Tuesday 27 September 2022

कमलाकांत त्रिपाठी / विशाखदत्त का प्रयोगधर्मी नाटक मुद्राराक्षसम्‌ (2)

चित्र, मुद्राराक्षसम्‌ नाटक के मंचन का एक दृश्य 

खंड-2--मुद्राराक्षसम्‌ का संक्षिप्त भावानुवाद: प्रथम अंक ~

नाटक का प्रारम्भ सूत्रधार की इस सूचना से होता है कि जिस नाटक का अभिनय होने जा रहा है, वह कवि विशाखदत्त ने लिखा है. और विशाखदत्त एक सामंत वटेश्वरदत्त के पौत्र और ‘महाराज’ कहे जानेवाले पृथु के पुत्र हैं. बस इतना ही. कवि ने परंपरा तो यहाँ भी तोड़ी लेकिन एक मर्यादा के भीतर. प्राचीन भारतीय परम्परा में कृतिकार नाशवान है, उसकी कृति अपेक्षाकृत दीर्घजीवी है, समाज के लिए, आनेवाली पीढ़ियों के लिए, कृति ही कमोबेश उपयोगी हो सकती है. जिसको अपने कृति-कर्म के कौशल से ही इतना सार्थकता-बोध और तुष्टि न मिले कि उसके लिए वह कर्म ही अपने-आप में लक्ष्य बन जाए, उसे अपना इतिवृत्त पेश करने, जीवनी लिखने-लिखवाने की अभीप्सा हो सकती है.  भारतीय परंपरा में यह वर्जित है. यहाँ कला और कवि-कर्म उनके लिए नहीं हैं जो इनके माध्यम से इनके बाहर कुछ तलाश रहे हों, क्योंकि तब उनका मन इनमें रमेगा नहीं, और मन नहीं रमेगा तो उनका सर्वोत्कृष्ट कैसे सामने आएगा? यही वजह है कि जब पश्चिमी इतिहासकार भारत का सांस्कृतिक इतिहास लिखने बैठता है तो बात-बात पर झुँझलाता है, कृतियाँ इतनी सारी, और इतनी उत्कृष्ट, लेकिन कवि-कलाकार का कुछ पता नहीं. सभी कवियों के काल, स्थान, माता-पिता, जीवन, असली नाम तक को लेकर घोर विवाद. कालिदास तक अपनी युवावस्था की मूर्खता और विदुषी पत्नी से दुत्कार खानेवाली किंवदन्ती का बोझ ढोते, ईसा पूर्व की पहली शताब्दी से लेकर चौथी-पाँचवीं शताब्दी तक लुढ़क रहे हैं. और ख़ुद अपने विशाखदत्त महाराज मुद्राराक्षम्‌ की हस्तलिखित प्रतियों में एक छोटे से पाठभेद (पार्थिवश्चन्द्रगुप्त:/ पार्थिवो दंतिवर्मा / पार्थिवोsवंतिवर्मा) के चलते चंद्रगुप्त मौर्य के समय (चौथी  शताब्दी ई. पू.) से कश्मीर-नरेश अवंतिवर्मा के समय (नवीं शताब्दी) तक थपेड़े खाने के बाद अब जाकर चौथी-पाँचवी शताब्दी के चंद्रगुप्त विक्रमादित्य के समय में स्थिर हुए हैं. तो परम्परानुसार वैयक्तिक सूचना से सजग परहेज के बावजूद विशाखदत्त जी किसी रौ में आकर अपने बारे में इतना उद्घाटित कर गए हैं—अपना और अपने  पिता व पितामह का नाम और उनकी पदवी. 

फिर सूत्रधार द्वारा गुणग्राही दर्शकों की तारीफ़ के ब्याज से धान की खेती के लेखकीय अनुभव का यथार्थ सामने आता है, जिसे ‘विद्वानों’ ने यह दर्शाने के लिए इस्तेमाल किया है कि विशाखदत्त जी भारत के किसी पूर्वी इलाक़े से थे--

चीयते बालिशस्यापि सत्क्षेत्र पतिता कृषि:। 
न शाले: स्तम्बकारिता वस्तुर्गुणमपेक्षते॥1:3॥

[ज़मीन (यहाँ दर्शक-सभा) उपजाऊ हो तो नौसिखिए किसान द्वारा डाली गई फ़सल भी खेत में बढ़ती है. गुच्छों-गुच्छों में फैलकर सघन होते धान के पौधे बीज बोनेवाले के गुण की अपेक्षा नहीं रखते (नाटककार और दर्शकों के अंत:सम्बंध का एक मौलिक, ज़मीनी रुपक).]

नटी के घर उत्सव का माहौल है. उसी के बहाने लेखक के ज़माने में घरेलू जन-जीवन कैसा था, इसका एक सजीव चित्र उभरता है (जो गांवों में कम से कम मेरे बचपन तक तो चला ही आया था)--

वहति जलमियं पिनष्टि गंधान्‌
इयमियमुद्ग्रथते स्रजो विचित्रा:। 
मुसलमिदमियं च पातकाले
मुहुरनुयाति कलेन हुंकृतेन॥1:4॥ 

[इधर एक स्त्री पानी ला रही है, उधर दूसरी (सिल-लोढ़े से) सुगंधित मसाले पीस रही है, तीसरी रंग-बिरंगी मालाएँ गूँथ रही है, तो चौथी मूसल गिरने के साथ हूँ-हूँ की हुँकार से ताल मिलाती कुछ कूट रही है.] 

चाणक्य के प्रवेश के साथ कथा-सूत्रों को एक-एककर बिछाया जाने लगता है. ज्ञात होता है कि राक्षस द्वारा चंद्रगुप्त की हत्या के लिए नियुक्त विषकन्या को राक्षस के ही गुप्तचर जीवसिद्धि ने (जो दरअसल ‘मोल’ बना हुआ चाणक्य का गुप्तचर है) पर्वतक के पास पहुंचा दिया. वही पर्वतक या पर्वतेश्वर,  जिसने नंदों के विनाश में चंद्रगुप्त का साथ दिया था और जिसके लिए उसे नंदों का आधा राज्य देने का वादा किया गया था. इस तरह चंद्रगुप्त के बजाए पर्वतक ही उसका शिकार बन गया, जिससे नए मगध सम्राट चंद्रगुप्त के पूर्ववत् एकछत्र बने रहने की स्थिति बनी. इस हत्या से क्रुद्ध पर्वतक-पुत्र मलयकेतु के साथ राक्षस ने संधि कर ली है और मलयकेतु के प्रयास से उसके पाँच पड़ोसी ‘म्लेक्ष’ राजा (पारसीक, यूनानी, शक, कुषाण और वाह्लीक?) भी अपनी सेनाओं के साथ इस गठबंधन में शामिल होकर चंद्रगुप्त पर आक्रमण के लिए तैयार हैं. गुणग्राहक चाणक्य  नंदों के प्रति राक्षस की अप्रतिम निष्ठा की तारीफ़ करते हुए उसे मंत्रियों में बृहस्पति-तुल्य बताता है. चाणक्य द्वारा राक्षस का आकलन उसके खाँटे जीवनानुभव से नि:सृत है--  

ऐश्वर्यादनपेतमीश्वरमयं लोकोsर्थत: सेवते
तं गच्छन्त्यनु ये विपत्तिषु पुनस्ते तत्प्रतिष्ठाशया।
भर्तुर्ये प्रलयेsपि पूर्वसुकृतासंगेन नि:संगया
भक्त्या कार्यधुरां  वहन्ति कृतिनस्ते दुर्लभास्त्वादृशा:॥ 1:14॥ 

[यह संसार तो स्वार्थवश ऐश्वर्यशाली स्वामी की सेवा करता है.  जो विपत्ति में ऐसे स्वामी का अनुसरण करते हैं, वे भी इस आशा से कि पुन: उसकी उन्नति होगी. लेकिन राक्षस जैसे कृतज्ञ लोग, जो स्वामी के नष्ट हो जाने पर भी उसके द्वारा किए गये उपकार की याद करते हुए नि:स्वार्थ निष्ठा से उसके कार्य-भार का वहन करते हैं (उसे आगे बढ़ाते हैं), विरले ही मिलते हैं.]

सद्य:अर्जित मगध साम्राज्य की इस विकट परिस्थिति में चाणक्य अपने प्रतिरक्षात्मक उपायों पर विचार करता है. पर्वतक की हत्या के बारे में गुप्तचरों द्वारा यह अफ़वाह फैला दी गई है कि चंद्रगुप्त और (चाणक्य के उपकारी मित्र)  पर्वतक--इन दोनों में से किसी एक के भी विनाश से चाणक्य का अहित होगा—इस धारणा से राक्षस ने ही पर्वतक को विषकन्या द्वारा मरवा दिया. मलयकेतु का विश्वास अर्जित कर चुके चाणक्य के एक गुप्तचर (भागुरायण)  द्वारा एकांत में उसे यह कहकर डरा दिया गया कि वस्तुत: चाणक्य ने ही उसके पिता को मरवाया है, जिससे राक्षस के ख़िलाफ़ विश्वसनीय ढंग से यह अफ़वाह फैलाई जा सके (चंद्रगुप्त के साथ मगध पर आक्रमण करनेवाला पर्वतक शत्रु तो आख़िर राक्षस का ही था). नतीज़तन, मलयकेतु फ़िलहाल आधे राज्य का दावा भूलकर मगध से अपने देश भाग खड़ा हुआ है (जहाँ पहुंचकर राक्षस के उकसाने पर अन्य राजाओं को साथ लेकर मगध पर आक्रमण करने की अब उसमें हिम्मत आ गई है). भागते समय मलयकेतु को यदि पकड़ लिया जाता तो यह उसके साथ चाणक्य के विग्रह का सूचक होता और तब अफ़वाह द्वारा फैलाया गया राक्षस का अपयश धुल जाता, क्योंकि अफ़वाह की बुनियाद ही चाणक्य और मलयकेतु के पिता के बीच प्रगाढ़ मैत्री थी. इसलिए ऐसा नहीं किया गया. चाणक्य का निष्कर्ष है कि और सब तो ठीक है, बस राज्य का प्रधान अंग राजा (चंद्रगुप्त) ही कुछ उदासीन है, जिसे अभी सँभालना है. 

अगला दृश्य. यमपट दिखलाते हुए यमराज की महिमा के गीत गाने के बहाने लोगों के घरों में निर्बाध घुसकर ख़बर लानेवाला गुप्तचर ‘निपुणक’ अपनी रिपोर्ट देने चाणक्य के आवास में घुसना ही चाहता है कि द्वारपाल के रूप में तैनात उसका उद्धत शिष्य रोक देता है (द्वारपालों की प्रजाति तब से लेकर आज तक वैसी ही है). दोनों का संवाद दिलचस्प है. आज की शब्दावली में, संक्षेप में--

रुक-रुक, कहाँ जा रहा है? 

यह घर किसका है? ( उत्तर के बजाए प्रतिप्रश्न). 

हमारे प्रात:स्मरणीय आचार्य चाणक्य का, और किसका?

(हंसकर) जाने दो, यमपट फैलाकर तुम्हारे आचार्य को धर्म का उपदेश दूँगा.

(गुस्से में) तुम मेरे आचार्य से ज़्यादा धर्म जानते हो?

गुस्सा न करो भाई, सब लोग सब कुछ नहीं जानते.

अरे मूर्ख, वे सब कुछ जानते हैं.

अच्छा, तो पूछकर आओ कि चंद्र (चंद्रमा / चंद्रगुप्त) किसको प्रिय नहीं है.

यह कौन बड़ी बात है. इसे जानने, न जानने से क्या होगा?

यह तो तुम्हारा आचार्य ही जानेगा. तुम तो इतना ही जानते होगे कि कमल को चंद्र प्रिय नहीं है. कमल सुंदर, चंद्र सुंदर, लेकिन पूर्ण चंद्र हो तब भी रात में कमल सिकुड़कर बंद हो जाता है (कोई ज़रूरी नहीं कि बाहर से भले लगनेवाले चंन्द्रगुप्त के विरोधी न हों).

यह क्या उल्टी-पुल्टी बात करता है!

बात तो सीधी है लेकिन कोई सुननेवाला, जाननेवाला मिले तब न.

गनीमत है कि ‘चंद्र’ सुनकर और यह समझकर कि चंद्रगुप्त से असंतुष्ट लोगों की ख़बर लानेवाला गुप्तचर है, अंदर से चाणक्य ने यह कहकर बुला लिया कि निधड़क आ जाओ, सुनने और जाननेवाला इधर है, वरना द्वारपाल महोदय तो टस से मस  नहीं होनेवाले थे. 

निपुणक तीन असंतुष्ट लोगों की ख़बर देता है— जीवसिद्धि नाम का वह क्षपणक (बौद्ध भिक्षु) जिसने विषकन्या का गंतव्य बदल दिया था; राक्षस का पुराना निजी सचिव शकटदास कायस्थ; और राक्षस का घनिष्ठ मित्र जौहरी चन्दनदास. निपुणक नहीं जानता कि जीवसिद्धि चाणक्य का ही एक और गुप्तचर है जो ‘मोल’ के रूप में राक्षस के यहाँ चिपका दिया गया है और उसकी चंद्रगुप्त-विरोधी लगनेवाली गतिविधियों का कुछ और प्रयोजन है. (जब तक आवश्यक न हो, एक गुप्तचर दूसरे को नहीं जानता और चाणक्य को रिपोर्ट करनेवाले सभी गुप्तचरों को वह पहचानता है और उन्हें किस काम पर लगाया गया था यह भी उसे याद रहता है, जब कि उस ज़माने में कोड वगैरह के व्यवहार का कोई संकेत नहीं मिलता). चाणक्य  जीवसिद्धि का नाम टाल जाता है. दूसरे असंतुष्ट शकटदास को वह कोई बड़ी बाधा नहीं समझता, फिर भी उसके पीछे सिद्धार्थक नाम का एक दूसरा गुप्तचर लगाया जा चुका है, जो उसका विश्वासपात्र भी बन गया है. अब बचता है चन्दनदास, जिसके बारे में निपुणक के पास विशेष सूचना यह है कि कुसुमपुर (पाटलिपुत्र) से मलयकेतु के यहाँ जाते समय राक्षस ने अपना परिवार उसी के संरक्षण में रख दिया है. यही नहीं, चंदनदास के यहाँ यमपट दिखाते समय निपुणक को अनायास एक ऐसी अँगूठी मिल गई है जिस पर राक्षस का नाम अंकित है और जिसे वह अपनी मुद्रा (मुहर) के रूप में इस्तेमाल करता था.

हुआ यह कि जिस समय निपुणक वहाँ यमपट फैलाकर गीत गा रहा था, घर के भीतर से महिलाओं में ‘निगल गया, निगल गया’ का कोलाहल उठा और तकरीबन पाँच साल का एक सुंदर बच्चा घर की ड्योढ़ी से निकल ही रहा था कि एक महिला ने उसे डाँटते हुए जल्दी से हाथ बढ़ाकर पकड़ लिया. इस जल्दबाज़ी में महिला की उँगुली में (पुरुष की होने के कारण नाप में बड़ी) अँगूठी ढीली होने से उसके अनजाने ही नीचे गिर गई और छिटककर उछलती हुई निपुणक के पैर के पास आ रुकी. उस पर राक्षस का नाम अंकित देखकर निपुणक ने चुपचाप उसे रख लिया. उस मुद्रांकित अंगूठी से चाणक्य को राक्षस के परिवार का चरणदास के आश्रय में होने का पक्का सबूत तो मिला ही, उसी के सहारे उसने राक्षस को वश में करने की एक कारगर योजना भी बना डाली. [इसी मुद्रांकित अँगूठी के केंद्र में होने से विशाखदत्त ने नाटक का नाम मुद्राराक्षसम्‌ रखा है--मुद्रया गृहीतो=वशीकृतो राक्षस: यस्मिन्‌ तत्‌ मुद्राराक्षसम्‌.]                    

निपुणक को विदा करने के बाद दावात और काग़ज़ मँगवाकर चाणक्य पत्र के एक नमूने का मसौदा तैयार करने बैठता है, जो है तो सामान्य नमूना , किंतु भेजनेवाले, पानेवाले और भेजने के उपयुक्त अवसर के चुनाव से विशेष और विस्फोटक अर्थ ग्रहण कर सकता है. तभी प्रतिहारी द्वारा चंद्रगुप्त से सूचना आती है कि वह दिवंगत राजा पर्वतक का श्राद्ध करके उसके बहुमूल्य आभूषणों का गुणी व्यक्तियों में दान करना चाहता है, इसके लिए उसने चाणक्य की सलाह (अनुमति ?) माँगी है. चाणक्य को इसमें अपनी योजना की एक और कड़ी दिख जाती है और वह राजा के इस काम का अनुमोदन करने के साथ-साथ यह भी संदेश भेज देता है कि दान लेने के लिए कुछ सुपात्र ब्राह्मणों को वह भेज देगा, जो वस्तुत: उसके गुप्तचर विभाग के लोग हैं. प्रतिहारी के जाने के बाद वह फिर से मसौदा पूरा करने लगता है और उसमें इन आभूषणों का भी, जिन्हें वह अपने ढंग से उपयोग करनेवाला है, ज़िक्र डाल देता है. फिर अपने तीन गुप्तचरों को आदेश देता है के वे राजा से आभूषणों का दान लेने के बाद उससे आकर मिलें. मसौदा आगे बढ़ाते हुए वह मलयकेतु के पाँचों सहयोगी राजाओं का पहले तो नाम के साथ ज़िक्र करना चाहता है, फिर कुछ सोचकर ज़िक्र तो करता है किंतु नाम छोड़ देता है, क्योंकि योजना में सहयोग करनेवालों से भी इसे गुप्त रखना ज़रूरी है.

मसौदा तैयारकर वह उसे एक शिष्य के हाथ गुप्तचर सिद्धार्थक के पास (जो शकटदास का क़रीबी बन गया है) इस संदेश के साथ भेजवा देता है कि वह शकटदास से इस नमूने की एक साफ़ नक़ल बनवा लाए, क्योंकि चाणक्य-जैसे वेदपाठी ब्राह्मण की लिखावट बड़ी अस्पष्ट होती है. साथ में यह हिदायत भी कि किसी से यह नहीं कहना है कि नमूने का मसौदा चाणक्य ने लिखा है. शकटदास लिखने-लिखाने के काम में माहिर कायस्थ और राक्षस का पूर्व निजी सचिव है लेकिन उसमें चौकन्नापन नदारद. नमूने के अर्थ के बारे में बिना कुछ सोचे उसने अपनी साफ़ लिखावट में उसकी नक़ल बनाकर सिद्धार्थक को पकड़ा दी, जो उसे लेकर चाणक्य के पास पहुँच गया. उसे देखकर गुणग्राही चाणक्य सुंदर लिखावट की तारीफ़ किए बिने नहीं रह सका. सिद्धार्थक से ही उस पर अँगूठीवाली राक्षस की मुहर लगवाकर उसे ‘समझा-बुझाकर’ पत्र के साथ एक जटिल मिशन पर रवाना कर दिया.

[शकटदास के हाथ से साफ़-साफ़ लिखे इस पत्र में आभूषण का और बिना नाम लिए पाँच राजाओं का ज़िक्र है. बाक़ी क्या है, विशाखदत्त अभी नहीं बताते, समय आने पर बतायेंगे. मुझे भी यही ठीक लगता है….तो इंतज़ार कीजिए.] 

‘समझाने-बुझाने’ में इतना ज़रूर ज़ाहिर कर दिया गया है कि सिद्धार्थक को फाँसी के स्थान पर जाकर शकटदास को फाँसी देने जा रहे जल्लादों को डाँटकर भगाना है और शकटदास को लेकर राक्षस के पास पहुँच जाना है, जहाँ अपनी सेवाओं से उसे ख़ुशकर (जैसा कि ऊपर कहा गया वह प्रकटत: राक्षस का ही गुप्तचर है) ‘पुरस्कार’ लेना है और तब मिशन का अंतिम चरण पूरा करना है.  [डाँटने से कहीं जल्लाद भागते हैं? जी नहीं,  डाँटते समय दाहिनी आँख दबाकर इशारा करना है और पहले से सधे-बदे जल्लाद तभी भागेंगे जब इशारा समझ जायेंगे....फाँसी का यह नाटक (फाँसी नहीं) अभी एक बार और होना है और उस बार बहुत हृदय-विदारक. विशाखदत्त, और उनके चाणक्य भी, बहुत भयंकर किस्म के अहिंसावादी हैं. बस राक्षस द्वारा चंद्रगुप्त की हत्या के लिए भेजी गई विषकन्या को भ्रमितकर  गुप्तचर  ने जो पर्वतक की हत्या करवा दी, उसमें चाणक्य की संलिप्तता का संदेह होना स्वाभाविक है. यह अभियान के कर्णधार चंद्रगुप्त का प्राण बचाने, और साम्राज्य को द्विखंडित न होने देने के लिए, ज़रूरी होने से क्षम्य हो तो हो, न हो तो न हो।]

सिद्धार्थक को विदा करने से पहले चाणक्य दो राजाज्ञाएँ जारी करता है. एक, राक्षस द्वारा नियुक्त (?) जीवसिद्धि ने विषकन्या से  पर्वतक को मरवाने में जो भूमिका निभाई उसके दण्ड में उसे देश-निकाला; और दो, राक्षस के समर्थन में राज-द्रोह के लिए उद्यत शकटदास को फाँसी की सज़ा व उसके परिवार को कारागार (दोनों आज्ञाएँ महज़ प्रायोजित और रणनीति का हिस्सा,  इसलिए  मात्र आभासी).

पत्र के साथ सिद्धार्थक के निकल जाने के बाद चाणक्य चंदनदास को उपस्थित करने का आदेश देता है. दोनों के बीच का संवाद दोनों के चरित्र का आईना है, और चाणक्य से परिचालित मौर्य-नीति की कुछ झलक भी देता है:--

चंदनदास: आर्य की जय हो. 

चाणक्य: स्वागत है, आसन पर विराजिए. 

चंदनदास: क्या आर्य को पता नहीं कि अयोग्य का सम्मान तिरस्कार से भी ज़्यादा दु:खदायी होता है. इसलिए ज़मीन पर ही बैठता हूँ. 

चाणक्य: नहीं सेठजी, ऐसा नहीं है. हमारे लिए आपका सम्मान ही उचित है, आसन पर ही विराजिए.

चंदनदास: (स्वगत) यह दुष्ट, अब ज़रूर कोई दोष मढ़ेगा.(प्रकट) जैसी आज्ञा. (आसन पर बैठ जाता है). 

चाणक्य: सेठजी, आपका व्यापार तो बढ़त पर है न ?

चंदनदास: (स्वगत) ज़्यादा आदर सशंकित करता है. (प्रकट) आर्य की कृपा से सब चल रहा है.

चाणक्य: चंद्रगुप्त के दोष दिवंगत राजा के गुणों की याद तो नहीं दिलाते प्रजा को? 

चंदनदास: (कान ढककर) पाप शांत हो ( ऐसा न कहिए). शारदीय पूर्णिमा के चंद्र की तरह प्रजा चंद्रगुप्त से आनंदित है.           

चाणक्य: यदि ऐसा है तो आनंदित प्रजा से राजा की भी कुछ अपेक्षाएँ होती हैं.

चंदनदास: आर्य, आज्ञा दें, क्या और कितना चाहिए. 

चाणक्य: सेठजी, यह चंद्रगुप्त का राज्य है, नंद का नहीं. धननंद (अंतिम नंद राजा का नाम) को ही धन से प्रसन्नता होती थी, चंद्रगुप्त तो आप लोगों के दु:खाभाव से ही प्रसन्न होता है.

चंदनदास: आर्य, अनुगृहीत हूँ. 

चाणक्य: लेकिन यह दु:खाभाव ज़ाहिर कैसे होता है, यह तो आपने पूछा ही नहीं. 

चंदनदास: आर्य आज्ञा दें. 

चाणक्य: राजा के प्रति अनुकूल आचरण से.

चंदनदास: आर्य, राजा के विरुद्ध कौन आचरण कर रहा है, यह तो आर्य ही जानते होंगे.

चाणक्य: सबसे पहले तो आप ही.
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चंदनदास ने इस बीच राक्षस के परिवार को अपने घर से किसी अज्ञात स्थान पर भेज दिया है लेकिन उसे शरण देने की बात वह अस्वीकार नहीं करता. चाणक्य भी मानता है कि राक्षस के परिवार को रखना कोई अपराध नहीं है, लेकिन शासन से छिपाना अपराध है और यदि चंदनदास अब भी परिवार को राज्य की सुरक्षा में दे दे तो उस पर राजकृपा चिरकाल तक बनी रहेगी . 

तभी पर्दे के पीछे कोलाहल होता है. चाणक्य के कहने पर शिष्य पता करके बताता है कि राजा की आज्ञा से राज्य का अहित करनेवाले क्षपणक जीवसिद्धि को तिरस्कारपूर्वक नगर से बाहर निकाला जा रहा है. चंदनदास को तोड़ने का यह प्रायोजित कोलाहल निष्फल जाता है. 

चंदनदास: हमारे घर में अमात्य का परिवार नहीं है.

पर्दे के पीछे फिर कोलाहल. शिष्य पता करके आता है कि शकटदास को फाँसी पर चढ़ाने के लिए ले जाया जा रहा है. यह भी उसी उद्देश्य से प्रायोजित.  

चाणक्य: यह राजा अहित करनेवाले को कठोर दंड देता है. इसलिए दूसरे के परिवार को सौंपकर अपने परिवार की रक्षा करो. 

चंदनदास: आर्य, मुझे भय मत दिखाओ. इस समय घर में अमात्य का परिवार नहीं है, होता तो भी मैं उसे नहीं सौंपता. 

चाणक्य: यही तुम्हारा निर्णय है.

चंदादास: हाँ, यही है. 

चाणक्य: (स्वगत) वाह चंदनदास, वाह,  दूसरे की वस्तु समर्पित कर देने से आसानी से पूरे होनेवाले मनोरथ को छोड़कर ऐसा दुष्कर  कार्य  महाराज शिबि के अलावा और कौन करेगा ! [पौराणिक आख्यान है कि राजा शिबि ने शरण में आए कपोत को बचाने के लिए उसके आखेटक बाज़ को बदले में अपने शरीर का मांस काट-काटकर दिया था और इस तरह इंद्र और अग्नि द्वारा ली गई परीक्षा में सफल हुए थे.]

[चाणक्य के सारे क्रिया-कलापों के पीछे आदमी को पहचानने की अद्भुत्‌ नज़र, शत्रु-मित्र में भेद न करनेवाली सार्वभौम गुणग्राहकता, स्वार्थपरता का आत्यंतिक अभाव, और अतिशय त्यागमय जीवन-पद्धति ही वे गुण हैं जो इतने विशाल और इतने अभेद्य संगठन को बनाने और चलाने की उसकी सफलता के कारक प्रतीत  होते हैं. चाणक्य के आलोचकों का ध्यान आज के लिए भी प्रासंगिक इस पक्ष की ओर प्राय: कम ही गया है]  

चंदनदास को दिखावे के लिए फांसी की सज़ा सुना दी जाती है, उसकी सम्पत्ति ज़ब्त कर ली जाती है और, फाँसी दिए जाने तक के लिए (जिसकी नौबत नहीं आएगी) उसे परिवार-सहित बंदीगृह में डाल दिया जाता है. लेकिन यहाँ चंदनदास और उसके परिवार का त्रास तो वास्तविक है, भले ही वह अल्पकालिक हो. और वह कम हृदय-विदारक भी नहीं. चंदनदास का एक ही संतोष है कि उसका अंत मित्र के काम से हो रहा है, किसी व्यक्तिगत दोष के कारण नहीं. 

अपनी इस सफलता पर चाणक्य के मुँह से अनायास निकल जाता है कि अब आ गया राक्षस पकड़ में. जिस तरह राक्षस की विपत्ति में चंदनदास अपने प्राणों को  किसी अप्रिय वस्तु की तरह छोड़ने को तत्पर हो गया है उसी तरह ही चंदनदास की विपत्ति  में राक्षस भी अपने प्राणों का उत्सर्ग करने से बाज़ नहीं आएगा (और स्वत: हमारे जाल में आ फँसेगा).

[चंदनदास एक जौहरी है, सेठ है, लेकिन उदात्त मानवीय गुणों से सम्पन्न है. मार्क्सवाद की लोकप्रियता के साथ यह धारणा प्रचलित हुई कि सारे के सारे सम्पतिशाली लोग शोषक, षड्यंत्रकारी और क्रूर होते हैं क्योंकि व्यक्तिगत सम्पत्ति ही मानव-दुर्गुणों की जननी है. लोग मार्क्स के अभिन्न मित्र और अनन्य सहयोगी पूँजीपति एंजेल्स तक को भूल गए. आज के ही दौर में लोग जमशेद जी टाटा. अजीम प्रेमजी, नारायण मूर्ति और बिल गेट्स के योगदान को भूलकर केवल अंबानियों, अडानियों और सुब्रतो रायों की माला जपते रहे हैं. अधिसंख्य पूँजीपतियों के कारनामों ने वर्ग-स्वभाव को लेकर ऐसा पूर्वाग्रह पैदा कर दिया है कि लोग आदमी-आदमी के स्वभाव-गत भेद की जटिलता को सुविधापूर्वक दरकिनारकर मार्क्स के प्रमेय को लिंग, जाति, धर्म, रंग, नस्ल, राष्ट्रीयता तक खींच ले जाते हैं. जटिलता से बचने के लिए पूर्वाग्रहपूर्ण अतिसरलीकरण का सहारा लेना आदमी की पुरानी फ़ितरत है. यही पहले सभी विजातीयों के लिए barbaric और म्लेक्ष–जैसी संज्ञाओं के रूप में  व्यक्त होती थी.]

चंदनदास को ले जाए जाने के बाद पर्दे के पीछे फिर कोलाहल होता है तो ज्ञात  होता है कि सिद्धार्थक  वध-स्थल  से जल्लादों  को भगाकर और शकटदास को छुड़ाकर चंपत हो गया. चाणक्य भागुरायण ( जो दरअसल अत्यंत योग्य गुप्तचर है) को दौड़कर दोनों को पकड़ने का आदेश भिजवाता है. शिष्य फिर ख़बर लाता है कि पीछा करता हुआ भागुरायण भी भाग गया. 

चाणक्य ख़ुश कि ये सब योजनानुसार कुशलता से अपने-अपने मिशन पर निकल गए, लेकिन बनावटी क्रोध में आदेश देता है कि भद्रभट (गजसेनापति), पुरुषदत्त (अश्वसेनापति), डिङ्गरात (द्वारपाल-दल का प्रधान) बलगुप्त (चंद्रगुप्त का सम्बंधी) राजसेन (चंद्रगुप्त का पुराना सेवक),  लोहिताक्ष या रोहिताक्ष  (मालव का राजपुत्र) और विजयवर्मा (क्षत्रिय-गण का प्रधान) से कहा जाए कि वे शीघ्रता से पीछा करते हुए ‘दुष्टात्मा’ भागुरायण को पकड़ लें. शिष्य ख़बर देता है कि ये लोग तो उषाकाल में ही भाग निकले थे और इस तरह पूरा राज्य  अस्त-व्यस्त हो गया है.

चाणक्य संतुष्ट कि ये सब मलयकेतु के यहां (जहाँ राक्षस भी मौजूद है) प्रस्थान कर गए. आक्रमणकारी से निपटने की सबसे प्रभावी रणनीति प्रति-आक्रमण. लेकिन चाणक्य का प्रति-आक्रमण सैन्यबल से नहीं,  नीतिबल से है. और उससे ज़्यादा अमोघ है. 

अब उसे भरोसा हो जाता है कि तमाम विपरीतताओं के बावजूद वह युक्ति से, बलवान, मदयुक्त जंगली हाथी की तरह निरंकुश हुए राक्षस को वश में करके चंद्रगुप्त और राष्ट्र के काम में लगा देगा, क्योंकि इस युक्ति-जाल में राक्षस (चंदनदास को बचाने) ख़ुद चलकर आएगा. 

और इस तरह राजनीति की सारी जटिल बिसातें बिछाकर सबसे लंबा पहला अंक समाप्त होता है.
…………………
(क्रमश:)

कमलाकांत त्रिपाठी
Kamlakant Tripathi 

विशाखदत्त का प्रयोगधर्मी नाटक मुद्राराक्षसम्‌ (1) 
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2022/09/1_26.html 


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