Tuesday 20 September 2022

सच्चिदानंद सिंह / आइंस्टीन के शब्दों में सापेक्षता - रिलेटिविटी (3)

7. प्रकाश की गति के नियम का सापेक्षता के सिद्धान से मेल नहीं होते दिखना

हम सब जानते हैं कि शून्य में प्रकाश की गति तीन लाख किलोमीटर प्रति सेकण्ड है. हम यह भी जानते हैं कि यह गति सभी रंगों की रोशनी के लिए समान है - अन्यथा सूर्य ग्रहण के बाद पहली किरणें हमें रंग-बिरंगी दिखतीं. डच खगोलविद डे सिटर ने दिखा रखा है कि तारों से निकलते प्रकाश की गति इस पर बिलकुल नहीं निर्भर करतीं कि वे तारे किस गति से किस दिशा में गतिमान हैं. 

प्रकाश की गति सदा समान रहती है, इस नियम को हम देख रहे हैं और हमारा इसमें अटूट विश्वास है. लेकिन इस नियम के चलते सापेक्षता के सिद्धांत (जिसे हमने पिछली कड़ी में देखा था) पर आँच आती है. इसे देखने के लिए हम चल रही ट्रेन के अपने पुराने उदाहरण का फिर से उपयोग करते हैं.

कल्पना करें कि किनारे पर खड़े एक व्यक्ति ने ट्रेन की गति की दिशा में टॉर्च जलाया. टॉर्च से प्रकाश की किरणें निकलीं और वे अपनी गति से ट्रेन की दिशा में गतिमान हुईं. मान लेते हैं कि हर जगह से हवा हटा दी गयी है तब टॉर्च  से निकली किरणें 3,00,000 किलोमीटर /प्रति सेकण्ड (c) से चलीं. यह गति उस कोआर्डिनेट सिस्टम में है जिसमे टॉर्च है, यानी पिछली कड़ी के उदाहरण का K०. 

अब इस किरण की गति को ट्रेन के कोआर्डिनेट सिस्टम में देखते हैं. यह सिस्टम ट्रेन की गति (v) से आगे बढ़ रहा है. तब इस सिस्टम में टॉर्च से निकली रोशनी की किरण को (c-v) की गति से चलना चाहिए. 

यानी इस कॉओर्डिनटे सिस्टम में प्रकाश की गति कम है. लेकिन सापेक्षता का सिद्धांत (पिछली कड़ी, अध्याय 5) कहता है, "यदि K' एक ऐसा कोआर्डिनेट सिस्टम है जो K की अपेक्षा समान गति से सरल रेखा में गतिमान हो तब वे सारी प्राकृतिक घटनाएं जो K में दृष्टिगोचर होतीं हैं, K' में भी उन्ही प्राकृतिक नियमों के अनुसार दृष्टिगोचर रहेंगी जिनके अनुसार वे K में होतीं हैं". अर्थात प्रकाश की गति के नियम को गतिमान कोआर्डिनेट सिस्टम (ट्रेन) में भी लागू होते दिखना चाहिए - गतिमान कोआर्डिनेट सिस्टम (ट्रेन) में भी प्रकाश को उसी गति चलना चाहिए  जिस गति से वह स्थिर कोआर्डिनेट सिस्टम (जमीन पर टॉर्च वाला कोआर्डिनेट सिस्टम) में चल रही है.

इस विरोधाभास से दो तरह से निपटा जा सकता है. या तो हम कहें कि प्रकाश की गति का सदा एक समान रहना कोई प्राकृतिक नियम नहीं है या यह कहें कि सापेक्षता का सिद्धांत जिसे हमने अध्याय 5 में देखा था सही नहीं है.

सामान्यतः यह मानना अधिक आसान रहता कि प्रकाश की गति कॉओर्डिनेट सिस्टम से स्वतंत्र नहीं है किन्तु उन्ही दिनों, चलायमान वस्तुओं से सम्बद्ध एलेक्ट्रोडयनमिक और ऑप्टिक घटनाओं पर एच ए लॉरेंज़ ने क्रांतिकारी सोच दी थी जिसके चलते प्रकाश की गति के नियम को गलत बताना कठिन होगया. भौतिकीविदों ने सापेक्षता के सिद्धांत को नकारना शुरू किया - यद्यपि तब तक कोई ऐसे उदाहरण नहीं मिले थे जहाँ यह सिद्धांत असफल होते दिखा हो.

सैद्धांतिक भौतिकी के विकास के इस, एक तरह से, संकट काल में सापेक्षता की थ्योरी (Theory of Relativity) आयी.  इस थ्योरी से यह स्पष्ट हुआ कि वास्तव में सापेक्षता के सिद्धांत और प्रकाश की गति बेमेल नहीं हैं! और इन दोनों को सही मानते हुए, तार्किक दृष्टिकोण से एकदम सुदृढ़, एक नए सिद्धांत पर पँहुचा जा सकता है. इसी थ्योरी को सापेक्षता की विशेष थ्योरी का नाम दिया गया.

स्पेशल थ्योरी की चर्चा के पहले कुछ अन्य चीजों की चर्चा उपयोगी / आवश्यक है. ये हैं, भौतिकी में 'काल' (समय) की अवधारणा, एक साथ घट रही दो घटनाओं की सापेक्षता और  'दूरी' की सापेक्षता.

8. भौतिकी में काल (समय) की अवधारणा
कल्पना करिये कि हमारी ट्रेन के रास्ते में दो जगह 'एक साथ' बिजली गिरी. एक साथ से तात्पर्य है 'एक ही समय'. हम कैसे जानते हैं कि वे एक साथ घटीं? क्या प्रमाण हैं जो बताते हैं कि दोनों घटनाएं एक ही क्षण घटीं? 

जब भी दो घटनाओं के समकालीन या कहिये समक्षणीय होने की बात उठेगी, यह समस्या भी साथ साथ उठेगी - कैसे इसे हम सम्पुष्ट कर सक रहे हैं? भौतिकी में किन्ही घटनाओं के समक्षणीय होने की बात करते समय उसे जान / जाँच पाने के कारण भी देने आवश्यक हैं अन्यथा कोई भौतिकविद इसे नहीं मानेंगे कि घटनाएं एक साथ घटीं, जिससे उनके समक्षणीय होने को एक अर्थ दिया जा सके. (आइंस्टीन ने लिखा है कि यह बात इतनी महत्वपूर्ण है कि बिना इसके प्रति आश्वस्त हुए, पाठक को आगे नहीं बढ़ना चाहिए.)

आप एक उपाय कह सकते हैं कि दोनों बिन्दुओं, A और B  -जहाँ बिजली गिरी - को एक सरल रेखा से जोड़ कर उस रेखा के मध्य बिंदु, M, पर दो दर्पणों को नब्बे डिग्री पर जोड़ कर उन्हें सामने रख कर कोई व्यक्ति इस प्रकार बैठे कि उसे दोनों बिंदु हमेशा दीखते रहें और यदि उसे दोनों में बिजली की चमक एक साथ दिखे तो हम कह सकते हैं कि बिजली दोनों जगह एक साथ गिरी. 

यह तजवीज सही लगती है लेकिन मैं कहता हूँ कि इसमें एक मान्यता छिपी है - प्रकाश को A से M तक आने में उतना ही समय लगा जितना उसे B से M तक आने में लगा. यानी इसकी सत्यता तभी आँकी जा सकती है जब समय को नापने की कोई तजवीज आपके पास हो - अर्थात आप तर्क के चक्र में घूम रहे हैं.

मेरी बात सुनकर आप मुझे उपेक्षापूर्ण दृष्टि से देखेंगे (सही करेंगे) और कहेंगे: "मैं अपनी बात को सही मानता हूँ और कहता हूँ कि उसमे प्रकाश की गति के विषय में कोई मान्यता नहीं छिपी है. दो घटनाओं के समक्षणीय होने में बस एक बात है, और वह है, कि ऐसे हर वास्तविक मामले में हमें अनुभवजन्य (प्रयोगजन्य) निर्णय मिले कि वे समक्षणीय हैं. इस उदाहरण में प्रकाश को A से M तक और B से M तक आने में समान समय लगा यह प्रकाश के स्वभाव के प्रति न तो कोई अटकल / अनुमान (सपोज़िशन) है न ही परिकल्पना (हाइपोथिसिस). यह एक शर्त है जो मैं अपनी स्वतंत्र इच्छा से रख रहा हूँ, बस इस लिए कि मैं समक्षणीय को परिभाषित कर सकूं."  

स्पष्ट है कि इस सोच का उपयोग दो (या दो से अधिक) घटनाओं के एक साथ घटित होने को समझने / व्यक्त करने में किया जा सकता है. - चाहे वे घटनाएं किसी भी कोआर्डिनेट सिस्टम में घट रहीं हों. इस तरह की सोच से भौतिकी के लिए काल की परिभाषा भी हमे मिलती है.   

हम एकदम एक समान बनी घड़ियाँ लेकर, उन्हें 'मिला कर' उन सभी बिंदुओं के निकट रख देते हैं जहाँ घटित होती घटनाओं के हम अध्ययन कर रहे हैं. जब घटना होती है उस समय उस जगह के निकट रखी घडी जो समय बताए, वही समय हम घटना के घटित होने का समय मानते हैं. इस तरह हम उन सभी घटनाओं के होने का समय जान सकते हैं, जिन घटनाओं को देख पाना संभव हो.  

इस स्पष्टीकरण में भी एक शर्त है,  मगर ऐसी जिस पर किसी को आपत्ति नहीं हो जब तक उसके विपरीत कुछ देखने को न मिलें. शर्त यह है कि एक समान बनी दो घड़ियों को यदि 'मिला दिया' जाए तो वे हमेशा एक ही समय दिखाएंगी.

9. समक्षणीयता की सापेक्षता
(समक्षणीय यानी समकालीन किन्तु, ‘इतने समकालीन’ कि क्षणों की गिनती करने पर भी जिन्हे साथ साथ होता पाया जाए.)

अब तक हमने जिन दो जगहों पर एक साथ बिजली गिरने की चर्चा की थी और उसके बाद वहाँ घड़ियाँ रखने की बात की वे सब 'जमीन' पर थे - उनका कोआर्डिनेट सिस्टम जमीन का था, रेल का यानि हमारे मानसिक प्रयोग में वह कोआर्डिनेट सिस्टम स्थिर था. अब हम अपनी ट्रेन को बहुत बहुत लम्बी बना देते हैं जो टिपण्णी में दिए चित्र की दिशा में v के रफ़्तार से चल रही है. उसके अंदर जितने यात्री हैं वे सब भी इसी रफ़्तार v  से उसी दिशा में चल रहे हैं. वे जो कुछ देखेंगे, बाहर की कोई चीज भी, वह ट्रेन के कोआर्डिनेट सिस्टम में ही देखेंगे.

तब यह प्रश्न उठता है:
दो घटनाएं - बिजली का दो जगहों पर गिरना, जो रेल के कॉओर्डिनेट सिस्टम की अपेक्षा समक्षणीय हैं क्या वे ट्रेन के कोआर्डिनेट सिस्टम की अपेक्षा भी समक्षणीय होंगी?

उत्तर है "नहीं", जिसे हम अभी दिखाने जा रहे हैं.

टिपण्णी में दिए चित्र में A  और B दो बिंदु हैं जहाँ बिजली गिरी थी. ट्रेन इतनी लम्बी है कि A और B बिंदुओं पर ट्रेन के भी हिस्से हैं. उनके बीच का बिंदु, रेल पर, M है, ट्रेन में उनके मध्य के बिंदु के M' कहिये. ट्रेन v  रफ़्तार से चित्र में दाहिनी दिशा में चल रही है. जब बिजली गिरी तब M पर दोनों बिंदुओं A और B से प्रकाश एक साथ पहुँचा और हम कह सके कि घटनाएं समक्षणीय हैं. क्या M' पर भी A और B से प्रकाश एक साथ पहुँचेगा?

ट्रेन दाहिनी तरफ चल रही है. बिजली गिरने के बाद प्रकाश के M' तक पंहुचने के पहले M' जो v  रफ़्तार से B  की दिशा में बढ़ रहा है, कुछ दूरी तय कर लेगा. इसके चलते M' तक पँहुचने के लिए A से चले प्रकाश की किरण को कुछ अधिक दूरी तय करनी पड़ेगी बनिस्पत B से चली किरण के. नतीजा यह होगा कि M' पर बैठे पर्यवेक्षक को A पर देर से बिजली गिरती रखेगी, बनिस्पत B के!

इस तरह हम पाते हैं कि जो दो घटनाएं रेल के (स्थिर) कोआर्डिनेट सिस्टम की अपेक्षा समक्षणीय हैं वे ट्रेन के (गतिमान) कोआर्डिनेट सिस्टम की अपेक्षा समक्षणीय नहीं हैं. इसका अर्थ यह हुआ कि हर कोआर्डिनेट सिस्टम का अपना समय अलग होता है! यदि हमें यह नहीं बताया जाए कि किस कोआर्डिनेट सिस्टम की बात की जा रही है, तब समय बताना निरर्थक रहेगा!

भौतिकी में समय को अपने आप में सम्पूर्ण, मुकम्मल, ऐब्सोल्यूट माना जाता रहा था. अब अगर हम  कहें कि अलग अलग सन्दर्भ (कोआर्डिनेट सिस्टम)  में समय अलग अलग होता है तब अनेक धारणाओं में परिवर्तन करने की आवश्यकता दिखेगी. 

सबसे पहले तो सापेक्षता के सिद्धांत और प्रकाश की गति के नियम के बीच जो विरोध हम ने सातवें अध्याय में देखा था वह विरोध अब नहीं रहता है. क्योंकि वह विरोध गति के योग के नियम पर था जिसे हमने छठे अध्याय में देखा था. उस उदाहरण में v की रफ़्तार से चलती ट्रेन के अंदर w रफ़्तार से चलते आदमी को जमीन की अपेक्षा (v+w) की रफ़्तार से चलते बताया गया था. लेकिन जब ट्रेन के अंदर का एक सेकण्ड और जमीन पर का एक सेकंड क्रमशः गतिमान कोआर्डिनेट सिस्टम के एक सेकण्ड और स्थिर कोआर्डिनेट सिस्टम के एक सेकण्ड होने के चलते समतुल्य नहीं हैं तब यह कहना कि ट्रेन के अंदर v/सेकण्ड  की रफ़्तार से चलता आदमी जमीन की अपेक्षा भी एक सेकंड में v चल रहा है सही नहीं है.
(क्रमशः)

सच्चिदानंद सिंह
© Sachitanand Singh 

आइंस्टीन के शब्दों में सापेक्षता - रिलेटिविटी (2) 
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2022/09/2_80.html

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