Monday, 20 June 2022

भगवान सिंह / असुर तो थे

बचे हुए कामों  का पहाड़ और आयु का संकोच एक ओर तो दबाव पैदा करता है कि जल्द से जल्द वर्तमान विषय को पूरा करके अगले काम को संभालूं  और दूसरी ओर इस बात की शर्मिंदगी कि मैं अपनी बात को बहुत सलीके से नहीं रख पाता, हिंदी लिखना नए सिरे से सीखने या उसका नए सिरे के अभ्यास करने की इच्छा यह जानते हुए होती है कि अब समय नहीं रहा। आकाश कुसुम तोड़ने की कल्पना की तरह असंभव, क्योंकि कुसुम आकाश में नहीं मिलते।  कल विषय से कुछ विचलित होने के कारण यह विचार आ रहा था कि उसे पोस्ट न करके शेर ही पेश कर दूं।  उस  चुलबुलाहट पर काबू पा लिया, पर जो शेर सूझ रहा था वह आकाश कुसुम का ही मजाक था शायद:

चांद को चूमा तो मुंह धोइए कुल्ली करिए
धूल ही धूल है, दांतों में किरकिरी न रहे ।।

पर यही है मेरी चिंता का कारण और सलीके से अपनी बात न रख पाने का प्रमाण। अच्छा वक्ता या लेखक कम से कम शब्दों में अपनी बात कह लेता है क्योंकि वह जानता है, अपने विषय के साथ न्याय करने के लिए क्या कहने से बचना है और जिनको ये दोनों काम नहीं आते वे जानते हैं कि मुझे कहना क्या चाहिए और किस कदर चाहिए, पर आदत के शिकार, भूमिका बनाए बिना कुछ कह नहीं पाते और भूमिका इतनी लंबी हो जाती है कि विषय के लिए न उनके पास समय रह जाता है, न पाठकों/श्रोताओं के पास धीरज।

 पर आदत तो आदत है आज भी कुछ तो रंग दिखाएगी ही।     

कृष्णासुर पर इंद्र की विजय का वर्णन करने से पहले यह याद दिलाना जरूरी है कि कल इतना पंवारा यह समझाने के लिए गाया था कि भारतीय देव-समाज में किसी एक भाषाई या नस्ली  पहचान वाले लोग नहीं थे और इसे भी कायदे से नहीं रख सका, यद्यपि आग के लिए प्रयुक्त दो शब्दों ‘बर’ और ‘ती’ का उल्लेख  दो भिन्न भाषाई समुदायों के रूप में किया था। 

जब हम यह मानकर चलते हैं जो शब्द  समान आशयों में भारत से लेकर यूरोप तक पाए जाते हैं वे भारोपीय के शब्द हैं, और संस्कृत भारोपीय की एक शाखा है, इसलिए वे संस्कृत  के शब्द हैं और संस्कृत से दूसरी भाषाओं में गए है तो इस सोच के पीछे यह धारणा काम करती है कि प्रसार जिधर से भी  हुआ हो, भाषा किसी एक जाति की थी।  हम अपने अध्ययन में पाते हैं प्रसार की प्रकृति  ऐसी थी जिसमें विविध कौशलों  और योग्यताओं के लोग शामिल थे, जिनमें से एक बड़े समूह को सेवक वर्ग में रखा जा सकता है, इसलिए उनकी भाषा में बहुत सारी बोलियों के तत्वों का समावेश हुआ था। 

इस समस्या की ओर पहले भी विद्वानों का ध्यान गया है (प्री-आर्यन ऐंड प्री-द्रविडियन इन इंडिया;  F.B.J. Kuiper, T. Burrow, Meenakshi Sundaram, Emaneau, B. Krishnamurti आदि का लेखन) परंतु उनकी मानसिकता और दृष्टिकोण अलग थे  इसलिए वे  इन्हें सही परिपेक्ष्य में नहीं रख सके।   

सीधी बात है कि यदि शब्द  किसी   भिन्न भाषा से आए हैं  तो उसके बोलने वालों के माध्यम से आए होंगे।  शब्द भाषा में आए तो उस भाषाई समुदाय के लोगों का भी विलय उस समाज में हुआ होगा। इसका एक ही विकल्प है। दूसरे समुदाय का सांस्कृतिक स्तर इतना ऊंचा रहा होगा कि स्थानीय लोगों ने प्रयत्न पूर्वक उनके जैसा बनने का लंबे समय तक प्रयत्न किया होगा। संपर्क दीर्घकालीन रहा होगा।  आप यह नहीं कह सकते के हड़प्पा सभ्यता के निर्माता कोई दूसरे थे और उन्होंने उसको मिटाने वाले असभ्यों की भाषा सीख ली या उसमें मिल गए।   वैचारिक धांधली जितनी भारतीय संदर्भ में की गई है, अन्यत्र कहीं नहीं की गई। इसके विस्तार में ना जाएं तो ही अच्छा है।

जब हम यथार्थ को खुली आंखों से देखते और उसको साहस पूर्वक प्रस्तुत करते हैं  तो उन्हीं  भाषाई आंकड़ों से  समाज की रचना का, समाज के इतिहास, उसकी गतिविधियां और प्रभाव का एक नया पक्ष सामने आता है। 

आग के लिए  तमिल शब्द है ‘ती’। संस्कृत में यह प्रकाश के अर्थ में  ‘दी’  रूप में ग्रहण किया गया।  मूल शब्द आशय लुप्त हो गया।  भोजपुरी के तीता, तीखा,  संस्कृत के तिक्त, तीक्ष्ण में जलाने का आशय कुछ दबे रूप में बना रहा। केवल देवन - जलाना, परिदेवना - पश्चात्ताप में आग का भाव बचा रहा, पर देव शब्द आग के अर्थ में कभी प्रयोग में न आया ।  दी से प्रकाश,ध्यान, विचार आदि की दिशाओं में इस शब्द का प्रसार हुआ और रूप भेद हुआ।  जिस बोली में ‘ट’कार की प्रधानता थी  उसमें इसने ‘टी’ का रूप लिया इस तरह हमें  ती(*तीत>प्रतीत; तिथि, तेवर, त्यौरी *तीक> प्रतीक, *तीप>प्रतीप), टी,*टीक> सटीक,टीका, टीकुर- सूखी भूमि, टिकोरा - फल का पूर्वाभास, टिकरी- सीधे आग पर सेंकी जाने वाली रोटी, टीमल- सुंदर,  tick, tip, tint, twink,  );  ठी (ठीक, ठीकरा, ठिठोली और संभवतः विलोम ठिठुरना), थी - think, thought  theo - ,   दी  ल(दीप/दिया/दीपक, दिन/दिवस, देव, day, deity, dye और धी, धीति, धीर, धैर्य, धिक्कार (त. तीक्कडन - दाहसंस्कार अर्थात आग लगे या भाड़ में जाय)   > ढीठ, ढिढोरा आदि की शब्द श्रृंखला तैयार होती है।  

अब यदि दो भाषाई  (अग्नि के लिए दो अलग शब्दों का प्रयोग करने वाले) समुदाय मिलकर कृषि क्रांति की दिशा में अग्रसर होते हैं तो उसमें  द्रविड़ और आर्य दोनों की भूमिका हुई।  संस्कृत भाषा की बुनियाद में ही द्रविड़ का प्रवेश हो गया। जिन्हे आर्य कह कर  जातीय अर्थ में भुनाया जाता रहा, उनका तो नस्ल से संबंध ही नहीं। अर्थतंत्र से संबंध है जिससे किसी भाषा या नस्ल के लोग जुड़ सकते थे और जुड़े भी। 

 हम  इस  तर्क को  अनेक दूसरे उदाहरणों से पुष्ट कर सकते हैं, पर उससे विचलन पैदा होगी।   जिस बात को हम रेखांकित करना चाहते थे वह यह है कि कृषि के आविर्भाव के साथ सामुदायिक मेलजोल जिस रूप में हुआ था, उसमें अनेक इतर भाषाई समुदाय खेती अपना चुके थे, आर्य (खेतिहर) समाज के अंग बन चुके थे और उनकी बोली के तत्व आर्यों की बोली में स्थान पा चुके थे। यहां आर्यों की बोली से हमारा मतलब किसानों की बोली से है।  दूसरे शब्दों में कहें तो, आर्यों में  भारत के दूसरे भाषाई और जातीय समूहों के लोग शामिल थे और इनका आपसी झगड़ा नस्लवादी या भाषावादी नहीं था -  आहार की दो विधियों का विवाद था जिसमें एक के हित दूसरे से टकराते थे और इस तरह टकराते थे कि वे उनके जीवन मरण का प्रश्न बन जाते थे।  परंतु एक बार किसी भी कारण से खेती अपना लेने अथवा  कृषि कर्मियों के सहयोग और सहायता में जुट जाने के बाद वे उस समाज के अंग बन जाते थे।  देशांतर में ही नहीं भारत में भी वे दूसरों की अपेक्षा अपने को अधिक सभ्य मानते थे और इसे घोषित भी करते थे।   

अब, इस पृष्ठभूमि के बाद हम कृष्ण के असुर होने की समस्या को समझ सकते हैं। गो चारण के विषय में कुछ लोगों का दावा है कि यह कृषि के विकास के बिना संभव नहीं था। जिन जानवरों का शिकार किया जाता था उनके बच्चों को चुराना और पकड़ना अधिक आसान था और यदि उनकी संख्या अधिक हो गई तो उनको भविष्य में काटने के लिए बचाकर रखने (रेवड़बंदी)  का चलन कृषि से बहुत पुराना था।  परंतु पशुपालन कृषि से पहले आरंभ हुआ था, इसको लेकर आशंकाएं प्रकट की गई है (कोलिन रेनफ्रू)।  जो भी हो कृषि क्षेत्र के आसपास चरवाहों के समाज और उनके पशुधन से कृषि को हानि पहुंचती थी और इसको लेकर दोनों में विरोध संभव था।  जिस तरह का विरोध प्राकृतिक स्रोतों पर निर्भर करने वालों के साथ बना रहा उसी तरह का विरोध पशुचारण करने वालों के साथ भी था और जहां से वे  दूध  और उसके उत्पादों का लेन देन किसानों के साथ करने लगते हैं,  उनके बछड़े खेतीबारी में काम आने लगते हैं, दोनों के रिश्ते बदल जाते हैं। यह है असुरों का आर्यकरण।

 आसुरी पृष्ठभूमि से आने वालों की एक पहचान है, चमत्कार। जादूगरी। इसके पुरोधाओं (यातुधानों) द्वारा    असंभव को संभव करने या प्रकृति के नियम को उलटने का दावा और आसुरी अवस्था में जीने वालों का इन पर अटूट विश्वास जो आज तक बना हुआ है।

The Asur seem to live every moment with magic. It is difficult for the Asur to realise that the inherent falsehood and barrenness of magic. Xiii
The Asur have a hold of evil spirits who, according to a legend, seem to have originated from some mysterious vulture. xivThe Asur. 
A study of primitive iron smelters by KK Leuva, Bharatiya Adimjati Sewak Sangh, New Delhi, 1963

यदि आप इस बात पर ध्यान दें कि  कृष्ण का पूरा जीवन चमत्कारों के  माध्यम से अपनी महिमा अर्जित करता हैऔर इसके कारण ही,  वह रामावतार की तुलना में पूर्णावतार सिद्ध किए जाते हैं जिसका श्रेय वामन को भी नहीं मिला था, तो वह इसी चमत्कार के कारण है।  कृष्ण  दो कारणों से भूलतः असुर सिद्ध होते हैं।  एक पशु चारण  जो कृषि विरोधी था  और दूसरा  चमत्कारों से पिरोया गया उनका जीवन। अब आगे  बाकी बची गुत्थियों पर कल।

भगवान सिंह
© Bhagwan Singh

कृष्णासुर से विष्णु के पूर्णावतार तक 
 http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2022/06/1_18.html
#vss

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