Saturday, 11 June 2022

कमलाकांत त्रिपाठी / अब्दुर्रहीम खानखाना (2) रहीम का जीवन: त्रासद विडंबनाओं का अंतहीन दुष्चक्र.

तुलसी की तरह रहीम को भी ज़माने ने बहुत सताया। लेकिन रहीम की ज़िंदगी में जितने भी उतार-चढ़ाव आए, उन्होंने अपने सहृदय अंतस को सहेजकर रखा, उसकी मृदुता को खँरोच तक न आने दी। उनकी अनुभूति, उनकी भाव-संपदा, उनकी अंतर्दृष्टि, जीवन और जगत के प्रति उनके सुलझे हुए विचार विडंबनाओं के चक्र पर घूम-घूमकर उलझने के बजाय और भी सुलझते गए।

रहीम के पिता बैरम खाँ हुमायूँ के विश्वस्त सरदारों में थे। अफ़गानों से बार-बार परास्त होकर, अपने भाइयों से भी धोख़ा खाकर, हुमायूँ ने भागकर ईरान के युवा शाह तहमास्प के यहाँ शरण ली थी। हमायूँ के दुर्दिन के दौर में बैरम खाँ लगातार उनके साथ खड़े रहे। दस साल बाद, तहमास्प के चौदह हज़ार सैनिकों के साथ हिंदुस्तान लौटते समय हुमायूँ ने शाह को वचन दिया था कि वे शिया धर्म स्वीकार कर लेंगे, अपने ख़ुत्ब में शाह का नाम घोषित करेंगे और अभियान में सफल होने पर बाबर के समय का मुग़ल सूबा कंधार शाह को सुपुर्द कर देंगे। लेकिन कंधार जीतने के बाद हुमायूँ मुकर गए। 

बैरम ख़ाँ जन्म से तो सुन्नी थे लेकिन उनके दस साल ईरान के शिया दरबार में रहने से मुग़ल दरबार के सुन्नी सरदार उन्हें शक की निगाह से देखते थे। नौजवान अकबर को बैरम ख़ाँ के विरुद्ध भड़काने के पीछे यह भी एक कारण बना।

राज्य पुन: प्राप्त करने के बाद हुमायूँ ने विरोधी परिवारों से वैवाहिक संबंध स्थापित कर सुलह क़ायम करने की नीति अपनाई। इसी के तहत हुमायूँ ने ख़ुद मेवाती सरदार जमाल ख़ाँ की बड़ी बेटी से निकाह किया और बैरम ख़ाँ का निकाह उसकी छोटी बेटी से करा दिया। जमाल ख़ाँ  राजपूतों के धर्मांतरण से मुसलमान बने मेवाती ख़ानदान से ताल्लुक रखता था। वह राजपूतों के साथ खानवा के युद्ध में बाबर के विरुद्ध लड़ चुका था। पहले कभी सूफ़ी संतों के प्रभाव में हिन्दू राजपूत से मुसलमान बने मेवाती (या मेव) मुसलमान अपनी पुरानी राजपूत परंपराओं को अक्षुण्ण रखे हुए थे। उनमें बहुतों के नाम तक राम ख़ाँ, शंकर ख़ाँ जैसे होते थे। ईद-बक़रीद के साथ वे होली-दिवाली भी उसी उत्साह से मनाते थे। अन्य मुसलमानों के विपरीत वे अपने गोत्र में विवाह नहीं करते थे और निक़ाह के अतिरिक्त सात फ़ेरे लिए बिना उनकी शादी पूरी नहीं होती थी। विभाजन के वक़्त, तत्कालीन पंजाब (आज का पंजाब + हरियाणा + हिमांचल प्रदेश का एक हिस्सा) के माहौल की विभीषिका से त्रस्त बहुत से मेवाती मुसलमान पाकिस्तान चले गए; जो यहाँ रह गए, उनपर लगातार हिन्दू रीति-रिवाजों को छोड़ने का दबाव बनता रहा, जो इधर वहाबी प्रभाव के चलते माहौल में आए बुनियादपरस्त बदलाव से और बढ़ा है। लेकिन अपने गोत्र में विवाह करने का वे अभी तक प्राण-प्रण से विरोध करते रहे हैं।

मेवाती मुसलमान जमाल ख़ाँ की छोटी बेटी ही रहीम की माँ थी। इतिहास में उसके नाम का उल्लेख आसानी से नहीं मिलता। सिर्फ एक जगह ‘कृष्णप्रिया’ नाम आता है, पर वह विश्वसनीय नहीं लगता। जो भी हो, रहीम के साहित्य में हिन्दू देवमाला, शास्त्रों, मिथकों की जो प्रामाणिक जानकारी मिलती है वह भले ही अध्ययन-सत्संग से प्राप्त हुई हो, हिन्दू लोकजीवन में उनकी जो गहरी पैठ है और उसकी जो आत्मीय छवियाँ व अंतरंग, देशज शब्द उनके साहित्य मेँ मिलते हैं, उन पर मेवाती माँ के अलावा किसी और की छाप नहीं हो सकती। ‘बरवै नायिका-भेद’ से दो उदाहरण—

एक:

भोरहि बोलि कोइलिया बढ़वति ताप, घरी एक भरि अलिया रहु चुपचाप।
बाहर लैके दियवा बारन जाइ, सासु ननद घर पहुँचत देति बुझाइ।
पिय आवत अंगनैयाँ उठिकै लीन, बिहंसत चतुर तिरियवा बैठक दीन।
लै कै सुघर खुरपिया पिय के साथ, छइबै एक छतरिया बरसत पाथ।
पीतम एक सुमरिनियां मोहिं देइ जाहु, जेहि जपि तोर विरहवा करब निबाहु॥

[बहुत भोर में बोलकर कोयल विरह-ताप बढ़ा रही है—अरे सखि, एक घड़ी तो चुप रह (प्रीतम आ रहे हैं)। नायिका दीप लेकर प्रीतम को रोशनी दिखाने बाहर जाती है किन्तु घर में आने तक सास-ननद पहुँच जाती हैं और उसे बुझा देती हैं। प्रीतम आँगन में आते हैं तो नायिका उठकर उनका स्वागत करती है और हँसते हुए, चतुराई से (खेल-खेल में) उन्हें बैठने का आसन दे देती है। फिर कहती है--सुंदर खुरपी (घास छीलने का औज़ार) लेकर प्रीतम के साथ एक छतरी छाएगी क्योंकि रास्ते पर बारिस हो रही है (जिससे होकर परदेशी प्रीतम को वापस जाना है)। फिर प्रीतम से अनुरोध करती है—जाते समय मुझे एक सुमिरनी (नाम जपने की सत्ताईस दानों की छोटी माला) देते जाना, जिस पर (तुम्हारा नाम) जपते हुए किसी तरह तुम्हार वियोग सह लूँगी।]

दो:

मितवा चलेउ बिदेसवा, मन अनुरागी। पिय की सुरति गगरिया रहि मग लागी॥

[प्रीतम परदेश जा रहे हैं, नायिका का मन उनमें अनुरक्त है। उनकी यादों का कलश लिए वह रास्ते में खड़ी है कि मंगल शकुन हो।]

रहीम का जन्म 17 दिसंबर, 1556 को लाहौर के पास के एक गाँव में हुआ था, जो उन्हीं के नाम पर ख़ानख़ाना कहलाने लगा। 

हुमायूँ की मृत्यु (24.01.1556) के समय अकबर की उम्र महज़ 13 साल थी (जन्म: 23.11.1542)। हुमायूँ अपने विश्वासपात्र बैरम ख़ाँ को अकबर का अभिभावक नियुक्त कर गए थे। बैरम ख़ाँ ही अकबर की ओर से 1560 तक शासन चलाते रहे। अकबर अब 18 साल के हो रहे थे। बैरम ख़ाँ की निरंकुश सत्ता उन्हें असह्य लगने लगी थी। उनके असंतोष को बढ़ावा दिया उनकी माँ हमीदा बानो, धाई माहम अनग और धाई-पुत्र आदम खाँ ने। जब अकबर ने बैरम को अभिभावक पद से बर्ख़ास्त किया तो उनके निर्णय को स्वीकार कर वह मक्का जाने को तैयार हो गए। लेकिन जब अकबर ने उनके व्यक्तिगत शत्रु और पहले उनके अधीन रह चुके पीर मुहम्मद को ही उन्हें राज्य से बाहर तक छोड़ आने के लिए तैनात किया तो अपमान बर्दाश्त न कर पाने से उन्होंने विद्रोह कर दिया। जालंधर के निकट शाही सेना ने उन्हें हराया और आत्म-समर्पण के लिए विवश किया। फिर भी उनकी पुरानी सेवाओं का ध्यान रख, अकबर ने उन्हें ससम्मान मक्का के लिए प्रस्थान करने दिया। लेकिन काल उनके पीछे पड़ा था। मक्का जाते हुए वे गुजरात के पाटन शहर में रुके और सहस्रलिंग सरोवर में नौका-विहार के बाद तट पर बैठे थे कि एक अफ़ग़ान सरदार मुबारक ख़ाँ ने चाकू मारकर उनकी हत्या कर दी — कभी उसके पिता को बैरम के अधीनस्थ मुग़ल सिपाहियों ने इसी तरह मौत के घाट उतारा था। इस हत्या के बाद अफ़ग़ानों ने उनका खेमा भी लूट लिया। रहीम तब केवल पाँच वर्ष के थे। अकबर ने सुना तो अनाथ हुए रहीम और उनकी माँ और सौतेली माँ को अपने दरबार में वापस ले आए,  रहीम को मिर्ज़ा ख़ाँ की उपाधि दी, उनकी शिक्षा-दीक्षा की व्यवस्था की तथा दरबारियों को हिदायत दी कि उन्हें पता न चले, उनके सर से पिता का साया उठ गया है। लेकिन यहीं से रहीम की माँ इतिहास से ओझल हो जाती हैं। उनकी जगह आ जाती हैं रहीम की सौतेली माँ, बैरम ख़ाँ की दूसरी बीवी, सलीमा सुल्तान बेगम। वे मुग़ल ख़ानदान की शहज़ादी थीं, हुमायूँ की सगी बहन गुलरंग बेगम की बेटी, अकबर की फुफेरी बहन, अकबर से तीन साल सात महीने बड़ी। एक साल के भीतर अकबर ने बैरम ख़ाँ की इस विधवा सलीमा सुल्तान से निकाह कर लिया। इस तरह रहीम एक तरह से अकबर के सौतेले पुत्र बन गए। मक़सद यह बताया जाता है कि अकबर सलीमा बेगम और उनके सौतेले बेटे रहीम को बैरम ख़ाँ के विरोधी दरबारियों के षड्यंत्र से बचाना चाहते थे। सलीमा सुल्तान एक पढ़ी-लिखी, प्रतिभासम्पन्न महिला थीं, ‘मख्फ़ी’ (अदृश्य) के उपनाम से शायरी करती थीं और अकबर की सबसे बड़ी बीवी रूक़ैया सुल्तान बेगम (जो हुमायूँ के सबसे छोटे भाई हिंदाल मिर्ज़ा की बेटी थीं) के बाद दरबार में उनका सबसे ऊंचा दर्जा था।...लेकिन रहीम की सगी माँ का क्या हुआ, जिन्होंने उन्हें लोक-जीवन में ऐसी अंतर्दृष्टि और उसके ऐसे अंतरंग चित्र दिए? रहीम हमारे राष्ट्र की महान बौद्धिक-सांस्कृतिक सम्पत्ति हैं, लेकिन एक विडंबना के तहत उन पर न हिन्दीवाले शोध करते हैं, न उर्दूवाले, न ही इतिहासवाले।

सोलह साल के होते-होते रहीम की औपचारिक शिक्षा पूरी हो गई थी। अब अकबर ने हुमायूं के समय से चली आ रही मुग़ल नीति के तहत उनका निकाह मरहूम बैरम ख़ाँ के धुर विरोधी मिर्ज़ा अज़ीज़ कोका की बहन माहबानो से करा दिया, जिससे दरबार के दो गुटों के बीच वर्षों से चली आ रही कटुता समाप्त हो गई। साक्ष्य है कि रहीम महाबानो बेगम से बेहद प्यार करते थे। जब वे महज़ 42 वर्ष के थे, महाबानो का इंतकाल हो गया। उसके पहले और उसके बाद भी रहीम के किसी और विवाह का कोई संकेत नहीं मिलता। तो जीवन भर उन्होंने एकपत्नीव्रत निभाया जो उनके समय बहुत असामान्य बात थी। माँ की मेवाती परंपरा को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने अपनी बेटी का नाम रखा—कृष्णा बेगम और दोनों बेटों के नाम रखे—रहीम क़मर (चाँद) और रहीमपुत्र।

रहीम, अमर सिंह और राणा प्रताप ~

सोलह साल की उम्र से लेकर सत्तर से अधिक उम्र के अपने जीवन में रहीम ने उत्तर से दक्षिण तक अनेक लड़ाइयों में सेनापतित्व किया और विजय प्राप्त की जो अलग विषय है। लेकिन एक प्रसंग रहीम के व्यक्तित्व को समझने में बहुत सहायक होगा। राणा प्रताप के विरुद्ध चल रहे मुग़ल अभियान के दौरान एक मुग़ल अधिकारी के संरक्षण में रहीम के कैंप की मुग़ल औरतें यात्रा कर रही थीं। वे राणा प्रताप के बड़े बेटे अमर सिंह (जो बाद में राणा के उताराधिकारी बने) की टुकड़ी के हाथ पड़ गईं। अमरसिंह उन्हें बंदी बनाकर राणा प्रताप के पास ले गए। राणा ने अमर सिंह को शत्रु पक्ष की औरतों को बंदी बनाने के लिए कड़ी फटकार लगाई और तुरंत उन्हें मुग़ल खेमे तक सुरक्षित छोड़ आने का आदेश दिया। उस समय रहीम अपने शेरपुर के पड़ाव में राणा पर आक्रमण की तैयारी में ही जुटे थे। राणा की इस सज्जनता से रहीम इतने द्रवित हो गए कि ‘जो दृढ़ राखे धरम, तहि राखे करतार‘ कहते हुए, उदार-चेता ‘शत्रु’ के विरुद्ध युद्ध करने से मना कर दिया। उन्होंने अकबर को एक पत्र लिखकर सेनापति पद से मुक्त करने की गुज़ारिश की। अकबर ने बुरा नहीं माना लेकिन उन्हें ऐसा काम दे दिया जिसका हासिल रहीम की ज़िंदगी में दारुण दु:स्वप्न जैसा कठोर दंड साबित होनेवाला था। उन्हें सलीम (बाद में जहाँगीर) का शिक्षक और अभिभावक नियुक्त कर अभियान से वापस बुला लिया।

अकबर के समय तक रहीम की पद-प्रतिष्ठा और मान-सम्मान उरुज़ पर रहे। अकबर की मृत्यु (17.10.1605) के बाद उनके दुर्दिन की शुरुआत होती है। जहाँगीर रहीम का पुराना, बिगड़ैल शागिर्द था, उसके गद्दी पर बैठते ही उसके सबसे बड़े बेटे ख़ुसरो ने विद्रोह कर दिया, जो एक सुशिक्षित, गुणवान, ख़ूबसूरत और जनता का चहेता शहज़ादा था। अकबर के समय में मनचले, अस्थिर-मति सलीम के विद्रोह करने और उसके द्वारा अकबर के बेहद प्रिय एवं विश्वासपात्र मंत्री और आईने अकबरी तथा अकबरनामा के लेखक अबुलफ़जल की हत्या करवा देने पर अकबर-सहित दरबार का एक महत्वपूर्ण तबक़ा, जिसमें रहीम भी शामिल थे, ख़ुसरो को ही अकबर का उत्तराधिकारी बनाना चाहता था। यही उस बदनसीब शहजादे के लिए, और रहीम के लिए भी अभिशाप बन गया। बाद में जब अकबर के बाक़ी दोनों छोटे बेटे मुराद और दानियाल पी-पीकर मर गए तो अकबर बहुत असुरक्षित महसूस करने लगे और बेगम सलीमा सुल्तान के समझाने पर सलीम को बुलाकर, डांट-फटकार कर, एक ज़ोरदार चाँटा लगाने के बाद, उसे उत्तराधिकारी घोषित कर दिया। जहाँगीर के राज्यारोहण के बाद लोकप्रिय ख़ुसरो के समर्थकों ने उसे विद्रोह के लिए उकसाया, उसे भी डर था कि जहाँगीर उसे अपने रास्ते से हटाने के लिए या तो मरवा देगा, नहीं तो अंधा करा देगा (जिसका उन दिनों बहुत प्रचलन था)। उसके विद्रोह को जहाँगीर ने बड़ी क्रूरता से दबाया और उसके सैकड़ों समर्थकों को बड़ी निर्दयता से प्रताड़ित करने के बाद फांसी पर लटका दिया। सिख गुरु अर्जुन द्वारा मानवीय आधार पर की गई ख़ुसरो की निर्दोष सहायता के दंड में उन्हें पाँच दिन तक इतना उत्पीड़ित किया गया कि उनकी मौत हो गई। जैसी कि आशंका थी, उस सजीले, प्रियदर्शन और जनप्रिय शहजादे को अंधा बनाकर क़ैद में डाल दिया गया (बाद में उसकी एक आँख में आंशिक रोशनी आ गई थी)। 16 साल तक विभिन्न स्थानों पर क़ैद में रहने के बाद संदेहास्पद स्थिति में (सारी परिस्थितियाँ विष देने की ओर संकेत करती हैं) उसकी मौत हो गई (1622); मौत के समय वह जहाँगीर के तीसरे बेटे ख़ुर्रम (बाद में शाहजहाँ) के क़ब्ज़े में इलाहाबाद के ख़ुसरो बाग में क़ैद था और वहाँ भी जनता के गले का हार बना हुआ था। एक स्रोत के अनुसार, ख़ुसरो के विद्रोह के समय उसके प्रति रहीम की सहानुभूति से जहाँगीर इस क़दर गुस्से से आग बबूला हो गया कि उसने रहीम को भी क़ैद में डाल दिया और उनके दोनों बेटों का क़त्ल कराकर लाशें दिल्ली के ख़ूनी दरवाज़े पर लटकवा दीं। इतना तो निर्विवाद है की रहीम के दोनों बेटे (और इकलौता दामाद भी) जवानी में ही चल बसे थे, लेकिन उनके ऐसे अंत के लिए कोई विश्वसनीय साक्ष्य नहीं मिलता, न ही इसे पूरी तरह ख़ारिज किया जा सकता है। जो भी हो, कुछ दिनों बाद जहाँगीर का क्रोध शांत होने पर, रहीम को क़ैद से रिहा कर दिया गया।

वृद्धावस्था में फिर रहीम पर विपत्ति आई जब जहाँगीर, नूरजहाँ तथा नूरजहाँ के दामाद शहरयार (जो जहाँगीर का सबसे छोटा बेटा था) की तिकड़ी के ख़िलाफ़ ख़ुर्रम (शाहजहाँ) ने भी बग़ावत का बिगुल बजा दिया। रहीम वहाँ भी विद्रोहियों के साथ खड़े दिखाई पड़ते हैं। अपने पूर्व शागिर्द के साथ उनकी आँख-मिचौनी लगातार चलती रही। अकबर उसे शेख़ सलीम चिश्ती की दुआ का फल मानते थे, जिसे अंत:पुर और दरबार के अतिशय प्यार-दुलार ने निरंकुश, अनुशासनहीन और किसी भी तरह की शिक्षा के प्रति उदासीन बना दिया था। जब मीर कलाँ और अबुलफ़ज़ल जैसे विद्वानों की दाल न गली तो आख़िरी हथियार के रूप में अकबर ने रहीम को उसका अतालीक़ नियुक्त किया था। पर वह तो हर शिक्षक को अकबर द्वारा की गई ज़्यादती का भागीदार मानता था।

सन 1627 में एक ही साल के भीतर रहीम और जहाँगीर दोनों इस दुनिया-ए-फ़ानी से कूच कर गए। अपने-अपने कर्म पीछे छोड़कर, जो सामूहिक स्मृतियों में जीवित हैं और रहेंगे। रहीम को दिल्ली की उसी क़ब्र में दफ़नाया गया जिसे उन्होंने 1598 में अपनी प्रिय पत्नी माहबानो के लिए बनवाया था।

संयोग की बात है कि रहीम की क़ब्र हुमायूँ मक़बरे के पास उसी निज़ामुद्दीन इलाक़े में है, जहां हज़रत निज़ामुद्दीन और उनके प्रिय शिष्य अमीर ख़ुसरो की क़ब्रें हैं।

इन तीनों में से किसी ने इस देश की जनता को कभी हिन्दू-मुसलमान के चश्मे से नहीं देखा। ये तीनों किसी ‘धर्म’ के नहीं, मानवता और उसकी साझी संस्कृति के पुजारी थे और पूरी कायनात से मुहब्बत करते थे। एक ही मिट्टी में पलने और उन्हीं-उन्हीं कारणों से दु:ख-सुख झेलनेवाले हिन्दुओं और मुसलमानों की नियति अलग कैसे हो सकती है! वर्षों के सह-जीवन से जो सामान्य सांस्कृतिक चेतना विकसित हुई थी, उसके दाय के लिए हमें रहीम और ख़ुसरो का संबल चाहिए। हिन्दू और मुसलमान मिलकर इस देश को जैसा बनाएँगे, वैसा ही बनेगा। और दोनों को उस निर्मिति का वैसा ही दंड और वैसा ही पुरस्कार भी मिलेगा। इतिहास ने दोनों का भाग्य इस तरह जोड़ दिया है कि उन्हें साथ ही जीना और साथ ही मरना है। दोनों पक्षों में जो लोग भी ग़फ़लत में हैं (दुर्भाग्यवश जिनकी संख्या इधर क्रिया-प्रतिक्रिया से बढ़ रही है) जितनी जल्दी इसे समझ लेंगे, दोनों का और देश का भविष्य उतना ही उज्वल होगा। इतिहास में कुछ याद रखने लायक है तो बहुत कुछ भूलने लायक भी है। आग़े बढ़ना तो हमारी अनिवार्यता है किंतु इतिहास पीछे लौटने की सुविधा नही  देता है।    
(क्रमश:)

कमलाकांत त्रिपाठी
© Kamlakant Tripathi
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