Sunday 11 September 2022

कमलकांत त्रिपाठी / फ़ासीवाद और नाज़ीवाद का उदय: ऐतिहासिक पृष्ठभूमि (2)

इटली की ज़मीन और मुसोलिनी का उभार ~ 

प्रथम विश्व युद्ध के समापन पर वर्साई महल, पेरिस में होनेवाले शांति सम्मेलन (1919) का उद्देश्य युद्ध की पुनरावृत्ति रोकना था. लेकिन कैसी विडम्बना कि उसके कर्णधारों ने जो किया उससे धारा ठीक उल्टी दिशा में चल पड़ी! फ़्रांस और ब्रिटेन की बदनीयती और अदूरदर्शिता से जो माहौल बना उसमें पराजित राष्ट्र तो कुचल ही दिए गए, इन दोनों के अलावा विजयी पक्ष के देश भी निराश और मायूस हो गए.

आस्ट्रो-हंगरी और जर्मनी का गठजोड़ छोड़कर मित्र राष्ट्रों के पाले में आए इटली के साथ 1915 में लंदन में हुई एक गुप्त संधि का सुराग़ मिलता है. उसमें मान लिया गया था कि धुरी राष्ट्रों की ओर से युद्ध में शामिल हुए टर्की साम्राज्य का विघटन अवश्यम्भावी है. रूस कुस्तुंतुनिया होकर भूमध्य सागर के गरम जल तक पहुँचने के लिए दीर्घ काल से बीमार (Sick Man of Europe) टर्की के मरने का स्वप्न देख रहा था किंतु ब्रिटेन और फ़्रांस रूस से अपने पूर्वी उपनिवेशों के सम्पर्क मार्ग के लिए ख़तरा महसूस करते, दो कुशल नर्सों की तरह उसकी सेवा में संलग्न थे. विडंबना ही थी कि प्रथम विश्व युद्ध में रूस, फ़्रांस और ब्रिटेन तीनों एक साथ मिलकर लड़े. और उत्तरी अफ़्रीका में त्रिपोली के लिए टर्की से लड़ चुका (1911-12) इटली भी अपने जर्मनी जैसे दोस्तों का साथ छोड़कर इधर ही आ निकला था. तो तय यह हुआ था कि टर्की के पतन के बाद कुस्तुंतुनिया रूस की झोली में जाएगा, एशिया माइनर का पश्चिमी हिस्सा इटली को मिलेगा और ब्रिटेन तथा फ़्रांस टर्की साम्राज्य के अरब देशों को आपस में बाँट लेंगे. युद्ध के दौरान ही रूस में सोवियत क्रांति हो जाने से वह अलग रास्ते पर चल पड़ा और संधि पुष्ट नहीं हो सकी. टर्की पराजित हुआ तो ब्रिटेन ने फ़िलिस्तीन, ईराक़ और जार्डन पर और फ़्रांस ने सीरिया-लेबनान पर लीग ऑफ नेशंस से मैंडेट (उपनिवेशवाद का नया हथकंडा) हासिल कर लिया और इटली ठगा-सा रह गया. शांति सम्मेलन में इटली के प्रधान मंत्री विट्टोरिओ ऑरलैंडो भूमध्य सागर से लगे आस्ट्रिया-हंगरी के कुछ भूभाग पाने की आशा लगाए थे लेकिन वहाँ युगोस्लाविया का संप्रभु राज्य क़ायम करने का निर्णय तो हुआ ही, उसके लिए इटली को क्रोसिया प्रांत का बंदरगाह रिजेका भी छोड़ने को मजबूर होना पड़ा. हताश, निराश वे सम्मेलन बीच में ही छोड़कर इटली लौट आए.

युद्धोत्तर इटली में जबर्दस्त मोहभंग की स्थिति थी. यह भावना व्याप्त हो गई थी कि इटली को उसका हक़ नहीं मिला और वह बड़ी शक्ति बनने के अवसर से वंचित कर दिया गया. विजयी (मित्र) राष्ट्रों में वह सबसे अधिक थका और चुका हुआ महसूस कर रहा था. 

पहले से चला आ रहा आर्थिक संकट (प्रथम) विश्वयुद्ध के बाद और गहरा गया। धातु के कारख़ानों में लगे लगभग ढाई लाख मज़दूर वेतन-वृद्धि की माँग ठुकराए जाने पर साधारण हड़ताल के बजाए काम रोको और काम में बाधा डालो की रणनीति पर उतर आए. मालिकों ने तालाबंदी कर दी तो वे कारख़ाने लेकर ख़ुद चलाने लगे. सोशलिस्ट पार्टी काफ़ी मजबूत होने के बावजूद इस स्थिति को किसी सकारात्मक परिणति तक नहीं पहुँचा सकी. मिल मालिकों ने मज़दूरों की कमर तोड़ने के लिए हिंसक समूहों का सहारा लिया जो अवकाश-प्राप्त सैनिकों को जोड़कर बनाए गए थे. और काली कमीज़ वाले इन समूहों का संयोजक था बेनिटो मुसोलिनी.

पेशे से लोहार पिता की संतान मुसोलिनी समाजवादी माहौल में पला-बढ़ा था. लेनिन की बोलशेविक क्रांन्ति का प्रशंसक और नरम समाजवादियों का प्रखर आलोचक था. राज्य की हिंसा का मुक़ाबला हिंसा से करने का जबर्दस्त हिमायती. हिंसक कार्रवाइयों के लिए ख़ुद कुछ महीने की जेल काट आया था. ख़ुद पेशे से पत्रकार, एक समाजवादी दैनिक का संपादन करता था जिसमें कामगारों को हिंसा का जवाब हिंसा से देने के लिए लगातार उकसाया करता था. (प्रथम) विश्व युद्ध आया तो कुछ समय तक अन्य समाजवादियों की तरह इटली की तटस्थता की वकालत करने के बाद वह अचानक मित्र राष्ट्रों के साथ इटली के युद्ध में शामिल होने का समर्थक बन गया. समाजवादी पत्र छोड़कर एक दूसरा पत्र निकालने लगा. समाजवादी दल से निकाले जाने के बाद स्वेच्छा से सेना में भरती हुआ, साधारण सैनिक के रूप में मोरचे पर लड़ा और घायल हुआ.

युद्ध से लौटने पर मुसोलिनी ने अपने को समाजवादी कहना छोड़ दिया. मार्च, 1919 में फ़ासीवादी पार्टी की स्थापना की जिसे पहले क्रांतिकारी फ़ासीवादी पार्टी कहा गया, बाद में उसका नाम बदलकर राष्ट्रीय फ़ासीवादी पार्टी कर दिया गया. पार्टी की स्थापना के साथ ही मुसोलिनी ने लड़ाकू दस्तों का गठन शुरू कर दिया था. अनिश्चितता के ढीले-ढाले माहौल में इन दस्तों की हिम्मत और आक्रामकता लगातार बढ़ती गई. कहने को इटली में समाजवादी और बोलशेविक दल भी काफ़ी सक्रिय थे किंतु उनमें कई-कई गुट थे जो आपस में ही लड़ते रहते थे. क़र्ज़ और बेरोज़गारी से जूझते देश में बार-बार होनेवाली हड़तालों और समाजवादियों, बोलशेविकों तथा अराजकतावादियों के विद्रोहों से स्थिति लगातार बिगड़ती जा रही थी. ऐसे में कमज़ोर, दिशाहीन सरकार भी प्राय: काली कमीज़ वाले दस्तों की हिंसक कार्रवाइयों का अनदेखा करती थी. तत्कालीन इटली की शोचनीय राजनीतिक-आर्थिक स्थिति, मुसोलिनी की असाधारण वक्तृत्व-क्षमता और उसके हिंसक समूहों की दिलेरी ने तीन साल के भीतर उसे सत्ता के शीर्ष पर पहुँचा दिया.

फ़ासीवाद और नाज़ीवाद के सैद्धांतिक पक्ष पर अलग से विचार किया जा चुका है. यहाँ इतना ही कि मुसोलिनी ने बड़ी कुशलता से मार्क्स के समाजवाद को राष्ट्रवाद में और वर्ग-संघर्ष को राष्ट्र-संघर्ष में अंतरित कर दिया. उसने उस प्रमेय को मान लिया जिसमें दुनिया के कुछ राष्ट्र सर्वहारा तो कुछ धनतंत्र (plutocracy) की गिरफ़्त में बताए गए थे. इटली एक सर्वहारा राष्ट्र था, उसे हर तरफ़ से दबाया गया था, इसके पहले कि वह पूरी तरह टूटकर बिखर जाए, उसे संगठित और एकीकृत होकर शक्ति-संचय करना था और दुनिया में अपनी उचित जगह के लिए संघर्ष करना था. इस तरह इटली के लिए फ़ासीवाद ही असली समाजवाद था जिसमें भिन्न-भिन्न वर्ग के लोगों को अपने-अपने वर्ग के साथ नहीं, राष्ट्र के साथ तादात्म्य स्थापित करना था. मुसोलिनी ने कहा, समाजवाद के विरुद्ध हमारा संघर्ष समाजवाद के तईं नहीं, सिर्फ़ इसलिए है कि वह राष्ट्रवाद का विरोधी है. इटली प्राचीन रोमन साम्राज्य का वारिस है, वह पुनर्जागरण कालीन इटली (जिसे दांते, पेट्रार्क, लिओनार्डो द विंसी, माइकेलेंजेलो और राफाएल इत्यादि ने पुनर्जागरण का अग्रणी बनाया था) का भी वारिस है. उसे भूमध्यसागर-क्षेत्र में अपना प्राचीन वर्चस्व पुन: स्थापितकर तीसरा रोमन उत्कर्ष अर्जित करना है. उसे जुलियस सीजर के शौर्य और आगस्टस के विजय-अभियान का अनुसरण करने की ज़रूरत है. व्यक्तिगत स्वतंत्रता मूल्यवान नहीं, कार्य-कुशलता, निष्ठा और अनुशासन मूल्यवान हैं. मुसोलिनी ने रूस की बोल्शेविक क्रांति से भयभीत पूँजीपतियों को लागत के अनुरूप रिटर्न का वादाकर उनका आर्थिक सहयोग प्राप्त किया. आर्थिक प्रगति के आश्वासन से किसानों और मज़दूरों का समर्थन जुटाया. बोल्शेविकों की सामूहिक खेती को संशय से देखनेवाले किसान ख़ास तौर पर फ़ासीवाद की ओर आकृष्ट हुए. शक्ति-सम्पन्न इटली के वादे से उसने सेनानायकों को भी अपनी ओर खींच लिया. दिल दहला देनेवाले अपने भाषणों से उसने बड़ी कुशलता से सभी तबकों की आकांक्षाओं को सहलाकर एक साथ उनकी सहानुभूति और समर्थन अर्जित करने में सफलता हासिल की.

शुरू में फ़ासीवादियों का प्रभाव मिलान जैसे कुछ शहरों में केंद्रित था. धीरे-धीरे उसका विस्तार हुआ. 1920 तक आते-आते बोल्शेविकों से संघर्ष के नाम पर फ़ासीवादी दल को इतनी लोकप्रियता मिल गई कि उसके सदस्यों की संख्या 2,50,000 तक पहुँच गई. 1920 का साल बीतते-बीतते वह देहातों में भी फैलने लगा. 1922 में जब मुसोलिनी विधान-सभा (Chamber of Deputies) का सदस्य चुन लिया गया, पार्टी को वैधता भी प्राप्त हो गई. अक्टूबर, 1922 में उसने प्रधान मंत्री लुइगी फ़ैक्टा को अपदस्थ करने के अभियान में रोम-मार्च का आयोजन किया. 29 अक्टूबर को रोम पहुँचने के पहले ही इटली के सम्राट विक्टर एमान्युएल ने प्रधान मंत्री फ़ैक्टा को बरख़ास्त कर राष्ट्रीय फासीवादी दल के नेता के रूप में मुसोलिनी को नया प्रधान मंत्री नियुक्त कर दिया (28 अक्टूबर,1922).

इसके बाद मुसोलिनी द्वारा अन्य दलों को भंगकर एकदलीय व्यवस्था लागू करना, इटली का निरंकुश तानाशाह बनना और उसका आर्थिक सशक्तीकरण एवं सामरिक शक्ति-विस्तार इतिहास है.
(क्रमश:)

कमलकांत त्रिपाठी
Kamlakant Tripathi

फ़ासीवाद और नाज़ीवाद का उदय: ऐतिहासिक परिस्थितियाँ (1) 
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2022/09/1.html 

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