जोश, स्वाधीनता संग्राम के दौरान, कभी जेल नही गए और न ही वे कभी इंडियन नेशनल कांग्रेस के पदाधिकारी रहे। लेकिन इसके बावजूद, जोश, जवाहरलाल नेहरू, सरदार पटेल, मौलाना आजाद, सरोजनी नायडू आदि से निजी तौर पर जुड़े रहे। नेहरू से तो उनका पारिवारिक नाता था। वे अपने पिता के साथ, जब इलाहाबाद गए तो, नेहरू के ही मेहमान बने। इन्ही महान शख्शियतों में से एक कवि थीं, सरोजनी नायडू। जन्म से बंगाली पर शादी, हैदराबाद के एक चिकित्सक, डॉ. एमजी नायडू के साथ होने से सरोजनी चट्टोपाध्याय, सरोजनी नायडू हो गई। सरोजनी नायडू, अंग्रेजी में कवितायेँ लिखती थीं और वे गांधी तथा जिन्ना की करीबी भी थीं। जिन्ना की पारसी पत्नी, रत्ती से, उनकी दोस्ती थी, हालांकि, रत्ती, सरोजनी की बेटी पद्मजा के उम्र की थी। शीला नायडू की किताब, मिस्टर एंड मिसेज जिन्ना में, सरोजनी नायडू के हवाले से, रत्ती - जिन्ना संबंधों पर अच्छी सामग्री दी गई है।
सरोजनी नायडू ने ही, जोश की प्रसिद्ध नज़्म, तुलु ए सहर, का अंग्रेजी अनुवाद, गुरुदेव रबीन्द्रनाथ टैगोर को सुनाया था और टैगोर ने, इस कविता को सुन कर, जोश की प्रशंसा भी की थी, उनका हौसला भी बढ़ाया था, और जोश को शान्तिनिकेतन में कुछ दिन रहने का आमंत्रण भी दिया था। जोश, शांतिनिकेतन, गए भी थे, और उन्होंने कुछ समय, वहां बिताया भी था। सरोजनी नायडू को जब, जोश के दर दर भटकने की खबर मिली तो वे, जोश की मदद के लिये आगे आईं और, जोश को, दिल्ली से एक उर्दू अखबार निकालने का प्रस्ताव दिया। अखबार के लिए, धन की व्यवस्था भी उन्होंने की और आगे भी जरूरी मदद का वादा भी किया। जोश ने उस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया और अखबार निकला। पर उस अखबार का भी हश्र बहुत अच्छा नहीं हुआ।
आगे, उन्ही के शब्दों में पढ़ें...
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दिल्ली पहुंचा तो मिसेज़ नायडू बरस पड़ी कहने लगी, "जरा उसका नाम तो बताइए, जिसने आपको यह खबर दी कि सरोजनी मर चुकी है। मैंने हैरान होकर पूछा, "यह आप क्या कह रही है?" उन्होंने कहा, "यह में इसलिए कह रही हूँ कि अगर आप मुझे जिन्दा समझते तो सीधे मेरे पास आकर अपनी विपदा कहते।" अपनी बात जारी रखते हुए उन्होंने कहा कि अगर घोष मुझे न लिखते तो यह पता ही न चलता कि आप धौलपुर में अपने किसी दोस्त रूप सिंह के पास ठहरे हुए हैं।
मैंने क्षमा-याचना के लिए लब खोले ही थे कि उन्होंने कहा, "मैं आपके टैम्प्रामेंट (मिज़ाज) से वाक़िफ़ हूँ, कुछ न कहिए। मेरे सोने के कमरे में जाइए। तकिए के नीचे एक बड़ा-सा लिफाफा रखा हुआ है, उसे खोले बगैर अपनी जेब में रख लीजिए। जरा सँभाल कर रखिएगा ताकि गिर न जाए। अब आपका काम यह होगा कि दिल्ली से एक नीम अदबी और नीम सियासी रिसाला निकालेंगे और किसी रियासत की तरफ मुड़कर भी नहीं देखेंगे। में इश्तहार भी दिला दूंगी।"
मैं रिसाले का नाम 'काखे बुलंद रखना चाहता था। मेरे दोस्त जुल्फिकार अली बुखारी ने राय दी कि यह नाम मुश्किल है, मैं रिसाले का नाम कलीम रखूं। मैंने यह राय मान ली।
रिसाला निकालना तिजारती मामला है। मेरी सात पीढ़ी भी तिजारत से वाक़िफ़ न थी इसलिए शुरू शुरू ही में बहुत- सा रुपया बरबाद हो गया। इसके साथ मेरे दिल्ली के दोस्तों ने मुझे घेर लिया। रोज़ बोतलें खुलने और दावतें उड़ने लगीं। कातिबों, कागजवालों, ब्लॉकसाजों और छापखानेवालों ने भी यह समझकर कि मैं सर से पाँव तक बेवकूफ़ आदमी हूँ, मुझे दोनों हाथों से लूटना शुरू कर दिया, जिसका नतीजा यह निकला कि अभी दूसरा पर्चा छपा नहीं था कि तमाम रुपया ख़त्म हो गया।
शर्म आई कि मिसेज़ नायडू से यह बात कैसे कहूं और सोचने लगा कि, अब क्या किया जाए। अभी कोई बात समझ में नहीं आई थी कि, बीमार पड़ गया। बुखार इस कदर तेज आया कि, हवास गुम हो गए और नजला इस कदर शदीद हुआ कि तमाम सीना रुँघकर रह गया। साँस भी रुक-रुककर आने लगी और मैं समझा कि अब बच नहीं सकूँगा।
मैं फतहपुरी के क्राउन होटल में ठहरा हुआ था। एक पर्चे पर मैंने मिसेज़ नायडू और जवाहरलाल का नाम लिखा और कराहता हुआ नीचे आया। मैनेजर को वह पर्चा देकर कहा, "अगर मैं मर जाऊ तो फ़ौरन इन दोनों को ख़बर कर दीजिएगा। मैनेजर बेहद घबराया। वह दौड़ा हुआ गया और डॉक्टर सैयद नासिर अब्बास को, जिनका दवाखाना वहाँ से दस कदम पर था, अपने साथ ले आया। डॉक्टर साहब पहले से मुझे जानते थे। मेरे सीने का मुआइना किया और दवाखाना जाकर अपने आदमी के साथ दवाएं भेज दीं।
दवाएँ पीकर अभी लेटा हुआ अपनी बेकसी पर गौर और अपनी मौत की आमद का इंतजार कर रहा था कि आहट महसूस हुई। पंडित शिवनारायण, जिनका छापाखाना होटल से मिला हुआ था और जिन्हें मतलबी फरीदाबादी मुझसे मिला चुके थे, कमरे में दाखिल हुए। मैंने कहा, "आइए शिवनारायण साहब, अफ़सोस कि मैं उठ नहीं सकता। आप मेरे सिरहाने बैठ जाएँ। " मिजाज पुरसी के बाद उन्होंने कहा, "जोश साहब, मुझे अन्दाज़ा हो गया है कि आप रिसाला नहीं निकाल सकते। मैं कारोबारी आदमी हूँ, मेरा अपना छापाखाना है; इसलिए अगर आप पसन्द करें तो मैं आपका पचास फीसदी हिस्सेदार हो जाऊँ। कलम आपकी चलेगी और रुपया में लगाऊंगा। जब तक रिसाला चलने न लगे पाँच सौ रुपये महीना आपको पेशगी देता रहूँगा। "मुझे और क्या चाहिए था, उनकी यह तजवीज़ फ़ौरन मंजूर कर ली।
दो-चार दिन के अन्दर पं. शिवनारायण ने होटल के सामने ही दो कमरों और खुले सेहन का फ्लैट, दफ़्तर और मेरी रिहाइश के वास्ते किराये पर ले लिया। मैं होटल से वहाँ उठ आया।
कुछ रोज़ के बाद जब मैंने उनसे कहा कि, मैं अपनी बीवी को भी यहां ले आना चाहता हूँ तो, उन्होंने करोलबाग में एक कोठी किराये पर लेकर उसे फर्नीचर से आरास्ता कर दिया। मैं धौलपुर जाकर बीवी को ले आया, जिससे यह कोठी आबाद हो गई। कलीम अच्छा खासा चलने लगा, माकूल आमदनी होने लगी। मेरी नज़्मों के दो संकलन भी छप गए। हैदराबाद से इताबी वज़ीफ़ा भी जारी हो गया और जिन्दगी चैन से गुज़रने लगी।
साल-दो साल आराम से गुज़रने के बाद मेरी जिन्दगी फिर एक संकट की जानिब मुड़ गई। एक रोज़ शाम के वक्त शिवनारायण खुश्क चेहरे के साथ आए और कलीम से अपनी दस्तबरदारी का ऐलान करके कह दिया कि कल से आप अपना पर्चा खुद संभालें।
यह सच है कि, शिवनारायण ने अपने भाइयों के दबाव में आकर यह बात की थी, मगर उनका यह इखलाकी फर्ज था कि वह मुझे कम से कम तीन महीने का नोटिस देते। लेकिन उन्होंने सिर्फ बारह घंटे का नोटिस देकर अलहदगी अख्तियार कर ली। मैं सीधा अपने पड़ोसी महमूद अली ख़ाँ जामई के पास पहुँचा और कलीम का कारोबार उनके सुपुर्द कर दिया। लेकिन जब एक महीने के बाद उन्होंने कलीम की आमदनी के सिर्फ नब्बे रुपये मेरे हवाले किए तो मैं दंग रह गया। मैं उनसे, कुछ कह न सका।
जब और कोई सूरत नज़र न आई तो मैने मिस्टर पानीक्कर को ख़त लिखा और उन्होंने तार भेजकर मुझे पटियाले बुला लिया और महाराजा पटियाला भूपेंद्रसिंह से मिलवाकर मेरा वज़ीफ़ा मुकर्रर करा दिया। अब दिल्ली आकर मैंने महमूदअली खाँ से रिसाला निकाल लिया और करोलबाग से दरियागंज उठ आया एक कोठी 'आदित्य भवन किराये पर लेकर ख़ुद रिसाला निकालने लगा। हकीम आज़ाद अन्सारी मेरा हाथ बँटाने लगे और हैरत है कि मेरी बीवी भी कलीम के कारोबार में मेरी मदद करने लगी। कलीम साज-सज्जा और विषय-वस्तु दोनों हैसियतों से दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की करने लगा। पानीक्कर, जोश के मित्र और महाराजा पटियाला के सेक्रेटरी थे। मैने उसी जमाने में अपनी चचेरी बहन के बेटे अल्ताफ़ अहमद ख़ाँ से अपनी बेटी सईदा की धूमधाम से शादी भी कर दी।
कलीम की तरक्की ने मेरे बहुत-से दुश्मन भी पैदा कर दिए थे ऐसा क्यों न होता? फ़िरंगी हुकूमत से बग़ावत, सरमाएदारी का विरोध, समाजवाद का प्रचार और कांग्रेस की तरफदारी। नतीजा यह कि कांग्रेस के गुलामी परस्त मुखालिफ़ीन, मुस्लिम लीग के खिताब याफ्ता' मुजाहिदीन और हुकूमत के टुकड़ों और वजीफों पर पलने वाले हुक्काम और उल्माए - कराम लंगर-लंगोटे बाँधकर अखाड़े में उतर आए। उधर पलटने थीं और इधर मैं अकेला।
आए दिन मेरे खिलाफ कुछ के फतवे निकला करते और क़त्ल की धमकियों के गुमनाम खत आया करते थे। खुफ़िया पुलिस साये की मानिंद मेरे पीछे लगी रहती थी। बीवी चिल्लाती रहती थीं कि अरे मुँहअंधेरे टहलना छोड़ दो। न जाने कौन अँधेरे में पीछे से आकर छुरी मार दे। लेकिन मैं हर रोज़ तारों की छाँव में एक मोटा-सा डंडा लेकर जमुना के किनारे बड़े इत्मीनान से टहला करता था कि आख़िर में भी आफरीदी पठान हूँ, दो-चार को मारकर मरूंगा।
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दिल्ली भी जोश को, स्थायित्व नहीं दे पाई। कलीम अखबार निकला और ठीक ठाक चला भी। जोश को आमदनी भी होने लगी और जिंदगी में एक बेहतर ठहराव भी आया। पर तरक्की, दोस्त कम, दुश्मनी और मतलबी यार अधिक पैदा करती है। दिल्ली भी लम्बा सुकून नहीं दे सकी। जोश को, न तो चैन, निजाम के हैदराबाद में मिला और न ही देश की राजधानी दिल्ली में। जोश का तरक्कीपसंद मिजाज, यहां भी आड़े आ गया था। तब तक आजादी और साथ ही साथ, देश के बंटवारे की बात हवा में तैरने लगी थी। रह रह कर, उन्हे मलीहाबाद भी याद आता पर, मलीहाबाद तो, एक अरसा हुआ उन्हे छोड़े हुए। कुल मिला कर उनकी जिंदगी, कुछ कुछ अनिश्चित सी, दुबारा गुजर रही थी। जिंदगी जब 'यूं ही' गुजरने लगती है, तो जो कष्ट और अवसाद देती है, वह तो भुक्तभोगी ही जान सकता है।
(क्रमशः)
विजय शंकर सिंह
Vijay Shanker Singh
'जोश मलीहाबादी की आत्मकथा, यादों की बारात का अंश (12) दतिया और धौलपुर में दर बदर घूमते टहलते, जोश / विजय शंकर सिंह '
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2023/07/12.html
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