Sunday 18 September 2022

कमलाकांत त्रिपाठी / हिंदू धर्म में अवतारवाद (2)

बौद्ध धर्म की काट में आए हिंदुओं के वैष्णव भक्ति संप्रदाय की निरंतर बढ़ती लोकप्रियता ने रामावतार एवं कृष्णावतार को हिंदू धर्म और हिंदू संस्कृति का मूलाधार बना दिया। हिंदुओं की पहचान का अविभाज्य अंग। भरतवंशी के बजाय वे राम और कृष्ण का वंशज होने का गौरव महसूस करने लगे। वैदिक धर्म के ज्ञानकांड (उपनिषद्‌) और कर्मकांड (पूर्वमीमांसा) सिमटकर कृष्ण-भक्ति और राम-भक्ति में विलीन हो गए। वाल्मीकीय रामायण से शुरू हुई रामकथा पर देश के भिन्न-भिन्न भागों के रचनाकारों के अतिरिक्त बौद्ध एवं जैन विद्वानों तथा देश के बाहर कंबोडिया और जापान में भी लेखन हुआ। श्रीमद्भागवत महापुराण और महाभारत ने मिलकर कृष्ण के पूर्वार्द्ध और परार्द्ध के व्यक्तित्व और कृतित्व का अलौकिक विस्तार किया। दक्षिण के रामानुज की विष्णु-भक्ति-पोषित विशिष्टाद्वैत धारा रामानंद के माध्यम से उत्तर में आकर रामभक्ति की पावन सलिला में तब्दील हो गई। वल्लभाचार्य की शुद्धाद्वैत परम्परा ने कृष्णभक्ति के मधुर आसव से पुष्टिमार्ग का रसायन तैयार किया जो व्रज से निकलकर पूरे उत्तर भारत, गुजरात और राजस्थान में छा गया। मर्यादा पुरुषोत्तम राम और कर्मयोगी कृष्ण ने मिलकर हिंदुओं के ऐहिक और पारलौकिक जीवन का एक नवीन और सुगम पाठ रच दिया। 

समाजवादी नेता और विचारक डॉ. राम मनोहर लोहिया ने अपने प्रसिद्ध आलेख ‘राम, कृष्ण और शिव’ में स्वीकार किया है कि राम और कृष्ण ऐतिहासिक व्यक्ति हैं जिनकी कथाएँ किंवदन्तियों और भारतीयों की उदासी और उल्लास के सपनों से बुनी गई हैं। इन कथाओं को महान कवियों की प्रतिभा ने परिष्कृत किया है। इन कथाओं में करोड़ों लोगों के दु:ख और सुख घुले हुए हैं। ये कथाएँ भारतीय आत्मा का इतिहास रचती हैं। राम, कृष्ण और शिव भारतीय कारवाँ के महानतम व्यक्ति हैं जिनकी कथाएँ भारतीय मानस पर अमिट हैं। राम और कृष्ण भारत में पूर्णता के महान स्वप्न हैं, राम की पूर्णता मर्यादित व्यक्तित्व में है तो कृष्ण की एक उन्मुक्त, व्यापक व्यक्तिव में--जन्म से मृत्यु तक वे असाधारण, असंभव और पूर्ण हैं। कृष्ण ने आत्मा के और कर्म के गीत गाए और हर स्थिति में समत्व और संतुलन की प्रतिष्ठा की।   

इसमें दो राय नहीं कि आज हम जिसे विविधवर्णी, समावेशी भारतीय संस्कृति कहते हैं वह राम और कृष्ण के व्यक्तित्व और कृतित्व के इर्दगिर्द घूमती है, उससे अपनी जिजीविषा, जीवंतता, कलात्मकता और जीवनादर्श ग्रहण करती है।

एक बार श्रीलाल शुक्ल जी के साथ मैं और मेरे एक मित्र अंबोली की पहाड़ी के पश्चिमी पार्श्व में एक शिला पर बैठे सूर्यास्त का सौंदर्य निहार रहे थे। श्रीलाल जी ने वाल्मीकीय रामायण से संध्यावर्णन का एक ललित श्लोक सुनाया और उसकी व्याख्या की। फिर निर्वेद की मुद्रा में आ गए। बोले—एक कठोर कल्पना कीजिए।  किसी प्राकृतिक आपदा से भारत का सब कुछ नष्ट हो जाए, बस दो ग्रंथ बचे रहें—रामायण और महाभारत--भारतीय संस्कृति अक्षुण्ण रहेगी। 

अकारण नहीं कि अनेक अमूर्त एवं जटिल कारणों के पुंजीभूत होने से हाल-फ़िलहाल में जब ‘हिंदुत्व’ का आक्रामक और पुनरुत्थानवादी दौर शुरू हुआ, उसके प्रतीक बने राम और राम-मंदिर। यहाँ प्रगतिशील कहे जानेवाले एक बड़े तबक़े द्वारा भारतीय आत्मा को, उसकी मूल प्रकृति को, उसके इतिहास की अनिवार्य परिणति को समझने में भूल हुई, जिसके दुष्परिणाम में साम्प्रादायिक शक्तियों के उभार में त्वरा आई। इसके निहितार्थ दूर तक जाते हैं जो राजनीतिक हार-जीत से परे हैं।              

अन्य अवतारों के साथ जुड़ी कथाएँ कई पुराणों में बिखरी हुई हैं। विष्णु पुराण, मत्स्य पुराण, कूर्म पुराण, वराह पुराण, वामन पुराण और उपरोक्त भागवत महापुराण इनके प्रमुख स्रोत हैं।

मत्स्यावतार में प्रलय के समय विष्णु मछली के रूप में, एक भयंकर चक्रवात में एकत्र हुए सभी प्रजाति के प्राणियों और वनस्पतियों के साथ मनु की नाव को डूबने से बचाकर एक नवीन सृष्टि में ले जाते हैं। दूसरे, कच्छपावतार में देवों और असुरों द्वारा अमृत-प्राप्ति के लिए किए जा रहे समुद्र-मंथन के समय मथानी बनाया गया मंदराचल जब डूबने लगता है, उसे अपनी पीठ पर थाम लेते हैं। अपने तीसरे, वराहावतार में, जब राक्षस हिरण्याक्ष पृथ्वी को ब्रह्मांडीय समुद्र के तल में उठा ले जाता है, एक हज़ार साल तक चले युद्ध में उसे परास्तकर, अपनी खाँग (आगे निकले दाँत) से पृथ्वी को उठाकर पुन: ऊपर लाते हैं। अपने चौथे नृसिंहावतार में  राक्षस हिरण्यकशिपु (हिरण्याक्ष के बड़े भाई) को, जिसे ब्रह्मा ने वरदान दिया था कि उसे कोई मनुष्य या पशु, दिन या रात में, घर में या घर के बाहर, किसी हथियार या हाथ से नहीं मार सकेगा, वे उसके प्रासाद के एक खंभे से गोधूलि बेला में नृसिंह के रूप में प्रकट होते हैं और प्रासाद की ड्योढ़ी पर, अपने बघनखे से मारकर अपने भक्त और उसके पुत्र प्रह्लाद की रक्षा करते हैं। अपने पाँचवें, वामनातार में वे प्रह्लाद के पौत्र, अप्रतिम दानी राजा बलि से, जिसने इंद्रादि को हराकर तीनों लोकों पर आधिपत्य स्थापित कर लिया था, तीन पग ज़मीन माँगकर, फिर अपना आकार बढ़ाकर, ढाई पग में तीनों लोकों को नाप लेते हैं और आधे पग के एवज में उसे अधीन बनाकर और सांत्वना के रूप  में अमरत्व का वरदान देकर पाताल लोक भेज देते हैं।

ये पाँचों अवतार सत्ययुग के हैं। यहाँ एक ख़ास बात ध्यान देने की है कि विष्णु हमेशा देवों का साथ देते हैं और भूल से भी कभी किसी असुर या राक्षस को वरदान नहीं देते जब कि उनके (कनिष्ठ ?) सहकर्मी ब्रह्मा और शिव मौक़ा मिलते ही असुरों को वरदान देकर उन्हें मज़बूती प्रदान करते रहते हैं। इससे एक बात तो स्पष्ट हो जाती है कि देवों और असुरों में प्रकृत्या कोई ऊँच-नीच नहीं है, बात सिर्फ़ पक्षधरता की है। त्रिदेवों में विष्णु को वर्चस्व प्राप्त होने और उनकी महिमा में लगातार विस्तार होने से देवों के तमाम छल-कपट में लिप्त होने के बावजूद,  उन्हें उच्च और असुरों को निम्न कोटि के समझने की धारणा प्रचलित हुई होगी। अवतारों के पौराणिक आख्यान में भी इस अवधारणा का दख़ल स्पष्ट परिलक्षित होता है।     

परशुराम के रूप में लिया गया विष्णु का छठा अवतार सामान्य मनुष्य के रूप में पहला अवतार था। फिर भी परशुराम में कुछ विचित्रताएँ शेष रह गईं। पहली तो उनके यथानामस्तथागुण: में है। वे एक योद्धा, ब्राह्मण संत हैं और उनका हथियार है आदिम परशु (फरसा), यानी लकड़ी के बजाय आदमी को काटने के हिसाब से बनी कुल्हाड़ी। इस अवतार का कोई बाध्यकारी कारण समझ में नहीं आता। रहा वर्चस्व के लिए ब्राह्मण-क्षत्रिय संघर्ष तो वह तो बहुत पुराना मुद्दा था और विश्वामित्र-वसिष्ठ के समय से चला आया था। क्षत्रियों ने ऐसा क्या कर दिया कि परशुराम जी के लिये पृथ्वी को एक नहीं, दो नहीं, 21 बार क्षत्रिय-विहीन करने की नौबत आ पड़ी! लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि अवतारों का तानाबाना हमारे महान पुराणों की देन है जिनमें सत्य और कल्पना के घोड़े साथ-साथ दौड़ते हैं और एक-दूसरे में घुलमिल जाते हैं।

परशुराम जी उन्हीं भृगु के प्रपौत्र थे जो (पुराणों के अनुसार) विष्णु की परीक्षा लेने क्षीरसागर पहुँच गए और पहुँचते ही दन्न से उनकी छाती पर लात जमा दी। परशुराम जी की क्षत्रियों से घातक नाराज़गी का जो कारण बताया गया है, परशुराम के कृत्य को देखते हुए बहुत अपर्याप्त लगता है। क्षत्रिय राजा कार्तवीर्य ने परशुराम के पिता जमदग्नि के आश्रम पर हमला बोलकर उसे तहस-नहस कर दिया और उनकी अलौकिक गाय कामधेनु भी उठा ले गया। यहाँ तक तो परशुराम के क्रोध का गम्य कारण था। वे फरसा लिए हुए कार्तवीर्य के राजमहल में घुस गए और वहीं उसका काम तमाम कर दिया। कार्तवीर्य के पुत्र ने जमदग्नि की हत्या करके प्रतिशोध लिया। इस पर परशुराम जी इतने क्रुद्ध हो उठे कि क्षत्रियों का पूर्ण विनाश करने की प्रतिज्ञा कर डाली और पाँच तालाब क्षत्रियों के रक्त से भर दिया। 

क्षत्रियों के साथ जो भी हुआ हो, यह रहस्यमय है कि आज विंध्य के दक्षिण उनकी मौजूदगी का कोई सुराग़ नहीं मिलता। और एक (अपुष्ट) ऐतिहासिक मत के अनुसार उत्तर भारत के राजपूत प्राचीन क्षत्रिय नहीं, वे बाहर से आए शक, कुषाण, हूण, गुर्जर, प्रतिहार वगैरह की संतानें हैं जिन्हें ब्राह्मणों ने आबू पर्वत पर एक यज्ञ सम्पादित कर क्षत्रियों के कुल-गोत्र बाँट दिए।  

बाद में परशुराम जी की मुठभेड़ उनके समकालीन दूसरे किंतु उनसे अधिक कलाओं के अवतार राम से हुई जो सूर्यवंशी क्षत्रिय थे। परशुराम थे तो विष्णु के अवतार किंतु भक्त थे शिव के और ऐसे-वैसे नहीं, बहुत कट्टर क़िस्म के। राम द्वारा शिव का धनुष तोड़े जाने को लेकर उन्होंने बड़ा टंटा खड़ा किया। आख़िर राम को अपने से बड़े अवतारी के रूप में पहचानकर ही झुके और घरबार छोड़कर महेंद्रगिरि पर्वत निकल गए। महाभारत काल में वे फिर प्रकट हुए और भीष्म, द्रोण तथा कर्ण को अस्त्र-शस्त्र-संचालन की शिक्षा दी, अपने शिष्य रहे भीष्म से घोर युद्ध भी लड़े। पुराणों की मानें तो वे अभी भी महेंद्रगिरि के आसपास कहीं भटक रहे होंगे; आख़िर अमर हैं। इसका एक ही मतलब समझ में आता है--उनकी मृत्यु का कोई सबूत या समाचार नहीं मिला। 

फ़िलहाल, कोंकणस्थ (चितपावन) और भार्गव उपनाम वाले ब्राह्मण अपने को परशुराम का वंशज मानते हैं। राम-भक्त तुलसीदास द्वारा खलनायक-तुल्य बना दिए जाने के बावजूद अस्मिताओं के उभार के इस नए दौर में कुछ अन्य ब्राह्मण भी परशुराम को अपना एक नया, एकांतिक और गौरवशाली नायक बनाने की कोशिश में लग गए हैं। वे भी पीछे क्यों रहें! 

त्रेता के रामावतार, द्वापर के कृष्णावतार और कलियुग के बुद्धावतार पर सामग्री का इतना बाहुल्य है कि यहाँ अलग से किसी विवरण की आवश्यकता नहीं। 

पुराण कलियुग और सत्ययुग के संक्रमण-बिन्दु पर कल्कि अवतार होने की भविष्यवाणी ही नहीं करते, अपने कथ्य और शैली के अनुरूप कुछ अग्रिम विवरण भी दे डालते हैं। भगवान कल्कि एक ब्राह्मण (विष्णुयश) के घर में जन्म लेंगे। अपने श्वेत घोड़े पर सवार, नंगी तलवार हाथ में लिए, वे दुनिया के सभी पापियों का संहार कर देंगे और इस तरह कलियुग के अंधकार युग से सत्ययुग के स्वर्णिम युग में अंतरण हो जाएगा।
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(क्रमश:--अगली कड़ियों में अवतारवाद की बौद्धिक व्याख्या का प्रयास-- थिऑसफ़िस्ट हेलेना ब्लावट्स्की और ज्योतिबा फुले के परस्पर-विरोधी मत)
(क्रमशः)

कमलाकांत त्रिपाठी
Kamlakant Tripathi

हिंदू धर्म में अवतारवाद (1) 
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2022/09/1_73.html

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