2007 में नागालैंड की राजधानी कोहिमा में एक होटल में एक संभ्रांत नागा युवक से बात कर रहा था। युवक कोन्यक नागा समुदाय से थे। राजकीय प्रशासनिक अधिकारी थे। उनको नागालैंड, नागा और समस्त उत्तरपूर्वी भारत की चिंता थी। वे चिंतित थे संकृति संरक्षण के लिए, पारिस्थितिकी संतुलन के लिए प्राकृतिक संसाधन का क्षय रोकने के लिए, और सबसे अधिक नागा समाज जो प्रकृति और संस्कृति के बीच अपना जड़ और जुड़ाव खोता जा रहा है उसके पुनर्स्थापन के लिए। उनके मन का युवा अपने अस्तित्व के संरक्षण के लिए द्वंद झेल रहा था। युवक मन विचलित हो रहा था।
वे महोदय कुछ ही क्षण के परिचय के उपरान्त मुझसे घुल मिल गए थे। चावल से निर्मित स्थानीय बीयर इस मिलन का प्राणवायु बन चुका था। यद्यपि वे जो बात और तर्क कर रहे थे उसमे कहीं भी लीक से हटकर नही बोल रहे थे। भावनाएं स्वच्छंद होते हुए भी जड़ से जुड़े हुए थे।
युवक ने बताया: "जानते हैं सर, गलती तो हमारे नागा पूर्वजों ने इस राज्य के नामांकरण के समय कर लिया था। कहिए भला एक तरफ आपने नाम रखा मेघालय, अरुणाचल प्रदेश, त्रिपुरा, मणिपुर जो हर दृष्टिकोण से भारतीय मुख्यधारा का अभिन्न अंग लगता है, दिखता है। वहीं हमारे राज्य का नाम नागालैंड बना दिया गया। इसमें भारतीयता कहां है? हम तो नामकरण में हॉलैंड, इंग्लैंड,स्विटजरलैंड की तरह लगते हैं। बिलकुल एक अलग थलग सा राज्य। हमे भी अपना नाम नागा प्रदेश, नागांचल, नागभूमि,नागमणि जैसा रखना था। अगर ऐसा होता तो हम मुख्यधारा के करीब होते, मुख्यधारा के लोग भी हमलोगो से सांस्कृतिक रूप से जुड़ पाते। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। अगर शहरों के नाम बदल सकते हैं तो राज्य का नाम क्यों नही बदल सकता? यह गंभीर विषय है, जिसपर सरकार और यहां की जनता को जागरूक होने की आवश्यकता है। लोग सोचने भी लगे हैं। हम इसके लिए गांव गांव घूमकर लोगों को जागरूक करना है।"
नागा युवक गंभीर होते हुए पुनः बोलने लगे: "क्रिश्चियन मिशन और स्कूल ने तो हमारा भट्टाधार कर दिया है सर। शिक्षा और आधुनिकता के बहाने इन लोगों ने हमलोगों को अपनी संस्कृति के जड़ से अलग थलग कर दिया है। ठीक है, हम बाल दूसरे अंदाज में रखते थे, आधुनिक वस्त्र धारण नही करते थे, लेकिन हम प्रकृति के करीब होते थे। दुर्भाग्य से मिशन स्कूल ने हमे अंग्रजी तो सीखा दिया लेकिन अपनी भाषा और संस्कृति से अलग-थलग कर दिया। हम ईसाई धर्म में परिवर्तित होते गए और अपने ग्राम देवता, कुल देवता, कृषि देवता, मातृदेवी, औषधि देवता को भूलते गए। हम ने प्रकृति पूजा छोड़ दिया और चर्च में पेंट शर्ट पहनकर जाने लगे। हम अपनी धरती, नदियों, झरने, लोकगाथाओं, प्रकृति पूजा के मंत्र भूलने लगे और न्यू टेस्टामेंट को याद करने लगे। हम अपनी मधुर वाणी और संगीत को छोड़कर अंग्रेजी भाषा और पाश्चात्य धुन में गाने लगे, बजाने लगे। सच कहूं तो हमलोग ठगे ठगे से लगते हैं, अनुभव करते हैं। दुर्भाग्य से वामपंथी विचारधारा के लोग हमारी भावना को नहीं समझते। विचारधाराएं और कुत्सित मानसिकता उन्हें हमारे लिए स्वर उठाने नही देते। कौन सुनेगा भला हमारी? लगभग 97 प्रतिशत नागा समुदाय ईसाई बन चुके हैं। लेकिन रुकिए सर! 3 प्रतिशत अभी भी मूल परम्परा में है। हमे उनके साथ रहकर अपनी जड़ तलासने हैं। हम अंग्रेजी अथवा ईसाई धर्म के विरोधी नही हैं, हमे तो अपनी संस्कृति और भाषा के साथ अपनी प्रकृति को पुनः जोड़ने की जरूरत है। अगर ऐसा कर पाते हैं तो यही स्पिरिट ऑफ नागा और स्पिरिट ऑफ नागालैंड है। "
युवक भावुक हो रहा था लेकिन बात तर्कपूर्ण कर रहा था। ऐसे में अगर कोई घर वापसी की बात करता है तो क्या बुरा करता है। युवक के साथ अन्य प्रसंग पर फिर कभी चर्चा करेंगे । अभी इतना ही।
(क्रमशः)
© डॉ कैलाश कुमार मिश्र
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