Sunday 2 July 2023

जोश मलीहाबादी की आत्मकथा, यादों की बारात का अंश (10) निजाम हैदराबाद की सेवा से जोश का इस्तीफा / विजय शंकर सिंह


जोश साहब को हैदराबाद के निजाम के यहां नौकरी तो मिल गई, पर वे खुद को, एक चाटुकार मुलाजिम के रूप में वहां ढाल नहीं पाए। वे तो खुद ही, एक बड़े और शोहरतवाले जमींदार थे। वे, चाटुकारिता और ठकुरसुहाती जैसी विरुदावली, सुनने के आदी थे। अब भला वे कैसे, खुद को किसी की मुलाज़मत में ढाल पाते। जोश इतने स्वाभिमानी थे कि, निजाम का तुम, संबोधन भी बर्दाश्त नहीं कर पाते। कोशिश तो उन्होंने, बहुत की, जब्त करने की, पर वे अपने स्वभाव का क्या करें। कहां लखनऊ की शीरी जुबान में पगी, हुजूर सरकार से सम्पुटित बातें तथा संबोधन और कहां हैदराबाद की उर्दू में, निजाम का संबोधन। गाहे बगाहे, जोश, तू तड़ाक की बोली, बंधे हांथ से खड़े होने की मुद्रा पर, घुटते रहते और तिलमिलाकर रह जाते। अपनी तिलमिलाहट को वे छुपा भी नहीं पाते। 

दफ्तर से आते ही, सारी तिलमिलाहट, अपनी पत्नी के सामने उगल देते। इसी में कुछ न कुछ, अपनी पत्नी से, बात करते समय, ऐसा बोल जाते, जो निजाम की शान में गुस्ताखी की हद तक पहुंच जाता। जोश साहब के घर में भी, जो उनके निजी नौकर आदि थे, उनमें से कुछ तो, निजाम के मुखबिर ही थे, जो निजाम तक, यह सारी बातें पहुंचाया करते। इसका परिणाम यह हुआ कि, धीरे धीरे, निजाम के मन में, जोश के प्रति नाराजगी पनपने लगी और जोश को इसका एहसास तक न हो सका। एक ऐसा वक़्त भी आया, कि जोश का मन भी, ऐसी बंदिशों भरी मुलाजिमत से ऊबने लगा।

अब जोश साहब के ही शब्दों में पढ़िए...
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हैदराबाद के सर पर जागीरदारी और शहरयारी का गिद्ध ठूंगे मार रहा था। हर तरफ दरबारी साजिशों के जाल बिछे हुए थे। निजाम के मुसाहिब हरचंद लिखे पढ़े नहीं थे; लेकिन इस क़दर कदे, ऐसे दरबारी मसखरे मौरूसी मिरासी खानदानी खुशामदखोरे, मश्शाक़ भाजीमार, छटे तोहमतकार, बोली ठोली में इस कदर ताक़ो मश्शाक़ और नवाब के इस दर्जा मिज़ाज-शनास थे कि उन्हें अंगुलियों पर नचाते, चापलूसी के तवा पर रोटियाँ पकाते, अपने को उभारते, हरीफों को गिराते और माँ-बहन की गालियाँ खाते और शरबत की तरह पी जाते, बातों के तोते उड़ाते और उन तोतों को अपने आका की भवों पर बिठाते और उनसे 'बनीजी भेजो' के नारे लगवाते थे।

जिस तरह सापवाले बासुरिया पर नागों को नचाते हैं, इस तरह यह मसखरे भी अपने नर्म लहजों की गाड़ियों में, अपनी आखों के घूमते हुए मक्कार ढेलों के पहिए लगाते और अपनी गलत बात को सच कर देने की खातिर अपने सधे हुए चेहरों के मुँह में लगाम लगाकर अपनी मंजिले मक़सूद की जानिब हंकाते और निजाम को अपने रास्तों पर चलाते थे। बड़े हाकिमों और जागीरदारों से अगर बिगड़ जाते तो सरे दरबार उन्हें पिटवाकर निकलवा देते और उनके घरों में झाड़ू फिरवा दिया करते थे।

उनकी ज़बाने ऐसी रंगती हुई नागिने थीं जिनसे और तो और शहजादे तक महफूज नहीं थे।

मैंने 'गलत बख़्शी' के नाम से निज़ाम के खिलाफ एक नज्म कही थी. जिसका जिक्र आगे आएगा। दरअसल, वहीं नज्म मेरे वहाँ से निकाले जाने का सबब बन गई। लेकिन इस नज्म की पुश्त पर जो और असबाब भी काम कर रहे थे उनका किसी को इल्म नहीं है। इसलिए मुनासिब मालूम होता है कि उन असबाब को भी बयान कर दूं।

मुझ कमबख्त, घर फूंक समाशा देखने वाले की यह आदत है। चाहे इसे हुनर समझा जाए या ऐब, कि मैं अवाम के कदमों पर सर झुका देने की इंतहाई शराफत और सत्ताधारियों के तख्त के रू-ब-रु गर्दन जरा भी नीची करने को कमीनगी समझता है और मीर तकी मीर की मानिंद,

सर किसूसे फर्द नहीं आता
हैफ बंदे हुए ख़ुदा न हुए!
का नारा लगाता रहता हूँ।

अपनी इस आदत के साथ जब में निज़ाम के रू-ब-रू सर से पाँव तक विनम्रता बनकर जाता, उन्हें 'सरकार' कहना और उसकी जबान से अपने मुतअल्लिक 'तुम' सुनता था तो मेरे दिल पर ऐसी चोट लगती थी कि बिलबिला उठता था। जबान से तो कुछ नहीं कहता था, लेकिन मेरे चेहरे का बदला हुआ रंग और मेरे चोट खाए दिमाग़ की बरकी लहरे निजाम के दिल पर इस तरह असर किया करती थीं जिस तरह मैदान में सोने वाले पर शबनम गिरती है और उसे कुछ भी खबर नहीं होती कि मेरे सर में यह धमक क्यों हो रही है?

मैं अपने टुकड़े-टुकड़े गुरूर के साथ जब घर आता था तो बीवी के सामने अपनी इस बेइज्जती का रोना रोया करता था और वह भी इस असावधानी के साथ कि नौकर-चाकर सब सुन लिया करते थे।

मुझे बिलकुल यह मालूम नहीं था कि निज़ाम की खुफ़िया पुलिस का घर घर में इस तरह जाल फैला हुआ है कि कोई उसकी जद से बचकर निकल ही नहीं सकता। सिर्फ घर के नौकर-चाकर या मामायें ही नहीं सौदा बेचनेवालियाँ तक खुफिया पुलिस में भर्ती थी।

मुझे इस बात का पता क्योंकर चला वह भी सुन लीजिए। एक रोज नवाब कादिस्यार जंग बड़ा खौफनाक चेहरा बनाए - मेरे पास आए और कहा, "जोश साहब आप अपने महल में जिस बात का रोना रोया करते हैं, सरकारे वाला तक वह बात पहुँच गई है और मुझे इस बात की बड़ी ख़ुशी और इन्तहाई हैरत है कि यह बात सुनकर सरकार ने मुस्कुराकर इरशाद फरमाया कि जोश बड़ा मगरूर आदमी है। मुलाज़मत कर रहा है मगर उसके दिमाग से दौलतमंदी की खुशबू अभी तक नहीं निकली। सुनता हूँ वह ख़ुदा से भी गुस्ताखियाँ किया करता है। लेकिन क्या करूँ सरवरे-कायनात (हज़रत मुहम्मद) ने इस शख्स को मेरे सुपुर्द फ़रमाया है।"

निज़ाम की सालगिरह वगैरह पर तमाम शायर कसीदे पेश किया करते थे लेकिन मैंने कभी क़सीदा नहीं कहा। एक सालगिरह के मौके पर एक रिसाले के सम्पादक ने मेरी एक बहारिया नज़्म कसीदा बनाकर छाप दी, जिसका यह मतला था,

उठी वो घटा रंग सामानियां कर,
गुहरबारियाँ कर, गुलअफशानियाँ कर

इस नज्म में सालगिरह की जानिब कोई जरा सा भी इशारा या निज़ाम की तारीफ़ में कोई एक शेर भी नहीं था। लेकिन मेरे इस मक़ता पर शाही इताब नाज़िल हो गया-

कभी 'जोश' के जोश की मदह फरमा
कभी गुलरुखों की सनाख्यानियाँ कर।

निज़ाम इस धोखे में पड़ गए कि इस  क़ते का रुख उनकी तरफ है और दूसरे ही दिन फरमान निकाला गया कि मालूम होता है कि, यह कसीदा जोश ने किसी खास वक़्त (शराब के नशे में) कहा है। उन्हें चाहिए कि यह ऐसे अवसरों पर सरकार को याद न किया करें। अगर वह आइन्दा ऐसा करेंगे तो अच्छा नहीं होगा। इस घटना के कोई दो बरस बाद एक रोज नवाब मेहदीयार जंग बहुत घबराए हुए मेरे पास आए और कहा, "बड़ा ग़ज़ब हो गया। होश बिलग्रामी ने सरकारे आली तक यह खबर पहुँचा दी है कि आपके.... शाहज़ादी से गहरे तअल्लुकात हैं और उन्होंने यह भी कहा है कि महल में जिस वक्त... शाहज़ादी जोश को रोक रही थी और जोश टाल-मटोल कर रहे थे, उस वक्त पर्दे के पीछे से मैंने खुद सुना था कि शाहज़ादी ने बड़े प्यार के लहजे में उनसे फरमाया था कि अगर तुम इस वक्त नहीं रुकोगे तो मैं तुम्हें मार डालूंगी।"

निज़ाम के दिल में ये बातें मालूम और ना मालूम तरीके से अभी उठ ही रही थीं कि मैंने यह नज़्म, जिसका ज़िक्र कर चुका हूँ, जागीरदारों और बजीरों की भरी महफिल में सुना दी और तमाम महफ़िल पर एक दहशतनाक सन्नाटा छा गया। नवाब निजामतजंग वजीरे- सियासत ने मेरे कान में कहा- “कुल्हाड़ी मार ली आपने अपने पाँव पर? एक मुलाजिम सरकारे आली की हैसियत से ऐसी नज्म आपको कहनी ही नहीं चाहिए थी और कह भी दी थी तो फिर यह चाहिए था कि इसे सात पदों में छिपाकर रखें। हद कर दी आपने अदूरदर्शिता की। खैर, मैं तो इस पर कोई कार्रवाई नहीं करूंगा। खुफिया पुलिसवालों ने यह नज्म लिख ली है। यक़ीन रखिए, कल तक यह किंग कोठी पहुँच जाएगी। उस नज्म के चन्द शेर सुन लीजिए। (यह नज़्म मेरे किसी संकलन में छप चुकी है।)

इलाही अगर है यही रोजगार कि 
सीने रहें अहले-दिल के फिगार
मायत को हासिल हों सरदारियाँ
शराफत करे कफ़श वरदारियाँ
सरे-बज्म जुहल आए, अहले-नज़र
बशक्ले गुलामाने जरी कम
हुनर हो, और इस दर्जा बेआबरु
तुफू पर तू ए चखें गरदा तुफू।

दूसरे ही दिन वह नज्म, निज़ाम तक पहुंच गई। कोई दूसरा ऐसी जबरदस्त गुस्ताखाना नज्म लिखता तो बीवी-बच्चों समेत कोल्हू में पेर दिया जाता। लेकिन उनकी शराफत देखिए कि उन्होंने बड़े खुफियातौर पर मेरे हमनिवाला और हमप्याला दोस्त आगजानी नायब कोतवाल को मेरे पास भेजा कि वह मुझे अपने हमराह किंग कोठी ले आए। आग़ा ने मुझसे कहा, "मुझे इस बात पर बड़ी हैरत है कि हरचंद आपने इस कदर सख्त नज्म कही है, फिर भी निज़ाम आपके खिलाफ़ किसी किस्म की कार्रवाई पसंद नहीं फरमाते हैं और उन्होंने यह इरशाद फ़रमाया है कि अगर जोश मुझसे माफी तलब करके इस बात का वादा कर लें कि वह आइन्दा मेरे खिलाफ कुछ नहीं कहेंगे तो में उन्हें दिल से माफ कर दूंगा। इसलिए अभी-अभी मेरे साथ चलिए। मैंने कहा, "आग़ा, माफ़ी मांगने पर मैं तैयार नहीं हूँ।" यह यह सुनकर दंग रह गए। मुझसे कुछ नहीं कहा, जनाने दरवाजे पर जाकर आवाज़ दी, "भाभी, जय एक बात सुन लीजिए।" जब मेरी बीवी पटकी आड़ में आकर खड़ी हो गई तो उन्होंने कहा, "भाभी, आपके शाहरे-नामदार सरकार से माफी माँगने पर तैयार नहीं हैं।" बीवी ने आग़ा से कहा, "जरा उन्हें बुला लीजिए। आग़ा ने मुझे पुकारा में पहुँच गया और बीवी ने बड़े चौकन्नेपन के साथ डाँटकर मुझसे कहा- अरे क्या तुम्हारा दिमाग चर गया है। आधी से ज्यादा जायदाद तबाह करके यहां आए हो और अभी छह महीने भी नहीं हुए हैं कि इस आधी जायदाद को भी मलीहाबाद जाकर तीन बरस के लिए ख्वाजा हसन को ठेके पर दे आए हो और यह सारा रुपया भी छुप-छुपकर बम्बई जाकर बरबाद कर आए हो। माफी नहीं मांगोगे तो क्या झन्ने झाडते फिरोगे? फिर यह भी तो सोचो कि लड़के-लड़कियों को लिखाना-पढ़ाना और उनकी शादियाँ करनी है। जाओ, इसी घड़ी जाओ और सरकार से माफ़ी मांग लो नहीं तो मुझसे बुरा कोई नहीं होगा। सुन रहे हो तुम?"

मैंने कहा, "अशरफ़जहाँ, यह बात सच है कि हम तुम से डरते हैं। मगर यह भी सुन लो कि इस क़दर नहीं डरते हैं कि भीगी बिल्ली बन जाए और माफी माँग आए।" यह सुनकर बीबी हक्का-बक्का होकर रह गई। देर तक मुझे घूरा और फिर आँख झुका ली। आग़ा जानी यह कहते हुए चले गए कि जो शख़्स खुदकुशी पर तुल जाए, उसे कोई रोक नहीं सकता। 

आग़ा के चले जाने के बाद मैंने डर के मारे घर में कदम नहीं रखा और दूसरे दिन जल्दी जल्दी इस्तीफा लिखकर अपनेbमहकमे के सेक्रेटरी नवाब जुलक़दर जंग के पास चला गया।

जुलक़दर ने कहा कि जोश साहब आप यह क्या कर रहे हैं! जजबात में न बहिए, अक्ल से काम लीजिए, जाइए सरकार से माफ़ी मांग लीजिए। आपको मालूम नहीं कि, मुलाज़िम की खाल को मोटा होना चाहिए। सरकार मुझे गालियाँ तक दे चुके हैं, यह आपसे कह रहा हूं, लेकिन मैं पी गया, इस्तीफा नहीं दिया। आपकी बात तो क़तई इसके उलटी है। आपने खुद सरकार पर लान- तान की है और इसके बावजूद उलटे इस्तीफा दे रहे हैं। 

देर तक वह मुझे समझाते रहे, देर तक तकरार होती रही और जब में नहीं माना तो उन्होंने गुस्से में आकर मेरा इस्तीफ़ा किंग कोठी रवाना कर दिया।

मेरा इस्तीफा जंगल की आग की मानिंद निजाम तक पहुँच गया और निज़ाम चीख-चीखकर कहने लगे, "बड़ा गजब हुआ। जोश मुझसे जीते जा रहे हैं, जोश मुझसे जीते जा रहे हैं। नवाब सर अमीनजंग ने कहा, "खुदाबंद से कौन जीत सकता है? कहाँ जोश और कहा शाहे दकन ? जोश के मर्तबे के तो सैकड़ों शायर लखनऊ की गलियों में जूतियाँ चटखाते फिरते हैं।" निज़ाम ने कहा, "अमीन, तुम बात की नजाकत को नहीं समझ रहे हो। मजा तो तब था कि, उनके इस्तीफे से पेश्तर ही में उन्हें बरतरफ कर देता। लेकिन इस आलम में जब वह खुद इस्तीफा दे रहे हैं, बात उलट गई है और में हारा जा रहा है।"

नवाब अमीनजंग ने हाथ जोड़कर अर्ज किया, "खुदाबंद, इस इस्तीफे को गुलाम के हवाले फ़रमा दें, बंदा अभी मामले को पलट देगा।" निज़ाम ने मेरा इस्तीफा उनकी तरफ फेंक दिया। अमीनजंग ने उसे उठाकर फ़ौरन चाक कर दिया और हवा में उसके पुर्जे उड़ाकर कहा, "सरकारे वाला, अब इस इस्तीफे का वजूद ही बाक़ी नहीं रहा है। अब सरकार फ़रमान जारी कर दें।" निजाम का चेहरा दमक उठा और कहने लगे, "अमीन, तुमने मुझे जिता दिया। हमारे सेक्रेटरी को ऐसा ही ख़ाबिल (क़ाबिल) होना चाहिए। लिखो फरमान, कि जोश मलीहाबादी को सरकारे आली की सल्तनत से बाहर किया जाता है। पन्द्रह दिन के अन्दर- अन्दर वह रवाना हो जाएँ और जब तक दूसरा हुक्म न हो यहाँ क़दम न रखें।"
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तो यह रहा, जोश की जिंदगी में आया हुआ मुलाजमत के सफर का किस्सा। लेकिन, निजाम, जोश को भगाना चाहते भी नहीं थे। यह दो व्यक्तित्वों की अहम की लड़ाई थी। हालांकि, जोश, निजाम के सामने कहीं टिकते भी नहीं थे। निजाम ठहरे, दुनिया के चंद रईसों और संपन्न लोगों में से एक, और जोश उनकी कृपा पर एक वेतनभोगी नौकर। पर जोश को अपनी नस्ल पठानियत और स्वाभिमान पर गर्व था, तो नहीं झुके तो नहीं झुके।
(क्रमशः) 

विजय शंकर सिंह
Vijay Shanker Singh 

'जोश मलीहाबादी की आत्मकथा, यादों की बारात का अंश (9) निजाम हैदराबाद की सेवा में जोश मलीहाबादी / विजय शंकर सिंह '.
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2023/06/9.html

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