Wednesday 21 September 2022

कमलाकांत त्रिपाठी / हिंदू धर्म में अवतारवाद (3)

पुराणों में वर्णित 24 अवतारों के प्रयोजन और प्रासंगिकता को विवेकसम्मत ढंग से  चिह्नित करने में असफल रहने पर उपयुक्त यह लगा कि पहले से उपलब्ध दो अतिवादी व्याख्याओं—सकारात्मक और नकारात्मक—का ही लेखा-जोखा ले लिया जाए, इसकी उपयोगिता जो भी हो।

पहली (सकारात्मक) व्याख्या थिऑसफ़िस्ट हेलेना ब्लावट्स्की (Helena Blavatsky) की है जो उनकी कृति ‘Isis Unveiled’ (1877) में उपलब्ध है। यह हिंदू अवतारों के कालक्रम में डार्विन (1809-1882) के विकासवाद का आरोपण है। हेलेना के अनुसार मत्स्यावतार जीवधारियों के विकासक्रम में मेरुदंडधारी प्राणियों (vertebrates) के युग का प्रतीक है जिनका विकास जल में हुआ था। कच्छपावतार जल-थल दोनों में निवास करने में सक्षम उभयचारी (amphibious) प्राणियों के युग को इंगित करता है। वराहावतार थल पर विचरण करनेवाले वन्य पशुओं के काल का द्योतक है। नृसिंहावतार, जो आधे मनुष्य और आधे व्याघ्र का संघटित रूप था, शक्तिशाली वन्य पशुओं में बुद्धि और विचारशक्ति के विकसित होने का संकेत है। वामनावतार बौने, अविकसित मनुष्यों के काल को इंगित करता है। परशुराम का अवतार अदिम हथियारों के साथ वन में निवास करनेवाले मनुष्यों के काल को इंगित करता है। रामावतार विकास की उस अवस्था का प्रतीक है जब मनुष्य ने नागर समाज में रहना सीख लिया था। कृष्णावतार पशुपालकों के उस समाज का द्योतक है जो राजनीतिक रूप से उन्नत हो चुका था। बुद्धावतार मनुष्य के प्रबुद्ध और ज्ञानसम्पन्न होने के युग का प्रतीक है। और कल्कि अवतार विकास की उस ‘उन्नत’ अवस्था का प्रतिनिधित्व करता है जिसमें मनुष्य अकल्पनीय विनाश की शक्ति से सम्पन्न हो जाता है। 

हेलेना के इस मत का समर्थन कुछ प्राच्यविद्या-विशारदों ने भी कियाकाल है। सुधारवादी ब्रह्मो समाज के सदस्य केशब चंद्र सेन (जो एक समय विवेकानंद के शिक्षक रहे थे) को हेलेना के इस प्रमेय में पारम्परिक हिंदू धर्म और आधुनिक विज्ञान में सामंजस्य की संभावना नज़र आई। उनके अनुसार पुराणों के अवतारवाद में ईश्वरीय सृष्टि की ऊर्ध्वगामी चरणबद्धता का एक अनगढ़ रूपक मिलता है जो विकासवाद के आधुनिक सिद्धांत के निकट है। इसमें भिन्न-भिन्न कालों में ईशवरीय प्राकट्य के भिन्न-भिन्न रूपों का दर्शन होता है, जो जीवन की आदिम अवस्था से उसकी पूर्णता की ओर यात्रा है। मोनियर विलिअम्स (1819-1899, ऑक्सफ़र्ड में संस्कृत प्रोफ़ेसर) ने घोषित किया कि हिंदू, डार्विन के जन्म से शताब्दियों पूर्व डार्विनवादी थे और हमारे समय में हक्सले (टॉमस हेनरी हक्सले—1825-1895—जिन्हें पहले का डार्विन-विरोधीरुख़ छोड़कर डार्विन के विकासवाद के पक्ष में हो जाने पर डार्विन का बुलडॉग कहा गया) जैसे लोगों द्वारा विकासवाद की स्वीकृति से शताब्दियों पहले से विकासवादी थे।

हम लोगों की (शायद हीनता-बोध के चलते) एक आम प्रवृत्ति पाश्चात्य विद्वानों की प्रशंसा से अभिभूत होकर उसके गुणावगुण में न जाने की है। पुराणों की काल-प्रणाली से एक सामान्य और बुनियादी धारणा बनती है, वह यह कि काल बीतने के साथ विकास नहीं, निरंतर ह्रास होता है (भले ही वह नैतिक अर्थ तक सीमित हो, नैतिकता की आधारभूमि के बिना विकास के अनेक घटक असम्भव हो जाते हैं)। सत्ययुग के बाद त्रेता, फिर द्वापर, फिर कलियुग। कलियुग के बाद सीधे सत्ययुग और फिर वही विकृति की शुरुआत। इसका उल्टा कभी नहीं होता। एक हज़ार चतुर्युग वाले ब्रह्मा के दिनांत पर प्रलय भी कलियुग के बाद ही आता है और ब्रह्मा के अंत पर महाप्रलय भी। ऐसे में हिंदू विचार-प्रणाली में विकासवाद के लिए कोई स्थान नहीं। संयोग से मनुष्य के मन की प्रकृति भी यही है कि वह अपने समय से आक्रांत पहले का सब कुछ भला-भला महसूस करता है और दिन-प्रतिदिन ह्रास का बोध करता है। पीढ़ियों की टकराहट इसी बोध से आती है। किंतु यह तथ्याधारित नहीं, महज़ साधारणीकरण है, एक अध्यास है—मनोवैज्ञानिक परिघटना। महज़ संयोग है कि हिंदू काल-प्रणाली मनुष्य के मनोविज्ञान से मेल खाती है। 

यह समझ पाना कठिन है कि मोलिअर विलिअम्स को अवतारवाद में डार्विन के विकासवाद की झलक कैसे मिल गई। मत्स्यावतार के पहले मनु मौजूद थे, उन्हीं की नाव को प्रलय से बचाने के लिए मत्स्यावतार हुआ था। तो मत्स्य का अस्तित्व मनुष्य के साथ है। कच्छपावतार की आवश्यकता ही तब पड़ी जब देवों और असुरों द्वारा अमृत की प्राप्ति के लिए समुद्रमंथन किया जा रहा था और मथानी बना मंदराचल पर्वत डूबने लगा था। ये देव और असुर मनुष्य नहीं थे? वराहावतार तब हुआ जब राक्षस हिरण्याक्ष पृथ्वी को ब्रह्मांड-सागर के तल में उठा ले गया। हिराण्याक्ष दुष्ट प्रकृति का मनुष्य ही हो सकता है। नृसिंहावतार तब होता है जब हिरण्यकशिपु एक राज्य का राजा है, उसके पास राज-प्रासद है और प्रह्लाद के रूप में एक पुत्र भी है जो निश्चित ही मनुष्य है। वामनावतार के समय प्रह्लाद का पौत्र बलि एक साम्राज्यवादी राजा के रूप में मौजूद है जिसने तीनों लोकों को अधीन कर रखा है। परशुराम राजा जनक और रघुवंशी दशरथ तथा उनके पुत्र राम के समकालीन हैं जब कि हेलेना ने उन्हें अविकसित शस्त्र फरसे के आधार पर वनवासी अवस्था का सूचक माना है। उन्नत अस्त्रों के अस्तित्व में आ जाने के बाद भी आदतन, या साधन न होने से, कम विकसित शस्त्र भी चलते रहते हैं। आग्नेय अस्त्रों के आ जाने के बाद भी गाँव में लोग लाठी लेकर चलते हैं, बल्लम रखते हैं, घातक चाकू तो गाँव-शहर सब जगह इस्तेमाल होता है। राम के समय को कृष्ण के पशुपालक समाज से पहले का वह समय मानना जब मनुष्य ने समाज में रहना नया-नया सीखा था, बिल्कुल निराधार है, उसी समय लंका सोने की थी और अयोध्या एक विकसित नागरिक और सांस्कृतिक जीवन सँजोए ऐसी नगरी थी जहाँ नाटक-जैसे मनोरंजन के साधन थे। महात्मा बुद्ध के काल को प्रबोध-काल मानना उपनिषदों के विपुल ज्ञान की अवहेलना करना है जिनमें से कई वेद-संहिताओं के साथ ही रचे गए थे।                    

डार्विन के विकासवाद की आज क्या स्थिति है? जेनेटिक्स और म्यूटेशन से जुड़ी नई खोजों ने डार्विन के विकासवाद की चूलें हिला दी हैं। डार्विन का मूल प्रमेय है, पारस्परिक प्रतिद्वंद्विता और सबसे योग्य के बचे रहने से नई-नई प्रजातियों का उद्भव। रूसी अनार्को-कम्यूनिस्ट क्रोपॉट्किन (1842-1921) मूलत: जीववैज्ञानिक थे। उन्होंने साइबेरिया के बीहड़ों में दीर्घकाल तक किए गए अपने विस्तृत सर्वेक्षण, निरीक्षण एवं अध्ययन से निकले निष्कर्षों को अपनी पुस्तक ‘Mutual Aid: A Factor of Evolution’ में दर्ज किया है। डार्विन के प्रतिद्वंद्विता से विकास के प्रमेय को उन्होंने अपने ज़मीनी ज्ञान के आधार पर विस्तार से ख़ारिज किया है। उनका मत है कि परस्पर प्रतिद्वंद्विता नहीं, परस्पर सहयोग प्रजातियों के बचे रहने का कारण है। पशुओं में वही प्रजातियाँ बची रह गईं जिन्होंने परस्पर सहयोग करना सीख लिया। विशाल हाथी और शक्तिशाली शेर से लेकर चींटियों और मधुमक्खियों जैसे छोटे प्राणी अपने भोजन और बचाव के लिए परस्पर सहयोग करना सीखकर ही बचे रह सके। जिन प्राणियों में परस्पर सहयोग अधिकतम था वही अधिकतम संख्या में बचे हैं। 

क्रोपॉट्किन ने मानव-समाजों के अध्ययन में भी सहयोग के तत्व को बचे रहने के लिए अपरिहार्य पाया। उनका कथन है कि डार्विन के निष्कर्ष पूँजीवादी समाज के अनुभव से नि:सृत हैं जिससे परस्पर प्रतिद्वंद्विता और उसे जीतकर आगे बढ़ना ही बचे रहने का कारण प्रतीत होता है। किंतु सभी आदिम समाज क़बीलाई समाज थे और वे प्रतिद्वंद्विता पर नहीं, परस्पर सहयोग पर आधारित थे। क़बीलाई समाज दीर्घ काल तक जीवित रहे और आज भी जीवित हैं। यही सहयोग की प्रवृत्ति क्रोपॉट्किन को सारे आदिवासी समाजों में दिखाई पड़ी। सामंत काल के पूर्व, सामंत काल के दौरान और सामंतकाल के उपरांत आधुनिक आदिवासी समाजों में भी प्रतिद्वंद्विता नहीं, परस्पर सहयोग ही उनके अस्तित्व में क़ायम रहने का आधारभूत कारण नज़र आया।

जब डार्विन के विकासवाद की वैज्ञानिकता स्वत: संदेह के घेरे में है तो हिंदुओं के अवतारवाद में विकासवाद के तत्व ढूँढ़ना और अवतारवाद को उसके रूपक के रूप   प्रस्तुत करना एक अर्थहीन उपक्रम है।                                                  (क्रमश:--ज्योतिबा फुले का मत)  
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कमलाकांत त्रिपाठी
Kamlakant Tripathi

हिंदू धर्म में अवतारवाद (2) 
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2022/09/2_18.html

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