जोश ने, इसके पहले कि, निजाम उन्हे अपनी सेवा से बर्खास्त करें, इस्तीफा दे दिया। निजाम उन्हे नौकरी से बर्खास्त कर, एक मुलाजिम को, बर्खास्त किए जाने का सुख, लेना चाहते थे, पर, जोश के स्वाभिमान ने, निजाम के इस इरादे पर पानी फेर दिया। लेकिन, जोश का स्वाभिमान भले ही जीत गया हो, पर उनकी आर्थिक स्थिति इतनी अच्छी नहीं हो पाई थी कि, वे इस्तीफा देकर, खुद अपने दम पर आगे जीवन गुजार सकें। कारण उनकी जमींदाराना स्वभाव, ऐश से जीने की आदत और शाहखर्ची की लत।
उनकी मदद में, उनके एक मित्र, आगा जब फरमान लेकर आए तो उन्होंने फरमान की एक तकनीकी बारीकी, उन्हे बताई कि, यदि जोश, अब भी माफी मांग लेते हैं, तो इस्तीफा वापस हो जायेगा और वे पुनः नौकरी पर बहाल हो जायेंगे। पर जोश इस तकनीकी पहलू के खुलासे से, जो उनके ही हित में था, माफी मांगने के सवाल पर, फिर भड़क गए और यह बात यहीं की यहीं बंद हो गई।
लेकिन, चूंकि, हैदराबाद के निजाम के यहां, काम कर चुके कर्मचारियों के लिए पेंशन यानी वजीफे की प्रथा थी तो, उन्होंने अनुरोध कर के, निजाम के खजाने से पांच हजार रुपए, इस वादे पर, अग्रिम ले लिए कि, यह रकम, उनकी पेंशन से, किश्तों में काट ली जाएगी। अब तो हैदराबाद से चल निकलने के अलावा उनके पास कोई विकल्प नहीं बचा था।
आगे का हाल, उन्ही के शब्दों में...
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फ़रमान लेकर आग़ाजानी मेरे पास आए और कहने लगे, इस फरमान को समझें भी?" मैंने कहा कि इसमें समझने की क्या बात है। उन्होंने कहा कि मैं सरकारे-वाला का मिजाज पहचानता हूँ। इसलिए फरमान के दो नुक्ते बताने आया हूँ। पहला नुक्ता तो यह है कि सरकार जब किसी पर कहर फ़रमाते हैं तो उसे चौबीस घंटे के अन्दर निकाल देते हैं। आपको चौबीस घंटे के एवज पूरे पन्द्रह दिन की मोहलत दी गई है और वह इस मकसद से कि आप सूरतेहाल को ठंडे दिल से समझकर माफी मांग लें और यह फरमान वापस ले लिया जाएगा। दूसरा नुक्ता यह है कि इसमें 'जब तक दूसरा हुक्म न हो' लिखकर आपकी वापसी को नामुमकिन नहीं बनाया गया है। देखिए, अब भी कुछ नहीं गया है। अभी मेरे साथ सरकार की ख़िदमत में हाज़िर होकर माफ़ी मांग लीजिए। अगर इसी वक्त यह फरमान मंसूख न कर दिया जाए तो मेरी नाक काट लीजिएगा।
मैने आगाजानी को गले लगाकर उनका माथा चूम लिया और कहा, "आप वाकई मेरे पक्के दोस्त है; लेकिन में किसी तरह माफ़ी तलब नहीं करूंगा।" आगा ने सर पकड़कर कहा, "भाई, राजहठ, बालहठ त्रियाहट तो सुनी थी। आज मालूम हुआ कि चौथी हठ भी होती है जिसे 'शायरहठ' कहना चाहिए।" मैने अन्दर जाकर बीवी से कहा, "अब सामान बांधो हम यहाँ पन्द्रह दिन क्यों पड़े रहे, तीन-चार दिन में ही क्यों न चले जाएं?" बीवी ने कहा, "यह तो सोचो, जाओगे कैसे? जाने का दमदरूद (सामर्थ्य) भी है? तुम्हारे बहन-बहनोई, उनके बच्चे, हम लोग, छोटे दादा और दोनों नौकर इतने आदमियों का किराया-भाड़ा कहाँ से आएगा। फिर तुम्हारी यह जिदमी है कि, हम अपनी मोटर और दोनों कुते भी साथ ले जाएंगे और उन्हें यहाँ की गलियाँ में मारा-मारा नहीं फिरने देंगे। इन सबके लिए रुपया कहाँ से आएगा? इसी दिन के लिए में तुमसे कहा करती थी कि रोज़ दावतें न करो, गोल के गोल आदमियों को रोज शराब न पिलाओ इतने अलल्ले-तलल्ले न करो। अब बताओ क्या करोगे और कैसे जाओगे?
बीबी की बातें सुनकर में चकरा गया। मैंने कहा, “फिर अशरफ जहाँ क्या किया जाए?" उन्होंने कहा, "जाओ और शाहजादे और महाराजा (किशन प्रसाद) से कर्ज मांगो।" मैने कहा, "मैं कर्ज मांगने नहीं जाऊँगा। यह तो इन दोनों का फर्ज था कि किसी को मेरे पास भेजकर पुछ्वाते कि हम इस मौके पर आपकी क्या इमदाद कर सकते हैं। जब उन्होंने अपना फर्ज अदा नहीं किया तो मैं बेगरती लादकर उनके पास क्यों जाऊ। बीबी ने कहा, "हाँ, सच कहते हो। लेकिन में पूछती हूँ कि अब सुवीता क्या किया जाए?" गरज यह कि एक-एक करके दिन गुज़रने लगे और जाने की तारीख़ करीब से करीबतर आने लगी और कोई तदबीर समझ में नहीं आई।
एक रोज़ इसी बेचारगी के आलम में सर झुकाए बैठा था कि हकीम आजाद अंसारी ने आकर कहा, "कुछ ख़याल भी है, कि यहां से जाने में अब फकत चार दिन बाकी रह गए हैं?" मैंने कहा, "आजाद साहब, अब इसके सिवा कोई चारा नहीं है कि, मैं निकलने के दिन बड़े इत्मीनान से अपने फाटक के सामने आरामकुर्सी पर बैठ जाऊँ और निजाम की नाफरमानी के जुर्म में अपने को गिरफ्तार कराके जेल चला जाऊँ। लेकिन मेरे बाल-बच्चे क्या करेंगे?"
आज़ाद ने कहा, "गिरफ्तार हों, आपके दुश्मन में ऐसी तदबीर निकालकर आया हूँ, जो पट पड़ ही नहीं सकती। आपकोbइस बात का इल्म नहीं कि खानदाने आसक्रिया की यह एक पुरानी रवायत है कि शाही मातृबों" को आजीवन वज़ीफ़ा दिया जाता है। आप भी मातृब है, आपको भी वज़ीफ़ा दिया जाएगा। इसलिए आप अल्लाह का नाम लेकर इस मजमून की दरख्वास्त लेकर अकबर हैदरी के पास जाए कि आपको खजाना-ए-सरकारे आली से पाँच हजार रुपये की रकम बतौर कर्ज दे दी जाए और उस रकम को बजीफे में से किस्तों में काट लिया जाए।
मैने कहा, "तदबीर तो आपकी माकूल है; लेकिन क्या मुँह लेकर हैदरी के पास जाऊँ। उन्हें तो ख़िताब के मामले में जलील कर चुका हूँ। " आज़ाद ने कहा, "इससे क्या होता है? आप हैदरी से तो कर्ज़ नहीं मांग रहे हैं। कर्ज तो सरकारी खजाने से मिलेगा।" मैंने कहा, "बहुत अच्छा में तैयार हूँ। लेकिन दरख्वास्त लिखनी तो मुझे आती नहीं।" आजाद ने अपनी जेब से टाइपशुदा दरख्वास्त निकालकर मेरे हवाले कर दी और कहा, “इसी ख़याल से मैं आपके पास लैस होकर आया था कि दरख्वास्त लिखना आपके बस का रोग नहीं।"
अपने मिज़ाज के खिलाफ लाखों कोड़े मार-मारकर में हैदरी के पास गया। उन्होंने बड़ी नर्मी के साथ पूछा, "जोश साहब, मैं आपकी क्या ख़िदमत कर सकता है?" मैंने कहा, "आप मुझ पर दो इनायतें कर सकते हैं। पहली इनायत तो यह होगी कि आप मेरी इस कर्ज की दरख्वास्त को कुबूल फरमा लें। यह मुमकिन न हो तो फिर यह दूसरी इनायत करें कि मुझे नाफरमानी के जुर्म में गिरफ्तार कराकर जेल भिजवा दें। "
उन्होंने मेरी दरख्वास्त अपने हाथ में लेते हुए कहा, "आप गिरफ्तारी की बात न कहें। अगर आपको गिरफ्तार कर लिया तो लिटरेचर की हिस्ट्री, हैदराबाद को कभी माफ़ नहीं कर सकेगी।" दरख्वास्त पढ़कर वह दाढी खुजलाने लगे। मैंने कहा, "हैदरी साहब, आप अपने दिमाग़ पर बोझ न डालें। मैं हर मुसीबत के लिए बाखुशी तैयार है। उन्होंने कहा, "जोश साहब, यह फायनेंस का मामला है। इसमें पाँच-छह महीने लगेंगे।" मैंने कहा, "मुझे तो सिर्फ चार दिन की फुरसत है।"
वह सर झुकाकर सोचने लगे। अपनी खुशखुशी दाढी खुजलाई, ऐनक साफ करके दोबारा लगाई और आख़िरकार गर्दन के एक फैसलाकुन झटके के साथ मेरी दरख्वास्त मंजूर करके उस पर दस्तखत कर दिए। दूसरे ही दिन मुझे पाँच हजार रुपये मिल गए।
जाता है आसमां लिए कूचे से यार के
आता है जी भरा दरो-दीवार देखकर
कैसे बताऊं कि हैदराबाद से रवानगी के वक़्त मेरे दिल का क्या आलम था। एक तरफ़ गमें मे दौरां (दुनिया का गम) और एक तरफ गमे जाना (प्रेयसी का गम) मेरे रोजगार की शम्मा बुझकर धुआँ दे रही थी और मेरे इश्क़ का चाँद गहनाकर उदासी बरसा रहा था। बीवी रेल के डब्बे में उदास बैठी थी और महबूबा वेटिंग रूम में पछाड़ खा रही थी और मेरा यह आलम था कि बार- बार बीवी की नजर बचाकर वेटिंग रूम जाता, महबूबा को गले लगाकर रोता और आँसू पोंछकर बाहर आता और सैयद अली अखतर, सैयद अबुलखर मोदी और सैयद अलआला मौदूदी से, जो मुझे रुखसत करने आए थे, बातें करने लगता था।Vमैं इसी आलम में था कि नवाब जुलकदरजंग आ गए और एक कागज मेरी तरफ बड़ाकर कहा, "यह मेरे नाम का शाही फ़रमान है, इसे पढ़ लीजिए।" फरमान अक्षर-अक्षर याद नहीं, लेकिन मतलब यह था कि जोश मलीहाबादी आज हिन्दुस्तान जा रहे हैं। उनसे कह दो कि वह अपनी कलम को मेरे खिलाफ इस्तेमाल न करें। अगर माफ़ी पर तैयार हो तो अब भी गुंजाइश बाकी है। मैंने कहा, "नवाब साहब, आला हजरत की खिदमत में मेरा शुक्रिया अदा करके कह दीजिए कि मैं उनकी हिदायत पर अमल करूँगा, लेकिन माफी तलब करने पर आमादा नहीं हूँ।
इतने में रेल रंगने लगी। मैं दौड़कर सवार हो गया। सबको सलाम किया। मेरी महबूबा वेटिंग रूम से निकल आई। उसने आँसुओं से डबडबाई आंखों के साथ मुझे रुखसती सलाम किया। सलाम करके लड़खड़ा गई। मैंने आँखों ही आँखों में उसे गले लगा लिया और गाड़ी की रफ्तार तेज हो गई।
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इस अंश में जोश साहब की प्रेमिका का, जो उन्हे स्टेशन पर छोड़ने आई थी का उल्लेख किया है के बारे, इस प्रसंग के अलावा, और कहीं, उनकी प्रेमिका का उल्लेख, उनकी आत्मकथा में नहीं मिलता है।
(क्रमशः)
विजय शंकर सिंह
Vijay Shanker Singh
'जोश मलीहाबादी की आत्मकथा, यादों की बारात का अंश (10) निजाम हैदराबाद की सेवा से जोश का इस्तीफा / विजय शंकर सिंह '.
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2023/07/10.html
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