रहीम ने सांस्कृतिक और भाषिक बहुलता तथा सत्ता, शास्त्र और लोकजीवन के संगम ‘तौहीद’ (अद्वैतवाद) की एक अद्भुत अलख जगाई थी।
अजीब माजरा है की दिल, दिमाग़, और बुनियादी व्यवहार में भी, दुनिया के सभी अच्छे लोग एक से पाए जाते हैं, आज के ही नहीं, पहले के भी और शायद आगे आनेवाले समय में भी वैसे ही पाए जाएं। सभी धर्मों, नस्लों, जातियों और देशों में वे एक से ही होते हैं। ऐसे अच्छे लोगों के बीच कोई समस्या नहीं आती, वे एक-दूसरे के साथ चैन से रहते हुए देखे जाते हैं। समस्या पैदा करनेवाले दूसरी तरह के लोग हैं जो एक ही धर्म, एक ही जाति या एक ही समुदाय के बीच भी समस्या पैदा करने का कोई न कोई रास्ता ख़ोज लेते हैं। इन्हें इतना कुछ चाहिए होता है कि न ख़ुद चैन से बैठ सकते हैं , न दूसरों को बैठने दे सकते हैं। और ये दूसरी तरह के (दरअसल कमज़ोर) लोग भांति-भांति के चोलों में सामने आते हैं, इनकी शिनाख़्त लगभग नामुमकिन है। माजरा यह भी है कि सभी धर्मों, सभी जातियों, सभी नस्लों और सभी देशों में ये दोनों प्रकार के लोग समान रूप से मौजूद हैं, बस औसत में कम-ज़्यादा हो सकते हैं।
मेरे एक बुज़ुर्ग शुभचिंतक जिंदगी भर इस फ़िराक़ में रहे कि कोई ऐसा धर्म मिल जाय जिसमें सभी लोग अच्छे हों तो वे चट से धर्म-परिवर्तन कर लें । लेकिन ईश्वर ने अन्त तक उनकी मुराद नहीं पूरी की। उन्हें एक और शिकायत थी ईश्वर से। आदमी को अच्छा और गैर-अच्छा (कमज़ोर) बनाने का जो साँचा है, उस पर उसने बड़ी पाबंदी से अपना एकाधिकार जमा रखा है, क्या मजाल कि किसी ऋषि-मुनि, पंडा-पुजारी, मुल्ला-मौलवी, पीर-फ़क़ीर या पोप-विशप को इस साँचे की झलक तक मिल जाए--वैसे दावा उनमें से अधिकांश यही करते हैं कि उनका धर्म सर्व-श्रेष्ठ है, उसमें जो भी आ जाए उसका बेड़ा पार हो जाएगा, लेकिन इसकी गारंटी कोई नहीं लेता कि उनके धर्म में केवल अच्छे इंसान पाए जाते हैं और उसमें आते ही गैर-अच्छे इंसान भी अच्छे इंसान बन जाएंगे— इनमें से कइयों को तो, ऐसा लगता है, अपने ऊपर ही भरोसा नहीं कि वे अच्छे इंसान हैं। इतिहास तो यही बताता है कि विगत में इन लोगों ने बड़े-बड़े ख़ुराफ़ात किए हैं और मौक़ा मिलते ही अब भी बाज नहीं आते।
अब्दुर्रहीम ख़ानख़ाना (1556-1627) और जो कुछ थे सो थे , एक अच्छे इंसान थे। वैसे ही जैसे एक विडंबना के रूप में, सुल्तान बलबन से मुहम्मद तुगलक तक के शासनकाल में एक सैन्य-सरदार के रूप में लड़ाइयाँ लड़ने, कविता करने और गायन-वादन में मस्त रहनेवाले अमीर खुसरो (1253-1325)।
अब आप देखिए, कहाँ बादशाह अकबर के नौरत्नों में से एक अब्दुर्रहीम ख़ानख़ाना और कहाँ सजातीय पंडितों के आडंबरी द्वेष व उत्पीड़न के शिकार और दरिद्रता की मार झेलते तुलसीदास (1532-1623), लेकिन दोनों में ख़ूब जमी। एक निरीह-सरल भक्त कवि तो दूसरा अज़ीमुश्शान मुग़ल दरबार का गण्यमान दरबारी और सेनानायक, जो कई भाषाओं का विद्वान, कवि और काव्य-मर्मज्ञ भी था। एक (जन्म के संयोग से) सरयूपारीण ब्राह्मण तो दूसरा (जन्म के संयोग से) सुन्नी तुर्क। दोनों में अगर कोई साझा बिन्दु था तो सिर्फ़ यह कि दोनों अच्छे इंसान थे। एक ने शैव-वैष्णव, भक्ति-ज्ञान, सगुण-निर्गुण, संस्कृत-अवधी-व्रज, दोहा-चौपाई-सोरठा-कवित्त, पुरवासी-वनवासी, ब्राह्मण-क्षत्रिय-निषाद-गुह-शबरी, मनुष्य-वानर-भालू को जोड़ा तो दूसरे ने अरबी-फ़ारसी-संस्कृत-व्रज-अवधी-खड़ीबोली, कलम-तलवार, शासन-शास्त्र-लोकजीवन को जोड़ते हुए, अकबर द्वारा चलाए गए हिन्दू-मुस्लिम सांस्कृतिक संगम के बृहद् अभियान को एक सर्वग्राह्य और सर्व-सुलभ साहित्यिक मंच प्रदान कर दिया। दोनों में जो अविकल मैत्री और परस्पर विश्वास था, उसे देखकर पक्का हो जाता है की दोनों (अच्छे इंसानों की) एक ही प्रजाति के थे।
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’ में तुलसी और रहीम के घनिष्ठ संबंध पर प्रकाश डालनेवाले एक रोचक प्रसंग का उल्लेख किया है। ग़रज़ का मारा एक गृहस्थ बेटी की शादी का दुखड़ा लेकर तुलसी के पास आया और आर्थिक सहायता की मांग करने लगा। तुलसी के पास था ही क्या जो देते ! लेकिन सहृदय व्यक्ति, उन्होंने किया यह कि एक दोहे की पहली पंक्ति लिखकर उसे पकड़ा दी और रहीम के पास भेज दिया। पंक्ति थी—‘’सुरतिय नरतिय नागतिय, यह चाहत सब कोय।‘’ जब वह इस पंक्ति को लेकर रहीम के पास पहुँचा तो पहले तो रहीम ने दोहे की दूसरी पंक्ति लिखकर उसे पूरा कर दिया —‘’गोद लिए हुलसी फिरै, तुलसी सो सुत होय।।‘’ फिर उसे मनचाहा धन देकर विदा किया और पूरे दोहे को तुलसी को वापस देने की ताकीद की । आज मात्र यही दोहा है, जिससे हम जानते हैं कि तुलसी की माँ का नाम हुलसी था, वरना रूढ़िवादी हिन्दू समाज में स्त्री की ससुराल में उसका नाम कौन जानता है ! दोहे की दोनों पंक्तियाँ ऐसे मिल गई हैं जैसे पूरा दोहा एक ही कवि ने लिखा हो ।
तुलसीदास और रहीम के बीच एक और दिलचस्प वाक़ये का सुराग़ मिलता है। यह तो विख्यात है कि रहीम बहुत बड़े दानी और परोपकारी थे। रामचन्द्र शुक्ल ने लिखा है कि वे अपने समय के कर्ण माने जाते थे-- कोई उनके यहाँ से खाली हाथ नहीं लौटता था। लेकिन दानियों में उनकी एक विशेषता यह थी कि देते समय वे अपनी नज़रें नीची रखते थे। तुलसीदास ने इसके बारे में सुना तो इस पर एक दोहा लिखकर रहीम को भेज दिया—
ऐसी देनी देन ज्यूँ, कित सीखे हो सैन। ज्यों-ज्यों कर ऊंच्यो करो, त्यों-त्यों नीचे नैन॥
[ दान देने की ऐसी मुद्रा कहाँ सीखी मित्र कि देने के लिए ज्यों-ज्यों हाथ उठते हैं, नज़र त्यों-त्यों नीची होती जाती है ?]
रहीम ने उत्तर में लिखा—
देनहार कोई और है, भेजत है दिन रैन। लोग भरम हम पर धरें, याते नीचे नैन॥
[देनेवाला तो कोई और है, जो दिन-रात भेजता रहता है। लोग भ्रमवश मुझे देनेवाला मान लेते हैं, इसलिए नज़र नीची हो जाती है। ] मात्र यह एक पंक्ति पढ़ लेने के बाद कोई संदेह रह जाता है कि रहीम सबसे पहले एक अच्छे इंसान थे, उसके बाद और कुछ ?
रहीम और तुलसी के संबंध की प्रगाढ़ता और परस्पर सम्मान का एक और उदाहरण। रहीम ने बरवै छंद और अवधी भाषा में ‘बरवै नायिका-भेद’ लिखकर तुलसी के पास उनकी सम्मति के लिए भेज दिया । तुलसी को वह इतना पसंद आया कि उन्होंने स्वयं बरवै छंद में बरवै रामायण लिख डाली।
अब बात रहीम की दानशीलता पर आ गई है तो लगे हाथ इसी से जुड़े कुछ और प्रसंग। जहाँगीर के समय में एक बार वे बड़ी विपत्ति में पड़ गए। रहीम अकबर द्वारा थोपे गए उसके उस्ताद रहे थे और वह अपने हर उस्ताद से जला भुना रहता था। (शायद अहमदनगर के) युद्ध में रहीम द्वारा धोखा दिए जाने की (निर्मूल) आशंका के आधार पर जहाँगीर ने उनकी सारी संपत्ति और अकबर द्वारा दी गई सारी जागीरें ज़ब्त कर लीं। अपनी विपत्ति के दिनों में रहीम चित्रकूट आकर किसी तरह जीवन-यापन कर रहे थे । ऐसे दुर्दिन में भी उन्हें एक याचक ने आ घेरा । उन्होंने एक दोहा लिखकर उसके हाथ अपने मित्र रीवा-नरेश के पास भेज दिया—
चित्रकूट में रमि रहे, रहिमन अवध-नरेश। जापर विपदा परति है, सो आवत यहि देस॥
[वनवास के दौरान अवध के राजा रामचंद्र की तरह रहीम भी चित्रकूट में रह रहे हैं । जिस पर विपत्ति पड़ती है, वही इस देश (चित्रकूट) में आता है।]
रीवा-नरेश ने रहीम की हालत समझकर, मित्रता का सम्मान करते हुए, उस याचक को यथेष्ट धन देकर संतुष्ट किया।
उसी समय की अपनी बेचारगी पर रहीम ने यह दोहा लिखा होगा— “ये रहीम दर-दर फिरें, मांगि मधुकरी खांहि । यारो यारी छाँड़िए, अब रहीम वे नांहि॥“ [ ये रहीम दर-दर भटक रहे हैं, भिक्षा मांगकर खाते हैं । मित्रों ने मित्रता छोड़ दी है। पहलेवाले रहीम अब नहीं रहे।]
विपत्ति में रहीम को सबसे बड़ा दु:ख यही था कि वे मांगनेवालों को यथेष्ट दे नहीं पा रहे थे—
“तबहीं लौं जीबो भलो, दैबो होय न धीम। जग में रहिबो संकुचित, उचित न होय रहीम॥“
[जीना तभी तक ठीक है, जब तक दान की गति धीमी न पड़े ; संसार में रहते हुए संकुचित होना उचित नहीं-–रहीम।]
उसी समय रहीम ने अपनी ख़ास सूफ़ी चेतना और बेलौस फ़क़ीराना अंदाज़ में लिखा— “चाह गई, चिंता मिटी, मनवा बेपरवाह। जिनको कछू न चाहिए, वे साहन के साह॥“ [इच्छाएँ ख़त्म हुईं, चिंता मिट गई, मन बेपरवाह हो गया ; जिनको कुछ नहीं चाहिए, वे ही बादशाहों के बादशाह हैं।]
विपत्ति के दिनों का एक और चित्र। उनकी स्थिति से अनजान किसी कवि ने उन्हें जीविका के लिए भाड़ झोंकते देखकर पूछ लिया —‘’जाके सिर अस भार, सो किमि झोंकत भार इमि।‘’ [ जिसके सिर पर इतना भार (ज़िम्मेदारी) है, वह इस तरह भाड़ कैसे झोंक रहा है ?] रहीम ने तत्काल उत्तर दिया— “रहिमन उतरे पार, भार झोंकि सब भार मंह।“ [सारा भार भाड़ में झोंककर (त्यागकर) रहीम (भवसागर से ) पार उतर गए।]
जैसा कि उनके कुछ दोहों से स्पष्ट है (अगले भाग में देखिए), यह विपत्ति कुछ ही समय रही और उनकी मान-मर्यादा फिर से वापस लौट आई।
(क्रमश:)
कमलाकांत त्रिपाठी
© Kamlakant Tripathi
No comments:
Post a Comment