Thursday, 2 June 2022

प्रवीण झा / रोम का इतिहास - तीन (6)

“अगर सूक्ष्मता से देखें तो इस दुनिया में जो भी होता है, अच्छा ही होता है। भले वह आपको अच्छा न लगे, लेकिन प्रकृति के न्याय से ही घटनाएँ घटती हैं। संपूर्ण जनमानस को ध्यान में रख कर यह प्रकृति यह न्याय करती है।”
- मार्कस ऑरेलियस

रोमन जीवनशैली अपने मूल रूप में वैराग्य (stoicism) से प्रभावित थी। वहाँ स्वर्ण-मुकुटों की परंपरा नहीं रही, बल्कि पत्तों का बना ताज ही पहना जाता। उनका कुलीन टोगा वस्त्र भी अपेक्षाकृत साधारण हुआ करता। कालांतर में जब समृद्धि आयी तो राजा अय्याश होते गए, और कुलीन भ्रष्ट और धनोपार्जन में लिप्त हो गये।

मार्कस ऑरेलियस बारह वर्ष की उम्र से ही वैराग्य जीवन जीने लगे थे। उन्होंने अपनी माता की इच्छा के विरुद्ध फर्श पर सोना शुरू कर दिया था। यह स्पष्ट नहीं कि इसके पीछे किसी रोमन संत या ईसाई विचारों का हाथ था; या उनके पूर्ववर्ती राजाओं का हाथ था, जिन्हें मार्कस के साथ मिला कर पाँच अच्छे राजा (five good emperors) कहा गया।

ईसाईयत से प्रभावित होने वाली बात में दम नहीं लगता, क्योंकि उस वक्त ईसाई ग्रंथ ढंग से बने भी नहीं थे। ऐसे वैराग्य दर्शन पहले से यूनान और पूर्व से आ चुके थे। ईसाइयों ने ज़रूर मार्कस ऑरेलियस के लिखे ग्रंथ को अपने आदर्शों में सम्मिलित किया, और उनके शासन को राजधर्म के रूप में परिभाषित करते रहे।

वास्तव में मार्कस ऑरेलियस लिखित ‘मेडिटेशन्स’ पुस्तक को पलटते हुए हर पन्ने पर एक ‘क्वोट ऑफ द डे’ मिल जाता है। जैसे-

“अपने कार्यों में विलंब न करें
अपनी बातों में भ्रमित न करें
अपने विचारों में मत भटकें
अपनी आत्मा को निष्क्रिय या आक्रामक न बनाएँ
अपने जीवन को मात्र व्यवसाय-निहित न बनाएँ”

लेकिन, राजधर्म आखिर है क्या? अगर शत्रु सामने हो, तो राजा का क्या धर्म है? अगर आर्थिक संकट हो, महामारी हो, तो राजा का क्या धर्म है? राजा झोला उठा कर, एक संत बन कर तो नहीं घूम सकते। जनता से यह नहीं कह सकते कि प्रकृति के न्याय को सहते रहो। उस काल-खंड की दुनिया में तो युद्ध और रक्तपात का विकल्प था ही नहीं।

मार्कस ऑरेलियस ने एक-दो नहीं, बल्कि कई युद्ध किए। उनका पूरा शासनकाल युद्धभूमि में ही बीता और अपना दर्शन इन छावनियों में ही लिखा। संभवत: जब वे भीषण रक्तपात देखते, सैकड़ों को मरते, कराहते देखते तो दर्शन की उपज होती।

गद्दी पर बैठते ही 161 ई. में पहलवी (parthian) साम्राज्य से भिड़ंत शुरू हो गयी। रोमन सेना लगभग एक दशक तक एशिया में लड़ती रही। कभी आर्मीनिया हाथ से निकलता, तो कभी ईरान। लेकिन, अंतत: पहलवी राजधानी सिटिसिफॉन (Ctesiphon) ध्वस्त हुई। इस जीत के दो बड़े ख़ामियाज़े भुगतने पड़े।

पहला तो यह कि इस युद्ध से रोमन सैनिक एक महामारी लेकर आए। यह संभवत: स्मॉलपॉक्स या प्लेग जैसी बीमारी थी, जिसमें आधे से अधिक रोमन सैनिक और चौथाई से अधिक रोमन नागरिक मारे गए। मार्कस ऑरेलियस के भाई वेरस और उनके एक छह वर्षीय पुत्र भी इस महामारी में चल बसे।

दूसरा खतरा इससे भी अधिक आक्रामक था। यूरोप की एक शक्ति पर कोई भी रोमन शासक पूरी तरह विजय दर्ज़ नहीं कर पाया था। कहीं न कहीं इनके ही हाथों रोम का अंत लिखा था। जब रोमन सेना एशिया में जूझ रही थी, उस समय उत्तर से कबीलाई सेना इटली में घुस चुकी थी। इन लड़ाकू कबीलों के कई नाम थे। उस वक्त इन गॉल, गॉथिक और जर्मैनिक कबीलों का संगठित समूह ‘मार्कोमानी’ (Marcomanni) कहलाया। मार्कस ऑरेलियस अपनी मृत्यु तक उनसे लड़ते रहे, मगर उन्हें पूरी शिकस्त न दे सके। 

आखिर वे जर्मन थे। उन्होंने आधुनिक सभ्य दुनिया में दो विश्व-युद्ध दिखा दिए, उस समय तो खैर उनका नामकरण ही बर्बर (barbarian) था। (क्रमशः)

प्रवीण झा
© Praveen Jha 

रोम का इतिहास - तीन (5) 
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2022/06/5.html 
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