Saturday, 18 June 2022

भगवान सिंह / कृष्णासुर से विष्णु के पूर्णावतार तक (1)

हमारी कोशिश कृषि की गाथाओं के अंग के रूप में रामकथा के विविध रूपों को समझने की है।  इस रूप में इसे कल्पित तो किया गया, आधे अधूरे रूप में खींच तान कर निबटा दिया गया।  हमने इसे ऐसी  व्याप्ति दे दी कि स्वयं उसी में उलझ कर रह गए। कालिदास को सीधी-सादी वंशावली की कहानियां मिली थीं, और वह उसको कथाबद्ध करते हुए इस कार्य को इतना दुस्तर पा रहे थे, मानो छोटी सी डोंगी से सागर पार करने का दुस्साहस कर बैठे हों, (क्व सुर्यप्रभवो वंशः, क्व चाल्पविषया मतिः। तितीर्षुः दुस्तरं मोहादुडुपेनास्मि सागरम्।।)। परंतु उनको एक सहारा था।  पहले के कवियों ने अपनी कृतियों में इस वंश परंपरा को प्रासंगिक रूप में इन महापुरुषों के विरुद में जो कुछ लिख रखा था उससे तथ्य जुटाने का मणियों को छेदने जैसा दुष्कर कार्य पहले हो चुका था। उन्हें उनको केवल सूत्रबद्ध करना था (अथवा कृत वाग्द्वारे वंशेऽस्मिन्पूर्वसूरिभिः। मणौ वज्र समुत्कीर्णे सूत्रस्येवास्ति मे गतिः।)। यहां दो बातों पर ध्यान दें - पहली यह कि कालिदास के समय तक केवल रामकथा ही नहीं दिलीप, रघु, अज और दशरथ के विषय में भी कथाएं प्रचलित थीं। वो कहानियां क्या थी यह हम जान नहीं सकते, थीं,   यह रघुवंश  से पता चलता है परंतु कालिदास ने जिस ब्राह्मणवादी पूर्वाग्रह से उनका उपयोग किया है उससे उनका पुराना रूप समझ में नहीं आता।   कहानियां थी,  कालिदास ने उनका अपनी जरूरत के अनुसार उपयोग किया।  हमारे साथ समस्या यह है कि हमें पहले से जो कुछ उपलब्ध है उससे अपने पाठकों को परिचित भी कराना चाहते हैं और उनकी पकड़ से बाहर लाना भी चाहते हैं।  परंतु  हम  अपने ऊपर की संदेह करते हुए अपने आप से पूछना चाहते हैं की राम कथा का लगातार अपनी विचारधारा के अनुसार उपयोग किया गया है क्या मैं भी ऐसा ही कर रहा हूं? इस चिंता को मैं बाहर  ला कर उनकी प्रतिक्रिया  को  समझना और  यदि उसकी रोशनी में मेरे विचार गलत लगें तो उन्हें सुधारना चाहता हूं।  कालिदास के प्रति अपने समाज समग्र आदर के होते हुए भी  मैं उनसे छोटा होते हुए भी एक मामले में उनसे अलग हूं। वह अपने को यह प्रार्थी मानते हैं, मैं  अपने को सत्यान्वेषी मानता हूं, जिसमें सत्य प्रधान और मैं उसका निमित्त बनना चाहता हूं। जो भी हो सकती है इसलिए सावधानी  भी बरतता हूं, परंतु  हिंदी में महिषासुर तो हैं, जो सुनते नहीं पगुराते हैं,  सींग के  बल पर, खुरों के बल पर चीरना और रौंदना और इसके बूते पर हिंदी जगत पर राज करना चाहते हैं,। उनका राज सलामत, पर जिस हिंदी पर उनका राज हो वह तो उनकी ज्ञानसीमा, विचारसीमा, संवदसीमा के भीतर ही रखी जाएगी। हिंदी भाषा, हिंदी वाङ्मय और हिंदी साहित्य को इतना पंगु करके रखा गया है कि इस पर क्षत्रपों ने कब्जा जमा लिया और इसका अपराधी मैं अपने दो गुरुजनों - रामविलास जी और नामवर जी - को मानता हूं और उस अपराध को नया आयाम देने वाले दो छुटभैयों - राजेंद्र यादव और अशोक वाजपेयी को।  जिस दिन हिंदी भाषा और वाङ्मय क्षत्रपों से मुक्त हो जाएगा,  उसका ललित साहित्य और वांङ्मय अपनी सही पहचान बना सकेंगे।   

कहां कालिदास का संस्कृत भाषा का अधिकार, परंपरा बोध और प्रतिभा और कहां इन पंक्तियों का लेखक जो अपने आसपास के सभी विज्ञ जनों को अपने से कई मामलों में अधिक समझदार मानता है और सहायता की याचना करता रहता है फिर कोई मदद के लिए आगे नहीं आता। भी दुस्साहस ऐसा कि बिना सही पोशाक और उद्धारक डोरी ओर आक्सीजन सिलंडर के शार्कों से भरे महासागर की गहराई नापने को छलांग लगा दिया हो।  दुर्गति का अंत नहीं। कहानियां पकड़ में आती हैं और फिसल कर निकल जाती हैं। आगे बढ़ने के लिए बार बार पीछे लौटना होता है।  पीछे लौटने पर पाते हैं  मुझसे अधिक दुर्गति तो उनकी हुई जिन्हें हम त्रिकालज्ञ मानते आए थे। 
 
वे बलराम को कृष्ण का भाई बताते आए थे, हमने इसे राम और बलि की कथा बना दिया। दशरथ के पुत्र से अलग एक पुराने राम को बलि और वामन की कथा के रूपांतर मे राम को विष्णु का प्रतिरूप बना दिया और अब मुझे लगने लगा कि पश्चिमी मध्यदेश की ओर बढ़ने के साथ मूल कथा ही नहीं खो गई, चरित्रों का नाम भी बदल गया। भोजपुरी में भी इस कथा के तार तो नहीं मिलते पर यह बात हैरान करती है कि भोजपुरी के लोग बलराम को बलिराम ही कहना पसंद करते हैं। इससे उलट कर  रामबली जैसे नाम भी रखते हैं। बलिराम और रामबली का यह सूत्र शायद आपके लिए कभी विचारणीय न लगा हो। परंतु मेरी बचपन से यह एक बुरी आदत है कि मैं लोगों से पूछा करता था किसका नाम यह क्यों है।   मेरे अपने गांव के बाहर एक पोखरा था और उसका नाम भितरी क पोखरा था।  मैं बड़े बुजुर्गों से पूछता कि जब यह गांव के बाहर जाए तो इसको भितरी क पोखरा क्यों कहते हैं।  ऐसे ही दूसरे बहुत से अटपटे नाम थे जिनके पीछे एक पुराना इतिहास विद्यमान था।  इसकी भी खोज मैंने बहुत बाद में जाकर की और तब पता चला मेरा गांव एक बार पूरा का पूरा आज के हवाले होकर दोबारा उससे दक्षिण की दिशा में बसा था क्योंकि उत्तर की दिशा में नदी बहती थी। हम इतिहास में आपको ले जाना नहीं चाहते परंतु बुरी याद है यह, आसानी से नहीं जाती। मैं  शब्दों के अर्थ से संतुष्ट नहीं हो पाता।   शब्द तो एक तरह का टैग है,  ऊपर से चिपकाया हुआ, इससे वस्तु और भाव का  पता तो चल जाता है परंतु यह पता नहीं चल पाता किए यह टैग यह चुप्पी इसके साथ कैसे जुड़ी है।  हम सभी का नाम एक चस्पा किया हुआ पहचान पत्र है। यदि हमारे नामों के साथ,  शब्द न होते  अंक होते तो भी  हमारी पहचान में अंतर नहीं आता। कुछ संगठन ऐसे होते हैं जिनमें नाम गायब हो जाता है या संख्या में बदल जाता है जैसे जेल में कैदी नंबर अमुक और वार्ड नंबर अमुक।   ऐसा पहले से होता है आया है, परंतु ऐसे प्रयोग मेरी, जानकारी में भोजपुरी में ही प्रमुखता से मिलते हैं, बड़कू, पहिलौंठी,  झीनक -छोटा, लहुरा, लाहुर, राहुल।   चाहे ध्वनि से हो, या  क्रम से, या क्रम संख्या से।  जहां इनके  नाम का संबंध अर्थ से स्थापित होता है वहां भाषा के माध्यम से इतिहास का एक नया अध्याय सामने आता है।   याद करता हूं तो कुछ अलग  अनुभव करता हूं कि मुझ में जब दूसरे बच्चों की तरह ज्ञान नहीं था तो भी जिज्ञासा अपार थी। जिज्ञासा का  कारण जानता हूं परंतु वह प्रासंगिक नहीं है फिर भी जब  ज्ञान नहीं था, जानने की लालसा अपार  थी और अब लगता है जिज्ञासा के समक्ष ज्ञान तुच्छ है।   ज्ञान अतीत के अनुभवों का सार है जिज्ञासा वर्तमान को समझने की चुनौती और भविष्य को तलाशने का संकल्प है ऐसा सोचते हुए मैं सचमुच गर्व अनुभव करता हूं। और आपको इसकी याद दिला कर यह समझाना चाहता हूं ज्ञान पर गर्व न करें, जानने की लालसा को जीवित रखें।   ज्ञान के नाम पर तो अपराध, अज्ञान, पाखंड सब आरोपित किए जा सकते हैं, जिज्ञासा मैं कुछ भी गलत नहीं होता।

मैं आदमी बुरा हूं, पर आदत बुरी नहीं।   उसी आदत के कारण  मैं सवाल भी करता हूं और जवाब भी तलाश करता हूं और जब मेरे उत्तर शास्त्रों से कुछ अनमेल पड़ते हैं तो मैं  उस उत्तर से ही संतुष्ट होता हूं जो मेरी जिज्ञासा को शांत करता है और वह शांत तभी करता है जब उसमें कोई अंतर्विरोध नहीं दिखाई देता भले  कुछ सवाल फिर भी अनुत्तरित रह जाएं। आहार संग्रह के चरण पर जब सभी कबीले अपने ढंग से जीते थे और उनमें हैं केवल एक बात की समानता थी कि वे प्रकृति को कोई  ऐसी क्षति नहीं पहुंचाना चाहते थे जिसको वह अपूरणीय  मानते थे। उनमें अपने कबीलों के सरदार तो हो सकते थे परंतु न तो साम्राज्य की कल्पना की जा सकती थी, न ही समस्त संपदा को लेने या देने वाले किसी व्यक्ति की कल्पना की जा सकती थी। सबसे पुरानी कहानी शतपथ ब्राह्मण की लगती है जिसमें उस तरह की  वैचारिक धींगा मस्ती नहीं की गई है जैसी पुराणों में देख दिखाई देती है। बलि को तीनों लोकों का सम्राट मानकर जो कथा रखी गई, क्या वह देवों की अपनी स्वीकृति  का परिणाम है, जिसमें वे  अपने को छोटा और कमजोर बताते थे और अपनों को बहुसंख्यक और बहुत शक्तिशाली (ज्यायांश और बलीयांस)   मानते थे।  क्या बलि  इस बात के प्रतीक नहीं है कि उस समय कृषि के उत्थान से पहले जिसका विचार एक छोटे से समुदाय में पैदा हुआ था समस्त पृथ्वी  उन्हें असुरों के अधिकार में थी और बलि उनके शक्तिशाली होने के प्रतीक पुरुष हैं ।

एक दूसरे जिज्ञासा भी मेरे मन में बनी रही है कि  प्राचीन मान्यता असुरों के बली होने की, उस भावना के मानवीकरण की, और ऋग्वेद में बल  का वल बना दिया जाना, वलासुर बना दिया जाना  परंतु इस याद का बचा रहना कि, इसमें ब  को व  में बदला गया है,   क्योंकि बल को बिल के रूप में  प्रस्तुत किया गया है, इंद्र के द्वारा उसका भेदन  किया (तोड़ा) जाना,  राम के द्वारा  बलि  का मारा जाना,   और बलिराम में बलि की उपस्थिति  के बीच ही नहीं कृष्ण से बलिराम के संबंध के पीछे भी क्या कोई ऐसी कहानी है जिसे हमारा समाज अपने सुदीर्घ अनुभवों को सुरक्षित रखने के साधनों के अभाव में बचा नहीं सका?  अंततः  मैं उस सवाल से रूबरू होना चाहता हूं जिसमें कृष्ण को ही एक शक्तिशाली असुर समुदाय के नेता के रूप में प्रस्तुत किया गया है और राम की जगह इंद्र  उसको  हनुमान की जगह   मरुतों की सहायता से पराजित करते हैं।  ऋग्वेद में इस संघर्ष कथा और इसके परिणाम को मात्र साढ़े चार  ऋचाओं में वर्णित किया गया है। ऋचाएं निम्न प्रकार हैं :                                                                           

अव द्रप्सो अंशुमतीमतिष्ठदियानः कृष्णो दशभिः सहस्रैः ।
आवत्तमिन्द्रः शच्या धमन्तमप स्नेहितीर्नृमणा अधत्त ।। 8.96.13
द्रप्समपश्यं विषुणे प्रयन्तमुपह्वरे नद्यो अंशुमत्याः ।
नभो न कृष्णमवतस्थिवांसमिष्यामि वो वृषणे युध्यताजौ ।। 8.96.14
अध द्रप्सो अंशुमत्या उपस्थेऽधारयत्तन्वं तित्विषाणः ।
विशो अदेवीरभ्याचरन्तीर्बृहस्पतिना युजेन्द्रः ससाहे ।। 8.96.15
त्वं ह त्यत्सप्तभ्यो जायमानोऽशत्रुभ्यो अभवः शत्रुरिन्द्रं ।
गूळ्हे द्यावापृथिवी अन्वविन्दो विभुमद्भ्यो भुवनेभ्यो रणं धाः ।। 8.96.16
त्वं ह त्यदप्रतिमानमोजो वज्रेण वज्रिन्धृषितो जघन्थ ।
त्वं शुष्णस्यावातिरो वधत्रैस्त्वं घा इन्द्र शच्येदविन्दः ।। 8.96.17
(क्रमशः) 

भगवान सिंह
© Bhagwan Singh 

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