यह इतना सुलभ नहीं था कि ईसाई धर्म का एकछत्र राज स्थापित हो जाए। उस वक्त धर्मग्रंथ के मीमांसा बन ही रहे थे, और पादरियों की आपस में सहमति नहीं थी। बहुदेववादी मूर्तिपूजकों के लंबे इतिहास और मिथकों के सामने उनके पास चमत्कारी कथाएँ कम थी। जनता शंकित थी कि उनके लिए उचित क्या है, किस तरह का धर्म चुना जाए।ऐसे समय में एक राजा द्वारा धर्म की कमान संभालना, और धार्मिक विवादों को निपटाना इसे एक दिशा दे गया। वे जो भी अंतिम निर्णय लेते, उस पर मुहर लग जाती।
न सिर्फ़ राजा, बल्कि गिरजाघरों के बिशप (मुख्य पादरी) भी रसूखदार परिवारों से चुने जाते। ऐसे लोग जो बाज़ार में निकलें तो सभी आदर से देखें। उनकी बात ग़ौर से सुनी जाए, मान ली जाए।
तीसरी सदी में धर्म के विकल्प ढूँढने की क़वायद तेज़ हो रही थी, और निराकार ‘परमेश्वर’ (Supreme God) की चर्चा होने लगी थी। तमाम अलग-अलग देवी-देवताओँ को ख़ारिज कर या उनको उपदेवता (Demigod) बता कर सीधे परमेश्वर की साधना। लेकिन, ऐसी बातें करने वालों की भी कोई कमी नहीं थी।
तीसरी सदी में ईसाइयों की सबसे प्रमुख टक्कर पूरब में उभर रहे एक पंथ से हुई। मानी नामक एक व्यक्ति ने स्वयं को जरथुष्ट्र, बुद्ध और यीशु के बाद अगला मसीहा कहना शुरू किया। पश्चिम भारत (अब पाकिस्तान) में उनके पहले अनुयायी बनने शुरू हुए, जो धीरे-धीरे रोम तक पसर गए। उन्होंने इन ईसाई बिशपों को सिरे से ख़ारिज कर दिया कि वे यीशु की शिक्षाओं पर नहीं चल रहे। चूँकि वह ईसाई धर्म के ग्रंथ और बौद्ध मठ पद्धति, दोनों का अध्ययन करते हुए लंबी यात्राएँ कर रहे थे, वह एक ‘संपूर्ण और आखिरी धर्म’ की मार्केटिंग कर रहे थे।
मानी का प्रभाव ऐसा था कि रोमन राजा डायोक्लेशियन ने कहा, “ये फ़ारस से आए विचित्र पंथ के लोग हमारे साम्राज्य के भोले-भाले लोगों को फँसा कर जहर घोल रहे हैं”
ईसाइयों के उत्पीड़न से पहले इन मानी धर्म वालों को ज़िंदा जलाने का आदेश दिया गया। इसी तरह फ़ारस के पारसियों ने भी उन्हें और उनके अनुयायियों को सजा दिलवायी। चीन के कुछ इलाकों को छोड़ दें, तो यह मानी पंथ (Manichaeism) दुनिया से ही खत्म कर दिया गया।
अगली कठिन टक्कर थी रोमन बहुदेववादी सिनेटरों और विद्वानों से। उन्होंने कौन्स्टेंटाइन के समय भी ईसाई धर्म को राज्य-धर्म बनने नहीं दिया, और सिनेट के मध्य में देवी विक्टोरिया की मूर्ति लगी रहती। अगले राजा कौन्स्टैंटाइन द्वितीय ने बिशप की आज्ञा पर वह मूर्ति ज़बरदस्ती हटवा दी। लेकिन उनके बाद आए राजा यूलियन को वह मूर्ति पुन: लगानी पड़ी।
आखिर बिशप एंब्रोज़ ने राजा को चिट्ठी लिखी,
“जब तक हम सच्चे परमेश्वर की साधना नहीं करेंगे, मोक्ष नहीं मिलेगा। सच्चे परमेश्वर वही हैं, जो हमारे ईसाई धर्म में हैं। आपने स्वयं ईसाई धर्म धारण किया है, लेकिन कल अगर कोई पेगन राजा गद्दी पर बैठ जाए? जगह-जगह मंदिर बना कर हमें वहाँ बुलाए तो कितना बड़ा अनिष्ट होगा? वहाँ घृणित बलि चढ़ाए, लकड़ियाँ जला कर यज्ञ करे तो क्या हम उसके धुएँ में घुटते रहें?
आप राजा हैं। आप एक कठोर आदेश दे सकते हैं कि राज्य में सिर्फ़ ईसाई गिरजाघर ही मान्य देवस्थल होंगे। किसी भी मूर्तिपूजा को सरकार की ओर से अनुदान नहीं दिया जाएगा। किसी सरकारी स्थल पर देवी-देवता की मूर्ति नहीं होगी। ‘पॉन्टिफस मैक्सिमस’ का पद ख़ारिज कर दिया जाए। अगर रोम पर कोई आक्रमण होता है, तो उनके काल्पनिक देवता जूपिटर न कल बचाने आए थे, न आज आएँगे!”
ईसाई अब आक्रामक हो रहे थे। उसी दौरान उनके अनुयायियों द्वारा सिकंदरिया में एक सिरापिस मंदिर तोड़ दिया गया। मूर्तिपूजकों का मज़ाक उड़ाया जाता और कहा जाता कि परमेश्वर के पास जाओ, इन मिट्टी के पुतलों में कुछ नहीं रखा। थियोडेसियस के राजा बनने तक यह ईसाई धार्मिक कट्टरता चरम पर पहुँच गयी।
रोम के कुछ गाँवों में मूर्तिपूजन चलता रहा, लेकिन शहरी नैरेटिव से इसे खत्म किया जाने लगा। मगर यूरोप का अर्थ सिर्फ़ रोम नहीं था।
पश्चिमी यूरोप पर जर्मन कब्जा कर चुके थे। 410 ई. में एक तरफ़ ब्रिटेन रोम के हाथ से निकला, दूसरी तरफ़ गॉथ राजा एलेरिक ने रोम पर फ़तह कर ली। कुछ ही दशकों में रोमन साम्राज्य का नामोनिशान मिट गया। पूर्व में जो अवशेष बचे, वह कहलाए बैजंटाइन साम्राज्य।
इसका अर्थ यह भी था कि यूरोप में ईसाई धर्म का घोड़ा जो तेज़ी से दौड़ रहा था, वह कुछ सदियों के लिए रुक गया।
पेगन इतिहासकार जोसिमस ने लिखा, “अपने देवताओं को त्यागने की सजा हमें मिल रही है।”
संत ऑगस्तिन ने जवाब में ‘सिटी ऑफ गॉड’ में लिखा, “रोम को इतने वर्षों की मूर्ति पूजा की सजा भुगतनी पड़ी। एक भी पेगन देवता रोम को बचा न सके।”
अगली कई सदियों तक रोम इस द्वंद्व से जूझता रहा कि उन्हें उनके देवता बचाने आएँगे, या परमेश्वर। पेगन बनाम ईसाई की यह ज़ंग अभी लंबी चलनी थी।
(क्रमशः)
प्रवीण झा
© Praveen Jha
रोम का इतिहास - तीन (13)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2022/06/13.html
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