Tuesday, 28 June 2022

कमलाकांत त्रिपाठी / कालिदास की वैज्ञानिक दृष्टि और उनका अखिल भारतीय राष्ट्रीय क्षितिज

पुराणमित्येव न साधु सर्वं न चापि काव्यं नवमित्यवद्यम्।
संत: परीक्षान्यतरद्भजन्ते मूढ़: परप्रत्ययनेयबुद्धि:॥ 

(कालिदास, मालविकाग्निमित्रम्‌;1-2)

[पुरानी होने से ही कोई चीज़ (यहाँ काव्य) अच्छी नहीं हो जाती, न ही नई होने से बुरी। समझदार लोग तो विवेक से परीक्षण करने के बाद ही अच्छे-बुरे का निर्णय करते हैं, जब कि मूर्खों की बुद्धि सुनी-सुनाई बातों पर जाती है।]

आज जिसे वैज्ञानिक मिज़ाज (scientific temper) कहते हैं, क्या वह कालिदास के इस सूक्तिनुमा पद्य से कोई भिन्न अवधारणा है ? कालिदास पहली शताब्दी ई. पू. के संस्कृत के ऐसे कवि (संस्कृत में नाटककार भी कवि है) हैं जिनकी अप्रतिम प्रतिभा का साक्षात्कार हमें उनके तीन नाटकों—अभिज्ञानशाकुंतलम्‌, विक्रमोर्वशीयम्‌ और मालविकाग्निमित्रम्‌--तथा तीन प्रबंधकाव्यों—रघुवंशम्‌, कुमारसंभवम्‌ और मेघदूतम्‌--में होता है। एक उत्कृष्ट कवि होने के साथ-साथ कालिदास की एक सुलझी हुई जीवनदृष्टि भी है जिसमें परंपरा और नवाचार का सुष्ठ संगम है। और यही उनकी वैज्ञानिक सोच का आधार है। 

परंपरा कोई जड़ या स्थिर अवधारणा नहीं, यह सतत गतिशील और काल-सापेक्ष परिवर्तन के अधीन है। एक निरंतर प्रवहमान सरिता जो पुराने खर-पतवार को उत्सर्जित करती और नई ज़मीन की तासीर को आत्मसात्‌ करती चलती है। परंपरा  यदि रूढ़ि बन जाए तो उसका अग्रगामी प्रवाह अवरुद्ध हो जाता है, उसका जल ठहरकर सड़ने लगता है। इसलिए नवनवोन्मेष उसकी केंद्रीय प्रकृति है।

कालिदास का मिज़ाज तो वैज्ञानिक था ही, वे वैज्ञानिक खोजों और जनता में प्रचलित अंधविश्वासों के प्रति भी सचेत थे। रघुवंशम्‌ में प्रसंग है सीता के बारे में उठा जनापवाद सुनने के बाद विचलित राम द्वारा  भ्राताओं को बुलाकर उन्हें अपने निर्णय से अवगत कराने का। उसी संदर्भ में राम का कथन है—

आवैमि चैनामनघेति किंतु लोकापवादो बलवान्मतो मे। 
छाया हि भूमे: शशिनो मलत्वेनारोपिता शुद्धिमत: प्रजाभि:॥14:40॥ 

[मैं जानता हूँ कि सीता निर्दोष हैं, किंतु जनापवाद सत्य से अधिक बलवान होता है। निर्मल चंद्रमा पर पृथ्वी की छाया पड़ने को लोग राहु से ग्रसित चंद्रमा का कलंक मान लेते हैं, झूठ होने पर भी लोग यही कहते हैं। {चंद्रग्रहण का खगोलीय कारण कालिदास के समय तक ज्ञात हो चुका था किंतु जनमानस में राहु द्वारा ग्रसित होने का जो अंधविश्वास आज प्रचलित है, तब भी प्रचलित था.}] 

कालिदास की दृष्टि वैज्ञानिक होने के साथ-साथ समग्र, समावेशी और लोकधर्मी  भी है। इसीलिए वे देश के पहले राष्ट्रकवि माने जाते हैं। यह मान्यता किसी वैचारिक  गढ़ंत का हासिल नहीं, उनकी कृतियों के अंत:साक्ष्य से स्वत:सिद्ध है। उनकी दृष्टि अखिलभारतीय है जिसमें भिन्नवर्णी प्राकृतिक सौंदर्य के कोलाज़ के साथ एक उदार सांस्कृतिक चेतना और अस्मिता-बोध का प्रखर स्वर घुला हुआ है।   

यहाँ केवल दो प्रसंग पर्याप्त होंगे: 
  
एक-इंदुमती स्वयंवर (रघुवंशम्‌, षष्ठ सर्ग): भारत के विभिन्न राज्यों के भूक्षेत्र का प्राकृतिक-सांस्कृतिक आख्यान   

कालिदास अपने सृजन में जिस राष्ट्रीय-सांस्कृतिक क्षितिज को मूर्तिमान करते हैं उसमें वर्चस्ववाद या  उग्र राष्टवाद या नामोनिशान तक नहीं। बस प्राकृतिक सुषमा और सांस्कृतिक परिदृश्य का एक हृदयग्राही चित्र उभरता है और उसकी विविधता का हर घटक अपनी सूक्ष्मता और सौंदर्य में हमारे सामने साकार हो उठता है। हो न हो, कालिदास ने अपने युग की दुरूहताओं के बावजूद देश का चतुर्दिक्‌ भ्रमण और हर प्रांतर का अतिशय उदारता, ग्रहणशीलता और संवेदना की गहराई से निरीक्षण किया हो। उसका अर्जित उनके समस्त सृजन में अनुस्यूत है.

रघुवंशम्‌, षष्ठ सर्ग. राम के पूर्वज रघु के पुत्र अज (ब्राह्म मुहूर्त में पैदा होने के नाते पिता ने ब्रह्मा के नाम पर यह नाम रखा) अयोध्या के राजकुमार हैं। विदर्भ के राजा भोज की बहन इंदुमती के स्वयंवर में आमंत्रित हैं। स्वयंवर का सभा-मंडप। विभिन्न भारतीय राज्यों के नरेश वहाँ उपस्थित हैं। इंदुमती हाथ में जयमाल लेकर प्रवेश करती है। अंत:पुर की प्रतिहारी सुनंदा उसके साथ है। सुनंदा राजवंशों के इतिहास में निष्णात है और वाचाल भी। इंदुमती को राजाओं का परिचय देने का दायित्व उसी पर है। राजाओं के इसी परिचय के व्याज से कालिदास ने देश के विभिन्न भूभागों की भौगोलिक-प्राकृतिक छटा को कोलाज़ की तरह सजा दिया है. कुछ चुने हुए छंद :

(अवंतिका)

असौ महाकालनिकेतनस्य वसन्नदूरे किल चंद्रमौले:।
तमिस्रपक्षेSपि सह प्रियाभिर्ज्योत्स्नावतोनिर्विशति प्रदोषान्‌।।6:34॥
अनेन यूना सह पार्थिवेन रम्भोरु कच्चिन्मनसो रुचिस्ते।
सिप्रातरंङानिलकम्पितासु विहर्तुमुद्यानपरम्परासु॥35॥

[अवंतिराज का राजभवन महाकाल मंदिर में विद्यमान शिव के निकट है। शिव ने मस्तक पर चंद्रमा धारण कर रखा है। चंद्रमा के प्रकाश में अवंतिराज अपनी स्त्रियों के साथ हमेशा शुक्ल पक्ष का ही आनंद लेते हैं। केले के खम्भे के समान जंघाओंवाली इंदुमती ! क्या तुम अवंतिका के उन उद्यानों में विहार नहीं करना चाहोगी जिनमें दिन-रात सिप्रा नदी से आनेवाला शीतल पवन हरहराया करता है?]

(अनूपदेश--नर्मदा तटवर्ती)

अस्याङ्कलक्ष्मीर्भव दीर्घबाहोर्माहिष्मतीवप्रनितम्बकाञ्चीम्‌।
प्रासादजालैर्जलवेणिरम्यां रेवां यदि प्रेक्षितुमस्ति काम:॥43॥

[यदि तुम राजभवन के गवाक्षों से माहिष्मती नगरी के चारों ओर करधनी-जैसी लिपटी, सुंदर लहरोंवाली नर्मदा का मनोहारी दृश्य देखना चाहो तो अनूपदेश के इन महाबाहु राजा की अंकलक्ष्मी बन जाओ।]

(मथुरा)

यस्यावरोधस्तनचंदनानां प्रक्षालनाद्वारिविहारकाले।
कलिंदकन्या मथुरां गतापि गङ्गोर्मिसंसक्तजलेव भाति॥48॥

संभाव्य भर्तारममुं युवानं मृदुप्रवालोत्तरपुष्पशय्ये।
वृंदावने चैत्ररथादनूने निर्विश्यतां सुंदरि यौवनश्री:॥50॥

[ये (मथुरा-नरेश सुषेण) जब अपनी रानियों के साथ यमुना में जल-विहार करते हैं, रानियों के स्तन पर लिपा चंदन जल में धुलकर नदी में बहने लगता है। उस समय यमुना का रंग देखकर लगता है जैसे गंगा की लहरों के साथ यमुना का संगम वहीं पर हो गया हो......युवा सुंदरी इंदुमती, इन युवक नरेश को पति बनाकर कुबेर के चैत्ररथ नामक उद्यान से भी अधिक सुंदर वृंदावन में कोमल पत्तों और फूलों की शय्या पर आसीन हुआ करना।]

(कलिंग)

यमात्मन: सद्मनि संनिकृष्टो मंद्रध्वनित्याजितयामतूर्य:।
प्रासादवातायनदृश्यवीचि: प्रबोधयत्यर्णव एव सुप्तम्‌॥56॥
अनेन सार्धं विहराम्बुराशेस्तीरेषु तालीवनमर्मरेषु।
द्वीपान्तरानीतलवङ्गपुष्पैरपाकृतस्वेदलवा मरुद्भि:॥57॥

[इन (कलिंग-नरेश हेमांगद) के राजभवन के ठीक नीचे समुद्र हिलोरें लेता है। राजभवन की खिड़कियों से समुद्र की लहरें साफ़ दिखती हैं। जब ये राजभवन में सोते हैं, समुद्र ही अपने नगाड़े के स्वर से भी अधिक गंभीर गर्जन से प्रात: इन्हें जगाया करता है। इनके साथ विवाह करके समुद्र के उन तटों पर विचरण करना जहाँ दिन-रात ताड़ के पत्तों की खड़खड़ाहट सुनाई पड़ती है। विचरण करते समय जब भी तुम्हें पसीना होगा, पूर्वी द्वीपों से आनेवाली, लौंग के फूलों की सुगंध से भरी हवा उसे सुखा देगी.]

(पांड्य देश--धुर दक्षिण)

अनेन पाणौ विधिवद्गृहीते महाकुलीनेन महीव गुर्वी।
रत्नानुविद्धार्णवमेखलाया दिश: सपत्नी भव दक्षिणस्या:॥63॥
ताम्बूलवल्लीपरिणद्धपूगास्वेलालतालिङ्गितचंदनासु।
तमालपत्रास्तरणासु रन्तुं प्रसीद शश्वन्मलयस्थलीषु॥64॥

[यह (पांड्य-नरेश) बड़े ही कुलीन हैं और तुम हो पृथ्वी की तरह गम्भीर। इनके साथ विधिपूर्वक विवाह करके तुम उस रत्नखचित दक्षिणदिशा की सपत्नी बन जाओ जिसकी करधनी स्वयं रत्नों से भरा समुद्र है। यदि तुम मलय प्रांत की उन घाटियों में विचरण करना चाहती हो, जिनमें पान की बेलों से ढके सुपारी और इलायची की बेलों से लिपटे चंदन के पेड़ हैं और जगह-जगह ताड़ के पत्ते बिखरे हुए हैं, तो तुम इन्हीं से विवाह कर लो।]

दो-पूर्वमेघ: बादल के यात्रा-पथ के रूप में विंध्य से कैलाश तक की प्राकृतिक-सांस्कृतिक सुषमा की एक कला-दीर्घा

मेघदूतम्‌ उत्कट स्वकीया प्रेम का ऐसा आख्यान है जिसमें शृंगार रस आद्यंत अपने उत्कृष्टतम, उदात्त रूप में अनुस्यूत है। अलकापुरी में कुबेर के यहाँ प्रतिदिन मानसरोवर से स्वर्णकमल लाने के काम पर नियुक्त एक यक्ष पत्नी के प्रेम में इस क़दर डूबा कि एक दिन अपने काम में प्रमाद कर गया। कुबेर ने उसे एक वर्ष के लिए अलकापुरी से निष्कासित कर दिया। शाप की यह अवधि बिताने के लिए उसने रामगिरि (नागपुर के पास आज की रामटेक पहाड़ी) के आश्रमोंवाले उस भूप्रदेश को चुना जो जलाशयों और सघन छायादार वृक्षों की प्राकृतिक सुषमा से आप्यायित है। आषाढ़ के पहले दिन घिरे हुए बादलों से लिपटी पहाड़ी को देखकर उसकी विरह-वेदना असह्य हो उठी। वियोग-विकल यक्ष ने चलायमान बादल के माध्यम से अलकापुरी में उसके वियोग से तड़प रही पत्नी को संदेश भेजने का निश्चय किया।

बादल को रामगिरि से अलकापुरी तक का मार्ग बताने के व्याज से देश के मध्य और उत्तरी भाग के एक गलियारे की प्राकृतिक सुषमा और वहाँ के जनजीवन की एक विहंगम दृश्यावली है पूर्वमेघ। यह दृश्यावली हवाई सर्वेक्षण के कोण से अद्भुत भौगोलिक प्रामाणिकता के साथ मूर्तिमान हुई है।  इस हवाई सर्वेक्षण वाली कला में कालिदास निष्णात हैं. रघुवंशम्‌ में पुष्पक विमान से लंका से अयोध्या तक की यात्रा के दौरान सीता को अपने वनवास-काल के आत्मीय दृश्यों को दिखाते हुए राम इसी कोण से उनका वर्णन करते हैं। एक प्राकृतिक-सांस्कृतिक इकाई के रूप में समग्र देश का विविधवर्णी बिंब कालिदास के मानस में गहराई से अंकित था। इस बिंब को उन्होंने बहुत सटीक और विश्वसनीय ढंग से कलात्मक अभिव्यक्ति दी है।

रामगिरि से अलकापुरी की ओर बढ़ते हुए सबसे पहले ‘सिद्धों’ के प्रदेश का ज़िक्र आता है—सिद्धों की भोली-भाली स्त्रियाँ आँखें फाड़-फाड़कर तुम्हें देखेंगी कि कहीं हवा पहाड़ की चोटी ही तो नहीं उड़ाए ले जा रही। फिर मिलेंगी मालव प्रांत की मासूम कृषक बालाएँ जिन्हें भौंहें नचाकर रिझाने की कला तो नहीं आती पर वे ताकेंगी तुम्हें बहुत आदर और प्रेम से, क्योंकि उनकी फ़सलों का होना, न होना तुम्हारे ऊपर ही निर्भर करता है। इस कृषि-प्रांतर में खेतों के सद्य: जोते जाने से सोंधी गंध उठ रही होगी। वहाँ तुम वर्षा अवश्य कर देना। उसके आगे थोड़ा-सा पश्चिम की ओर मुड़कर फिर उत्तर की दिशा में बढ़ोगे तो मिलेगा आम्रकूट पर्वत, जो पके हुए आम के वृक्षों से घिरा होने के कारण पीला-पीला नज़र आएगा। उसके जंगलों में, जैसा कि ग्रीष्म में अमूमन होता है, प्रकृत आग लगी होगी। वहाँ तो तुम मूसलाधार बारिश ही कर देना; पर्वत तुम्हारा बड़ा उपकार मानेगा। आम्रकूट के कुंजों में तुम्हें वनवासी स्त्रियाँ घूमती दिखेंगी, वहाँ तनिक रुक जाना और तब जल बरसा चुकने से हल्के हुए शरीर से तेज़ी के साथ आगे बढ़ लेना। आगे तुम्हें विंध्य के पठार पर कई-कई धाराओं में बँटकर फैली नर्मदा दिखाई पड़ेगी, ऐसे लगेगा जैसे किसी विशाल हाथी का शरीर भभूत से चित्रित कर दिया गया हो। हाथियों के मद से सुगंधित और जामुन के झुरमुटों से होकर बहती नर्मदा का जल ज़रूर पी लेना तुम ताकि फिर से भारी हो जाओ और हवा तुम्हें इधर-उधर भटका न दे।

नर्मदा के इस वन-प्रांतर के विशद मनोहारी वर्णन के बाद आगे पड़नेवाले दशार्ण प्रांत का उल्लेख है जिसके उपवन की बाड़ें पुष्पित केतकी (केवड़ा) के फूलों से उज्वल रेखा-सी दिखाई पड़ेंगी। दशार्ण की राजधानी विदिशा विलास की सामग्रियों से ऐसी भरपूर दिखेगी कि जब तुम वहाँ से गुज़रती चंचल लहरोंवाली वेत्रवती (बेतवा) का मीठा जल पीने लगोगे तो प्रतीत होगा जैसे कटीली भौहोंवाली कामिनी के होंठों का रस पी रहे हो। जंगली नदियों के किनारे के उपवनों में जूही की कलियों को अपनी फुहार से सींचते हुए और वहाँ फूल उतारनेवाली मालिनों के उन मुखड़ों पर छाया करते हुए तुम निकल जाना जिनके गालों पर बहते पसीने से लगकर कमल की पंखुड़ियों के कर्णफूल मलिन हो गए होंगे। 

जाना तुम्हें उत्तर है और उज्जयिनी वहाँ से पश्चिम तुम्हारे मार्ग से हटकर है। पर उस नगरी के भवनों और वहाँ की नागर स्त्रियों की चंचल चितवन को बिना देखे निकल गए तो तुम्हारा जन्म ही निरर्थक जाएगा। फिर तो कालिदास यक्ष के माध्यम से उज्जयिनी (जहाँ के वे निवासी थे) के समृद्ध नागर जीवन के समुल्लास और महाकाल के विशद वर्णन में ऐसे डूबते हैं कि बादल को वहीं रात बिताने की सलाह दे डालते हैं।

उज्जयिनी से आगे तुम देवगिरि पर्वत की ओर बढ़ोगे, जहाँ स्कंद भगवान का निवास है। उधर से आती ठंडी हवा तुम्हें सुखकर लगेगी, उसमें तुम्हारे द्वारा बरसाए जल से आनंद की साँस लेती धरती की सुगंध भरी होगी, जिसे चिग्घाड़ते हुए हाथी अपनी सूँड़ से पी रहे होंगे; उस हवा से गूलर भी पकने लगी होगी। उसके आगे मिलेगी चर्मण्वती (चम्बल) नदी जो राजा रंतिदेव द्वारा किए गए यज्ञ की कीर्ति बनकर पृथ्वी पर प्रवाहित है। चर्मण्वती पारकर तुम्हें दशपुर (मंदसर) की ओर बढ़ना होगा और वहाँ ब्रह्मावर्त्त (लुप्त सरस्वती का तटवर्ती) प्रदेश पर छाया करते हुए तुम कुरुक्षेत्र निकल जाना जो कौरवों और पांडवों के भीषण युद्ध के नाते कुख्यात है। वहाँ यदि तुमने सरस्वती नदी का पवित्र जल पी लिया तो बाहर से काला होने के बावजूद तुम्हारा मन उज्वल हो जाएगा। कुरुक्षेत्र से आगे तुम्हें कनखल में सगर के पुत्रों का उद्धार करनेवाली, स्फटिक की तरह स्वच्छ-धवल जलवाली गंगा मिलेंगी। जब तुम झुककर गंगा का जल पीना चाहोगे तो तुम्हारी गतिमान छाया से लगेगा जैसे प्रयाग से पहले ही वे यमुना से मिल रही हों।

आगे मिलेगा हिमालय जिसकी हिमाच्छदित चोटियों पर बैठकर कुछ देर अपनी थकावट दूर कर लेना। हिमालय के आसपास के रमणीय स्थलों को देखने के बाद तुम क्रौंच रंध्र (दर्रे) के सँकरे मार्ग से लम्बे और तिरछे होकर मानसरोवर निकल जाना। वहाँ से ऊपर उठकर तुम कुमुदिनी-जैसी श्वेत चोटियोंवाले कैलास पर पहुँच जाओगे। और उसी कैलास की गोद में बसी है हमारी अलकापुरी।

ध्यातव्य है कि यहाँ कालिदास की लोकधर्मी दृष्टि से मालव प्रांत की मासूम कृषक बालाएँ नहीं छूटतीं जिन्हें भौंहें नचाकर रिझाने की कला तो नहीं आती किंतु बारिश के इंतज़ार में वे चलायमान बादलों की ओर बहुत आदर और प्रेम से ताकती रहती हैं। बेतवा की सहायक जंगली नदियों के किनारे के उपवनों में फूल चुननेवाली मालिनों को भी कालिदास नहीं भूलते जिनके गालों पर बहते पसीने से लगकर कमल की पंखुड़ियों के कर्णफूल मलिन हो गए थे। 

इस तरह स्त्री के प्रकृत सौंदर्य के साथ कालिदास उसके श्रम-सौंदर्य के भी अद्भुत पारखी हैं। अभिज्ञानशाकुंतलम्‌ में दुष्यंत जब सहेलियों के साथ घड़े से आश्रम के पौधे सींचती शकुंतला को देखते हैं तो उनकी दृष्टि शकुंतला के सौंदर्य-विलास पर नहीं, उसके श्रम-सौंदर्य पर टिकती है:   

स्रस्तांसावतिमात्रलोहिततलौ बाहूघटोत्क्षेपणा
दद्यापि स्तनवेपथं जनयति श्याम: प्रमाणाधिक:।
बद्धं कर्णशिरीषरोधि वदने धर्मांभसां जालकं
बन्धे स्रंसिनि चैकहस्तयमित: पर्याकुला मूर्धजा:॥1:27॥

[हाथ से घड़ा उठाने से इनके कंधे झुक गये हैं, हथेलियाँ अत्यधिक लाल हो गई हैं, साँस तेज़ चलने से वक्ष उठ-गिर रहे हैं, चेहरे पर उभरी पसीने की बूँदों से कानों में पहने शिरीष के फूल चिपक गये हैं और बालों की वेणी खुल जाने से एक हाथ से सँभाले जाने के बावजूद लटें बिखर गई हैं।]
   
मेरे सामने भारत का प्राकृतिक मानचित्र खुला है और विंसेंट स्मिथ की पुस्तक में उपलब्ध प्राचीन भारत के नक़्शेवाली प्लेट। और मैं देश के भूगोल, विविधवर्णी प्राकृतिक बनावट तथा विभिन्न प्रदेशों के जन-जीवन में कालिदास की गहरी पैठ और उनके विशद एवं सम्यक्‌ भौगोलिक ज्ञान के सामने नतमस्तक हूँ। आज इतने सारे सूचना-स्रोत उपलब्ध होने के बावजूद तथाकथित यथार्थवादी कथाकृतियों में हम भूगोल के प्रति कितनी असावधानी बरतते हैं ! और उस प्राचीन युग में एक काव्य-रूपक लिखते हुए कालिदास का यक्ष बादल को उसके मार्ग का जैसे एक सर्वथा त्रुटिहीन और सटीक नक़्शा थमा रहा हो..... और कुछ  ‘विद्वान’ लेखक मानते हैं कि भारत का पहला नक़्शा वारेन हेस्टिंग्स ने बनवाया (उदय प्रकाश, वारेन हेस्टिग्स का साँड़) ! संस्कृत की अवहेलना का यही हश्र होना था !!
  
कालिदास का राष्ट्रप्रेम किसी आग्रह या दिखावे का मुहताज नहीं, उनके लिए वह निहायत सहज और प्रकृत है। अकारण नहीं कि वे अपने महाकाव्य कुमारसंभवम्‌ का प्रारम्भ उसकी कथाभूमि हिमालय की भौगोलिक महत्ता के यशोगान से करते हैं-- 

अस्त्युत्तरस्यां दिशि देवतात्मा हिमालयो नाम नागाधिराज:।
पूर्वापरौ तोयनिधीवगाह्य स्थित: पृथिव्या इव मानदण्ड:॥
(कुमारसम्भवम् 1:1)

[(भारतके) उत्तर में देव-तुल्य हिमालय नाम का पर्वतों का राजा है, जो पूरब और पश्चिम के समुद्रों को छूता हुआ ऐसे स्थित है, जैसे पृथ्वी का मानदंड हो.]

प्रसिद्ध इतिहासकार प्रो. इरफान हबीब ने अमीर ख़ुसरो (1253-1325) की लम्बी कविता ‘नुह सिपिह्र’ (नौ आकाश) को भारत की पहली देशभक्ति की कविता बताया है। वे लिखते हैं‌--

“The first patriotic poem in which India is praised, India is loved, Indians are acclaimed is Amir Khusrau’s long poem in his Nuh Sipihir written in 1318. I am very sorry that now we are losing this heritage. How many people here would be able to read Amir Khusrau, and so appreciate that here is the praise for India for the first time in its history. What does Amir Khusrau praise India for? For its climate first of all which I think is very unconvincing statement, its natural beauty, its animals and along with its animals its women, their beauty as well as faithfulness. Then he comes to Brahmans. He praises their learning. He praises their language Sanskrit. He identifies India not only with Brahmans, but also with Muslims. Those who speak Persian, as well as those who speak Turkish, he says, are to be found throughout India. He praises all the languages of India from Kashmiri to Mabari i.e. Tamil. All these languages that were spoken in India, not only north India but also in the south India, are listed there. He called them Hindavi. He adds that besides these languages there is the Sanskrit language, which is the language of science, and of learning. And had Arabic not been the language of the Quran, he would have preferred Sanskrit to Arabic. He then says India has given many things to the world: India has given Panchtantra tales, as well as chess, and most surprisingly, he says India has given the world the decimal numerals what are known as Arab numerals or International numerals. He is correct in all the three points. And, as for decimal notation Aryabhatta theoretically recommended its use in 4th century AD.”

इसमें दो राय नहीं कि अमीर ख़ुसरो भारतीय लोकजीवन में रचे-बसे, अरबी, फ़ारसी और हिंदवी के प्रकांड विद्वान और उदात्त शायर थे और इस देश की मिट्टी से, इसकी तहज़ीब से, इसकी आबोहवा से, इसके सौंदर्य से बेहद प्यार करते थे। किंतु ख़ुसरो का उल्लेख करते समय देशप्रेम को लेकर उनकी कविता के प्रथम होने का दावा करना, उनसे तेरह सौ वर्ष पूर्व के दूसरे कवि कालिदास के योगदान के प्रति न्याय नहीं होगा। संभवत: यह उसी तरह की जानकारी के अभाव में, ग़ैरइरादतन हो गया हो, जिसे लेकर ख़ुसरो के संदर्भ में प्रो. हबीब ने दु:ख और निराशा व्यक्त की है। 

कमलाकांत त्रिपाठी
© Kamlakant  Tripathi


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