Friday, 21 July 2023

जोश मलीहाबादी की आत्मकथा, यादों की बारात का अंश (15) कुछ साल मायानगरी, बंबई और पूना में / विजय शंकर सिंह

                  चित्र बंबई, 1947 में.

लखनऊ में, जोश मलीहाबादी का मुशायरों में शिरकत करने का कार्यक्रम जारी था। उनका मलीहाबाद जाना कम हो गया था। उनकी पत्नी जरूर जमींदारी का काम थोड़ा बहुत सभालती रहती थीं। जोश को एक मुशायरे में भाग लेने का दावतनामा मिला, और वे अपने दो अन्य शायर दोस्तो, उम्मीद अमेठवी और सागर निजामी के साथ बंबई रवाना हो गए। कुछ दिन बंबई में रहने के बाद यह शायर समूह, पूना शिफ्ट हो गया। तभी आजादी आई, देश बंटा और गांधी जी की हत्या जैसी महत्वपूर्ण घटनाएं हुई। इन सब घटनाओं के समय, जोश बंबई में ही रहे, लेकिन बाद में दिल्ली आ गए। 

अब उन्ही के शब्दों में पढ़े...
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उम्मीद अमेठवी और सागर निजामी को साथ लेकर जब उ में एक मुशायरे में शरीक होने बम्बई गया तो उसके दूसरे ही दिन शाम के वक़्त शालीमार पिक्चर्स पूना के मालिक अहमद साहब बन्ने (सज्जाद ज़हीर) के घर आए (हम लोग वहीं ठहरे हुए थे और हम लोगों का कलाम सुनने के बाद वह बन्ने मियाँ को दूसरे कमरे में उठाकर ले गए। देर तक बातें करने के बाद जब रुखसत हो गए तो बन्ने मियाँ ने मुझसे कहा कि अहमद साहब आपको और सागर साहब को अपने साथ रखना चाहते हैं। आप दोनों पर कोई पाबन्दी नहीं होगी। सिर्फ गाने लिख दिया कीजिएगा। आपका मुआवजा ग्यारह सौ तक और सागर का मुआवजा साढ़े पाँच सौ तक हाज़िर किया जाएगा। मैंने कहा, "यह पीने का वक्त है। इस वक्त इन बातों का मौक़ा नहीं, कल जवाब दूंगा। " सुबह को सागर ने मुझसे कहा कि अगर आप यह शर्त लगा दे कि मेरा और सागर का मुआवजा बिलकुल बराबर होगा तो चूँकि अहमद साहब की यह तमन्ना है कि आप उनके वहाँ काम करें, इसलिए, वह इस शर्त को मान लेंगे और मेरी ज़िन्दगी बन जाएगी।"

मैंने बन्ने से कहा कि मेरी यह शर्त है कि सागर को मेरे बराबर मुआवजा दिया जाए। अगर अहमद साहब इसे क़बूल नहीं करेंगे तो मैं उनकी यह पेशकश नामंजूर कर दूंगा।

अहमद साहब ने न चाहते हुए भी यह शर्त कबूल कर ली। थोड़े दिन के बाद हम लोग पूना आ गए और शंकर सेठ रोड के 'ताहिर पैलेस' में रहने लगे।

मैंने अपने दिल्ली के रहने वाले पंजाबी दोस्त मलिक हबीब अहमद और अपने दकनी दोस्त हबीबुल्ला रुशदी को भी शालीमार में मुलाजिम रखा दिया था। कृश्नचन्दर को भी अहमद साहब पूना खींच लाए थे, बेचारा जवांमर्ग शाम तिवारी, हमीद बट, ब्रजभूषण और भारत भूषण भी शालीमार में काम कर रहे थे। मेरे पुराने फौजी दोस्त मन्नान ख़ाँ रामपुरी भी तबादला पाकर पूना आ चुके थे और पूना के नये दोस्त कुद्दुस घड़ीवाले और मुहम्मद फ़सीह भी ऐसे दिलचस्प निकले कि रात की अक्सर बैठक उनके घर पर हुआ करती थीं। एक अच्छी खासी चंडाल चौकड़ी की सूरत निकल आई थी।

यहाँ मेरे एक लखपती दोस्त और भी थे 'मोलाडीना', जो तमाम वक़्त शराब पीते और दिल खोलकर लोगों की इमदाद किया करते थे। एक ख़ास सिलसिले में उन्होंने मेरी भी मदद की थी, जिसे मैं भुला नहीं सकूँगा।

वहीं सागर साहब का मुरादाबाद की एक साहबज़ादी से क़लम के जरिये इश्क भी चल रहा था और कुछ रोज़ के बाद यह साहबजादी ताहिर पैलेस में दुल्हन बनकर आ गई थीं।

पूने का हर दिन ईद हर रात शबे बरात थी हर आठवें दसवें दिन में बम्बई जाकर किसी के सौदर्यता की चौखट पर सजदा भी कर आता था लेकिन अहमद साहब की ग़लत अमली ने दो- ढाई साल के अन्दर वह सारा तिलिस्म तोड़ दिया। वह चुपचाप पाकिस्तान की तरफ कूच कर गए और हम सब लोगों के हाथों के तोते उड़ गए। वह सारा खेल मिट्टी में मिल गया।

पूना छोड़कर में बम्बई आ गया और बन्ने के खाली घर में रहने लगा। उस घर के एक कोने में मुमताज हुसैन, जो आजकल कराची के किसी कॉलेज में उर्दू के उस्ताद हैं, भी रहते थे, जहाँ सईदा के बच्चों और उनमें रोज़ कोई-न-कोई झगड़ा हुआ करता था। इसलिए मैं अपने एक बेतकल्लुफ़ मिलने वाले मिस्टर अब्दुल अजीज रामपुरी के जैकब सर्किल वाले खाली फ्लैट में उठ आया। उस जमाने में फ़िल्मी बाजार ठंडा पड़ा हुआ था। सागर हर दूसरे-तीसरे दिन मेरे पास आते और हम एक-दूसरे से पूछा करते थे कि ख़ाँ साहब अब होगा क्या?

मैं इसी आलम में एक रोज शाम के वक्त शराब पी रहा था कि बाजार में यकायक क़यामत का एक हंगामा शुरू हो गया और हर तरफ से मारो मारो की आवाज़ आने लगी। मैं बरामद में जाकर झांकने लगा कि देख मामला क्या है। इतने में किसी ने जोर-जोर से मेरे फ्लैट का दरवाजा खटखटाना शुरू कर दिया। मैंने भरी सोडे की बोतल हाथ में लेकर दरवाज़ा खोल दिया। दरवाजा खुलते ही एक जानी-पहचानी सूरत के हिन्दू ने बड़ी घबराहट के साथ कहा, "मिस्टर जोश, आप यहाँ से फ़ौरन किसी मुस्लिम मुहल्ले में चले जाएँ। किसी ने महात्मा गाँधी को गोली मार दी है। हिन्दुओं का ख़याल है कि यह काम किसी मुसलमान का है। मैं अपने बाल-बच्चों और बोतल को लेकर अपनी बेटी की सहेली रिफअत के मकान में, जो भिंडी बाज़ार में था, चला गया। वहाँ पहुँचा तो रेडियो पर जवाहरलाल का यह ऐलान सुना कि महात्मा गाँधी को एक हिन्दू मरहठे गोडसे ने गोली मारकर हलाक कर दिया है। अगर जवाहरलाल इस ऐलान में पाँच मिनट की भी देर कर देते तो लाखों मुसलमानों को कत्ल कर दिया जाता। दूसरे दिन मैं अपने फ्लैट में आ गया जिन्दगी तंगदस्ती में गुजरने लगी। एक दिन मैने देखा कि बीवी बेहद उदास बैठी है। पूछा, 'क्या बात है। " कहने लगी, "मेरे पास जो रुपया था, अब वह सुबकिया भर रहा है। जल्दी कोई सुबीता करो, नहीं तो खुदा न करे, धड़ाधड़ फाके होने लगेंगे।"

बीवी की इस उदासी पर मेरा दिल भर आया। दूसरे कमरे में लेटकर सो गया। जब आंख खुली तो देखा कि मेरा दामाद अल्ताफ एक अखबार लिए आ रहा है। उसने अखबार देकर कहा, "मामू, सरकारे हिन्द की अपने रिसाले आजकल के लिए एडीटर की जरूरत है। आपके वास्ते यह बेहतरीन मौका है। आप फ़ौरन दरख्वास्त रवाना कर दें और पं. जवाहरलाल नेहरू के पास उसकी नकल भेज दें। मैंने कहा, "बेटा दरख्वास्त तुम लिख लाओ, मैं दस्तखत कर दूंगा।" दामाद थोड़ी देर में दरख्वास्त लिखकर आ गया और वह दिल्ली भेज दी गई।

इसके दूसरे-तीसरे दिन इत्तफ़ाक़ से पं. जवाहरलाल नेहरू और मौलाना अबुल कलाम दोनों बम्बई आ गए। मैंने इसे एक अच्छा शगुन समझा और सीधा गवर्नमेंट हाउस पहुँच गया। मालूम हुआ कि पंडित जी और मौलाना कहीं बाहर गए हुए हैं और एक घंटे में पलट आएंगे। जी में आया, कुँवर महाराज सिंह से क्यों न मिल लूँ और खाली बैठकर इंतजार क्यों करू। पर्चे पर अपना नाम लिखकर भेजा। उन्होंने फौरन बुला लिया और पूछा, "खाँ साहब आप यहाँ कहाँ? मैंने कहा, "मैं तो आजकल बम्बई में रहता हूँ। उन्होंने कहा, "और फिर भी मुझसे कभी नहीं मिले?" मैंने कहा, "मैं इस वक्त पंडित जी से मिलने आया था। वह मौजूद नहीं इसलिए आपसे मिलने आ गया हूँ।" मगर फौरन ख़याल आया कि मैंने बड़ी बेतुकी बात कही है। यह सोचकर में झेंप गया। महाराज सिंह बड़े जहीन आदमी थे, भाँप गए और मुस्कुराकर कहने लगे, "आप पठानों की यही बात तो मुझे बहुत अच्छी लगती है कि जो बात आपके दिल में होती है, वहीं झट से ज़बान पर आ जाती है। मैंने कहा, "मैं अपनी बदहवासी की माफी चाहता हूँ।" उन्होंने कहा, मैं जिस बात की दिल से क़दर करता है, आप उसकी माफ़ी चाह रहे हैं। उसी वक्त मौलाना आगे आगे और पंडित जी पीछे-पीछे उनके कमरे में दाखिल हुए। मौलाना ने फक़त हाथ मिलाया और पंडित जी लपककर मेरे गले लग गए और छूटते ही पूछा- "जोश साहब, आजकल आप क्या कर रहे हैं?" मैने कहा, पंडित जी 'आजकल' के लिए दरख्वास्त देकर उसका इंतज़ार कर रहा हूँ। "
पंडित जी ने मुस्कुराकर कहा, "यह आजकल की उलट-फेर मेरी समझ में नहीं आई। "मौलाना आजाद ने लाल बुझक्कड बनकर। कहा, "मालूम होता है कि जोश साहब ने हमारे सरकारी रिसाले आजकल का जो इश्तहार निकला है, उसकी इदारत के वास्ते दरख्वास्त दी होगी। पंडित जी ने कहा, "तो फिर छठे रोज़ आप दिल्ली आ जाएँ, मैं बन्दोबस्त कर दूंगा।'

मौलाना आजाद ने कहा, "पंडित जी, यह महकमा सरदार पटेल का है। आप सोच-समझकर जोश साहब को दिल्ली बुलाएं।" पंडित जी ने कहा, "जोश साहब हमारे कंधे से कंधा मिलाकर ब्रिटिश सरकार से लड़ चुके हैं। पटेल को भी यह बात मालूम होगी और अगर नहीं मालूम होगी तो मैं उन्हें बता दूँगा। आप बड़े इत्मीनान के साथ दिल्ली आ जाएं।"
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दिल्ली से मलीहाबाद, फिर लखनऊ और लखनऊ से बंबई पूना, फिर वापस दिल्ली। नेहरू की कृपा जोश पर रही। लेकिन वे दिल्ली में ही कहां टिके। टिके तो मुल्क में भी नहीं। दो तीन मुशायरों में भाग लेने वे पाकिस्तान गए और फिर उन्ही मुशायरों में, उन्हे पाकिस्तान में ही, हिजरत कर आने की सलाह, उनके कुछ शायर मित्रो ने दे दी और, मलीहाबादी दशहरी की खुशबू और यादों को लिए दिए, जोश साहब, पाकिस्तान हिजरत कर गए। 

लेकिन यह मार्मिम और रोमांचक विवरण आप आगे पढ़ेंगे...
(क्रमशः)

विजय शंकर सिंह
Vijay Shanker Singh 

'जोश मलीहाबादी की आत्मकथा, यादों की बारात का अंश (14) दिल्ली से मलीहाबाद और फिर लखनऊ / विजय शंकर सिंह ' 
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2023/07/14.html


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