जोश मलीहाबादी का अखबार, कलीम, चार साल चला और फिर वह बंद हो गया। जोश ने उस अखबार को, लखनऊ के एक अन्य, अखबार, नया अदब में मिला दिया और खुद, दिल्ली से, अपने घर मलीहाबाद के लिए चल पड़े। मलीहाबाद में, पत्नी के जोर देने पर, उन्होंने आम के बाग लगवाए, और अपनी जमींदारी में रहने लगे। मलीहाबाद में, जोश को आराम ही आराम था। जमीदारना जिंदगी और देहात का प्राकृतिक परिवेश। इन सबके बीच वे अपना अदबी अभ्यास जारी रखे हुए थे।
लेकिन कमी थी तो बौद्धिक खुराक की। मलीहाबाद में, जोश के साथ, न तो हम प्याले थे और न ही साहित्य के श्रोता और पारखी। कुछ महीने रह कर, जोश फिर लखनऊ आ गए और फिर जाम लड़ने लगे, सागर छलकने लगे, और अदब की सरिता बहने लगी। लखनऊ में, जोश साहब की कोठी भी थी। लखनऊ से मलीहाबाद, था ही कितना दूर, रेल भी थी। जोश, बीच, बीच में, जमींदारी देखने, या मिजाज बदलने चले जाया करते थे।
इसी बीच दूसरा विश्वयुद्ध छिड़ गया। देश का राजनीतिक माहौल बदल रहा था। जोश की कलम, इंकलाब के तराने लिखने लगी। उन्होंने एक ऐसी नज़्म लिख दी कि, सरकार के निशाने पर आ गए। उनकी निगरानी हुई, खाना तलाशी हुई, उनसे कहा गया अंग्रेजी राज के खिलाफ न लिखें। जोश नही माने। फिर कहा गया, हिटलर मुसोलिनी के खिलाफ लिखिए। जोश ने कहा, "इस समय, हिटलर मुसोलिनी के खिलाफ लिखना, ब्रिटिश को लाभ पहुंचाएगा।" इंकलाब लिखते रहे वे, और इंकलाब की आमद हो भी रही थी।
अब आगे का हाल, उन्ही के शब्दों में...
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बीवी तुल गई आमों के बाग लगवाने पर और ऐसी तुल गई कि खाना पीना दूभर कर दिया। हर आन यह रट लग गई कि बाग़ लगयाओं और जब तक बागों में कलम न लग जाएं कलम न उठाओ। मैंने उसी जमाने में एक तवील ड्रामाई नज्म 'हर्फे आखिर शुरू की थी। उन्होंने वह नज्म भी नहीं कहने दी।
तंग आकर मैंने मातादीन पटवारी को बुलाया। उसने कहा, मंझले भैया, अब कानून बदल गया है। आप किसी काश्तवार को बेदखल करके उससे जमीन नहीं निकाल सकते। और जब जमीन नहीं निकल सकेगी तो बाग़ कैसे लगेगा?"
मातादीन की बात सुनकर में बाग बाग हो गया कि चलो एक मुसीबत कट गई। मैं खुशी खुशी बीवी के पास गया और झूठ-मूठ का गमगीन चेहरा बनाकर पटवारी की बात दोहरा दी। लेकिन बीवी निराश नहीं हुई। मुझे और पटवारी को साथ लेकर गांव गई। थाने के सामने काश्तकारों को जमा करके पटवारी से
कहा, "पूछो काश्तकारों से, कि मझले भैया ने क्या तुम पर कभी जुल्म ढाया है? तुम पर लगान वसूली करने में कभी सख्ती की है. तुमसे कभी बेगार लिया है?" और जब मातादीन ने वह तमाम सवाल किए तो हर तरफ से आवाजें आने लगी- नाही नाही, नाहीं कभू नाहीं। फिर बीबी ने कहा, "मातादीन, पूछो, अगर भैया बाग लगवाने के लिए तुमसे थोड़ी-थोड़ी जमीन माँगें तो क्या तुम नहीं दोगे?" सारी रिआया ने एकजुबान होकर कहा- दीबा, दीया, अभू अभू दीबा, गले-गले दीया।
इसके बाद मातादीन ने इस्तीफे निकाले और काश्तकारों ने धड़ाधड़ अँगूठे लगाने शुरू कर दिए। जब तमाम इस्तीफे मुकम्मल हो गए तो बीवी ने मुझसे कहा, "अब तुम इनका शुक्रिया अदा कर दो।" जब में शुक्रिया अदा करने खड़ा हुआ तो तमाम काश्तकार रोने लगे- भैया, हम तो तुम्हारी पनही हैं, अस न करौ (भैया, हम तुम्हारी जूती है, ऐसा न करो)।
बीबी ने मिठाई तकसीम की और रिआया ने मझले भैया की जय के नारे लगाए। दो-तीन महीने के अन्दर आम के बाग़ लग गए और बीवी निहाल हो गई।
यह सच है कि मलीहाबाद में बेहद शान्ति थी, सूर्योदय और सूर्यास्त के दृश्य, अमीनागंज के मैदान की ख़ालिस हवाएं, बौर की खुशबू, कोयल की कू-कू और पपीहे की पीहू थी और लिखने-पढ़ने की फुरसत। लेकिन जब शाम को शराब पीने की इबादत शुरू करता था तो दोस्तों को आँख ढूंढ़ने लगती थी, और चूँकि
ज़ाहिद की नमाज हो कि मैकश की शराब
दोनों का मजा है बाजमाअत साक्री ।
इस तनहाई से तंग आकर में शायद 1941 में फिर लखनऊ आकर रहने लगा। एक रोज जब में अपनी बनारसी बाग के फाटक के सामने वाली कोठी में बैठा लखनऊ के गवर्नर की तक़रीर रेडियो घर सुन रहा था, जिसमे हिन्दुस्तानियों से अपील की गई थी कि, वे इंसानियत के भविष्य को बचाने की खातिर जंग में ब्रिटेन की मदद पर कमरबस्ता हो जाएं, उस वक्त मैंने अपनी नज़्म 'ईस्ट इंडिया कम्पनी के फरजदों से खिताब' पन्द्रह मिनट में कह डाली
थी।
इस नाम का छपना था कि आग लग गई। लोग जुलूस बना-बनाकर निकले और उसे गली-गली गाते फिरने लगे। आगे-आगे वे लोग होते थे और पीछे-पीछे पुलिस। मेरी यह नज्म जब बर्लिन रेडियो से ब्रॉडकास्ट हुई तो मेरी सख्त निगरानी होने लगी और मेरी कोठी से मिली हुई दूसरी कोठी में एक सी. आई.डी. इंस्पेक्टर मेरी दिन रात की निगरानी के वास्ते आकर रहने लगा। एक दिन सह पहर के वक्त पुलिस ने मेरी कोठी पर धावा बोल दिया और एक हिन्दू इंस्पेक्टर के नेतृत्व में दस-पन्द्रह कास्टेबल आ धमके, मेरी खाना तलाशी के लिए। इंस्पेक्टर से मैने कहा, "जनाब, मेरा घर खुला हुआ है। आप शौक से एक-एक कोना छान डालें। " इंस्पेक्टर ने सरगोशी के अंदाज़ में कहा, "मैं आपको ऐसी उम्दा नज्म लिखने पर मुबारकबाद देता हूँ। मैं आपके घर की तलाशी नहीं लूंगा और सिर्फ कानूनी कार्रवाई करके चला जाऊँगा।" मैंने कहा, पुलिस में रहकर आप इस क़दर शरीफ़ हैं, बड़े तअज्जुब की बात है। " उसने कहा, "मैं अपने बच्चों का पेट पालने के लिए मजबूरन नौकरी करता हूँ। मगर मैने ज़मीर नहीं बेचा है, मेरा दिल आप लोगों के साथ है।" वह एक मेज पर सर झुकाकर कानूनी खानापूरी के वास्ते कुछ लिखने लगा। इंस्पेक्टर की मशगूलियत से फायदा उठाकर एक मुसलमान हैड कांस्टेबल ने मेरी टाइमपीस उठाकर जेब में रख ली चोरी उसने की, मैने शर्माकर सर झुका लिया।
कानूनी कार्रवाई मुकम्मिल करके जब इंस्पेक्टर रुखसत होने लगा, मैने उसका शुक्रिया अदा किया। हिन्दू की शराफ़त और मुसलमान की कमीनगी देखकर मुझको दाँतों पसीना आ गया,
कोई हद ही नहीं इस एहतरामे आदमीयत की
बंदी करता है दुश्मन और हम शर्माए जाते हैं
मैंने इस घटना पर एक नज़्म कहकर छपवा दी, जो छपते ही जब्त कर ली गई। चूंकि वह नज्म मेरे किसी संग्रह में नहीं है, इसलिए यहां नकल दिए देता है-
जिससे उम्मीदों में बिजली आग अरमानों में है
ऐ हुकूमत, क्या यह शै इस मेज के खानों में है?
बंद पानी में सफीने खे रही है किसलिए?
तू मिरे घर की तलाशी ले रही है किसलिए?
घर में दरवेशों के क्या रखा हुआ है, बदनिहाद
आ, मिरे दिल की तलाशी ले कि बर आए मुराद।
जिसके अंदर दहशते पुरहौल तूफानों की हैं,
जिसमें ग़लता आँधियाँ अंधे बयाबानों की हैं।
जिसके अन्दर नाग है, ऐ दुश्मने-हिन्दोस्ता
शेर जिसमें हाँकते हैं, काँधती हैं बिजलियाँ
छूटती हैं जिससे नब्ज़े अफसर- औरंग की
जिसमें है गूँजी हुई आवाज़ तब्ले-जंग की
जिसके अन्दर आग है, दुनिया पे छा जाए वो
आग नारे दोजख को पसीना जिससे आ जाए
वह आग मौत जिसमें देखती है मुँह उस आईने को
देख मेरे घर को देखती क्या है, मिरे सीने को देख !!
इसके बाद मैंने आग़ाई साहब के इमामबाड़े में एक मुसद्दस (छह पंक्तियों वाली कविता) पढ़ा हुसैन और इंकलाब' के नाम से। जिसे सुनने के लिए पूरा अदबी लखनऊ टूट पड़ा था। इमामबाड़े में तिल धरने को भी जगह न थी। लखनऊ के तमाम शायर तमाम उस्ताद, यहाँ तक कि मौलाना सफी भी तशरीफ लाए, और मजलिस में सिर्फ शिया ही नहीं अहले सुन्नत और हिन्दू भी शरीक हुए थे।
चूंकि इस मुसद्दस में रोने-पीटने पर जोर देने के बजाय हुसैन के चरित्र और बलिदान पर अमल करने की बात बिलकुल पहली बार कही गई थी इसलिए अहले-मजलिस ने आमतौर पर और अहले- सियासत ने खासतौर पर बार-बार खड़े होकर इस जोशो-खरोश के साथ दाद दी थी कि उनकी आवाज़ों के थपेड़ों से मंच में, जुम्बिश पैदा हो गई और ऐसा मालूम हो रहा था कि श्रोता अपने-अपने गरबान फाडकर मैदाने जंग में कूद पड़ेंगे।
हुकूमत के कान तक यह शोर पहुँचा तो उसने शिया खान साहबों, खान बहादुरों और 'सरों को तलब करके यह हिदायत की कि वे ऐसी कोई तदबीर निकालें कि इस मुसदस का असर दूर हो जाए। अपने आका का हुक्म सुनकर उन्होंने मशविरा किया और ये तमाम लखनऊ के सबसे बड़े धार्मिक विद्वान सैयद नासिर हुसैन साहब क्रिबला की ख़िदमत में हाज़िर हुए और उनसे कहा कि अहले मजलिस ने आमतौर पर और बानी -ए-मजलिस हकीम साहब आलम ने खासतौर पर हमारे दीन की तौहीन की है और मिम्बरे हुसैन घर जोश जैसे शराबी को बिठाकर मिम्बर की बेइज्जती की है। इसलिए आप उस मजलिस के झूठ होने का फतवा सादर फ़रमा दें।
किबला-जी-काबा ने मुझे बुलवा भेजा और चायनीशी के बाद अपने बाई तरफ एक मुसल्ला' बिछवाकर इरशाद फ़रमाया कि जोश साहब, जहमत न हो तो मुसल्ले पर बैठकर अपना वह मुसद्दस सुना दें, जो आपने आग़ाई साहब के इमामबाड़े में पढ़ा था तो हुकूमत के एजेंटों की सफ़ों में एक खलबली और बौखलाहट पैदा हो गई थी और जब में वह मुसद्दस पढ़कर अपनी जगह वापस आ गया तो उन्होंने सरकारपरस्तों की टोली की तरफ देखकर इरशाद फ़रमाया कि आप हजरात ने यह हदीसे मुबारक सुनी होगी, जिसका मतलब है कि जब तुम सुक्र (नशे) में हो तो नमाज़ के क़रीब न फटको, इससे यह बात साबित हो जाती है कि पीनेवालों को होश के आलम में नमाज पढ़ने से रोका नहीं गया है और इससे यह नतीजा निकलता है कि अगर कोई शख्स नशे के आलम में नहीं है तो वह मिम्बरे हुसैन पर भी बैठ सकता है और मस्जिद में दाखिल होकर नमाज भी पढ़ सकता है।
यह सुनते ही सरकारपरस्तों का रंग एक हो गया।
इस मुसद्दस का अंग्रेजी अनुवाद जब मिस्टर मार्श मुशीरे-गवर्नर के ध्यान से गुजरा तो उन्होंने मुझे बुला भेजा और बड़े मुहब्बत भरे अन्दाज़ में कहा, "मैंने जब आपकी नज़्म 'हुसेन और इनकलाब' का अनुवाद पढ़ा तो आपके बारे में यह राय कायम की कि आप हक के पुजारी और झूठ के दुश्मन है और अब मैं आपसे यह सवाल करता हूँ कि मुसोलिनी और हिटलर दोनों इस वक्त यजीद का पार्ट अदा कर रहे हैं या नहीं?" जब मैंने कहा कि "बेशक आप सच कह रहे हैं," तो उन्होंने दूसरा सवाल किया कि "अगर मैं आपसे दरख्वास्त करूँ कि आप इन यजीदों के खिलाफ ऑल इंडिया रेडियो से हर हफ्ते एक नज्म ब्रॉडकास्ट करते रह (जिसके मुआवजे में यू.पी. सरकार आपको आठ सौ रुपये महीना ऑनरेरियम दिया करेगी) तो आप इस 'ऑफर' को कुबूल नहीं कर लेंगे?"
मैंने कहा, "मिस्टर मार्श, में किसी ऑनरेरियम के बगैर आपके इरशाद को मान लेता; मगर क्या करूँ अपने उसूल से मजबूर हूं। कांग्रेस ने इस जंग में आपका हाथ बंटाने की जो शर्तें पेश की थी, आपकी हकूमत ने उन्हें नहीं माना।" मार्श ने मेरी बात काटकर कहा, "मैं आपसे हुकूमत के मदद की दरख्वास्त नहीं कर रहा हूँ, मैं सिर्फ इतना चाहता हूँ कि आप मुसोलिनी और हिटलर को बेनकाब करें।" मैने कहा, "अगर में ऐसा करूँगा तो इसका जो ग्रांड टोटल निकलेगा वह आपकी हुकूमत के मनमुताबिक ही होगा।
मार्श यह सुनकर कुछ देर के लिए तो खामोश हो गए। फिर अपनी ऐनक की ताल साफ़ करके वह बड़े जोश के साथ खड़े हो गए। मैं समझा वह मुझ पर हमला करेंगे। मैं भी जवाबी हमले के वास्ते खड़ा हो गया।
लेकिन वह मेरे करीब आए और मेरी पीठ ठोंककर कहने लगे, "वंडरफुल यंगमैन! आपके इनकार ने मेरे दिल में, आपकी इज्जत कायम कर दी। आप अपने बाप की मानिंद बड़े आदमी है। आपको देखकर मैंने अपनी इस राय में तब्दीली कर ली है कि हिन्दुस्तान की ज़मीन कैरेक्टर पैदा नहीं करती। अगर आपको कभी मेरी जरूरत पड़े तो मुझे याद कर लीजिएगा।" यह कहकर वह मुझे बरामदे तक रुखसत करने आए और बराबर मुस्कुराते रहे।
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लखनऊ भी वे अधिक दिन नहीं रहे। उन्हे फिल्म नगरी बंबई से बुलावा आया और वे बंबई चले गए। चले तो गए, पर वहां भी, वह टिक न सके। यह सब आप आगे पढ़ेंगे...
विजय शंकर सिंह
Vijay Shanker Singh
'जोश मलीहाबादी की आत्मकथा, यादों की बारात का अंश (13) दिल्ली आगमन और कलीम, अखबार का संपादन / विजय शंकर सिंह '
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2023/07/13.html
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