बाड़ी की तकनीकों से लेकर नगर-संरचना में निपुण थे। वहीं लातिन कलात्मक लोग थे, जिन्हें मानवीय मूल्यों, ग्रीक दर्शन आदि में अधिक रुचि थी। आज के शब्दों में कहें तो एक साइंस स्ट्रीम के, दूसरे आर्ट्स। जहाँ लातिन पारंपरिक पूजा करते, एत्रुस्कनों में औघर तंत्र-मंत्र और बलि की उपयोगिता अधिक थी।

टारक्विन ने इन दो भिन्न गुणों वाली जातियों को मिला कर आगे बढ़ना चाहा। राजतंत्रों में विवाह अक्सर समझौतों का माध्यम था। उन्होंने सबसे पहले अपनी बेटी का विवाह एक संभ्रांत लातिन परिवार में किया।

वहीं, एत्रुस्कनों को नाला-निर्माण, सड़क निर्माण और मंदिर निर्माण के ठेके दे दिए, जो वे बेहतर जानते थे। उन्हें यह लगा कि ग्रीक संस्कृति के विस्तार के मूल में धर्म है। उन्होंने विश्व के विशालतम मंदिर बनाने का निर्णय लिया। उनके पिता का अधूरा जूपिटर मंदिर उन्होंने इतना विशाल बनाया कि एक आगार ही फुटबॉल मैदान जितना बड़ा था। 

मगर इन तमाम निर्माण कार्यों का अर्थ था रोमन सर्वहारा का शोषण। उन्हें उनके खेतों से निकाल कर मामूली रकम पर ईंट ढुलवाए जाते, नींव खुदवायी जाती, सुरंग बनवाए जाते। वे अब या तो पलायन कर रहे थे, या आत्महत्याएँ। कइयों को बीच सड़क पर चाबुक से मारा जाता, कई को मार दिया जाता।

लातिनों के मुखिया टर्नस ने मानवीय मूल्यों का हवाला देकर राजा से मिलने की ख़्वाहिश रखी। राजा ने उन्हें आमंत्रित किया, लेकिन पूरे दिन लातिन प्रतीक्षा करते रहे और राजा की कहीं खबर नहीं। आखिर जब शाम को राजा आए, तो लातिन चिढ़ चुके थे।

राजा टारक्विन ने कहा, “एक पिता-पुत्र के विवाद निपटाने में फँस गया था”

टर्नस ने गुस्से में कहा, “यह विवाद तो एक क्षण में निपटाया जा सकता है। आपने पूरा दिन लगा दिया? पुत्र को कहिए कि पिता की आज्ञा मान लें।”

यह कह कर टर्नस वहाँ से निकल गए। राजा ने अपनी इस बेइज़्ज़ती का बदला लेने की ठानी। उन्होंने अपने गुलामों को भेज कर टर्नस के घर में हथियार रखवा दिए, और आरोप लगाया कि वह जन-क्रांति करने का षडयंत्र कर रहे हैं। इस कथा में यह मुमकिन है कि वाकई टर्नस ऐसा कर रहे हों, और सर्वहारा हिंसक क्रांति की योजना बना रहे हों।

जो भी हो, उन्हें पत्थरों से बाँध कर एक ऊँचाई से नदी में गिरा दिया गया। ऐसी सजाएँ अब रोम-वासियों को अत्याचार लग रही थी। एक दिन उनके बड़े भांजे भड़क गए और बुरा-भला कहा। नतीजा यह हुआ कि उन्होंने भांजे को बंदी बना कर मार डाला। 

सिर्फ़ छोटे भांजे को हँसते हुए यह कह कर छोड़ दिया, “यह ब्रूटस है। इसको क्या मारना? हमारे परिवार में एक यही तो हास्य-विनोद का पात्र है।”

ब्रूटस का अर्थ है मूर्ख। वाकई ब्रूटस की हैसियत एक बेवकूफ़ की ही थी। किंतु यही लुसियस यूनियस ‘ब्रूटस’ रोमन इतिहास के सबसे बड़े कूटनीतिज्ञों में एक सिद्ध हुए। वह ‘लो प्रोफ़ाइल’ में रह कर बदले का मौका तलाश रहे थे। आखिर एक दिन उन मूर्ख ब्रूटस ने अपने मामा के इस आततायी राजतंत्र को उखाड़ फेंका। 

वह रोम में गणतंत्र के सूत्रधार बने। 
(क्रमशः)

प्रवीण झा
© Praveen Jha 

रोम का इतिहास (4)
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Saturday, 23 April 2022

प्रवीण झा / रोम का इतिहास (4)

           चित्र: जूपिटर मंदिर के अवशेष

राजतंत्र हो या गणतंत्र, सत्ता के लिए छल-कपट विश्वव्यापी रहा है। जैसे वंशवादी राजतंत्र में भाइयों के मध्य षडयंत्र और हत्यायें। रोम में शुरुआत वंशवादी राजतंत्र से नहीं हुई। वहाँ राजा चुना जाता था। रोम इतना छोटा था कि यह किसी ग्राम पंचायत के सरपंच चुनने
जैसी प्रक्रिया थी। 

रोम की स्थापना के बाद कुछ आधे दर्जन चुने हुए राजा आए। उनका दरबार खुले आसमान में बैठ कर लगता। आज की जो अंग्रेज़ी की लिपि लैटिन है, वही उनकी लिपि थी। इस कारण रोम के ढाई हज़ार वर्ष पुराने शिलालेख सुविधा से पढ़ लिए जाते हैं। किसी युद्ध में मारे गए सैनिक की काँसे की टोपी मिली तो उस पर उसका नाम अंग्रेज़ी में लिखा मिल जाता है। यह एक कारण है कि वहाँ का इतिहास लिखने में लोगों को सुविधा हुई।

रोम का इतिहास लिखने की औपचारिक शुरुआत ईसा पूर्व दूसरी सदी में ही हुई। उस समय तक रोम गणतंत्र बन चुका था। जिस इतिहासकार ने भी इतिहास लिखा, उसने पिछली पाँच सदियों का इतिहास सुने-सुनाए क़िस्सों से या कुछ वार्षिक दस्तावेजों (annals) से लिखा। उनमें से कई दस्तावेज ग्रीक भाषा में थे, क्योंकि लैटिन लिखने-पढ़ने की स्थापित भाषा नहीं थी। ग्रीक को भारत के संस्कृत के समकक्ष कहा जा सकता है, जो विद्वानों की भाषा थी। जबकि लैटिन इटली में बोल-चाल की भाषा थी।

मुझे एक ईसा पूर्व इतिहासकार लिवि की किताब सुविधा से मिल गयी। पेंग्विन प्रकाशन ने उनकी पाँच किताबों को जोड़ कर एक किताब बना दी है।

उस किताब में मैं सीधे लिए चलता हूँ आखिरी राजाओं में एक बड़े टारक्विन (Tarquinn The Elder) के राज में, जो ईसा पूर्व 616 में शुरू हुआ। उन्होंने रोम को वह रोम बनाया, जो हम फ़िल्मों में देखते हैं। वह रोम में एक अद्भुत खेल लेकर आए, जिसमें मनुष्य की लड़ाई शेर और जंगली जानवरों से होती। यह कहलाया- ग्लैडिएटर! 

खेल के साथ-साथ उन्होंने ग्रीक देवताओं के मंदिर भी बनाने शुरू किए। रोम के अपने राज्य-देवता बने- जूपिटर।

मिथक यह था कि सैटर्न (Saturn) अपने सभी पुत्रों (नेप्च्यून, प्लूटो आदि) को खाते जा रहे थे। जब जूपिटर पैदा हुए, तो उनको कहीं छुपा कर पाला-पोसा गया। आखिर, जूपिटर ने अपने पिता को युद्ध में हरा कर सभी खाए हुए पुत्र उगलवाए और स्वर्ग पर कब्जा किया।

खैर, मेरी रुचि मिथक में नहीं, इससे जन्मी प्रवृत्ति से है।

हुआ यूँ कि राजा टारक्विन ने अपनी एक दासी के पुत्र सर्वियस को अपना उत्तराधिकारी चुना। संसद ने भी अनचाहे मन से इस पर सहमति दे दी। मगर थे तो सर्वियस एक दास-पुत्र। भला यह अति-पिछड़ा वर्ग का राजा रोमनों को क्यों भाता? 

राजा सर्वियस के लिए सबसे बड़ा खतरा टारक्विन के दो पुत्र राजकुमार लुसियस और आर्नियस थे। उन्होंने राजकुमारों को अपने खेमे में लेने के लिए अपनी बेटियों का विवाह उनसे करा दिया। इस तरह अपनी सूझ-बूझ से उन्होंने लगभग चार दशक तक राज किया। 

मगर राजकुमार लुसियस राजगद्दी को अपना पैतृक अधिकार समझते थे। इसके लिए वह किसी हद तक जा सकते थे।

उन्होंने अपनी पत्नी और भाई, दोनों की हत्या कर दी, और इस षडयंत्र में शामिल अपनी भाभी टुलिया से विवाह कर लिया। ध्यान रहे कि उनकी भाभी भी राजा सर्वियस की ही बेटी थी, लेकिन अब वह अपने पिता को मार कर रानी बनना चाहती थी।

राजमहल में घुस कर लुसियस सीधा राजगद्दी पर बैठ गये। जब राजा सर्वियस ने देखा तो भड़क कर पूछा, “यहाँ बैठने की तुम्हारी जुर्रत कैसे हुई?”

लुसियस उन्हें लात मार कर घसीटते हुए बाहर सड़क पर ले गए और कहा, “तुम दास हमारी जूती के बराबर हो! तुम्हारी यही जगह है। राजगद्दी पर बैठने का हक़ सिर्फ़ हम कुलीनों को है”

लुसियस के कुलीन मित्रों द्वारा राजा सर्वियस को रोम की सड़क पर पीट-पीट कर मार डाला गया। रानी टुलिया नए राजा के साथ एक बग्घी पर बैठ कर, अपने पिता के रक्तरंजित शव को रौंदते हुए गयी। लुसियस टारक्विन सुपरबस प्राचीन रोम (गणतंत्र से पूर्व) के पहले राजा थे, जो चुने नहीं गये और बलपूर्वक गद्दी पर बैठे। 

वही आखिरी राजा भी थे। 
(क्रमशः) 

प्रवीण झा
© Praveen Jha 

रोम का इतिहास (3)
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Friday, 22 April 2022

प्रवीण झा / रोम का इतिहास (3)

   चित्र: क्लोका मैक्सिमा (Cloaca Maxima)

नगर बना और बसा करते थे। चाहे पाटलिपुत्र हो या रोम। वे शून्य से शुरू होकर एक वैभवशाली नगर में तब्दील हुए।  मैं जब इन नगरों का नक्शा देख रहा था, तो एक पुरानी बात याद आयी।  

एक बार विश्वविद्यालय में एक अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन था, जिसमें विद्यार्थी ही मेज़बान बन गए थे। मेरे साथ ‘अर्बन प्लानिंग’ विभाग के कुछ लोग रुके। दो जर्मन, एक अमरीकी। उनसे मैंने कहा कि तुम लोग नगर के डॉक्टर हो, मेरे पास एक मरीज है, ठीक कर दोगे? उन्होंने हँस कर कहा कि हमारे सम्मेलन में चलो, वहाँ कई डॉक्टर हैं। मैं जब पहुँचा तो तमाम डिज़िटल मॉडल, अनाप-शनाप में मैं बोर हो गया। 

तभी एक अपरिचित भारतीय शोधार्थी वहाँ बोलने आयी। उनका पूरा वक्तव्य सिर्फ़ नगर के जल, नालियों और मल-निकास व्यवस्था पर था। बाद में जब हम एक बार में बैठे तो उन जर्मनों ने कहा कि यह विषय अनूठा था क्योंकि यूरोप में हम इस पर ध्यान नहीं देते। इसकी वजह यह है कि ये नालियाँ सदियों पहले बनायी गयी, और चल रही हैं।

यह कहानी इसलिए याद आयी क्योंकि मैं जिस नगर में पला-बढ़ा, वहाँ शायद ही कोई बरसात हो, जब हम पतलून घुटने तक मोड़ कर और एक ईंट से दूसरे ईंट पर कूदते हुए न चले हों। मगर इतिहास में ऐसा न था। सिंधु घाटी के समय से ही, जब नगर बसाए जाते, तो सबसे पहले नालियाँ ही बनायी जाती। रोम की शुरुआत भी ऐसे ही हुई। 

आज के रोम के नीचे ढाई हज़ार वर्ष पुरानी नालियों का एक जाल है। इसका नाम है- ‘क्लोका मैक्सिमा’, जिसे रोम के प्राचीनतम राजाओं में एक टारक्विन ने बनवाना शुरु किया। जिन प्राकृतिक बरसाती दलदल से पतली नालियाँ बह कर टाइबर नदी में गिरती थी, उनको गहरा और ईंट से पक्का बना कर ढक दिया गया। नगर उन नालियों के ऊपर बसा। वे इतनी अधिक हैं कि रोम के नगर निगम ने आज तक सभी नालियाँ देखी भी नहीं हैं।

यह काम सुचारु रूप से हो सके, इसके लिए रोमन राजा ने दो चीजें की। पहली यह कि उन्होंने इन नालियों को एक देवी का रूप दिया- ‘क्लोसिना’। मैं हाल में सोपान जोशी की पुस्तक ‘जल थल मल’ में जब उस देवी की मूर्ति देख रहा था, तो अचंभित हुआ कि मल की भी देवी! आज हम स्वच्छता के अभियान चलाते हुए मल-निकास के ‘ब्रांड एम्बेसडर’ चुनते ही हैं। राजा ने सोचा होगा कि मल की अगर देवी हो, तो कोई यूँ ही जहाँ-तहाँ नहीं फेंकेगा। बाद में कचरा सड़क पर फेंकने वालों पर जुर्माना और सजा भी मुकर्रर हुई। 

दूसरी चीज जो रोम ने की, वह अमानवीय था। उन्होंने अफ़्रीका से गुलाम पकड़ कर लाए, पड़ोस से युद्ध लड़ कर बंदी बनाए। उन्हें इन नालियों की खुदाई में लगा दिया। यह इतना भयानक परिश्रम था, कि कई उन सुरंगों में ही घुट कर मर गए। कई ने आत्महत्या कर ली। चाबुक से मार-मार कर यह विश्व-स्तरीय और टिकाऊ मल-निकास व्यवस्था तैयार हुई।

ऐसा नहीं कि भारत में यह व्यवस्था नहीं थी। बल्कि पाटलिपुत्र की खुदाई में बेहतरीन जल-निकास व्यवस्था के प्रमाण मिले। आज जिस जल-जमाव से पटना और आस-पास के इलाके जूझ रहे हैं, उसके सूत्र अगर इतिहास में ढूँढे तो मिल जाएँ। किस्मत रही तो एक पूरा नेटवर्क मिल जाएगा, जो गंगा नदी में जाकर मिल रहा होगा। एक बार शहर बसने के बाद सड़क खोद कर नालियाँ बनाना कठिन होता है, यह कार्य नगर-निर्माण से पूर्व ही संभव है। 

रोम के बसने के लगभग ढाई सौ वर्ष हुए थे, जब ये नालियाँ बननी शुरू हो रही थी। उसके बाद एक इंजीनियर दिमाग का युवा राजा गद्दी पर बैठा, जो रोम को एक आधुनिकतम नगर में तब्दील करने वाला था। आलीशान भवन, पक्की सड़कें, बेहतर जल-निकास। जूपिटर देव का एक भव्य मंदिर। 

उसने रोम में चमक-दमक तो लायी, लेकिन वह प्राचीन रोम का क्रूरतम राजा भी बना। संभव है कि इस नाली-निर्माण में गुलामों को पिटवाते हुए वह रक्तपिपासु बन गया हो। प्राचीन रोम के उस आखिरी राजा का नाम था- टारक्विनस सुपरबस ‘द प्राउड’ (घमंडी अर्थ में)

रोम का यह निर्माता इतना क्रूर था कि रोम वासियों ने यह प्रण ले लिया कि अब इस गद्दी पर कभी कोई राजा नहीं बैठेगा। उनके समक्ष प्रश्न यह था कि अगर राजा नहीं होगा, तो क्या होगा। हमारे समक्ष प्रश्न यह है कि इतने शक्तिशाली राजा को रोमवासियों ने हटाया कैसे। इतनी हिम्मत किसमें थी?

रोमन इतिहास में एक नाम बार-बार आएगा- ब्रूटस! 
(क्रमशः)

प्रवीण झा
© Praveen Jha 

रोम का इतिहास (2)
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#vss

Thursday, 21 April 2022

सुप्रीम कोर्ट में बुलडोजर पर याचिका / विजय शंकर सिंह

सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को दंगा प्रभावित जहांगीरपुरी इलाके में उत्तरी दिल्ली नगर निगम द्वारा शुरू किए गए विध्वंस अभियान के खिलाफ यथास्थिति के आदेश को अगले आदेश तक बढ़ा दिया।

जस्टिस एल नागेश्वर राव और बीआर गवई की पीठ ने जमीयत उलमा-ए-हिंद द्वारा दायर याचिका में एनडीएमसी को नोटिस जारी किया और 2 सप्ताह के भीतर इसका जवाबी हलफनामा मांगा।

पीठ ने सुनवाई के दौरान कहा, "महापौर को सूचना दिए जाने के बाद हुए विध्वंस को हम गंभीरता से लेंगे।"

पीठ ने जमीयत उलमा-ए-हिंद द्वारा विभिन्न राज्यों में अधिकारियों के खिलाफ दायर एक अन्य याचिका पर भारत संघ और मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और गुजरात राज्यों को नोटिस जारी किया, जिसमें अपराधों में आरोपी व्यक्तियों के घरों को ध्वस्त करने का सहारा लिया गया था।

याचिकाओं को दो सप्ताह के बाद फिर से सूचीबद्ध किया जाएगा।

कल, भारत के मुख्य न्यायाधीश के नेतृत्व वाली एक पीठ ने वरिष्ठ अधिवक्ता दुष्यंत दवे द्वारा तत्काल उल्लेख किए जाने के बाद अगले आदेश तक विध्वंस पर यथास्थिति का आदेश दिया था।

आज, वरिष्ठ अधिवक्ता दवे ने प्रस्तुत किया कि यह "राष्ट्रीय महत्व" से संबंधित मामला था।

न्यायमूर्ति राव ने पूछा कि क्या यह "राष्ट्रीय महत्व" का मामला है क्योंकि यह केवल दिल्ली के एक क्षेत्र तक ही सीमित है।  दवे ने कहा कि यह अब "राज्य की नीति" बन गई है कि हर दंगों के बाद, बुलडोजर का उपयोग करके समाज के एक विशेष वर्ग को निशाना बनाया जाता है।  "ऐसा कैसे है कि बुलडोजर राज्य की नीति का एक साधन बन गए हैं?", उन्होंने पूछा।

उन्होंने कहा, "यह मामला जहांगीरपुरी तक सीमित नहीं है। यह हमारे देश के सामाजिक ताने-बाने को प्रभावित करने वाला मामला है। अगर इसकी इजाजत दी गई तो कानून का राज नहीं बचेगा। यह कैसे भाजपा के अध्यक्ष ने नगर निगम को पत्र लिखा है।"  आयुक्त विध्वंस शुरू करने के लिए और वे उसके बाद ध्वस्त कर देते हैं? नगर निगम अधिनियम नोटिस, अपील की सेवा प्रदान करता है..ओल्गा टेलिस मामले को देखें, जहां सुप्रीम कोर्ट ने संरक्षित किया .. "

दवे ने कहा कि दिल्ली में एक कानून है जो कॉलोनियों को नियमित करता है।  "दिल्ली में लाखों लोगों के साथ 731 अनधिकृत कॉलोनियां हैं और आप एक कॉलोनी चुनते हैं क्योंकि आप 1 समुदाय को लक्षित करते हैं!"।

दवे ने पूछा, "हमारे घर 30 साल से ज्यादा पुराने हैं...हमारी दुकानें 30 साल से ज्यादा पुरानी हैं...हम लोकतंत्र में हैं और इसकी इजाजत कैसे दी जा सकती है।"

दवे ने दिल्ली नगर निगम अधिनियम की धारा 343 का हवाला देते हुए कहा कि व्यक्ति को सुनवाई का उचित अवसर दिए बिना विध्वंस का कोई भी आदेश पारित नहीं किया जा सकता है।

"उन्होंने घरों को ध्वस्त कर दिया है। किसे जवाबदेह ठहराया जाना चाहिए? ये गरीब लोग हैं। यदि आप अनधिकृत निर्माण के खिलाफ कार्रवाई करना चाहते हैं, तो आप सैनिक फार्म पर जाएं। गोल्फ लिंक पर जाएं जहां हर दूसरा घर अतिक्रमण है। आप नहीं चाहते हैं  उन्हें छूएं, लेकिन गरीब लोगों को निशाना बनाएं", दवे ने प्रस्तुत किया।

अतिक्रमण से जुड़े हैं मुसलमान : सिब्बल

जमीयत उलमा-ए-हिंद द्वारा अन्य राज्यों में आरोपियों के घरों को तोड़े जाने के खिलाफ दायर दूसरी याचिका में पेश हुए वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल ने दवे के बाद दलीलें दीं.

सिब्बल ने कहा, "अतिक्रमण पूरे भारत में एक गंभीर समस्या है, लेकिन मुद्दा यह है कि मुसलमानों को अतिक्रमण से जोड़ा जा रहा है।"

"कोई हिंदू संपत्ति प्रभावित नहीं हुई?", न्यायमूर्ति राव ने पूछा।

सिब्बल ने कहा, "कुछ अलग-अलग उदाहरण है। मेरी दलील है कि इस तरह की घटनाएं दूसरे राज्यों में भी हो रही हैं। जब जुलूस निकाले जाते हैं और मारपीट होती है, तो केवल एक समुदाय के घरों में बुलडोजर चलाया जाता है...",

सिब्बल ने कहा, "मध्य प्रदेश को देखें। जहां मंत्री कहते हैं कि अगर मुसलमान ऐसा करते हैं तो वे न्याय की उम्मीद नहीं कर सकते। यह कौन तय करता है? उसे वह शक्ति किसने दी?", सिब्बल ने कहा।

सिब्बल ने कहा, "मेरे पास ऐसी तस्वीरें हैं जहां एक समुदाय के लोगों को गेट से बांध दिया गया और उनके घरों को गिरा दिया गया। यह क्या प्रक्रिया है, जिससे कानून के शासन को दरकिनार करने का डर पैदा हो?"

सिब्बल ने अनुरोध किया कि मामले की सुनवाई होने तक इस तरह से विध्वंस को रोकने के लिए एक आदेश पारित किया जाए।  पीठ ने कहा कि वह अखिल भारतीय आधार पर विध्वंस के खिलाफ एक व्यापक आदेश पारित नहीं कर सकती है।

वृंदा करात की दलील

वृंदा करात की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता पीवी सुरेंद्रनाथ ने प्रस्तुत किया कि वह लगभग 10.45 बजे जहांगीरपुरी के ब्लॉक सी में पहुंचीं और अधिकारियों को सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बारे में बताया।  लेकिन दोपहर 12.25 बजे तक तोड़फोड़ जारी रही।

सुरेंद्रनाथ ने कहा, "उसे रोकने के लिए उसे शारीरिक रूप से बुलडोजर के सामने खड़ा होना पड़ा ... अगर वह वहां नहीं होती तो पूरा सी ब्लॉक ध्वस्त हो जाता।"

पीठ ने पूछा कि वास्तव में आदेश की सूचना कब दी गई।

दवे ने कहा, "महापौर ने खुद 11 बजे कहा कि एससी के आदेशों का पालन किया जाएगा। उन्होंने 12 के बाद भी इसका पालन किया।"

नोटिस दिए गए, मुसलमानों को निशाना नहीं बनाया : सॉलिसिटर जनरल का जवाब

उत्तरी दिल्ली नगर निगम की ओर से सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने प्रस्तुत किया कि निष्कासन अभियान जनवरी में शुरू हुआ था।

एसजी ने कहा, "जहां तक ​​दिल्ली का सवाल है..उन्होंने फुटपाथ और सार्वजनिक सड़कों पर जो पड़ा था उसे हटाने की कोशिश की, यह जनवरी में शुरू हुआ, फिर फरवरी 2022 और फिर अप्रैल में। इसे सड़कों को साफ करने के लिए शुरू किया गया था ...", एसजी ने कहा  .  उन्होंने कहा कि कई मामलों में फुटपाथों और सार्वजनिक सड़कों से अतिक्रमण हटाने के न्यायिक आदेश हैं.  लोगों को नोटिस दिया गया है।

एसजी ने कहा, "ऐसा तब होता है जब संगठन रिट याचिका दायर करते हैं..कोई भी प्रभावित व्यक्ति यहां नहीं है, क्योंकि उन्हें अपना ठिकाना दिखाना होगा।"

"कोई भी व्यक्ति नहीं आ रहा है क्योंकि उन्हें नोटिस दिखाना होगा और अचानक संगठन आ गए हैं", एसजी ने कहा।

एसजी ने उस दावे को भी खारिज कर दिया कि केवल मुसलमानों की संपत्तियों के खिलाफ कार्रवाई की गई थी।

एसजी ने कहा, "खरगोन विध्वंस में, 88 प्रभावित पक्ष हिंदू थे और 26 मुस्लिम थे। मुझे यह विभाजन करने के लिए खेद है, सरकार नहीं चाहती है। लेकिन मैं याचिकाकर्ताओं द्वारा ऐसा करने के लिए मजबूर हूं।"  उन्होंने कहा कि मध्य प्रदेश में 2021 और 2022 में पार्टियों को नोटिस दिए गए थे.

एसजी ने प्रस्तुत किया कि स्टालों, कुर्सियों आदि को हटाने के लिए नोटिस का कोई प्रावधान नहीं है।

न्यायमूर्ति गवई ने पूछा, "क्या स्टालों, कुर्सियों और सभी को हटाने के लिए बुलडोजर की आवश्यकता है?"

एसजी ने कहा कि भवनों के लिए नोटिस जारी किए गए थे।

गणेश गुप्ता की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता हेगड़े, जिनकी जहांगीरपुरी में जूस की दुकान को नष्ट कर दिया गया था, ने कहा कि कोई नोटिस जारी नहीं किया गया था।

न्यायमूर्ति राव ने कहा, "हम याचिकाकर्ताओं से नोटिस पर हलफनामा चाहते हैं और विध्वंस के विवरण पर जवाबी हलफनामे और तब तक यथास्थिति का आदेश जारी रहेगा।"

एसजी ने यह भी कहा कि श्री दवे की ओर से यह कहना गलत था कि विध्वंस दोपहर 2 बजे के बजाय सुबह 9 बजे शुरू हुआ जैसा कि नोटिस में कहा गया है क्योंकि अधिकारियों को पता था कि याचिका का उल्लेख अदालत में किया जाएगा।  एसजी ने कहा कि कल के लिए नोटिस सुबह 9 बजे और दोपहर 2 बजे का उल्लेख कल के एक दिन पहले के लिए था।

न्यायमूर्ति राव ने इस मौके पर कहा, "महापौर को सूचना दिए जाने के बाद हुए विध्वंस को हम गंभीरता से लेंगे।"

इस बिंदु पर सुनवाई समाप्त हो गई जब पीठ ने नोटिस जारी किया और मामले को दो सप्ताह बाद पोस्ट किया।  पीठ ने स्पष्ट किया कि यथास्थिति जहांगीरपुरी विध्वंस के संबंध में थी।

पीठ ने कहा, "रिट याचिकाओं में नोटिस जारी करें। अगले आदेश तक यथास्थिति बनाए रखी जाएगी। 2 सप्ताह के बाद सूचीबद्ध करें। तब तक दलीलें पूरी की जाएंगी।"

पीठ के आदेश के बाद सिब्बल ने दूसरी याचिका में विध्वंस पर रोक लगाने का दूसरा अनुरोध किया।  सिब्बल ने कहा, "इसका मतलब यह नहीं होना चाहिए कि दूसरे राज्यों में बुलडोजर होता है।"

न्यायमूर्ति राव ने पूछा, "आप हमारे संज्ञान में ला रहे हैं कि कुछ समय पहले क्या हुआ था और आपकी आशंका है कि क्या होगा। एक बार जब हमने एक मामले में आदेश पारित कर दिया, तब भी आपको लगता है कि कुछ होगा?"

विजय शंकर सिंह )

प्रवीण झा / रोम का इतिहास (2)

मैंने बार्सिलोना में सड़क किनारे बिकते मूर्ति देखी- एक काले भेड़िया का दूध पीते दो शिशु। पत्थर के बने दिखे और लकड़ी के बने भी। ये शिशु बाद में रोम के संस्थापक बने। उसे देख कर मेरे मन में प्रश्न उठा कि भेड़िया क्यों, बाघ या शेर क्यों नहीं? 

शायद इसलिए कि भेड़िये का ‘सर्वाइवल इंस्टिंक्ट’ बेहतर है। वह साम, दाम, दंड, भेद में निपुण है। आखिर जो कहानी रोम से शुरू हुई, वही तो यूरोप से लेकर अमेरिका तक पहुँची। ग्रीस खत्म हुआ, मिस्र खत्म हुआ, खत्म तो रोम भी हुआ लेकिन उसके बीज आज दुनिया पर अप्रत्यक्ष सत्ता रखते हैं। इसके लिए भेड़िया-बुद्धि चाहिए। 

अब मिथक पर ग़ौर किया जाए। यह कहानी आपने किसी और रूप में, भारतीय कथाओं में भी सुनी होगी। 

राजा नुमितोर के साथ छल कर के उनके भाई अमुलियस ने गद्दी हथिया ली। उस समय अविवाहित राजकुमारी रिया को स्वयं भगवान मार्स ने गर्भवती कर जुड़वाँ पुत्र दिये।

जब राजा को पता लगा कि उनके काल बन कर उनके भाँजे जन्म ले चुके हैं, तो उन्हें मारने के लिए अपने सिपाही भेजे। उन जुड़वाँ शिशुओं को एक टोकरी में डाल कर टाइबेरिया नदी में बहा दिया गया। उस नदी के देव ने उनकी रक्षा की, और एक गुफा में छोड़ दिया। वहाँ एक मादा भेड़िया ने उन्हें दूध पिला कर जीवित रखा। 

उसके बाद फॉस्तोलस नामक एक गड़ेड़िए ने उन्हें अपने पुत्र की तरह पाला। वे दोनों भाई रोम्युलस और रेमस भेड़ चराते हुए बड़े हुए। 

यह कथा आपने कहाँ सुनी है? राजा, भाँजे, नदी में टोकरी बहाना, किसी पशुपालक द्वारा पाला जाना और उसके बाद समुद्र तट पर नगर बसाना!

उस समय पूरी दुनिया एक जैसी थी। सभी मूर्तिपूजक थे। सभी के लगभग एक जैसे ही भगवान थे, एक जैसी कथाएँ। वृष्टि के देव, समुद्र के देव, वायु के देव, अग्नि के देव, युद्ध और विनाश के देव, प्रजनन की देवी। आज के इटली और ग्रीस में दूध, चावल आदि लेकर पूजा करते हुए बलि चढ़ाए जाते। तंत्र-मंत्र होते। हर युद्ध से पहले पूजा की जाती। इन सबके लिए मिथकों, पर्वों और व्यवहारों का एक पूरा ताना-बाना था।

आज की इटली, जो किसी उंगली की तरह यूरोप के मानचित्र से निकली हुई है, वहाँ कुछ लातिन (लैटिन) मूल के, कुछ ग्रीक मूल के, और कुछ एत्रुस्कान मूल के लोग रहते थे। सभी की भाषा-संस्कृति कुछ अलग थी, लेकिन वे साथ ही खेती-बाड़ी और व्यापार कर जीवन-यापन करते। यह बताने की ज़रूरत नहीं कि ग्रीस, उत्तरी अफ्रीका, या भारत की अपेक्षा वे गरीब थे। उनके घर मिट्टी के बने होते, जिस पर फूस की छत होती। उस समय तो किसी को अंदेशा भी नहीं था कि ये रोमन कहलाएँगे, और महाशक्ति में तब्दील होंगे। 

खैर, आगे कथा यह है कि रोम्युलस और रेमस ने स्थान चुना जहाँ वह नगर बसाएँगे। लेकिन, दोनों ने जो पहाड़ियाँ चुनी, वह भिन्न थी। उन्होंने आकाश में देखते हुए ईश्वर से कहा कि अपना निर्णय दें। 

पहले रेमस की पहाड़ी के ऊपर छह गिद्ध मंडराए, तो उन्होंने विजयी मुस्कान देकर कहा कि निर्णय उनके पक्ष में है। तभी रोम्युलस की पहाड़ी के ऊपर बारह गिद्ध मंडराने लगे, और पासा पलट गया। अंतत: दोनों में लड़ाई हुई, और रोम्युलस ने अपने जुड़वाँ भाई रेमस को मार डाला।

भेड़िये का दूध पीकर अपने भाई के रक्त से सींच कर रोम्युलस ने रोम की स्थापना की। मिथक अभी खत्म नहीं हुआ।

इस नए नगर रोम में समस्या थी कि इसमें सिर्फ़ पुरुष ही थे, स्त्रियाँ नहीं थी। रोम्युलस ने इसकी एक तरकीब निकाली। उन्होंने उत्तर की पहाड़ियों में बसे सबाइन मूल के लोगों के लिए पार्टी आयोजित की। उनको खूब खिलाया-पिलाया, नृत्य किए; उसके बाद उनकी जितनी भी स्त्रियाँ थी, सबको बंदी बना लिया। मिथक के अनुसार रोम का वंश इन बलात्कारों से जन्मे शिशुओं से बढ़ा।

मुझे लगा कि ऐसी कथाओं को यूरोपीय कहीं छुपा कर रख देंगे, या लीपा-पोती कर देंगे। कह देंगे कि एक बकवास मिथक है। मगर वे वाइन पीते हुए मुस्काते हुए कहते हैं- ‘एक विश्व-शक्ति बनने के लिए तो रोम को यह करना ही था’। 
(क्रमशः)

प्रवीण झा
© Praveen Jha

रोम का इतिहास (1)
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Wednesday, 20 April 2022

राजेंद्र प्रसाद सिंह / जापान में राहुल की मूर्ति

जापान के उजी शहर में एक ज़ेन बौद्धों का मंदिर है। इस मंदिर में बुद्ध के पुत्र राहुल की मूर्ति है। मूर्ति वहीं की है।

जापान में राहुल को RAGORA कहा जाता है, जिसका उच्चारण जापानी भाषा में राहोरा किया जाता है। जो भारत में राहुल हैं, वही जापान में राहोरा हैं।

लेकिन जापान के ज़ेन बुद्धिज्म में राहुल को RAGORA SONJA कहा जाता है। SONJA का मतलब बौद्ध अरहंत होता है। SONJA का उच्चारण जापानी में सोन्या होता है, जो शून्यता के निकट है। शून्यता ज़ेन बुद्धिज्म का दर्शन है।

जापान के ज़ेन बुद्धिज्म में राहुल को 16 अरहंतों में से एक माना जाता है। राहुल बुद्ध के पुत्र भी थे, अनुयायी भी थे और अरहंत भी थे।

राहुल की यह मूर्ति प्रतीकात्मक रूप से उनके बुद्ध - प्रेम को दर्शाती है। राहुल के बुद्ध कहीं और नहीं बल्कि उनके हृदय में बसते हैं।

भारत के बुद्धिज्म में जो झान ( ध्यान ) है, वही चीन में चान है, वही कोरिया में सानजान है, वही वियतनाम में थियेन है और वही जापान में ज़ेन है।

राजेंद्र प्रसाद सिंह
(Rajendra prasad singh)
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Tuesday, 19 April 2022

प्रवीण झा / रोम का इतिहास (1)


भूमध्य सागर के बीचों-बीच पाल्मा नामक द्वीप पर क्षितिज निहारते हुए मैं सोच रहा था कि एक तरफ़ यूरोप है, दूसरी तरफ़ अफ़्रीका। कौन अधिक समृद्ध है? आज का सच तो हम जानते हैं, ढाई हज़ार वर्ष पूर्व उत्तरी अफ़्रीका का पलड़ा भारी था। 
ई. पू. 146, कार्थेज (वर्तमान ट्यूनिशिया, उत्तरी अफ़्रीका) 

जब रोम के रईस समुद्र के दूसरी ओर कार्थेज (वर्तमान ट्यूनिशिया) का वैभव देखते, उनकी आँखें चौंधिया जाती। मोतियों की माला पहने व्यापारी। सोने के गहने पहने स्त्रियाँ। ऊँचे पक्के मकान। चौड़ी सड़कें। दो युद्धों के बाद भी यह नगर पूरी तरह रोम के हाथ नहीं लगा था। 

आखिर एक कनिष्ठ रोमन कमांडर टाइबेरियस यह किला भेदने में सफल हुए। रोम ने अपनी ईर्ष्या को बुझाने के लिए उस पूरे नगर को नेस्तनाबूद कर दिया। एक ऐतिहासिक संस्कृति हमेशा के लिए खत्म हो गयी। कार्थेज खून से सन गया और इस तरह भूमध्य सागर के दोनों किनारों पर रोम का कब्जा हो गया।

भूमध्य सागर से बात शुरू हुई तो कहानी भी रोमन इतिहास के मध्य से शुरू हो गयी। इसका एक ठोस कारण भी है। पहले मैं कार्थेज के नायक टाइबेरियस के लोकनायक बनने की कहानी कहने जा रहा हूँ।

उन दिनों रोम में अगड़ा या कुलीन वर्ग (patrician) के पास शक्ति और संपत्ति केंद्रित थी। एक बड़ा सर्वहारा वर्ग (plebeian) रोम के वैभव से कोसों दूर था। तमाम सैनिक सर्वहारा वर्ग से ही थे, जो अन्यथा सामंतों की ज़मीन पर खेती-बाड़ी करते।

टाइबेरियस इसी सर्वहारा वर्ग से थे। वह युद्धों में सैनिकों की स्थिति और रोमन साम्राज्य की गरीबी देख कर चिंतित थे। लेकिन एक सेना के कमांडर के हाथ में ऐसी चीजें थी नहीं।उन्होंने चुनाव लड़ने का फ़ैसला लिया, और गाँव-गाँव जाकर कहा कि वह ज़मींदारी खत्म कर देंगे। वह भारी मतों से ‘ट्रिब्यून’ (सर्वहारा प्रतिनिधि) चुन लिए गए। संसद पहुँचते ही उन्होंने ज़मींदारी समाप्ति का प्रस्ताव रख दिया।

उन्होंने कहा, “एक पशु के पास भी रहने के लिए गुफा होती है, लेकिन आज रोम के गरीबों के सर पर छत नहीं है। अपनी ज़मीन नहीं है। और यहाँ इस संसद में बैठे लोग वैभव से जी रहे हैं। क्या हम अपने जमीन का हिस्सा गरीबों को नहीं दे सकते?”

कुलीन वर्ग को यह प्रस्ताव तनिक भी नहीं भाया। संसद द्वारा टाइबेरियस पर अभियोग लगाया गया कि वह सर्वहारा के समर्थन से एक तानाशाह राजा बनना चाहता है। उनका कहना था कि उसके कारण गणतंत्र खतरे में है।

टाइबेरियस और उनके तीन सौ सहयोगियों को पकड़ कर, पीट-पीट कर मार डाला गया। 

उनके छोटे भाई गेयस अगला चुनाव जीत कर आए। उन्होंने टाइबेरियस के प्रस्ताव को अधिक क्रांतिकारी अंदाज़ में आगे रखा। उन्हें मारने के लिए भी कुलीन वर्ग के लोगों ने अपने गुर्गे भेज दिये। उनके पहुँचने से पहले उन्होंने आत्महत्या कर ली। ज़मींदारी कायम रही। 

टाइबेरियस सेंपोनियस ग्रैकस संभवत: यूरोप या दुनिया के पहले समाजवादी कहलाते, मगर उस समय समाजवाद और मार्क्सवाद जैसे भारी-भरकम नाम उपजे ही नहीं थे।

प्रश्न तो यह है कि एक सामंतवादी समाज में भला राजा से समस्या क्या थी? इतनी समस्या कि कोई राजा न बन जाए, इस कारण उसे पीट-पीट कर मार डाला गया। रोम के साथ ऐसा क्या हुआ था कि उसने राजतंत्र के बजाय गणतंत्र बनना चुना? 

इस प्रश्न के उत्तर के लिए अब कहानी के मध्य से निकल कर वहीं लौटना होगा, जहाँ से कहानियाँ शुरू होती हैं। ग्राउंड ज़ीरो से। रोम कब बना? 

ई. पू. 753 में रोम की स्थापना युद्ध के देवता मार्स के जुड़वाँ पुत्र रोम्युलस और रेमस ने की, जिनका पालन-पोषण एक मादा भेड़िया ने अपना दूध पिला कर किया था। ऐसे बेतुके मिथक से मैं यह कहानी कैसे शुरू करता?
(क्रमशः)

प्रवीण झा
© Praveen Jha 

रोम का इतिहास - भूमिका
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विधिक शासन के ध्वस्त हो जाने का प्रतीक है, बुलडोजर / विजय शंकर सिंह

लम्बे समय से देश के क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम या आपराधिक न्याय प्रणाली की विफलता, खामियों और जन अपेक्षाओं के अनुरूप उसे लागू न करने को लेकर सवाल उठते रहे हैं और यह सवाल जनता और, भुक्तभोगी ही नही बल्कि वे भी उठाते रहे हैं जो, इस तंत्र के प्रमुख अंग हैं। जैसे, जज, बड़े पुलिस अफसर और विधायिकाओं में बैठे कानून गढ़ने वाले महानुभाव। क्या यह हैरानी की बात नही लगती कि, जिन्हें इस तंत्र को संचालित करने का अधिकार प्राप्त है, वे ही इस तंत्र की विफलता का स्यापा कर रहे हैं ? पर यहीं यह सवाल उठता है कि, आखिर ऐसी स्थिति आई कैसे और क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम के संचालक उसे ठीक से संचालित क्यों नही कर सकें ? एक बात तो तय है कि जब न्याय दिलाने के कानूनी रास्ते लम्बे, महंगे, समयसाध्य और जटिल हो जाते हैं तो, त्वरित न्याय दिलाने वाले विधिविरुद्ध समूह की ओर लोग अनायास ही मुड़ने लगते हैं। क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम की विफलता न केवल माफिया गिरोहों को पनपने के लिये एक अवसर प्रदान करती हैं बल्कि वह पुलिस को भी विधिविरुद्ध दिशा में जाने की ओर प्रेरित करती है और तब जो गैरकानूनी रूप से एक नया न्याय प्रदाता तंत्र या जस्टिस डिलीवरी सिस्टम विकसित होता है वह अपराध को एक प्रकार से मान्यता देकर उसे संस्थाकृत ही करता है। यह कानून के राज के लिये न केवल घातक है बल्कि लोगो के मन मे कानून के प्रति एक गहरा उपेक्षा भाव भर देता है। कानून के प्रति अवज्ञा या उपेक्षा का यह भाव कानून लागू करने वाली मशीनरी को धीरे धीरे अप्रासंगिक कर देता है। 

हाल के ही उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में एक अजीबोगरीब मुद्दा उठ गया था बुलडोजर का। यह मुद्दा उठाया था, भारतीय जनता पार्टी ने और उनके अनुसार, यह मुद्दा यानी बुलडोजर, प्रतीक बन गया है गवर्नेंस का, यानी शासन करने की कला के नए उपकरण का। अब कानून, संसद द्वारा पारित कानूनी प्राविधानों और अदालती प्रक्रिया के द्वारा नहीं बल्कि ठोक दो, तोड़ दो, फोड़ दो, के प्रतीक, बुलडोजर से लागू किये जायेंगे। बुलडोजर, मूलतः ध्वस्त करने वाली एक बड़ी मशीन है जो तोड़फोड़ करती है। दरअसल भाजपा के राज में कानून व्यवस्था बनाये रखने के लिये जिस आक्रामक नीति की घोषणा 2017 में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के द्वारा की गयी थी, वह थी ठोंक दो नीति। यह अपराधियों और कानून व्यवस्था को बिगाड़ने वालों के प्रति अपनाई जाने वाली एक आक्रामक नीति है, जो लोगों में लोकप्रिय और सरकार की छवि को एक सख्त प्रशासक के रूप में दिखाने के लिये लाई गई थी। ठोंक दो की नीति, हालांकि इस नीति का कोई कानूनी आधार नहीं है और न ही कानून में ऐसे किसी कदम का प्राविधान है, के लागू करने से, अपराधियों पर इसका असर भी पड़ा और जनता ने इसकी सराहना भी की। 

कुछ हद तक यह बात सही भी है कि, इस आक्रामक ठोंक दो नीति के अनुसार, भू माफिया और संगठित आपराधिक गिरोह के लोगों के खिलाफ कार्यवाही करने से, न केवल कुछ संगठित आपराधिक गिरोहों का मनोबल गिरा बल्कि जनता को भी उनके आतंक से कुछ हद तक राहत मिली। पर इसी नीति और बुलडोजर पर पक्षपात के आरोप भी लगें। एक धर्म विशेष के माफिया सरगनाओं के खिलाफ जानबूझकर कार्यवाही करने के तो, एक जाति विशेष के कुछ माफियाओं पर कार्यवाही न करने के आरोप भी सरकार पर लगें। कार्यवाही का आधार, प्रतिशोध है, यह भी आरोपों में कहा गया और अब भी कहा जा रहा है। यहीं यह  सवाल भी उठता है कि, क्या कानून व्यवस्था को लागू और अपराध नियंत्रण करने के लिये, कानूनी प्राविधानों को बाईपास कर के ऐसे रास्तो को अपनाया जा सकता है, जो कानून की नज़र में खुद ही अपराध हो ? 

यह सवाल, उन सबके मन मे उठता है जो कानून के राज के पक्षधर हैं और समाज मे अमन चैन, कानूनी रास्ते से ही बनाये रखना चाहते हैं। इसलिए विधिनुरूप शासन व्यवस्था में रहने के इच्छुक अधिकांश लोग, चाहे बुलडोजर हो या ठोंक दो की नीति के अंतर्गत की जाने वाली इनकाउंटर की कार्यवाहियां, इन्हें लेकर अक्सर पुलिस पर सवाल उठाते रहे हैं और ऐसे एनकाउंटर्स की, सरकार जो खुद भी, भले ही ठोंक दो नीति की समर्थक और प्रतिपादक हो, न केवल जांच कराती है बल्कि दोषी पाए जाने पर दंडित करने के लिए मुक़दमे भी चलाती रहती है। 

एमनेस्टी इंटरनेशनल से लेकर जिले स्तर तक गठित सरकारी और गैर सरकारी, मानवाधिकार संगठन इस बात पर सतर्क निगाह रखते हैं कि, कहीं सरकार की जबर नीति के कारण, व्यक्ति को प्राप्त, उसके संवैधानिक और नागरिक अधिकारों का हनन तो नहीं हो रहा है। फिर बुलडोजर और ठोक दो नीति की बात करने वालो के निशाने पर, पुलिस और कानून लागू करने वाली एजेंसियों के वे अफसर ही रहते हैं जो सरकार की इन्ही नीतियों के अंतर्गत कानून और कानूनी प्रक्रियाओं को दरकिनार कर के, कानून व्यवस्था बनाये रखने के लिये, कानून को बाईपास करके, खुद ही एक गैर कानूनी रास्ता चुनते हैं, जिसे कानून अपने प्राविधानों में, अपराध की संज्ञा देता है। 

अब कुछ आंकड़ों की बात करते हैं। मानवाधिकार संगठनों की माने तो, उत्तर प्रदेश, पिछले कुछ वर्षों से न्यायेतर हत्याओं यानी एक्स्ट्रा ज्यूडिशियल किलिंग यानी बुलडोजर या ठोंक दो की नीति की एक प्रयोगशाला जैसा रहा है। 2017 के मार्च के बाद से, जब से भारतीय जनता पार्टी राज्य में सत्ता में आई है तब से, एक्स्ट्रा ज्यूडिशियल हत्याओं की संख्या में वृद्धि हुई है। एक आंकड़े के अनुसार, 2017 से बाद, 2020 तक के कालखंड में, यूपी पुलिस ने कम से कम 3,302 कथित अपराधियों को गोली मारकर घायल किया है। मानवाधिकार आयोगों की रिपोर्ट के अनुसार, पुलिस फायरिंग की घटनाओं में मरने वालों की संख्या 146 है। यूपी पुलिस का दावा है कि ये 146 मौतें जवाबी फायरिंग के दौरान हुईं और सशस्त्र अपराधियों के खिलाफ आत्मरक्षा में की गयी हैं। लेकिन नागरिक संगठनों ने इन हत्याओं पर सवाल उठाए और आरोप लगाया कि ये सुनियोजित हैं और जानबूझकर कर की गयी, न्यायेतर हत्याएं हैं।
 
यह तो आंकड़े हैं पर बुलडोजर के यूपी मॉडल की नकल अभी हाल ही में मध्यप्रदेश के खरगौन में की गयी है। रामनवमी पर खरगौन में एक शोभायात्रा निकाली गई और वह शोभायात्रा जब मुस्लिम इलाके से निकल रही थी तो कहते है कि उस पर पथराव हुआ और फिर साम्प्रदायिक दंगे की स्थिति उत्पन्न हो गयी। पथराव करने वाले कुछ घरों को वहां के प्रशासन ने चिह्नित किया और फिर उनके घरों को बुलडोज़र से गिरा दिया। यहीं यह कानूनी सवाल उठता है कि, यदि वे पथराव के दोषी भी थे तो क्या उनका घर गिरा दिया जाना विधिसम्मत है ? कानून के अनुसार उनके खिलाफ अभियोग पंजीकृत कर के उन्हे अदालत मे ले जाना चाहिए था और न्यायालय जो दंड देता वह मान्य था। प्रशासन यहां शिकायतकर्ता भी है, जांचकर्ता भी, अभियोजक भी है और न्यायाधीश भी। यह एक मध्यकालीन राजतंत्रीय आपराधिक न्याय प्रणाली की ओर लौटना हुआ, न कि एक सभ्य, प्रगतिशील और विधि द्वारा स्थापित क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम के अनुसार न्याय की आकांक्षा करना। 

मध्यप्रदेश के खरगौन मामले में मुंबई के एक आईटीआई एक्टिविस्ट, साकेत गोखले ने जिला मैजिस्ट्रेट खरगौन को एक कानूनी नोटिस भेज कर यह जानकारी चाही कि 'खरगौन में जिन व्यक्तियों के घर बुलडोजर से गिराए गए वे किस कानून के अन्तर्गत गिराए गए हैं।' क्योंकि, ऐसा कोई कानून नहीं है जो सरकार को न्यायपालिका की भूमिका में आने और उसे यह अधिकार देता हो, कि वह खुद ही किसी को दोषी ठहरा दे और उसे दंडित कर उसका घर गिरा दे। साकेत की नोटिस में यह भी कहा गया था कि, 'यदि विधिक प्रविधानो के अनुसार, 24 घंटे के भीतर जिला मैजिस्ट्रेट कोई जवाब नहीं देते हैं तो इस विंदु पर, मध्यप्रदेश हाईकोर्ट में याचिका दायर की जायेगी।'

साकेत की नोटिस और आरटीआई के जवाब में जो कहा गया, उसे पढ़िए। जवाब के अनुसार, 
"जिला मजिस्ट्रेट खरगोन ने मुझे (साकेत गोखले को) एक आरटीआई जवाब में बताया है कि, उनके कार्यालय द्वारा कोई  ध्वस्तीकरण आदेश जारी नहीं किया गया था। डीएम का यह भी दावा है कि ध्वस्तीकरण अभियान केवल "अनधिकृत अतिक्रमण" के लिए था, जो कि सच नहीं है। सच तो यह है कि, खरगोन में घरों को भूमि राजस्व अधिनियम, 1959 के तहत ध्वस्त किया गया है।"
यहीं यह सवाल उठता है कि, प्रशासनिक व्यवस्था में, जिलाधिकारी, भू-राजस्व मामलों के प्रभारी अधिकारी होते हैं। यदि, डीएम ने यह आदेश जारी नहीं किये हैं तो फिर यह आदेश किसने जारी किया है ?
एमपी के गृह मंत्री नरोत्तम मिश्रा ने दावा किया था कि कथित "पत्थरबाजी के आरोपियों" के घरों को ध्वस्त कर दिया गया है। अब डीएम, इस पर यू-टर्न ले रहे हैं और यह कहते हैं कि केवल "अनधिकृत घरों" को तोड़ा गया। लेकिन डीएम का यह भी दावा है कि जिला प्रशासन की ओर से कोई आधिकारिक आदेश जारी नहीं किया गया था। एक तरफ तो डीएम का यह कहना कि अनधिकृत घरों को ही तोड़ा गया है और दूसरी तरफ यह कह देना कि, उनका ऐसा कोई आदेश नहीं था। मुस्लिम घरों का यह ध्वस्तीकरण, स्पष्ट रूप से अवैध और कानून के प्रविधानों के विपरीत किया गया कार्य था और सरकार अब, आलोचना और कानूनी रूप से घिरने के बाद तरह तरह के बहाने बना रही है।

यदि बुलडोजर से घर गिराने का कोई वैधानिक और लिखित आदेश किसी सक्षम प्राधिकारी द्वारा नहीं दिया गया था तो फिर खरगौन में इतने मकान टूटे कैसे और राज्य के गृहमंत्री नरोत्तम मिश्र ने कैसे कथित बलवाइयों के खिलाफ तुरन्त कार्यवाही करने की बात कैसे कह दी ? मैं सिस्टम में रहा हूँ और सिस्टम जब राजनीतिक गुणा भाग और द्वेष से प्रेरित ऊपर के आदेश, जो अधिकतर राजनीतिक आकाओं के लिये एक सामान्य शब्द है, को लागू करवाता है तो ऐसे आदेश किसी कागज़ या फाइल पर नहीं बल्कि ज़ुबानी दिए जाते हैं। ऊपर से लेकर नीचे तक हर अफ़सर यह जानता है कि, यह आदेश अवैध है पर वह उन्हें किसी भी वैध आदेश की तुलना में अधिक गम्भीरता और मनोयोग से लागू करता है और आदेश के अनुपालन के बारे में तुरन्त सूचित भी करता है। आदेश पालन की यह तीव्र गति उसे ऊपर की नज़रों में कुछ विशिष्ट तो ज़रूर बना देती है, पर इससे कानून और विधि के शासन का जो नुकसान होता है, वह सिस्टम के लिये बेहद खतरनाक होता है। 

अब इसी मामले में देख लें कि जिलाधिकारी को मुंह चुराना पड़ रहा है और कहना पड़ रहा है कि उन्होंने ऐसा कोई आदेश नहीं दिया था। यदि हाईकोर्ट में कोई याचिका दायर होती है तो निश्चय ही जानिये कि इस मामले की जांच जिलाधिकारी ही करेंगे और कोई छोटा अफसर ही दंडित होगा या फंसेगा, जिसका इस मामले में, सिवाय एक आदेश के, पालन के और कोई भूमिका नहीं है। यह भी खबर है कि सुप्रीम कोर्ट में इस आशय की एक जनहित याचिका भी दायर की गयी है और अब यह देखना है कि सुप्रीम कोर्ट उस जनहित याचिका पर क्या रुख़ अख्तियार करता है। बुलडोज़र के बारे में यह तर्क अक्सर दिया जाता है कि पुलिस की जांच गति और अदालतों में ट्रायल इतना धीमा है कि न्याय का कोई अर्थ ही नहीं रह जाता है। यह तर्क गलत है भी नहीं। पर यदि क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम में कोई खराबी है तो उसकी पहचान कर के उसे दूर किया जाना चाहिए न कि एक समानांतर विधिविरुद्ध सिस्टम को ही स्थापित कर दिया जाय। समय समय पर कानून और सिस्टम का परीक्षण करने के लिये केंद्र और राज्य के विधि आयोग गठित होते है और नए कानून बनाये भी जाते हैं। पर यह सब समयसाध्य होता है जिसमे राजनीतिक आक़ाओं की न तो कोई रुचि होती है और न ही वे इस 'पचड़े' में पड़ना चाहते है।

सच तो यह है कि, बुलडोजर, कानून का प्रतीक नहीं है। यह विधिक शासन के ध्वस्त हो जाने और सिस्टम की विफलता से उपजे फ्रस्ट्रेशन का प्रतीक है। सरकार, विधिसम्मत राज्य की स्थापना के लिये गठित तंत्र है, न कि आतंकित कर, राज करने के लिये बनी हुयी कोई व्यवस्था। कानून की स्थापना, कानूनी तरीके से ही होनी चाहिए न कि डरा धमका कर, भय दिखा कर। वह कानून का नहीं, फिर डर का शासन होगा जो एक सभ्य समाज की अवधारणा के सर्वथा विपरीत है। बुलडोजर का भी गवर्नेंस में प्रयोग हो सकता है, और होता भी है। पर वह भी किसी न किसी कानूनी प्रक्रिया के अंतर्गत पारित न्यायिक आदेश के पालन के रूप में, न कि, एक्जीक्यूटिव के किसी, मंत्री या अफसर की सनक और ज़िद से उपजे मध्यकालीन शाही फरमान के रूप में। यदि कानून और निर्धारित विधिक प्रक्रियाओं को दरकिनार कर के बुलडोजर ब्रांड 'न्याय' की परंपरा डाली गयी तो, यह एक प्रकार से, राज्य प्रायोजित अराजकता ही होगी।

अराजकता, यानी ऐसा राज्य जिंसमे राज्य व्यवस्था पंगु हो जाय, केवल जनता के द्वारा ही नहीं फैलाई जाती है, ऐसा वातावरण, राज्य द्वारा प्रायोजित भी हो सकते हैं। ऐसे राज्य जो पुलिस स्टेट कहा गया है जहां शासन पुलिस या सेना के बल पर टिका होता है, न कि किसी तार्किक न्याय व्यवस्था पर। ऐसी कोशिश, कभी कभी राज्य द्वारा सायास की जाती है, तो यह कभी अनायास भी हो जाता है। राज्य का मूल कर्तव्य और दायित्व है, जनता को निर्भीक रखना। उसे भयमुक्त रखना। अभयदान राज्य का प्रथम कर्तव्य है, इसीलिए इसे सबसे प्रमुख दान माना गया है। राज्य इस अभयदान के लिये एक कानूनी तंत्र विकसित करता है, जो विधायिका द्वारा पारित कानूनो पर आधारित होता है। इसमे पुलिस, मैजिस्ट्रेसी, ज्यूडिशियरी आदि विभिन्न अमले होते है। इसे, समवेत रूप से, क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम के नाम से जाना जाता है। यह सिस्टम, एक कानून के अंतर्गत काम करता है और अपराध तथा दंड को सुनिश्चित करने के लिये, एक विधिक प्रक्रिया अपनाता है। 

क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम को भी यदि निर्धारित कानूनी प्रक्रिया के अनुसार, लागू नही किया जाता है तो इसका दोष सम्बंधित अधिकारी पर आता है और उसके खिलाफ कार्यवाही कर दंडित करने की भी प्रक्रिया, कानून में हैं, जिसका पालन किया जाता है। कहने का आशय यह है कि, कानून को कानूनी तरह से ही लागू किया जाना चाहिये। यदि कानून, कानूनी प्राविधान को दरकिनार कर के, मनमर्जी से लागू किया जाएगा तो, उसका सबसे बड़ा दुष्परिणाम यह होगा कि सिस्टम, विधि केंद्रित न होकर व्यक्ति केंद्रित हो जाएगा, और यदि उसे लागू करने वाला व्यक्ति अयोग्य, सनकी और जिद्दी रहा तो राज्य एक अराजक समाज मे बदल जाएगा। यदि कानून को लागू करने वाले सिस्टम में कोई खामी है तो, उसका समाधान किया जाना चाहिए, नए कानून बनाये जा सकते हैं, पुराने कानून रद्द किए जा सकते हैं और विधायिकाएं ऐसा करती भी हैं। पर कानून का विकल्प, बुलडोजर या सनक या ज़िद कदापि नही हो सकता है, इससे अराजकता ही बढ़ेगी।

© विजय शंकर सिंह