जोश साहब की जिंदगी में एक बार फिर दर-बदर का दौर शुरू हो गया था। हैदराबाद से वे रुखसत हो चुके थे, और उनकी मंजिल दतिया थी। दतिया, झांसी के नजदीक, मध्य प्रदेश की एक छोटी सी रियासत थी, वहां के दीवान ने उन्हे एक अखबार निकालने की सलाह दी। यह तो जोश साहब के अदबी स्वभाव से मेल खाता मशविरा था। वे खुशी खुशी राजी हो गए पर असल मुसीबत तो, मशविरे के बाद आनी थी। अखबार की पॉलिसी क्या होगी, जब, जोश के इस सवाल का जवाब मिला, प्रो ब्रिटिश, तो जोश फिर भड़क उठे और उन्होंने इस तरह के किसी अखबार को निकालने या उसमे काम करने से मना कर दिया, जो अंग्रेजों की खिदमत या समर्थन में शाया होता है।
फिर वे धौलपुर आ गए। धौलपुर के ठाकुर रूप सिंह उनके परम मित्र थे। धौलपुर में ही उनके मामा की हवेली थी। अपना परिवार, जिसे उन्होंने, झांसी से ही सीधे, लखनऊ भेज दिया था, को भी बुला लिया। पर धौलपुर में जो नौकरी उन्हे मिल रही थी, उसकी एक शर्त यह भी थी कि, उन्हें, रूप सिंह से अपनी दोस्ती छोड़नी थी। जोश ने, नौकरी का ऑफर ठुकरा दिया, पर ठाकुर रूप सिंह की दोस्ती को नहीं छोड़ा।
अब उन्हीं के शब्दों में, पढ़े...
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झाँसी पहुँचकर मैंने बीवी को अपने इरादे से आगाह किया तो उन्होंने कहा, "अच्छा यह भी करके देख लो। " वह बड़ी उदासी के साथ मलीहाबाद की तरफ रवाना हो गई और मैं रियासत दतिया जाने के लिए झाँसी स्टेशन पर उतर गया।
दतिया पहुँचकर काजी सर अजीजुद्दीन को मैंने अपनी सारी दास्तान सुना दी। उन्होंने कहा- "जोश साहब, आप शख्सी हुकूमत का बोझ उठाने के लिए बने ही नहीं अल्लाहताला ने आपको बहुत बड़ा जौहर अता फरमाया है मेरी राय है कि आप आगरे को अपना हैडक्वार्टर बनाकर वहाँ से एक हफ्तेवार अखबार निकालना शुरू कर दें। पर्चे का नाम रखिए 'सल्लनत'। आगरे में आपको रहने की दुश्वारी इसलिए नहीं होगी कि वहाँ आपके नाना का आलीशान महल मौजूद है।।
मैंने कहा, काजी साहब, राय तो बहुत अच्छी है, मगर किस बूते पर अखबार निकालूं?" उन्होंने कहा, आप रियासत दतिया के बूते पर अखबार निकालें। फिलहाल रियासत आपको साढ़े चार सौ रुपये हफ्ते के हिसाब से सोलह सौ रुपये महीना देगी और अगले साल के बजट में यह रकम दुगनी कर दी जाएगी। मंजूर है आपको?" अंधा क्या चाहे, दो आँखें मैंने उनकी इस तजवीज़ को फ़ौरन मंजूर कर लिया। उन्होंने कहा, "आप अल्लाह का नाम लेकर यह काम शुरु कर दीजिए में दूसरी रियासतों से भी आपको इमदाद दिला दूंगा।" काजी साहब की इस बात से मेरा दिल बाग बाग हो गया और में रात को आराम से सी गया। सुबह जब उनके साथ नाश्ता करने बैठा तो उन्होंने पूछा, "जोश साहब, आपके अखबार की पॉलिसी क्या होगी?" मैंने कहा- आप फरमाएँ।" उन्होंने कहा, 'प्रो-ब्रिटिश ! मेरा चेहरा मटमैला-सा होकर रह गया। काजी भांप गए। उन्होंने बड़े जोश के साथ मेज पर घूँसा मारकर कहा, "जोश साहब, ब्रिटिश एम्पायर एक नेमत है, और बहुत बड़ी नेमत अगर हुकूमत ख़ुदा न खास्ता बाकी न रही तो मेरी यह बात कान खोलकर सुन लीजिए कि हिन्दू हमें कच्चा चबा डालेगा। वह आपका जीना दूभर कर देगा। गाय आप की खेतियाँ चर लेगी। आप गाय पर हाथ उठाएँगे, तो कम-से-कम, आपका हाथ तोड़ डाला जाएगा और यह भी मुमकिन है कि आप क़त्ल कर डाले जाएँ। हिन्दू आपके खून से होली खेलेगा। आपके एम. ए. लड़कों पर हिन्दू मैट्रिक को तरजीह दी जाएगी। फरमाइए, क्या आप इस पर तैयार हैं?" मैंने कहा, काजी साहब, आप मेरे बुजुर्ग हैं और यह भी मानता हूं कि, आप मुझे फूलता-फलता देखना चाहते हैं। मैं आपकी इस हमदर्दी का शुक्रिया अदा नहीं कर सकता। लेकिन इसे क्या करूँ कि मुझे अंग्रेजी हुकूमत से नफरत है।" मेरी बात काटकर उन्होंने कहा, आप अपने दोस्त जवाहरलाल के बहकावे में आ गए। देखिए यह आपकी रोज़ी और तमाम मुसलमानों की भलाई का सवाल है, आप फैसल में जल्दी न कीजिए।"
लेकिन जब उनके बार-बार समझाने के बाद भी में फिरंगी की हिमायत के लिए आमादा न हुआ तो उन्होंने मायूस होकर कहा, "अगर आप ब्रिटिश हुकूमत की मुखालिफ़त करेंगे तो मुझे अफसोस है कि रियासत आपका हाथ नहीं बँटा सकेगी। और अगर मैं रियासत से आपकी इमदाद करूंगा तो मेरी प्राइम मिनिस्टी ही खत्म हो जाएगी।'
मैंने कहा, "क़ाज़ी साहब, मैं आपका बेहद शुक्रगुजार हूँ। आपने तो दिल से यह चाहा था कि मेरी जिन्दगी सुधर जाए लेकिन मेरे मिजाज ने सारा खेल बिगाड़कर रख दिया। खता आपकी नहीं, मेरी है।"
धौलपुर आया तो धौलपुर के सबसे बड़े जागीरदार और अपने सगे मामू की हवेली के एवज अपने पुराने दोस्त सरदार रूपसिंह के यहाँ ठहरा।
मैंने अपनी दास्तान सुनाई और कहा, "महाराजा के पास आया हूँ। शायद वह कोई मुलाज़मत दे दें। रूपसिंह ने कहा, "महाराजा बड़ा पापी है। मुझे उससे कोई उम्मीद नहीं जब तक तुम्हारी कोई सूरत न निकले, तुम मेरे ही साथ रहो। मलीहाबाद जाकर भाभी को बुला लाओ। नवाब साहब (मेरे मामू) के बाई की हवेली में उन्हें ठहराओ जब तक कोई बंदोबस्त न हो जाए मैं पांच सौ रुपये महीना तुमको देता रहूंगा। जब अच्छे दिन आएं तो अदा कर देना।"
मैने कहा, "मैं तुम्हारा बेहद शुक्रगुजार हूँ कि मेरे बिना कहे तुम मेरी इमदाद पर आमादा हो गए।" रूपसिंह ने मेरी बात काटकर कहा, "यह कौन-सी अनोखी बात है? क्या हम दोनों पुराने दोस्त नहीं है? क्या हममें कोई ग़ैरियत है? में राजपूत हूँ तुम पठान तुम मुसलमान राजपूत हो, मैं हिन्दू पठान।"
मैंने कहा, "भाई रूपसिंह, मैं सोचकर जवाब दूंगा। " रूपसिंह ने कहा, "सोचकर जवाब देने वाले की ऐसी-तैसी। अभी-अभी जवाब दो वरना छाती पर चढ़कर गला दबा दूंगा। " मैंने हंसकर कहा, "ऐसी हौल-जील काहे की ज़रा सोच तो लेने दो। यह सुनते ही रूपसिंह ने छलांग लगाई। मुझे फर्श पर गिरा दिया और जोर जोर से मेरा गला दबा दबाकर कहने लगे कि मंजूर है कि नहीं या मार डालूँ? मैंने कहा, "मंजूर, मंजूर, ऐ जालिम, मंजूर।" मेरी आंखों से शुक्रिए के आँसू बहने लगे। मैंने तार देकर बीबी को धौलपुर बुला लिया। वह छोटे दादा और सखावत व जफर को साथ लेकर आ गई। मैं भी रूपसिंह के बाड़े से उठकर मामू के बाड़े आ गया और उनकी खाली हवेली में रहने लगा। कई बार महाराजा धौलपुर से मिला। हर बार उन्होंने मुलाज़मत का वादा किया; लेकिन पूरा होने की नौबत नहीं आई। जब इस असमंजस में दो-तीन महीने गुजर गए तो, में सोचने लगा कि, आखिर माजरा क्या है।
इसी बीच में सपना देखा कि, मौलवी अहमद हुसैन साहब फरमा रहे हैं कि महाराजा से कोई उम्मीद न रखिए। आप एक साफ़ दिल शराबी हैं और वह, बगुला भगत। सुबह एक तार आएगा, उस पर अमल कीजिए। मैंने रूपसिंह को यह सपना सुनाया तो उन्होंने कहा, "यह सपना तो ऐसा है कि इसके सच्चा-झूठा होने का पता आज ही चल जाएगा।'
कोई दो घंटे बाद जब हम लोग नाश्ते से फारिग होकर गपशप कर रहे थे, महाराजा के प्राइवेट सेक्रेटरी आ गए और मुझसे कहा कि मैं आपसे अलहदगी में कुछ बातें करना चाहता हूँ। जब मैं उन्हें दूसरे कमरे में ले गया तो उन्होंने कहा, "सरकार फरमाते हैं कि मेरा और जोश का मामला तो ऐसा है जैसा पेड़ और बक्कल का होता है। अगर वह यहां से चले गए तो में बे- बक्कल का पेड़ हो जाऊँगा। मैं जोश को एक अच्छा-सा ओहदा देना चाहता हूं, मगर दो शर्तें हैं। एक तो यह कि वह शराब छोड़ दें और दूसरी यह कि, रूपसिंह से मिलना छोड़ दें। मैंने कहा, "महाराजा से जाकर कह दीजिए कि उन्होंने मेरी जात के साथ जिस लगाव का इजहार किया है, में इसका दिल से शुक्रगुजार है। लेकिन इसके बावजूद न तो मैं शराब छोडूंगा, न रूपसिंह की मुहब्बत ही से दस्तबरदार हूँगा।"
रूपसिंह पद की आड़ से ये बातें सुन रहे थे। वह मेरा आखिरी वाक्य सुनकर कमरे में आए और कहा कि "सेक्रेटरी साहब, सरकार से जाकर कह दीजिए कि, जोश शराब भी छोड़ देंगे और रूपसिंह से भी मुँह फेर लेंगे।" मैंने कहा, "मैं शराब और रूपसिंह दोनों को नहीं छोडूंगा।" रूपसिंह ने डपट कर कहा, "तुम्हें छोड़नी पड़ेगी ये दोनों चीजें।" मैंने कहा, "नहीं छोडूंगा नहीं छोडूंगा। " सेक्रेटरी साहब इसी शोरो - गुल में "अरे राम, ऐसी पक्की धुन, ऐसी पक्की 'दोस्ती' कहते हुए रुखसत हो गए।"
अब हम फिर बरामदे में आकर बैठ गए। रूपसिंह ने कहा, "तुम्हारे सपने का पहला हिस्सा तो सच्चा निकला कि महाराजा से सम्बन्ध टूट गया। अब अगर तार आ गया तो पूरा सपना सच्चा साबित हो जाएगा।"
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इस तरह, जोश, तलाशे नौकरी में दर बदर ठहलते घूमते रहे। कभी उनका स्वभाव, आड़े आ जाता था तो कभी खुद्दारी, तो कभी सुराजी मानसिकता। वक्त बीतता रहा और वे, अच्छे वक्त का इंतजार करते रहे।
(क्रमशः)
विजय शंकर सिंह
Vijay Shanker Singh
जोश मलीहाबादी की आत्मकथा, यादों की बारात का अंश (11) हैदराबाद से जोश की घर वापसी / विजय शंकर सिंह
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2023/07/11.html
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