Monday, 24 July 2023

जोश मलीहाबादी की आत्मकथा, यादों की बारात का अंश (16) पाकिस्तान की ओर प्रस्थान / विजय शंकर सिंह

                 
                   चित्र: कराची 1955

जवाहरलाल नेहरू की कृपा से जोश मलीहाबादी को, दिल्ली में आजकल अखबार में नौकरी लग गई। उनकी जिंदगी फिर पटरी पर आ गई। देश को बंटे कुछ साल गुजर चुके थे। पर भारत पाकिस्तान के नागरिकों की आमदरफ्त जारी थी। बंटवारा ताजा था। स्मृतियां और जख्म भी ताजे थे। उर्दू भाषा, पाकिस्तान की राष्ट्रीय भाषा बन चुकी थी। हालांकि, वह पाकिस्तान के किसी भी प्रांत की बोली जाने वाली भाषा नहीं थे। मुस्लिम लीग से जुड़े, वे लोग, जो उत्तर प्रदेश और बिहार के बाशिंदे थे, उनमें से कुछ लोग जरूर भारत से हिजरत कर पाकिस्तान चले गए। ऐसे लोग, बहुसंख्या में कराची में बसे। कराची तब पाकिस्तान की राजधानी थी। जब जनरल अयूब खान पाकिस्तान के सदर बने तो, उन्होंने इस्लामाबाद के नाम से नई राजधानी बनाया। 

भारत और पाकिस्तान के बीच मुशायरों का आयोजन होता था। जोश साहब को भी, पाकिस्तान से, दावतनामे मिलते रहते थे। वे कराची आते जाते थे। इसी बीच साल 1955 में जब वे एक मुशायरे में भाग लेने के लिए वे कराची गए थे तो, पाकिस्तान के कुछ शायरों ने जोश को, पाकिस्तान की नागरिकता लेने का अनुरोध किया। उनके मन में हिंदी और हिंदू विरोधी मानसिकता की बात भी डाली। जोश, शुरू में तो नहीं राजी हुए, लेकिन बाद में जब उन पर बहुत दबाव पड़ा तो वह मान गए। पर एक संशय उनके मन में बना रहा। पाकिस्तान जाने या न जाने के पीछे, उनके मन में जो द्वंद्व रहा, वह आप इस अंश में पढ़ेंगे। 

अब आप उन्ही के शब्दों में पढ़े...
-------

यह एक शब की तड़प है सहर तो होने दो 
बहिश्त सर पे लिए रोज़गार गुजरेगा। 
फ़िज़ा के दिल में पुरअफ़्शा है आरजू-ए-गुबार 
ज़रूर इधर से कोई शहसवार गुजरेगा।

1955 में जब एक मुशायरे के सिलसिले में में तीसरी बार पाकिस्तान गया तो हरचंद उससे पहले भी मेरे पुराने दोस्त सैयद अबूतालिब नकवी चीफ कमिश्नर कराची मुझे पाकिस्तान आ जाने की दावत दे चुके थे, लेकिन इस मर्तबा तो वह पंजे झाड़कर मेरे पीछे पड़ गए।

में पाकिस्तान आने पर बिलकुल तैयार नहीं था; लेकिन साफ इनकार नहीं किया कि नकवी का दिल न टूट जाए। और यह कहकर टाल दिया कि मैं इस मसअले पर गौर करूंगा।

इसी बीच में उन्होंने अपने घर पर मजलिस की। शहर के बड़े-बड़े लोगों के साथ सिकन्दर मिर्ज़ा को भी बुलाया और सबको मेरा मुसद्दस हुस्न-ओ-इकलाब' सुनवाया। उन तमाम लोगों में जिनमें सिकंदर मिर्जा भी शामिल थे, मुझसे आग्रह किया कि मैं पाकिस्तान का बाशिंदा बन जाऊं। उनकी दावत पर हरचंद मैंने अपने दिल में तो यह कहा कि ख़ुदा की क़सम में ऐसा हरगिज़ नहीं करूंगा। लेकिन जबान से यह कहा कि में भी यही सोच रहा हूं। अब नक़वी का यह तकियाकलाम हो गया कि जोश साहब, आखिर आप कब तक सोचेंगे?

इसी बीच में वह एक रोज़ मैट्रापोल आ गए और मुझसे कहा कि सारे काम छोड़कर आज आपके पास इसलिए आया है कि आपसे पाकिस्तान आने का इकरार लेकर दम लूँ।

मैंने कहा, "नकवी साहब, आपको मालूम है कि मुझे आपसे किस क़दर मुहब्बत है। अगर आप मेरी जान तक मांगे तो हाजिर कर दूँ। लेकिन..." नकवी साहब ने कहा कि देखिए 'लेकिन' के बाद इनकार न कर दीजिएगा। मैं चुप हो गया। वह अपना सोफा छोड़कर मेरे सोफे पर आकर बैठ गए और कहने लगे, फरमाइए आप पाकिस्तान कब आ रहे हैं।" अब जी कहा और आँखें नीची करके मैंने कहा, "नकवी साहब, जब तक पंडित जवाहरलाल नेहरू जिन्दा है, मैं पाकिस्तान क्योंकर आ सकता हूँ?"

उन्होंने मेरे कंधे पर हाथ रखकर पूछा, 'और नेहरू के बाद क्या होगा, यह भी कभी सोचा है? मैंने कहा, "ख़ुदा न करे मैं उनके बाद जिन्दा रहूँ। उन्होंने कहा कि शायर की यह बड़ी बदबख्ती है कि, वह जिन्दगी के संजीदा मसलों को भी जजबात के तराजू में तोला करता है। मैं आपसे पूछता हूँ कि अगर नेहरू साहब आपकी जिन्दगी में सिधार गए तो फिर हिन्दुस्तान में आपको चाहनेवाला कौन रह जाएगा? आपकी यह नौकरी, आपकी यह आज़ादी और इज्जत क्या उनके बाद ख़त्म नहीं हो जाएगी? थोड़ी देर के वास्ते यह भी फर्ज कर लीजिए कि नेहरू के बाद भी हिन्दुस्तान आपको सर आँखों पर बिठाए रहेगा लेकिन यह भी तो सोचिए कि आपके बाद वहाँ आपके बच्चों का क्या हश्र होगा? देखिए जोश साहब, आपके बाद हिन्दुस्तान में आपके बच्चे दर दर मारे फिरेंगे और एक आदमी भी उनके सर पर हाथ नहीं रखेगा। यहां तक तो में आर्थिक पहलू पर बात कर रहा था। अब जरा तहजीबी पहलू पर भी निगाह डालिए, यह उससे भी ज्यादा जानलेवा साबित होगा। जोश साहब, आपके बच्चे उर्दू भूल जाएँगे। हिन्दी उनका ओढ़ना-बिछौना होगी। ये आपके कलाम का तरजुमा हिन्दी में पढ़ेंगे और तहजीबी, रवायती और सक्राती (सांस्कृतिक) एतबार से आपकी पूरी नस्ल में इस कदर जबरदस्त तब्दीली आ जाएगी कि आपसे उसका किसी किस्म का भी तअल्लुक बाकी नहीं रह जाएगा... अगर आप यहाँ न आ गए तो क्या उसके यह मानी नहीं होंगे कि आप अपनी वक्ती आजादी और इज्जत की कुबांनगाह पर अपने पूरे खानदान की भेंट चढ़ा देने पर तुले हुए हैं।"

उनकी इस लम्बी, जज्बाती और मंतिकी (तर्कपूर्ण) तक़रीर में मेरा दिल हिला दिया और मेरी आँख खोल दी, और में सोचने लगा कि मेरे बाद मेरे ये नाज़ों के पाले बच्चे और मेरी यह शाहाना मिज़ाज रखने वाली बीवी क्या करेगी। नकवी साहब से मैंने कहा, "आपने मुझे झंझोड़कर जगा दिया। बेशक मेरी आल-औलाद हिन्दुस्तान में पनप नहीं सकेगी। नकवी साहब, मुझे चौबीस घंटे और दे दीजिए कि मैं इस मसले पर एक बार और ग़ौर कर लूं। कल इसी वक्त आपकी ख़िदमत में हाज़िर होकर अपना आखिरी फ़ैसला सुना दूंगा।'

नकवी के चले जाने के बाद मैंने नासिर अहमद खाँ से कहा कि तुमने सुन ली नकवी साहब की सारी तक़रीर, अब क्या कहते हो? नासिर ने कहा कि मुझे उनके एक-एक हर्फ से इत्तफ़ाक़ है। अगर आप यहाँ न आए तो जिन्दगी-भर के लिए पछताएंगे। यह कहते ही नासिर मेरे करीब आकर बैठ गए और बड़े जोश के साथ अंगुली हिलाते हुए कहने लगे, "खा- साहब, आप कई पुश्तों से मलीहाबाद पर हुकूमत करते चले आ रहे हैं। आपकी रिजाया आपके सामने थर्राती और झुक-झुककर सलाम करती है। कल उसी दो कौड़ी रिआया के बच्चे आपके बच्चों पर हुकूमत करेंगे, उन्हें धोतिया बंधवाएंगे और उनके सरो पर चोटिया रखाएंगे। अल्लाह करे ये दिन देखने से पहले हम पर जाएं।"

सुबह उठकर मैने इस मसले पर दोबारा गौर किया। नहा-धोकर नकवी साहब के पास गया और उनसे कह दिया कि अब मैं हिजरत पर तैयार हो गया है। नकवी की बाछें खिल गई, दौड़कर मुझे गले लगा लिया और उसी वक्त डिपुटी कमिश्नर को तलब करके हुक्म दिया कि जहाँगीर रोड पर जो एक बहुत बड़ा प्लाट खाली है, उसे जोश साहब के नाम अलाट कर दीजिए। उस पर उनका सिनेमा हॉल और मकान तैयार किया जाएगा। और फला मुकाम पर पचास एकड़ जमीन भी जोश साहब को अलाट कर दीजिए, यहाँ उनका बाग लगवाया जाएगा।

जब उनके हुक्म की तामील हो गई तो दोनों जमीनों पर मुझे कब्जा दे दिया गया और मेरे चौकीदार झोपड़ियाँ डालकर यहाँ रहने लगे।

नकवी साहब ने कहा, "आप दिल्ली जाकर इमर्जेंसी सर्टिफिकेट पर अपने बाल-बच्चों को यहां ले आइए। आपके आते ही सिनेमा की तामीर का काम शुरू करा दूंगा।" साथ ही उन्होंने अपने सेकेटरी रब्बानी साहब को बुलाकर मेरे लिए मकान की तलाश के लिए कहा। उन्होंने सिंध मुस्लिम हाउसिंग सोसाइटी में एक अच्छी-सी कोठी मेरे हवाले कर दी और मैं दिल्ली परवाज़ कर गया।

दिल्ली पहुँचा तो मालूम हुआ, पंडित जी बाहर गए हुए हैं, दो-तीन दिन में आएंगे। सीधा मौलाना के पास गया। मौलाना किसी अखबार में यह पढ़ चुके थे कि, हिन्दुस्तान के एक शायर पर पाकिस्तान डोरे डाल रहा है। उन्होंने छूटते ही मुझसे कहा, "शायद आप ही यह शायर हैं, जिस पर पाकिस्तान डोरे डाल रहा है?" मैने कहा, "जी हा मौलाना, मैं वही शायर हूँ। मैंने अपनी सारी कहानी बयान कर दी, नक्वी साहब की तकरीर के एक-एक लफ़्ज़ को दोहरा दिया और फिर उनसे पूछा, अब आपकी क्या राय है, मौलाना ?"

उन्होंने चन्द सवाल करके जब मामले के हर पहलू को समझ लिया तब कहा, "आपका हिजरत कर जाना हरवन्द हमारे वास्ते शर्मिंदगी और दुख का कारण होगा, लेकिन जहां तक आपके बच्चों के मुस्तकबिल का सवाल है, मेरी राय है कि, आप हिजरत कर जाएँ। नकवी ने यह सच कहा है कि नेहरू के बाद यहाँ आपको कोई पूछने वाला नहीं रहेगा। आप तो आप ख़ुद मुझे कोई नहीं पूछेगा । में हर मामले की तार्किक तौर पर देखने का आदी हूँ। लेकिन जवाहरलाल शदीद जज़बाती आदमी हैं, यह आपको हिजरत पर किसी तरह आमादा नहीं होंगे।'

तीसरे दिन यह सुनकर कि पंडित जी आ रहे हैं, मैं पालम के हवाई अड्डे पर पहुँच गया। वह उतरे तो मैंने उनसे कहा कि मुझे आपसे एक जरूरी बात कहनी है और आज ही उन्होंने कहा, "तो फिर अभी मेरे साथ चलिए। जब उनके घर आकर मैंने अपना कुल माजरा बयान कर दिया और यह भी बता दिया कि मौलाना आजाद की इस बारे में क्या राय है तो चेहरे पर तीव्र पीड़ा के चिह्न प्रकट हुए और कहा, "जोश साहब, आपने मुझे बड़ी मुश्किल में डाल दिया है। अगर हिन्दू की संकीर्ण देशभक्ति यह स्थिति पैदा न कर देती तो आपके दिल में वतन छोड़ने का कभी ख़याल ही पैदा न होता, लेकिन यह मामला बहुत नाजुक है। मुझे सोचने के लिए दो दिन का वक्त दीजिए। में खुद भी गौर करूंगा और मौलाना से भी राय लूँगा।"

दो दिन के बाद जब में उनके पास पहुँचा तो मैंने उनके दिल मोह लेने वाले चेहरे पर वह ताजगी देखी जो किसी जेहनी गिरह के सुलझा लेने के बाद पैदा हुआ करती है। उन्होंने बड़े उल्लास के साथ निगाह ऊपर उठाई, एक मृदु मुस्कान होठों पर मचलने लगी और उन्होंने कहा, "जोश साहब, आपके मामले का ऐसा अच्छा हल निकाल लिया है कि जिसे आप भी पसंद करेंगे।क्यों साहब, यही बात है न, कि अपने बच्चों का आर्थिक और सांस्कृतिक भविष्य संवारने के लिए पाकिस्तान जाना चाहते हैं?" मैंने कहा, "जी हाँ, इसके सिवा और कोई बात नहीं है। उन्होंने कहा, "तो फिर आप ऐसा करें कि अपने बच्चों को पाकिस्तानी बना दें, लेकिन आप यहीं रहें और हर साल पूरे चार महीने पाकिस्तान में रहकर आप उर्दू की खिदमत कर आया करें। भारत सरकार आपको हर साल पूरी तनख्वाह के साथ चार महीने की छुट्टी दे दिया करेगी।।

पंडित जी की इस युक्ति पर में उछल पड़ा। मैंने कहा, "यह युक्ति मुझे दिल से मंजूर है। इस तरह साँप भी मर जाएगा और लाठी भी नहीं टूटेगी। पंडित जी मेरी मंजूरी से बेहद खुश होकर मेरे गले लग गए।

दूसरे ही दिन अखबारवालों ने मुझे घेर लिया। मैंने वह तमाम मामला, जो मेरे और पंडित जी के दरमियान हुआ था, बयान कर दिया और तीसरे ही रोज मेरा इन्टरव्यू हिन्दुस्तान के तमाम अंग्रेजी और उर्दू अखबारों में छप गया।
------- 

जोश जब खुशी खुशी लौट कर पाकिस्तान जाते हैं तो, उन्हे जो वहां जमीन, प्लॉट और कोठी मिली थी, उसे भी उन्हे छोड़ना पड़ता है। जो सपने नकवी साहब से उन्हे वहां दिखाए थे, वे सपने टूट गए और जोश को फिर से वहां खुद को स्थापित करने में जो कुछ भी झेलना पड़ा, पर आप आगे पढ़ेंगे। 
(क्रमशः)

विजय शंकर सिंह
Vijay Shanker Singh 

'जोश मलीहाबादी की आत्मकथा, यादों की बारात का अंश (15) कुछ साल मायानगरी, बंबई और पूना में / विजय शंकर सिंह '.
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2023/07/15.html

No comments:

Post a Comment