(1) प्रेम-विषयक:
“रहिमन मैन तुरंग चढ़ि चलिबों पावक मांहि। प्रेमपंथ ऐसो कठिन सबसौं निबहत नाहिं॥“
[रहीम कहते हैं, प्रेम का मार्ग ऐसा कठिन है जैसे मोम के घोड़े पर चढ़कर आग में चलना। सबसे इसका निर्वाह नहीं होता।]
“रहिमन प्रीति सराहिए मिले होत रंग दून। ज्यों हरदी जरदी तजै, तजै सफेदी चून।“
[रहीम--प्रेम की सराहना कीजिए कि उसमें दो रंग मिलकर एक-दूसरे को काटते नहीं, बल्कि दूने हो जाते हैं। जैसे हल्दी और चूना मिलने पर हल्दी अपना पीलापन और चूना अपनी सफ़ेदी छोड़कर दोनों प्रेम के सुर्ख़ लाल रंग में डूब जाते हैं।]
“रहिमन धागा प्रेम का, मत तोड़ो चटकाय। टूटे से फिर ना जुड़े, जुड़े गांठ परि जाय।“
[रहीम--प्रेम के धागे को कभी चटकाकर (खींचकर) मत तोड़िए। टूटने पर जुड़ता नहीं, और जुड़ता भी है तो गांठ पड़ जाती है।]
“प्रीतम छबि नैनन बसी, पर छबि कहाँ समाय। भरी सराय रहीम लखि, पथिक आप फिर जाए।“
[रहीम--जब प्रिय का रूप आँखों में बस गया तो किसी और का रूप कहाँ समायेगा ! सराय को भरी हुई देखकर यात्री अपने-आप लौट जाता है।]
“काह करौं बैकुंठ लै कल्पवृक्ष की छांह, रहिमन दाख सुहावनो, जो गल पीतम बांह॥“
[रहीम--बैकुंठ (स्वर्ग) लेकर क्या करूंगा, वहाँ तो बस कल्पवृक्ष की छाया मिलेगी। उससे तो ज़्यादा सुहावनी अंगूर की बेल है जो प्रिय के गले में बाँह डालकर लिपट जाती है।]
(2) याचना और दान-विषयक:
“रहिमन याचकता गहे, बड़े छोट ह्वै जात। नारायण हू को भयो बावन अंगुर गात॥“
[रहीम--मांगने की वृत्ति अपनाने पर बड़े भी छोटे हो जाते हैं। राजा बलि से तीन लोक मांगते समय नारायण को 52 अंगुल के शरीरवाला बामन बनना पड़ा था।]
“आब गई आदर गया, नैनन गया सनेहि। ये तीनों तब ही गयो जबहि कहा कछु देहि॥“
[इज़्ज़त गई, आदर गया और आँखों से स्नेह भी चला गया। जैसे ही किसी ने कहा--कुछ दीजिए, ये तीनों चले गए।]
“रहिमन वे नर मर चुके, जे कहुं माँगन जाँहि। उनसे पहले वे मुए, जिन मुख निसकत नांहि॥“
[रहीम--वे लोग मर चुके जो कहीं मांगने जाते हैं। लेकिन उनसे पहले वे मरे जिनके मुख से ‘नहीं’ निकलता है। {मांगने नहीं तो मना करने के इस दूसरे धर्म-संकट से कौन रु-ब-रु नहीं हुआ होगा, किसी भी संवेदनशील व्यक्ति को इसके द्वंद्व की तीक्ष्णता का एहसास कभी न कभी ज़रूर हुआ होगा।}]
“तरुअर फल नहिं खात हैं, सरवर पियंहि न पानि। कह रहीम पर काज हित संपति सचहिं सुजान॥“
[वृक्ष फल नहिं खाते और तालाब पानी नहीं पीते। रहीम कहते हैं, दूसरों के काम आने के लिए ही सज्जन लोग संपत्ति सँजोते हैं।]
“धनि रहीम जल पंक को लघु जिय पियत अघाई। उदधि बड़ाई कौन है, जगत पियासो जाइ॥“
[रहीम--कीचड़ का पानी धन्य है, जिसे पीकर छोटे जीव तृप्त हो जाते हैं। विशाल समुद्र की क्या बड़ाई कि उसके पास से संसार प्यासा ही चला जाता है।]
“दीनन्ह सबको लखत हैं दीनहि लखै न कोय। जो रहीम दीनहि लखै, दीनबंधु सम होय॥“
[कमज़ोर-वंचित लोग सबकी ओर (आशा से) देखते हैं, लेकिन उनकी ओर कोई नहीं देखता। जो कमज़ोरों-वंचितों की ओर देखता है (उनका ध्यान रखता है), वह दीनबंधु (भगवान) के समान हो जाता है।]
“समय दसा कुल देखि के सबै करत सनमान। रहिमन दीन अनाथ को, तुम बिन को भगवान॥“
[व्यक्ति का समय, उसकी स्थिति तथा उसका ख़ानदान देखकर तो सभी सम्मान करते हैं। लेकिन, रहीम पूछते हैं, वंचित और अनाथ के लिए, हे भगवान, तुम्हारे सिवा और कौन है ?]
“जे गरीब पर हित करें, ते रहीम बड़ लोग। कहा सुदामा बापुरो, कृष्ण मिताई जोग॥“
[जो गरीबों का हित करते हैं, वही सचमुच बड़े लोग हैं। दीन-हीन सुदामा कृष्ण की मित्रता के योग्य कहाँ थे? (लेकिन उन्होने की, क्योंकि वे सचमुच बड़े थे)।]
“वे रहीम नर धन्य हैं, पर उपकारी अंग। बाँटनवारे को लगे जो मेंहदी को रंग॥“
[रहीम--वे लोग धन्य हैं जिनका अंग दूसरों के उपकार में लगता है। मेंहदी बांटने का उपकार करनेवालों को भी मेंहदी का रंग लग ही जाता है।]
(3)-लोक-व्यवहार-विषयक:
“बढ़त-बढ़त संपति-सलिल, मन-सरोज बढ़ि जाय। घटत-घटत पुनि ना घटै, बरु समूल कुम्हलाय॥“
[संपत्ति-रूपी जल बढ़ने के साथ-साथ मन रूपी कमल बढ़ता जाता है (कमल का डंठल ऐसे बढ़ता है कि उसका फूल हमेशा पानी के ऊपर रहता है)। लेकिन जब संपत्ति-रूपी जल घटने लगता है, तो मन रूपी कमल घटता नहीं, बल्कि जड़ समेत मुरझा जाता है। (संपत्ति के संदर्भ में मन और जल के संदर्भ में कमल की गति एक-सी है)।]
“रहिमन निज मन की व्यथा मन ही राख्यो गोय। सुनि अठिलैहैं लोग सब बाँटि न लैहैं कोय।“
[रहीम--अपने मन की व्यथा मन में ही रखने योग्य है। दूसरे लोग सुनकर इठलाएंगे, लेकिन बांटेगा कोई नहीं।]
“रहिमन बिपदा हू भली जो थोरे दिन होय। हित-अनहित यहि जगत में जानि परत सब कोय॥“
[रहीम—विपत्ति भी भली है यदि वह थोड़े दिन के लिए हो, क्योंकि उसमें मालूम पड़ जाता है कि इस संसार में कौन हमारा मित्र है और कौन शत्रु।]
“रहिमन चुप रहि बैठिए, देखि दिनन के फेर। जब नीके दिन आइहैं, बनत न लगिहैं देर॥“
[रहीम--समय की गति देखकर चुपचाप बैठे रहिए। अच्छे दिन आएंगे तो बनते देर नहीं लगेगी।]
“ज्यों रहीम गति दीप की, कुल कपूत गति सोय। बारे उजियारो करे, बढ़े अंधेरो होय।“
[रहीम--कुल में नालायक बेटे की गति वही होती है जो दीपक की। जलाने पर दीपक उजाला करता है और बढ़ने (बुझने) पर अंधेरा। वैसे ही, नालायक बेटे के पैदा होने पर भी कुल ख़ुश होता है, लेकिन जब वह बड़ा होता है तो कुल के लिए विपत्ति ही लाता है। (तहज़ीब है कि दीपक बुझाने को ‘बढ़ाना’ कहा जाता है)।]
“खैर, खून, खांसी, खुसी, बैर, प्रीति, मदपान। रहिमन दाबे न दबे, जानत सकल जहान॥“
[कत्था (घुलनेपर उसका रंग या दाग़), ख़ून (क़त्ल के अर्थ में और शाब्दिक अर्थ में भी), खांसी, ख़ुशी, शत्रुता, प्रेम और शराब पीना ऐसी चीज़ें हैं जो, रहीम के अनुसार, दबाने से दबते नहीं; सारी दुनिया इन्हें जान जाती है।]
“छिमा बड़न को चाहिए छोटन को उतपात। कह रहीम हरि का घट्यो, जो भृगु मारी लात।“
[छोटों के उत्पात को बड़ों को क्षमा कर देना चाहिए। रहीम कहते हैं, जब भृगु ऋषि ने विष्णु को लात मारी तोपा विष्णु का क्या घट गया! {मिथक है कि परशुराम के पूर्वज और सप्तर्षियों में से एक भृगु ने त्रिदेव (ब्रह्मा, विष्णु, महेश) में से कौन श्रेष्ठ है, यह जानने के क्रम में विष्णु की परीक्षा लेने के लिए उनकी छाती में लात मारी थी। विष्णु ने आघात सहकर प्रेम से पूछा—आपके पैर को चोट तो नहीं लगी ? इस तरह वे तो परीक्षा में उत्तीर्ण होकर त्रिदेवों मे सर्वश्रेष्ठ बन गए, किन्तु वहाँ मौजूद विष्णु-पत्नी लक्ष्मी को क्रोध आ गया और उन्होंने शाप दे दिया कि अब वे ब्राह्मणों के पास नहीं जाएंगी, यानी वे दरिद्र ही रहेंगे।}]
“रहिमन देखि बड़ेन को, लघु न दीजिए डारि। जहां काम आवै सुई, कहा करै तरवारि॥“
[रहीम—बड़ों को देखकर छोटों को मत छोड़ दीजिए। जहां सुई काम आती है, वहाँ तलवार क्या कर सकती है? {नैतिक पक्ष से इतर यह उपयोगितावादी पक्ष है लेकिन दूरदृष्टि के अभाव में बड़े-बड़े ‘दुनियादारों’ को भी इसकी अवहेलना करते देखा गया है।}]
“एकै साधे सब सधइ, सब साधे सब जाय। रहिमन मूलहि सींचिबो, फूलहि फलहि अघाय।“
[एक ही को साधने से सब सधते हैं, सब साधने से सब चले जाते हैं। रहीम कहते हैं, पौधे की जड़ सींचने से पूरा पौधा तृप्त होकर फूलता-फलता है।]
“रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून। पानी गए न ऊबरे, मोती, मानुख चून।“
[रहीम--‘पानी’ की रक्षा करनी चाहिए, बिना पानी के सब सूना है। पानी जाने पर मोती, मनुष्य और चूना तीनों में से कोई उबर नहीं पाता। {मोती के संदर्भ में पानी मतलब आभा, मनुष्य के संदर्भ में पानी मतलब इज़्ज़त और चूने के संदर्भ में पानी मतलब पानी, जिसके सूखने पर वह पत्थर बन जाता है।}]
“जो बड़ेन को लघु कहे, नहिं रहीम घटि जाँहि। गिरिधर मुरलीधर कहे कछु दुख मानत नांहि॥“
[रहीम--यदि बड़े को छोटा कहा जाए तो वह छोटा नहीं हो जाता। गोवर्धनधारी कृष्ण को मात्र मुरलीधर कहने से वे बिलकुल बुरा नहीं मानते।]
“टूटे सुजन मनाइए, जो टूटे सौ बार। रहिमन फिर-फिर पोहिए टूटे मुक्ताहार॥“
[सज्जन सौ बार नाराज़ हों तो उन्हें सौ बार मनाना चाहिए। रहीम कहते हैं, मोती का हार टूटने पर बार-बार जोड़ते हैं, कोई उसे फेंकता नहीं।]
“बसि कुसंग चाहत कुसल यहि रहीम जिय सोच। महिमा घटी समुद्र की रावन बस्यो परोस॥“
[रहीम--बुरे की संगत में रहकर कोई कुशल चाहे तो वह शोचनीय स्थिति है। रावण के पड़ोस में बसने से समुद्र की महिमा घट गई।]
“मान सहित बिस खाय के सम्भु भए जगदीस। बिना मान अमरित पिए राहु कटाए सीस।“
[मान के साथ विष पीकर शिव जी जगदीश (संसार के स्वामी) बन गए, जब कि बिना मान के अमृत पीकर राहु को सिर कटाना पड़ा। (समुद्र-मंथन का मिथक, उससे निकली चीज़ें और उनका क्या-क्या हुआ, सबको मालूम ही होगा।)]
“दोनों रहिमन एक सों जब लौं बोलत नांहि। जान परत हैं काक-पिक, रितु बसंत कै माँहि॥
[रहीम--कौवा और कोयल जब तक बोलते नहीं, एक-से लगते हैं। वसंत ऋतु का महीना आता है और दोनों बोलते हैं, तभी उनकी पहचान होती है। (कोयल अपनी मीठी बोली लिए चुपचाप पड़ी रहती है और समय का इंतज़ार करती है, जब कि कौवा कांव-कांव करता रहता है।)]
“बिगरी बात बनै नहीं, लाख जतन करे कोय। रहिमन बिगरे दूध को मथे न माखन होय।“
[एक बार बात बिगड़ जाए तो बनती नहीं, कोई कितना भी यत्न करे। रहीम कहते हैं, दूध फट जाए तो उसको मथने से मक्खन नहीं निकलता।]
“मन, मोती अरु दूध रस, इनको सहज सुभाय। फट जाए तो ना मिले, कोटिन करो उपाय॥“
[आदमी का मन, मोती और दूध नाम का द्रव्य, इन तीनों का सहज स्वभाव है कि फट जाने पर फिर नहीं मिलते, करोड़ों उपाय क्यों न किए जाएँ।]
(4)-और अंत में ईश्वर के साथ हास्य:
बहुदेववादी हिंदुओं में ईश-निंदा (blasphemy) की अवधारणा ही नहीं है। ईश्वर स्वयं अवतार लेते हैं, कभी मनुष्य तो कभी किसी अन्य प्राणी के रूप में। और उसी के मुखौटे में लीला करते हैं। तो उनसे हंसी-मज़ाक़ भी चलता है।
“कमला थिर न रहीम कहि, यह जानत सब कोय। पुरुख पुरातन की बधू, क्यों न चंचला होय।“
[रहीम कहते हैं, यह सब जानते हैं कि लक्ष्मी स्थिर नहीं हैं। बूढ़े आदमी (‘पुरुष पुरातन’--विष्णु) की (युवा) पत्नी हैं, तो चंचल क्यों न होंगी !]
“देव हँसे सब आपसु में बिधि के परपंच न जांहि निहारे। बेटा भयो बसुदेव के धाम, औ दुंदुभि बाजति नन्द के द्वारे।“
[सारे देवता यह कहते हुए आपस में हँस रहे हैं कि सृष्टिकर्ता ब्रह्मा का प्रपंच देखा नहीं जाता। बेटे का जन्म तो हुआ वसुदेव के घर (मथुरा में) और दुंदुभी बज रही है नन्द के द्वार पर (गोकुल में)।]
तो मित्रों, यह हैं अब्दुर्रहीम ख़ानख़ाना। आलेख की पहली कड़ी में आपने तुलसी और रहीम की अनन्य मैत्री और रहीम की कर्णवत् दानशीलता के प्रसंग देखे; दूसरी में उनके कंटकाकीर्ण जीवन के विडंबनापूर्ण उतार-चढ़ाव देखे। तीसर में आपने उनकी साहित्यिक कला की रसमय मार्मिकता में डुबकी लगाई और इस चौथी कड़ी में उनके यथार्थ जीवनानुभव पर आधारित, दोहों में निबद्ध, व्यावहारिक जीवन के उन शास्वत सूत्रों से साक्षात्कार किया जो भारतीय जनमानस में घुलकर एकाकार हो गए हैं—उनमें से कुछ को चुनकर एक बानगी के तौर पर एक जगह रखने का प्रयास सिर्फ़ इसलिए कि इस विकट ज़िंदगी का सामना करने में पाथेय के रूप में शायद कभी-कहीं काम आ जाएँ।
यह विशुद्ध भारतीय प्रतिभा है जो सांप्रदायिकता की पकड़ से कोसों दूर है। यदि नाम न होता तो शायद आपको पता भी न चलता कि इस प्रतिभा का वाहक एक ऐसा व्यक्ति है जो एक तुर्क सुन्नी मुसलमान पिता और हिंदुस्तानी मेवाती मुसलमान माँ के युग्म से पैदा हुआ था—जन्म तो प्रकृति के संयोग से निर्धारित होता है। इसे सांप्रदायिक सौहार्द (communal harmony) का नाम देना भी प्रायोजित, कृत्रिम लगता है। ‘सांप्रदायिक सौहार्द’ की बात तो वहाँ उठती है जहां किसी न किसी रूप में सांप्रदायिकता का बीज मौजूद हो। यहाँ तो सब कुछ इतना सहज और प्रकृत है कि न कोई हिन्दू है, न मुसलमान। यह विशुद्ध भारतीय सांस्कृतिक चेतना है जो सदियों के स्वच्छंद प्रवाह से अनेकानेक तत्वों को आत्मसात् करते हुए इस क़दर समावेशी हो गई थी कि देशज और बाह्य का भेद तिरोहित हो गया था। उसी प्रवाह की एक अद्भुत तरंग हैं रहीम। एक ऐसे बिन्दु जिसमें सिंधु (समुद्र) समा गया है-- ‘’बिन्दु में सिंधु समानी, को अचरज कासो कहौं, हेरनहार हेरानी।‘’ चेतना और बहिर्जगत, ऊर्जा और पदार्थ के पुरातन द्वंद्व का आत्यंतिक लोप। यही भारतीय तौहीद (अद्वैतवाद) है जिसे सूफ़ी संतों ने इस्लामी शब्दावली पहनाकर एक नया शृंगार कर दिया।
एक अंतिम बात। जहाँगीर के समय रहीम पर घोर विपत्ति आई । लेकिन कभी कहीं से उनके इस समावेशी रूप--हिन्दू शास्त्रों और मिथकों में गोता लगाने--को लेकर कोई आपत्ति नहीं उठी। तो क्या वह युग आज से अधिक प्रगतिशील था? शब्दों के इस भ्रमजाल पर मत जाइए। वह युग अधिक सहज, अधिक प्रकृत था। लोगों में ऐसी असुरक्षा की भावना, ऐसा धार्मिक विद्वेष, ऐसा वर्चस्ववादी रवैया नहीं था। पानी इतना गंदला नहीं हुआ था। वैश्विक स्तर पर राजनीतिक कारणों से वर्चस्ववादी मुद्दे नहीं बनाए और उठाए जाते थे। ‘हिन्दुत्व’ का संघी और ‘शुद्ध इस्लाम’ का वहाबी नारा नहीं दिया जाता था। आज तो कोई मुसलमान रहीम बनना चाहे तो, कह नहीं सकता, उसके साथ क्या होगा। इसलिए हमारी ज़िम्मेदारी बढ़ गई है, जो धर्मों में ऊपरी मेल कराने के किसी सतही, प्रचारात्मक (फ़ैशन के तहत किए गए) प्रयास से पूरी नहीं होनेवाली। अकबर अपनी एकछत्र सत्ता के बावजूद दीन इलाही के अभियान में सफल नहीं हुए। लेकिन जहाँ उनका दीन इलाही असफल रहा, वहीं रहीम का सांस्कृतिक बहुलतावाद सफल हो गया—वे आज तक भारतीय जन-मानस के गले के हार बने हुए हैं। हमें धर्मों से ऊपर उठकर उसी साझी सांस्कृतिक चेतना की शरण में जाना होगा, रहीम जिसके वाहक थे। मेरी अदना राय तो यही है कि यदि भारत में बच्चोंमानस की विकासशील उम्र में धार्मिक शिक्षा की अनुमति देनी ही है तो क़ुरआन के साथ-साथ वेद, गीता, धम्मपद, गुरुग्रंथसाहब और बाइबिल भी पढ़ाना होगा और फिर सब कुछ बच्चे के विवेक पर छोड़ देना होगा। नहीं तो कच्ची उम्र में उनका संकीर्ण मानसिक अनुकूलन करने के बजाए उन्हें अपने बुद्धि-विवेक से ही सब कुछ ग्रहण करने या छोड़ने का मुक्त अवसर देना होगा। हम तो जैसे हो गए, हो गए; उसका हासिल भी हमारे सामने है। आनेवाली पीढ़ियों को तो इस दूषित माहौल से निकलने का मौक़ा दिया जाए। तभी हम अपने बीच से रहीम-जैसे सत्वग्राही (eclectic) व्यक्तित्व पैदा कर पाएँगे, जो दुनिया के लिए एक मिसाल होंगे। कीचड़ से कीचड़ कभी साफ़ नहीं होता, उसके लिए स्वच्छ पानी का सहारा लेना ही पड़ता है।
(समाप्त)
कमलाकांत त्रिपाठी
© Kamlakant Tripathi
अब्दुर्रहीम खानखाना (3)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2022/06/3_12.html
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