Thursday, 9 June 2022

प्रवीण झा / रोम का इतिहास - तीन (13)

               (चित्र: Edict of Milan) 

इतिहास में विजयोत्सव मनाने की परंपरा रही है। कई पंथों के उत्पीड़न होते रहे, और आज भी हो रहे हैं, लेकिन इसे एक स्मृति-चिह्न बना कर कम संजोया जाता है। ईसाइयों ने दूसरी सदी से ही ‘क्रॉस’ को महत्व देना शुरू कर दिया। इसके दो मायने थे। पहला कि यहूदियों द्वारा यीशु को सूली पर लटकाना हर ईसाई को स्मरण रहे, दूसरा कि रोमनों द्वारा उत्पीड़न भी याद रहे। इस तरह हर ईसाई न यहूदियों से आकर्षित हो, न मूर्तिपूजकों से। 

टर्टुलियन (155-220 ई.) ने लिखा है कि ईसाई अपने हाथ से माथे और कंधों को छूकर ‘क्रॉस’ का काल्पनिक निशान बनाते। जबकि मान्यता है, यीशु स्वयं इस तरह के किसी प्रतीक या मूर्ति के समर्थन में नहीं थे। किसी मंदिर-नुमा पूजास्थल का भी वह विरोध करते रहे। आज भी नॉर्वे और अन्य देशों में मौजूद ‘यहोवा के साक्षी’ (Jehova’s witness) नामक ईसाई पंथ ‘क्रॉस’ का प्रयोग नहीं करते। न ही यीशु या वर्जिन मैरी के चित्र को पूजते हैं। वे मात्र बाइबल को ही प्रामाणिक मानते हैं। अधिकांश ईसाइयों ने इतिहास में ‘क्रॉस’ यानी सूली को प्रतीक बना कर स्थापित किया। जबकि यह वैज्ञानिक इतिहास में दर्ज़ नहीं कि वाकई यीशु को सूली पर लटकाया गया, न ही यहूदी सन्हेद्रिन में यह परंपरा थी। 

राजा डायोक्लेशियन ने जब रोमन साम्राज्य का विभाजन किया, तो ज़ाहिर है दो राजधानी/मुख्यालय बने। पहली इटली के मिलान में, जो पश्चिमी साम्राज्य संभालती। दूसरी तुर्की के निकोमेदा में, जो पूर्वी साम्राज्य संभालती। 

कॉन्स्टेंटाइन जब वयस्क हुए, तो वह तुर्की में राजा के सहायक बन गए। उनके पिता पहले से ही सीज़र पद पर थे, तो यह पद दिलाना कठिन न होगा। जब रोमन साम्राज्य में ईसाइयों पर अत्याचार हो रहे थे, उस समय कॉन्स्टैंटाइन ब्रिटेन के विद्रोहियों पर चढ़ाई करने गए थे। वह 306 ई. में जीत दर्ज कर लौटे, और उनका राजा बनना तय हो गया।

उस समय तक तकनीकी रूप से वह मूर्तिपूजक ही थे, लेकिन 312 ई. में एक विचित्र घटना हुई। कॉन्स्टैंटाइन ने अपनी सेना को कहा कि अपने ढालों पर ‘क्रॉस’ का चिह्न बनाएँ। मुमकिन है कि किसी ईसाई प्रचारक ने उन्हें प्रभावित किया हो। कालांतर में यह मिथक बन गया कि आकाश में उन्होंने ‘क्रॉस’ का चिह्न देखा, और सीधे ईश्वर का आदेश मिला। ऐसे चमत्कारी मिथक यूरोप के ईसाईकरण में बारंबार मिलेंगे।

कॉन्स्टैंटाइन को ‘ईश्वर’ का आदेश यह था कि वह अकेले रोमन साम्राज्य के शासक बन जाएँ, और तभी उन्होंने अपने ही राज्य पर चढ़ाई की थी। उन्होंने 324 ई. में रोमन साम्राज्य पर एकछत्र राज्य स्थापित कर लिया। उसी दौरान उन्होंने फ़ारस के राजा को चिट्ठी भेजी कि ईश्वर ने उन्हें संपूर्ण विश्व में शांति स्थापना के लिए भेजा है। यह बात अवैज्ञानिक लगती है कि ईश्वर ने आकाश से उन्हें समझाया कि अब ब्रिटेन पर कब्जा कर लो, अब रोम जीत लो, और अब नयी राजधानी बना लो!

रोमन साम्राज्य की राजधानी रोम ही नहीं रही! नयी राजधानी पूरब में बनायी गयी, जिसका नाम पड़ गया कुस्तुनतुनिया (Constantinople)।

ख़ैर, राजधानी बनाना तो रणनीतिक निर्णय है। जर्मनों और गॉल के हमलों से बचने के लिए यह नयी राजधानी बेहतर थी। लेकिन, हज़ार वर्षों का रोमन इतिहास और रोम की महत्ता जैसे उसी वक्त खत्म हो गयी। अब रोम सिर्फ़ एक नगर था। वहाँ के तमाम मंदिर, राजमहल, कोलोसियम, जीर्ण हो रहे थे, और कुस्तुनतुनिया को भव्य आधुनिक राजधानी बनाया जा रहा था।

राजा ने स्वयं ईसाई धर्म धारण कर लिया और वह रोम में एक विशाल गिरजाघर बनवाने लगे। उन्होंने एक आदेशनामा (Edict of Milan) भिजवाया जिसमें ईसाइयों की सभी छीनी गयी संपत्तियाँ वापस करने कहा गया और उत्पीड़ित ईसाई परिवारों को धन-राशि दी गयी।

जब राजा ही ईसाई बन गए, तो प्रजा क्या करती? धीरे-धीरे वह भी स्वेच्छा से ईसाई बनती गयी, और रोमन मंदिरों का खजाना घटता गया। ईसाई पादरियों के सामने रोमन पुरोहित गंवार दिखने लगे। उनका नाम ही रख दिया गया- पेगन यानी गाँव-देहात का धर्म (pagus का अर्थ गाँव)। कभी यह दुनिया के सबसे शक्तिशाली और आधुनिक नगर रोम का धर्म था, अब यही गंवार हो गया!

391 ई. में राजा थियोडोसियस ने घोषणा की, “हमारे रोमन साम्राज्य में अब सभी पेगन रीतियों पर पाबंदी लगायी जाती है। आज से कोई भी व्यक्ति दक़ियानूसी मूर्तियों की पूजा न करे।”
(क्रमशः)

प्रवीण झा
© Praveen Jha

रोम का इतिहास - तीन (12) 
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2022/06/12.html 
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