Wednesday 14 September 2022

कमलाकांत त्रिपाठी / फ़ासीवाद और नाज़ीवाद का उदय: ऐतिहासिक परिस्थितियाँ (5)

जर्मन ज़मीन और हिटलर का उत्थान—कम्यूनिस्ट पार्टी, चांसलर हिटलर और देशभक्त राष्ट्रपति हिंडेनबर्ग ~

1928 के संसद के चुनावों में नाज़ी पार्टी को केवल 12 सीटें मिली थीं और उस साल के अंत तक उसकी सदस्य-संख्या महज़ 1,30,000 थी. 1929 में साम्यवादियों ने हिटलर के एक भाषण में बाधा उत्पन्नकर उसे बंद करा दिया. प्रतिक्रिया में एस ए के एक दस्ते ने साम्यवादी दल की बैठक में उत्पात मचाया और दल के बर्लिन हेडक़्वार्टर पर धावा बोल दिया. हॉर्स्ट वेसेल एक नाज़ी कार्यकर्ता था जिसने दल के लिए उद्बोधन-गीत लिखा था. 14 जनवरी, 1930 को वेसेल और उसकी साम्यवादी मकान-मालकिन के बीच कुछ कहासुनी हुई. मकान मालकिन ने दो साम्यवादी मित्रों को बुला लिया. उनमें से एक अल्बर्ट हॉचटर ने वेसेल को सामने से गोली मार दी. हिटलर के प्रचार-सहयोगी गोबेल्स ने इस घातक हमले का नाज़ी पार्टी के पक्ष में जमकर इस्तेमाल किया। वेसेल के अस्पताल में जीवित रहने के दौरान और मृत्यु के बाद उसकी शवयात्रा में उसके लिखे उद्बोधन-गीत के माध्यम से साम्यवाद के विरुद्ध आक्रामक प्रचार किया गया और नाज़ी पार्टी के लिए ख़ूब सहानुभूति बटोरी गई.

इस पृष्ठभूमि में सितम्बर,1930 में होनेवाले चुनावों में नाज़ी पार्टी को जर्मन संसद में पहली बार 107 सीटें (कुल सदस्य-संख्या 600 के ऊपर थी) मिल गईं और वह संसद में दूसरे नंबर की पार्टी बन गई. उल्लेखनीय यह है कि इस चुनाव में कम्यूनिस्टों और नाज़ियों ने मिलकर कुल 40% सीटों पर क़ब्ज़ा कर लिया था और नरमपंथी दलों को सत्ता में आने के लिए इन दोनों जनतंत्र-विरोधी दलों में से किसी एक से हाथ मिलाना अनिवार्य हो गया था. किंतु इंटरनेशनल के इशारे पर कम्यूनिस्टों ने घोषणा कर दी कि वे (श्रमिकों पर वर्चस्व क़ायम करने में पुराने प्रतिद्वंद्वी रहे) जनतांत्रिक समाजवादियों के साथ सहयोग नहीं करेंगे और, भले ही नाज़ी सत्ता में आ जाएँ, गणतंत्र को बचाने के लिए उँगली तक नहीं उठाएँगे. मास्को ने जनतांत्रिक समाजवादियों के ख़ात्मे को कम्यूनिस्टों की पहली प्राथमिकता निश्चित कर दिया था. इन परिस्थितियों में कैथलिक सेंटर पार्टी के हेनरिच ब्रूनिंग जनतांत्रिक समाजवादियों के सहयोग से ऐसे चांसलर बने जो संसद के बजाए राष्ट्रपति तथा सेना की मदद से अल्पमत की सरकार चला रहा थे. सड़कों और गलियों में कम्यूनिस्ट और नाज़ी दस्ते हिंसक झड़पों में मशग़ूल थे. 1931 के अंत तक एस ए दस्तों के 47 और कम्यूनिस्ट काडर के 80 लोग मारे जा चुके थे. किंतु अल्पमत की कमज़ोर सरकार कुछ करने की स्थिति में नहीं थी.

इतिहास के उस अहम बिंदु पर जर्मनी का कोई भी राजनीतिक दल अपने निहित स्वार्थों और शुद्ध राजनीतिक आकांक्षाओं से ऊपर उठकर नाज़ी उभार की भयानक परिणति का आकलन करने में असफल रहा.

अप्रैल, 1932 में युद्ध वेटरन, अनुदार, संवैधानिक राजतंत्रवादी किंतु देश के प्रति अकुंठ निष्ठावान और सभी तबक़ों में सम्मानित, 84-वर्षीय फ़ील्ड मार्शल हिंडेनवर्ग (जिन्हें प्रथम विश्वयुद्ध के समय सेवानिवृत्ति से वापस बुलाकर सेना की कमान सौंपी गई थी) अपना सात साल (1925-32) का राष्ट्रपति का पहला कार्यकाल पूराकर दूसरी बार राष्ट्रपति निर्वाचित हुए. दिलचस्प बात यह है कि इस चुनाव में हिटलर भी एक प्रत्याशी था. हिंडेनबर्ग के दुबारा राष्ट्रपति बनने के चार दिन के भीतर राष्ट्रपति के आपातकालीन अध्यादेश से नाज़ी पार्टी के दोनों हिंसक संगठनों, एस ए और एस एस, पर प्रतिबंध लगा दिया गया.

राष्ट्रपति हिंडेनबर्ग देशभक्त थे, व्यक्तिगत तौर पर हिटलर को नापसंद करते थे (उसे ‘वो आस्ट्रियन कार्पोरल!’ कहते थे और उसके आस्ट्रियाई उच्चारण में बोली जानेवाली जर्मन को हेय समझते थे) किंतु जर्मन फ़ोक, जर्मन राष्ट्रवाद और जर्मन एकता के मुद्दों पर उससे प्रभावित भी थे. हिंडेनबर्ग ने कैथलिक सेंटर पार्टी के ब्रूनिंग को हटाकर सेंटर पार्टी से विलग हुए राजतंत्रवादी पापेन को हिटलर के समर्थन से चांसलर नियुक्त कर दिया; पापेन के सैन्य बहादुरी वाले अतीत और कुलीन तौर-तरीक़ों को हिंडनबर्ग प्रकृत्या पसंद करते थे. उन्होंने हिटलर को वाइस चांसलर नियुक्त करने की पेशकश की जिसे हिटलर ने मना कर दिया. लेकिन सरकार को हिटलर के समर्थन का एक नतीजा यह सामने आया कि चांसलर पापेन ने एस ए और एस एस पर लगे प्रतिबंध को एक महीने के भीतर हटा दिया (30 मई, 1932). 

जुलाई, 1932 में संसद के नए चुनाव हुए. नाज़ी पार्टी बहुमत न पाने के बावजूद 230 सीटें जीतकर सबसे बड़ी पार्टी के रूप में सामने आ गई. हिटलर ने सबसे बड़ी पार्टी का मुखिया होने के आधार पर नियमानुसार अपने सहयोगी गोरिंग को संसद का अध्यक्ष (स्पीकर) बनवा दिया. हताश कम्यूनिस्ट क़ानूनी तरीक़ों से विमुख होकर उत्तरोत्तर हिंसा की ओर बढ़ चले और उसी अनुपात में एस ए की हिंसात्मक कार्रवाइयाँ भी उग्र होने लगीं। गृहयुद्ध जैसी स्थिति उत्पन्न हो गई. ऐसे में हिटलर ने पापेन का समर्थन वापस ले लिया और ख़ुद चांसलर बनने की पेशकश की. हिंडेनबर्ग ने मना कर दिया. पापेन ने संसद को ही भंग कर दिया.

नवम्बर,1932 में फिर चुनाव हुए जिसमें नाज़ियों की सीटें कम होकर 196 रह गईं किंतु अब भी वह सबसे बड़ी पार्टी थी. इस बार जनतांत्रिक समाजवादी दल को 121 और कम्यूनिस्ट पार्टी को 100 सीटें मिली थीं. जनतांत्रिक समाजवादियों ने कम्यूनिस्टों के साथ मिलकर सरकार बनाने की पेशकश की किंतु इंटरनेशनल के इशारे पर कम्यूनिस्ट पार्टी ने ठुकरा दिया. इंटरनेशनल का अब भी यही मानना था कि सभी नरम वामपंथी दल सामाजिक फ़ासिस्ट थे और कम्यूनिस्टों को अपनी सारी उर्जा पहले उन्हें नष्ट करने में लगानी चाहिए.

पापेन ने राष्ट्रपति की आपातकालीन शक्तियों के सहारे शासन चलाने का प्रस्ताव रखा जिसे हिंडेनबर्ग ने अस्वीकार कर दिया. पापेन ने चुपके से हिटलर के कान में डाल दिया कि राष्ट्रपति पर अब भी उसका (पापेन का) प्रभाव है और वह हिटलर को चांसलर नियुक्त करवा सकता है, बशर्ते पापेन को वाइस चांसलर का पद मिल जाए. उसी समय हिंडेनबर्ग के पास देश के 22 महत्वपूर्ण व्यक्तियों—उद्योग, वित्त, कृषि वगैरह के प्रतिनिधियों—का पत्र आया जिसमें हिटलर को चांसलर नियुक्त करने की सिफ़ारिश की गई थी.

जुलाई, 1932 और नवंबर, 1932 के चुनावों से संसद में किसी दल को बहुमत न मिलने से मायूस हिंडेनबर्ग को अंतत: हिटलर को चांसलर नियुक्त करने का अनचाहा निर्णय लेना पड़ा. 30 जनवरी, 1933 को हिंडेनबर्ग के कार्यालय में आयोजित एक छोटे-से समारोह में हिटलर ने चांसलर पद की शपथ ली. नेशनल पीपल पार्टी की ओर से पापेन वाइस चांसलर नियुक्त हुए. पापेन को भ्रम था कि वे वाइस चांसलर के रूप में हिटलर को सँभालकर पालतू बना लेंगे. शुरू में वे कुछ नाज़ी अतिरेकों के ख़िलाफ़ बोले भी, किंतु 30 जून—2 जुलाई 1934 के कुख्यात शुद्धीकरण (नाइट ऑफ द लॉन्ग नाइव्स) की हिंसा में मौत से बाल-बाल बचने के बाद उन्होंने नाज़ी शासन की आलोचना बंद कर दी और जर्मनी के राजदूत बनकर वियना चले गए.

चांसलर के रूप में हिटलर ने राष्ट्रपति हिंडेनबर्ग के सामने पहला प्रस्ताव संसद को भंग करने का रखा ताकि नाज़ी और नेशनल पीपल पार्टी मिलकर पूर्ण बहुमत में लौट सकें और शक्तीकरण क़ानून (Enabling Act) पारितकर चार साल तक राष्ट्रपति के अध्यादेशों के सहारे शासन चला सकें. हिटलर के अनुसार जर्मनी की अनिश्चितता और अस्थिरता को देखते हुए इस क़दम की सख़्त ज़रूरत थी. वाइमर संविधान की धारा 48 के तहत राष्ट्रपति के ऐसे अध्यादेशों को संसद बहुमत से निरस्त कर सकती थी, हिटलर का शक्तीकरण संशोधन इसी के निराकरण के लिए था. हिन्डेनबर्ग ने इस प्रस्ताव को सिद्धांतत: स्वीकार कर लिया.

यह मामला चल ही रहा था कि 27 फ़रवरी, 1933 को संसद की इमारत में आग लग गई. नाज़ियों ने इसके लिए कम्यूनिस्टों को दोषी क़रार दिया और आरोप लगाया कि वे जर्मन राष्ट्र को ही ख़त्म करना चाहते हैं (कम्यूनिस्टों से जुड़े अंतर्राष्ट्रीयतावाद में राष्ट्रवाद और राष्ट्रीय पहचान प्रतिगामी विचार थे). कम्यूनिस्टों ने इस आरोप का खंडन किया और नाज़ियों पर प्रत्यारोप लगाया कि आग उन्होंने ही लगाई थी ताकि कम्यूनिस्टों पर हमला करने का बहाना मिल सके. जो भी हो, इस घटना के बाद हिंडेनबर्ग ने उस अध्यादेश पर तुरंत हस्ताक्षर कर दिया जिसके द्वारा जर्मनी में सभी नागरिक अधिकारों को समाप्त कर दिया गया.

मार्च, 1933 में फिर चुनाव हुए. फिर किसी दल को बहुमत नहीं मिला. नाज़ी और नेशनल पीपल पार्टी के गठबंधन को भी नहीं. अपने शक्तीकरण संशोधन के लिए हिटलर को कैथलिक सेंटर पार्टी और अनुदार पार्टियों का समर्थन चाहिए था. नाज़ी विध्वंसक दस्तों से घिरे संसद भवन में उसने एक साथ डराने और मोलभाव करनेवाली अपनी ख़ास भाषा में कहा--इस बिल के पारित हो जाने पर सौहार्दपूर्ण सहयोग की संभावना बढ़ेगी. अगर ये आपातकालीन शक्तियाँ मिल जाती हैं तो राष्ट्रपति को, जर्मन संघ के राज्यों को और चर्च को कोई आँच नहीं आएगी. उसने अपने भाषण का समापन करते हुए कहा--संसद के सज्जनों, अब यह आपको तय करना है कि युद्ध और शांति में आप किसे चुनना चाहते हैं. धर्म के मामले में हस्तक्षेप न करने के वादे पर कैथलिक सेंटर पार्टी ने अनुदार पार्टियों के साथ बिल के समर्थन में मत दे दिया.

इस तरह पारित हुए अधिनियम ने हिटलर को चार साल के लिए निरंकुश शासन का अधिकार दे दिया. हिंडेनबर्ग राष्ट्रपति बने रहे. जल्द ही हिटलर ने संघ की इकाइयों (राज्यों) और ग़ैर-नाज़ी दलों और संगठनों के अधिकार समाप्त कर दिए. 14 जून, 1933 को ग़ैर-नाज़ी दलों को औपचारिक रूप से अवैधानिक क़रार दे दिया और संसद ने अपने सारे जनतांत्रिक दायित्वों का परित्याग कर दिया.

हिटलर को एहसास था कि केवल राष्ट्रपति हिंडेनबर्ग और जर्मन सेना उसे अपदस्थ कर सकती है. राष्ट्रपति को उसने इस वादे के साथ विश्वास में ले लिया कि  चांसलर को पूर्ण सत्ता प्राप्त होते ही संवैधानिक राजतंत्र की पुनर्स्थापना हो जाएगी. जर्मन थल सेनाध्यक्ष और नौसेनाध्यक्ष को उसने इस वादे से संतुष्ट किया कि एस ए और एस एस को ख़त्म कर दिया जाएगा और .उसके (हिटलर के) नेतृत्व में केवल सेनाओं को अस्त्र-शस्त्र रखने का अधिकार होगा. दोनों के सामने उसने यह ख़ुलासा भी कर दिया कि हिंडेनबर्ग की मृत्यु के बाद राष्ट्रपति (जो राज्याध्यक्ष के रूप में सेनाओं के सर्वोच्च कमांडर भी थे) का पद भी वही सँभालेगा.

86 वर्षीय हिंडेनबर्ग फेफड़े के कैंसर से पीड़ित थे. वे अपनी मृत्यु के दिन (2 अगस्त, 1934) तक अपने आवासी कार्यालय से काम करते रहे. 1 अगस्त 1934 को हिटलर को सूचना मिली कि हिंडेनवबर्ग मृत्यु के क़रीब हैं. उसी दिन उसने कैबिनेट से ‘राज्य के उच्चतम पद सम्बंधी क़ानून’ पारित करवा लिया जिसके तहत हिंडेनबर्ग की मृत्यु के बाद राष्ट्रपति और चांसलर के पद ‘फ़्यूहरर (नेता)+ चांसलर’ (हिटलर) में विलीन हो जाएँगे. 2 अगस्त को राष्ट्रपति की मृत्यु के दो घंटे बाद ही यह घोषणा हो गई कि उक्त क़ानून के अनुसार हिटलर अब राज्याध्यक्ष और शासनाध्यक्ष दोनों हो गया है. और उसी दिन जर्मन सेनाओं ने ‘हिटलर के बिना शर्त आज्ञापलन’ की शपथ भी ले ली.

19 अगस्त 1934 को जनमत संग्रह द्वारा हिटलर ने दोनों पदों को सँभालने की पुष्टि भी करा ली जिसमें 90% लोगों ने ‘हाँ’ कहा।   

हिटलर का आगे का इतिहास ‘बेलवा का विवाह’ है, आल्हाखंड का वह अंश जिसे अवध के अल्हइत कभी नहीं गाते.
(समाप्त)

कमलकांत त्रिपाठी
Kamlakant Tripathi

फ़ासीवाद और नाज़ीवाद का उदय: ऐतिहासिक परिस्थितियाँ (4) 
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2022/09/4_13.html


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