Friday 28 July 2023

जोश मलीहाबादी की आत्मकथा, यादों की बारात का अंश (17) पाकिस्तान में जोश को जो कुछ भी मिला, हांथ नहीं आया...यहां तक कि, शराब भी छिन गई / विजय शंकर सिंह

भारत से जब जवाहरलाल नेहरू से मिल कर, जोश मलीहाबादी, प्रसन्न मन से, वापस कराची यानी पाकिस्तान पहुंचते हैं, तो उनके भारत में दिए इंटरव्यू को लेकर, पाकिस्तान में अच्छा खासा बवाल भी मच चुका होता है। जो कुछ भी उन्हे जमीन, मकान, दुकान आदि पाकिस्तान सरकार ने दिए थे, उनके आवंटन रद्द कर दिए गए और इस बेरुखी से आजिज आकर, जोश ने, सारे लाभ, पाकिस्तान सरकार को, वापस कर दिए। वह समय, जोश के लिए मुसीबत भरे थे। वे न तो, घर के रहे न घाट के। इसका असर उनके मानसिक स्वास्थ्य और शरीर पर भी पड़ा। कहां, भारत में, उनके करीबी दोस्त जवाहरलाल नेहरू, देश के प्रधानमंत्री थे, सरकार में उनकी पकड़ थी, मलीहाबाद में, पुश्तैनी जमीनें थीं, लखनऊ में अपनी कोठी थी, और कहां वे पाकिस्तान में एक मित्र के दिए हजार रुपए महीने पर जीवन गुजार रहे थे। दुखद स्थिति थी, उनकी। 

यह सब उन्हीं के शब्दों में पढ़े...
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मेरे पाकिस्तानी बनते ही एक क्रयामत का शोर बरपा हो गया। पूरे पाकिस्तान में और शहर कराची में तो इस कदर वलवला उठा, गोया क़यामत का सूर फूंक दिया गया है। तमाम छोटे-बड़े उर्दू अंग्रेजी अखबारों के लश्कर ताल ठोंककर मैदान में आ गए तमाम अदीब, शायर और कार्टूनसाज़ों ने अपनी- अपनी कलमा की तलवारें म्यान से निकालकर मेरे खिलाफ लेख
कविता और कार्टूनों की भरमार कर दी। 

हर तरफ मंडियों का-सा एक शोर बुलंद हो गया कि, दोहाई सरकार की मुगले-आज़म यानी अबूतालिब नकवी ने जोश को आधा पाकिस्तान काटकर दे दिया। मुख्तलिफ टोलियों में बंटे हुए लोग, मेरे खिलाफ इकट्ठे हो गए। वहाबियों, बरेलियों  देवबंदियों कादियानियों, सुन्नियों और शियाओं ने अपनी चौदह सौ बरस की नफरतों को यकसर भुला दिया। तबर्रा और मदह सहाबा के दरमियान सुलह की नींव पड़ गई और मेरे खिलाफ एकजुट होकर ऐलाने जंग फ़रमा दिया, 
मैं चमन में क्या गया गोया दबिस्ता खिल गया।

मेरा पाकिस्तान आना ऐसा मालूम हुआ, गोया कोई जबरदस्त डाकू कारू के खजाने पर टूट पड़ा है या कामदेव अछूतियों के महल में कूद पड़े हैं और तमाम कंवारी कन्याएँ हाय अल्लाह, हाय अल्लाह' के नारे लगा-लगाकर भाग रही हैं। यह तमाम शोर, ये तमाम हंगामे, ये तमाम धमाके और ये सारी दुहाइयाँ जब हुकूमत के कान तक पहुंची तो गृह मंत्रालय ने नकवी साहब से जवाब तलब कर लिया। जिस वक्त मैंने यह बात देखी कि मुझे बाग और सिनेमा की ज़मीन देकर नकवी साहब एक बड़ी मुसीबत में घिर गए हैं तो मैंने चुपके से बाग़ और सिनेमा के प्लाट वापस कर दिए।

उस जमाने में चौधरी मुहम्मद अली साहब प्रधानमंत्री थे। नकवी साहब की उनसे खटपट हो गई। नकवी ने सिकंदर मिर्ज़ा के बलबूते पर प्रधानमंत्री से टक्कर ली थी। सिकन्दर मिर्ज़ा ने उनकी मदद से मुँह मोड़ लिया और उनकी कमिश्नरी खत्म कर दी गई। उनके पतन ने मेरी कमर तोड़ दी में इधर का रहा, न उधर का।

मैने सोचा, 'हिन्दुस्तान पलट जाऊं,' लेकिन गैरत ने इजाज़त नहीं दी। मैंने दिल से पूछा कि खाँ साहब, अब क्या होगा? दिल ने कहा- हिम्मत न हार। 

लोगों ने राय दी कि मैं हुकूमत से आयात निर्यात का लाइसेंस लेकर व्यापार शुरू कर दूँ। मुझ बुधु की समझ में यह बात नहीं आई कि मैं व्यवसाय के लायक नहीं। मैंने दौड़ना शुरू कर दिया। इस दौड़-धूप में जिन्दगी दूभर हो गई। रोज सुबह को घर से निकलता, दोपहर को पलटता, थोड़ी देर आराम करके फिर बाहर निकल जाता और शाम को वापस आता था।

मेरा आलम उस गांववाले के अलम (पताका) का-सा हो गया था, जो मुहर्रम के जमाने में उठाया जाता, ढोल-ताशों की तड़बड़ तड़बड, झय्यम झय्यम की गूंज में हर मकान के चबूतरे पर रखा जाता और इसी तरह दिनभर चक्कर काट-काटकर फिर उसी तरवड़-तरबड़ और झय्यम झय्यम के साथ मकान में लाकर रख दिया जाता है। इस दौड़-धूप में ख़ुदा के फजलों करम से कुछ हाथ तो आया नहीं, अलबत्ता डायरेक्टरों, सेक्रेटरियों और वजीरों के ऐसे दो-दो कौड़ी के नखरे, ऐसे ओछे उस्से और इस कदर बेहूदा लोग देखे कि आदमी का बकार नजरों से गिर गया। यह फ़ैसला करना पड़ा कि इस क्रोम में किसी साहब कलम की कोई गंजाइश नहीं है और हर अदीब और शायर को चाहिए कि वह खुदकुशी फरमा ले। यह सच है कि बाज़ औकात हिन्दू हुक्काम भी नखरे दिखाते हैं; लेकिन अल्लाह हो अकबर, यह मुसलमान जब हैड कांस्टेबल हो जाता है तो हामान व फिरजन बन जाता है और हुकूमत की गद्दी पर बैठकर खिदमतगारों और फेरीवालों के लड़के भी अपने को क्रेसर व दारा समझने लगते हैं। अल्लाह बौनों के दर पर लंका वालों को न ले जाए। अब मेरी मुसलसल नाकामियों की सूची देखिये। 

1. जहांगीर रोड का सिनेमा प्लॉट और बाग़ लगाने की ज़मीन खुद मैंने वापस कर दी।
2. एक सोसाइटी का सिनेमा- प्लांट नीलामी में मेरे नाम टूटा, कीमत अदा न कर सका इसलिए निकल गया।
3. काश्तकारी के लिए हाशिमी साहब डेप्युटी कमिश्नर कराची ने पचास एकड़ जमीन दी, अल्ताफ़ गौहर साहब ने उसे जब्त कर लिया।
4. साइकिल-रिक्शाओं के परमिट मिले, भाव गिर गया- परमिट हवा में उड़ गए।
5. कोल्ड स्टोरेज की इजाजत मिल गई। रुपया लगानेवालों को बरगला दिया गया।
6. वाजिद अली शाह कंट्रोल रेट पर बसें देने पर आमादा थे रूपया लगाने वाले को रोक दिया गया। 
7. बीड़ी के पत्तों का लाइसेंस मिल रहा था। लाइसेंस देनेवाले के नखरे बरदाश्त न कर सका। उसे बुरा-भला कहकर घर आ बदल गया।
8. सिनेमा के साज-सामान का दूसरे दिन परमिट मिल रहा था, वजीर को हटा दिया गया। 9. टेक्सटाइल का इजाज़तनामा मिलने वाला था वजीर हटा दिया गया। 
10. प्रेस लगाने का इजाजतनामा लिखकर तैयार हो गया- दस्तखत करने से पहले बजीर को निकाल दिया गया। 
11. मछली की तिजारत का परमिट लिख दिया था सेक्रेटरी को हटा दिया गया ।
12. पेट्रोल पम्प की कोशिश की, असफल रहा। 13. एक मकान अलाट हुआ था, आज तक कब्जा न मिल सका।
14. ग्राम विकास विभाग में नौकरी की दरख्वास्त दी, मंजूर नहीं हुई।
15. अपनी किताबें छपवानी चाहीं, कोई प्रकाशक तैयार नहीं हुआ।
16. फिरीयर हॉल के एक कोने में रेस्तरों खुलवाने का पक्का वादा किया गया-अफसर का तबादला हो गया। 
17. सिंधी अदबी बोर्ड में एक इल्मी काम किया, उजरत नहीं मिली।
18. पुनर्वास विभाग के एक अफसर ने एक मकान की जमीन अलॉट कर दी मगर चलते वक्त यह खड़े नहीं हुए। अलॉटमेंट का पुर्जा फाड़कर उनके सामने फेंक दिया।
19. पंजाब के मुख्यमंत्री क़ज़लबाश साहब एक कारखाने का परमिट दे रहे थे कि उसी रोज फौजी इंकलाब आ गया और उनके मंत्रिमंडल ने दम तोड़ दिया- अलगरज- जिस जगह हमने बनाया घर सड़क में आ गया।

इस मुसलसल नाकामियों से में चकरा गया। मायूसी और इफलास गहरा होता चला गया। नकवी साहब जो एक हजार रुपया बतौर कर्ज देते थे, वह इस कदर कम था कि मेरा घर चला नहीं सकता था इसलिए अपने एक दोस्त के जरिए से जेवर बैच बेचकर काम चलाने लगा।

मैने सोचा कि यह काग़ज़ की नाव कब तक चलेगी। बीबी ने कहा कि सारे खर्च आधे कर दो। उसकी लपेट में आकर शराब छोड़ दी। शराब छोड़ने के बाद मेरा हाल उस बच्चे का सा आलम हो गया, जिसका दूध छुड़ा दिया जाता है। शराब की फड़कन से निजात पाने के लिए शाम ही से खाना खा लिया करता था। लेकिन बेचनी में कमी नहीं आती थी। जी बहलाने को किताब उठा लेता था कि शराब की ललक बहल जाए। किताब की सतरें नागिनों की मानिंद रंगने लगती थीं और हफों के दायरे में बिच्छू डंक उठाए नज़र आते थे।

गडमडाकर बिस्तर पर लेट जाता और करवट पर करवदें बदलता था; लेकिन नींद किसी तरह भी नहीं आती थी और तमाम जिस्म में खुजली होने लगती थी। घंटों खुरखुर खुजाया करता था और छिपकली की कटी हुई दुम की मानिंद रात-रात भर तड़पता रहता था। सुबह जब खत बनाने के वास्ते आईने के सामने बैठता तो अपना बेख्याबी का रोंदा हुआ ततैये का सा मुँह देखा नहीं जाता था। अपनी शक्ल देखकर ऐसा मालूम होता था कि कोई चौबड़ किस्म के गरीब शाह दिल्ली की जामा मस्जिद की सीढ़ियों पर बैठे दाँत निकाल-निकाल कर भीख माँग रहे हैं।

अगर किसी दिन कुत्ते की-सी झपकी आ भी जाती थी तो इतने बुरे बुरे और टूटे-टूटे ख्वाब देखता था कि बार-बार भक़ से आँख खुल जाया करती और घड़ी की टिक-टिक दिल पर घन चलाने लगती थी। न जाने कितने सनसनाते सीले, सपाट, सूखे, रुखे, फीके, डकारते, इसते, फुंकारते भयानक और भभोड़ते ख्वाब देख डाले उस जमाने में।
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इस तरह मुसीबत में उनके दिन बीतते रहे। पर उन्हे चैन नहीं था। आगे भी स्थिति बहुत अच्छी नहीं हो पाई। कुछ सुधार, उनकी आर्थिक स्थिति में तो आया, पर जो सामाजिक प्रतिष्ठा और सरकार से जुड़े असरदार संबंध उनके भारत में थे, वे ताल्लुकात, उन्होंने पाकिस्तान के हुक्मरान से नहीं बना पाए। जोश मलीहाबादी का रुझान और संबंध, इंडियन नेशनल कांग्रेस के बड़े नेताओ और स्वाधीनता आंदोलन के सेनानियो से था, न कि, मुहम्मद अली जिन्ना और उनकी मुस्लिम लीग से। उत्तर प्रदेश, बिहार से पाकिस्तान में जाने वाले अधिकतर मुसलमान, मुस्लिम लीग से जुड़े थे या उनसे सहानुभूति रखते थे। जबकि जोश तो, कांग्रेसी मिजाज के थे और कांग्रेस के साथ शुरू से ही थे। 
(क्रमशः) 

विजय शंकर सिंह
Vijay Shanker Singh 

जोश मलीहाबादी की आत्मकथा, यादों की बारात का अंश (16) पाकिस्तान की ओर प्रस्थान / विजय शंकर सिंह '.
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2023/07/16.html

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