Monday 12 September 2022

कमलाकांत त्रिपाठी / फ़ासीवाद और नाज़ीवाद का उदय: ऐतिहासिक परिस्थितियाँ (3)



जर्मन ज़मीन और हिटलर का उत्थान —नाज़ी पार्टी पर हिटलर का वर्चस्व ~
 

रविवार, 10 नवंबर 1918; बर्लिन के उत्तर-पूर्व में स्थित पेसवॉक क़स्बे का अस्पताल. पाश्चिमी मोरचे पर घायल हिटलर का इलाज चल रहा था. ब्रिटिश सेना द्वारा 13-14 अक्टूबर की रात में किए गए गैस हमले में उसकी आँखों की रोशनी चली गई थी. प्रथम विश्वयुद्ध में जर्मन प्रांत (एकीकरण के पूर्व स्वतंत्र राज्य) बावेरिया की रेजिमेंट में कारपोरल के रूप में मोरचे पर लड़ते हुए हिटलर के घायल होने का यह दूसरा वाक़या था. तब तक इलाज से आभास हो गया था कि अंधापन स्थाई नहीं है और आँखों की रोशनी लौट आएगी. उस इतवार स्थानीय पादरी ने अस्पताल आकर एक छोटा-सा भाषण दिया. युद्ध में जर्मनी की आसन्न पराजय के फलस्वरूप बर्लिन की राजनीतिक उठापटक, सम्राट कैसर विलियम (Kaiser Wilhem II) के पदत्याग व देश-त्याग, जर्मनी में गणतंत्र की स्थापना और उसी रात (10-11 नवंबर को) होने जा रहे युद्ध-विराम समझौते तथा उसकी संभावित परिणति के बारे में बताया. अति प्राचीन राज-परिवार द्वारा की गई देश की सेवाओं की प्रशंसा करते हुए पादरी रोने लगा. सुननेवालों में भी ऐसा कोई नहीं था जिसकी आँखों में आँसू न भर आए हों. उन्तीस-वर्षीय हिटलर तो फूट-फूटकर रो पड़ा. जब पादरी ने फिर से भाषण शुरू किया और मायूस होकर कहने लगा कि अब हमें इस लम्बे युद्ध का अंत कर देना चाहिए क्योंकि हम इसे हार चुके हैं; पितृभूमि को भविष्य का बहुत बड़ा बोझ उठाना है; अपने पुराने दुश्मनों की उदारता पर भरोसा करते हुए हमें युद्ध-विराम की शर्तें मान लेनी चाहिए, तो हिटलर से और नहीं सुना गया. वह उठ खड़ा हुआ, अंधी आँखों के अँधेरे में टटोलता-लड़खड़ाता अपने वार्ड में आया, बिस्तर पर अपने दुखते सिर को कम्बलों और तकियों से ढककर चुपचाप लेट गया और ज़िंदगी के बारे में सोचने लगा. माँ की मौत पर उसकी क़ब्र के पास खड़े होकर उसे रोना नहीं आया था. युद्ध में कितने सारे नौजवान दोस्तों की मौत पर उसे रोना नहीं आया था. गैस हमले में घायल होने पर जब कोयले की तरह जलती आँखों के आगे अँधेरा हो गया था, ज़िंदगी भर के लिए अंधा होकर किसी काम लायक न रह जाने के दुर्भाग्यपूर्ण तसव्वुर को भी उसने चुपचाप पी लिया था. पर आज इस तरह रोना क्यों आया? देश के दुर्भाग्य के सामने व्यक्तिगत दु:ख कुछ नहीं है—हिटलर का समाधान.

इस ख़बर के मानसिक आघात को जज़्ब करने में हिटलर को कई दिन लग गए। और जज़्ब करने के बाद उसने उसी अस्पताल में अपनी ज़िंदगी का सबसे अहम फ़ैसला लिया जिसका अमल दुनिया के इतिहास को झकझोर देनेवाला था. बाद में उसने ‘मेरा संघर्ष’ (Mein Kampf) में लिखा—“मुझे अपनी ख़ुद की नियति भी स्पष्ट हो गई...मैंने निर्णय ले लिया, मुझे राजनीति में जाना है.”

कभी ऐसा भी होता है. जीत और हार के बीच बस ज़रा-सा फ़ासला रहता है. नियमहीनता का नियम. जैसे आदमी की ज़िंदगी में, वैसे ही राष्ट्रों की ज़िंदगी में भी. जून 1918 में जर्मन सेनाओं का नियंत्रण युद्ध के चार साल के पूरे दौर में सबसे अधिक भूक्षेत्र पर था. और अक्टूबर आते-आते वह हर मोरचे पर आसन्न पराजय से दो-चार थीं. जैसा कि प्राय: होता है, चार साल से चल रहे युद्ध और अब आसन्न पराजय के असर से देश के भीतर भी व्यापक स्तर पर आर्थिक, औद्योगिक और राजनीतिक असंतोष का ज्वार उमड़ रहा था. जीवन की मूलभूत ज़रूरतों की बेहद क़िल्लत. असंतोष धीरे-धीरे विद्रोह का रूप लेने लगा. ब्रिटेन द्वारा जर्मनी की सफल नौसैनिक घेराबंदी, उत्तरोत्तर बढ़ती संख्या में अमेरिका से उतरनेवाली सैनिक टुकड़ियाँ, मित्र देशों के जनरल फ़ोच की एकीकृत कमान में बरतानवी और फ़्रांसीसी सेनाओं में बेहतर तालमेल, और एक-एककर जर्मनी के सहयोगी राष्ट्रों की पराजय को इसके मूर्त कारणों में गिना जा सकता है. लेकिन सबसे बड़ा कारण था जर्मन सेना का मनोबल टूटना. उम्रदराज़ सेनानायक फ़ील्डमार्शल हिंडेनबर्ग (जिन्हें युद्ध के दौरान सेवानिवृत्ति से बुलाकर कमान सौंपी गई थी) और जनरल लुडेनड्रॉफ़ को महसूस हुआ कि युद्ध हारा जा चुका है, उनका स्नायुतंत्र जवाब दे गया. युद्ध काल में वस्तुत: देश का पूरा प्रशासन यही दोनों सँभाले हुए थे. उन्होंने उदारचेता अमेरिकी राष्ट्रपति विल्सन के 14 सूत्रों पर भरोसाकर जर्मन सम्राट को युद्ध विराम के लिए मना लिया और ख़ुद अपने-अपने  पद को छोड़कर अलग हट गए. किंतु युद्ध विराम संधि के लिए मित्र राष्ट्रों की शर्त के अनुसार सम्राट को भी गद्दी छोड़नी पड़ी; उन्होंने भागकर हालैंड में शरण ली और गुमनामी के अँधेरे में खो गए. 11 नवंबर 1918 की अलस्सुबह 5 बजे रेल के एक डिब्बे में जर्मन प्रतिनिधियों ने युद्ध-विराम के दस्तावेज़ पर दस्तख़त किए और उसी दिन 11 बजे से युद्ध विराम लागू हो गया. उसके बाद जर्मनी में एक तरह की गणतांत्रिक ‘क्रांति’ हुई और एक निर्वाचित, (किंतु समारोहात्मक) राष्ट्रपति के अधीन संसदीय मंत्रिमंडल की स्थापना हुई जिसे 1919 की वर्साई संधि का दारुण कष्ट और अपमान झेलना बदा था (पहले आ चुका है).

हिटलर की निगाह में यह गणतांत्रिक क्रांति नहीं, राष्ट्रविहीन यहूदियों का विश्वासघात था. जर्मनी और अन्य देशों के यहूदी बैंकरों, उद्योगपतियों, व्यापारियों और प्रेस के नियंतायों ने, जिनका हित साझा था और जो आपस में मिले हुए थे, अपने जर्मन-विरोधी षड्यंत्र से महान जर्मनी को घुटने टेकने को मजबूर कर दिया.

हिटलर का जन्म जर्मन-आस्ट्रिया सीमा के पास स्थित एक छोटे से आस्ट्रियायी क़स्बे ब्रउनाऊ-ऑन-द-इन में हुआ था. जर्मनी के एकीकरण के पहले आस्ट्रिया जर्मन राज्यों के संघ का मुखिया रहा था और वहाँ जर्मन नस्ल के लोगों की एक बड़ी आबादी थी. हिटलर बचपन से ही आस्ट्रिया व जर्मनी के एकीकरण का स्वप्न देखा करता था. जर्मनी का चांसलर (प्रधान मंत्री के समकक्ष) बनने के कुछ साल पहले तक क़ानूनी तौर पर वह आस्ट्रियाई नागरिक रहा था जिसे उसने कभी स्वीकार नहीं किया और हमेशा अपने को जर्मन नागरिक ही मानता रहा.

पेसवॉल्क अस्पताल से लौटने के कुछ दिनों बाद हिटलर को नई बनी जर्मन वर्कर्स पार्टी (DeuscheArbeiterPartie--DAP) में घुसपैठ के लिए ख़ुफ़िया एजेंट के तौर पर तैनात किया गया. इस काम के दौरान वह पार्टी के नेता ड्रेक्सलर के राष्ट्रवादी, यहूदी-विरोधी, पूँजीवाद-विरोधी और मार्क्सवाद-विरोधी विचारों से अत्यधिक प्रभावित हुआ और बाक़ायदे पार्टी का सदस्य बन गया. बाद में वह सेना से मुक्त कर दिया गया तो पार्टी का पूर्णकालिक काम करने लगा. पार्टी में उसकी भाषण कला और प्रचार की दक्षता को सराहा गया और उसे प्रचार-प्रमुख बना दिया गया. उसके कामों से पार्टी का रूप निखरने लगा और सदस्यता का विस्तार होने लगा. फरवरी 1920 में उसने पार्टी के 25-सूत्री कार्यक्रम की घोषणा की और उसका नाम बदलकर नेशनल सोशलिस्ट जर्मन वर्कर्स पार्टी (National Sozialist Deutsche ArbeiterPartei--NSDAP) करने का प्रस्ताव रखा. DAP की ओर से उससे पूछा गया, NSDAP का कार्यक्रम क्या होगा? उसने कहा, कार्यक्रम का सवाल नहीं, सवाल एक ही है—सत्ता. जब उससे कहा गया, सत्ता तो कार्यक्रम लागू करने का साधन भर है तो उसका बेलाग जवाब था—यह बुद्धिजीवियों का कथन है, हमें सत्ता की ज़रूरत है. और उसकी बात मान ली गई. इसी नए नाम के संक्षेप (National--Na, Sozialist—Zi) से इस पार्टी को बाहरी दुनिया में नाज़ी पार्टी के नाम से जाना गया और आज भी जाना जाता है. जर्मनी में वह बस नेशनल सोशलिस्ट के नाम से मशहूर हुई.

हिटलर ने लाल पृष्ठभूमि पर बने सफ़ेद गोले में आर्यों के स्वस्तिक चिह्न के साथ पार्टी के झंडे का प्रारूप तैयार किया और पार्टी की ओर से बावेरिया की राजधानी म्यूनिच के बियर हालों में भाषण देने लगा. 1921 में जब वह फ़ंड जोड़ने के अभियान पर बर्लिन गया हुआ था, नाज़ी पार्टी की कार्यकारिणी ने नाज़ी पार्टी का विलय जर्मन सोशलिस्ट पार्टी के साथ करने की पेशकश की. हिटलर ने बर्लिन से लौटकर इस विलय-प्रस्ताव के विरोध में पार्टी से इस्तीफ़ा दे दिया. पार्टी नेताओं को लगा कि हिटलर जैसे कुशल वक्ता और प्रचारक के अभाव में तो पार्टी ही ख़त्म हो जाएगी. उसे मनाने की कोशिश की गई तो इस्तीफ़ा वापस लेने के लिए उसने दो शर्तें रखीं. एक, उसे पार्टी का अध्यक्ष बनाया जाए और दो, पार्टी का सदर मुक़ाम म्यूनिच में ही क़ायम रखा जाए. दोनों शर्तें मान ली गईं और इस तरह हिटलर नाज़ी पार्टी का सर्वोच्च पदाधिकारी और कर्ता-धर्ता बन गया.
(क्रमश:)

कमलकांत त्रिपाठी
Kamlakant Tripathi 

फ़ासीवाद और नाज़ीवाद का उदय: ऐतिहासिक परिस्थितियाँ (2)  
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2022/09/2.html

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