Saturday, 16 February 2019

पुलवामा हमला और कश्मीर में आतंकवाद - पृष्ठभूमि / विजय शंकर सिंह

14 फरवरी को अपराह्न 3 बजे के लगभग कश्मीर के पुलवामा नामक स्थान पर आतंकियों ने एक कार में आईईडी विस्फोट से सीआरपीएफ की एक बस उड़ा दी और 45 जवान उस हमले में शहीद हो गये। जम्मू से 2500 जवानों की एक खेप श्रीनगर जा रही थी। कनवाय में भीतर घुस कर यह हमला हुआ। कार बम टैक्टिस का ऐसा हमला 2001 के बाद अब जाकर हुआ है। इसकी बेहद आक्रोश भरी प्रतिक्रिया पूरे देश मे हो रही है जो स्वाभाविक है।

पुलवामा में हुआ यह आतंकी हमला हाल के इतिहास में अब तक के सबसे बड़े आतंकी हमलों में से एक है। गृह मंत्रालय द्वारा जारी आंकड़ों के अनुसार वर्ष 2014 से 2018 के बीच जम्मू-कश्मीर में हुये आतंकी हमलों में शहीद होने वाले जवानों की संख्या में 93 प्रतिशत की वृद्धि हुयी है। जबकि इन पांच सालों में जम्मू- कश्मीर में आतंकी घटनाओं में 176 फीसदी का इजाफा हुआ है. साल 2014 से 2018 के बीच आतंकी हमलों में नागरिकों की मौत में 35.71 प्रतिशत की वृद्धि हुयी है। साल 2014 में जम्मू-कश्मीर में आतंकी हमलों में 47 जवानों ने जान गंवाई थी. जबकि साल 2018 में 91 जवान शहीद हुए हैं। इस तरह 2014 के मुकाबले 2018 में 44 जवान ज्यादा शहीद हुए. हालांकि, 2014 के मुकाबले 2018 में 133.63 प्रतिशत ज्यादा आतंकी मारे गए थे ।

2014 में 110 आतंकी सेना के ऑपरेशन में मार गिराए गए, जबकि 2018 में 257 आतंकियों को ढेर किया गया। 2014 से 2018 के बीच जम्मू-कश्मीर में कुल 1315 लोग आतंकवाद की वजह से मारे गए. इसमें 138 (10.49 प्रतिशत) नागरिक थे, 339 (25 प्रतिशत) सुरक्षा बल और 838 (63.72 प्रतिशत) आतंकी थे।

2014 से 2018 के बीच जम्मू-कश्मीर में कुल 1708 आतंकी हमले हुए. कहा जा सकता है कि इस हिसाब से हर महीने 28 आतंकी हमले जम्मू-कश्मीर में हुए. भारत सरकार के आंकड़े इन दावों की पुष्टि करते हैं। इन आंकड़ों को गृह राज्य मंत्री हंसराज अहीर ने लोकसभा में जारी किया है। यह लोकसभा की साइट पर देखे जा सकते हैं।

कश्मीर में भी आतंकवाद की एक पृष्ठभूमि है। जब 1979 में सोवियत रूस का विखंडन शुरू हो गया और अफगानिस्तान में मुजाहिदीन का कब्ज़ा हो गया तो उस आतंकवाद से सबक लेकर पाकिस्तान के राष्ट्रपति जनरल जिया उल हक ने प्रच्छन्न युद्ध की योजना रची। पाकिस्तान 1948, 65 और 71 के तीन युद्ध हार चुका था। 1971 में तो वह दो भागों में बंट भी गया था। पाक का यह फौजी राष्ट्रपति यह समझ चुका था कि अब किसी भी दशा में युद्ध से पार पाना संभव नहीं है। पाकिस्तान ने तब कश्मीर में अपने आतंक के प्रयोग को दुहराने की बात सोची। कश्मीर मुस्लिम बाहुल्य भी था और उसका एक तिहाई हिस्सा पाक के अनधिकृत कब्जे में भी था। कश्मीर का इस्लाम सूफी इस्लाम था। वहाँ की संस्कृति साम्प्रदायिक सौहार्द की थी। 1980 तक वहां कश्मीरी समाज मे हिन्दू सिख और मुस्लिम आबादी घुलमिल कर थी। लेकिन बाद में स्थितियां बदलने लगीं। तभी जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट सक्रिय हुआ और उसने स्वतंत्र कश्मीर का राग अलापा। हुर्रियत जिसका अर्थ ही आज़ादी होता है का गठन हो गया था। वे भी कश्मीर में पाकिस्तान के एक संगठन के रूप में सक्रिय थे। और आज भी हैं।

1990 में कश्मीर घाटी में व्यापक तौर पर हिंसा हुयी और हिंदुओं को काफी अधिक संख्या में मारा गया। परिणामस्वरूप भारी संख्या में कश्मीरी पंडितों का पलायन हुआ। 1995 तक आते आते जेकेएलएफ को काफी हद तक तोड़ दिया गया था पर 1996 तक कश्मीर घाटी से अधिकांश हिंदुओं का पलायन हो गया। पाकिस्तान के आइएसआइ ने अपनी रणनीति बदली और अफगानिस्तान से कट्टर वहाबी मुस्लिम मौलानाओं को कश्मीर में धर्मान्ध और कट्टर शिक्षा का ज़हर घोलने के लिये भेजा। 29 अक्टूबर 2001 के न्यूयॉर्क टाइम्स में प्रकाशित एक लेख जो राइजेन, जेम्स और मिलर तथा जूडिथ के संपादन में लिखी गयी पुस्तक पाकिस्तानी इंटेलिजेंस हैस लिंक तो अल कायदा के आधार छपा है के अनुसार, " पाकिस्तान की आईएसआई ने अल कायदा के विभिन्न आतंकवादी समूहों को कश्मीर में आतंक फैलाने और अलगाववादी गतिविधियों को चलाने के लिये न केवल धन की व्यवस्था की, बल्कि अपनी सैनिक सहायता भी उपलब्ध करायी। "
उसी किताब के अनुसार, " अमेरिकी वर्ल्ड ट्रेड सेंटर के 9/11 हमले के बाद कुछ समय के लिये पाकिस्तान और अल कायदा ने इन ट्रेनिंग कैम्पों को बंद कर दिया था। पर बाद में यह धीरे धीरे पुनः खोल दिये गये। यह ट्रेनिंग कैंप पाक अधिकृत कश्मीर में हैं न कि पाकिस्तान की मुख्य भूमि पर। "

2001 में भारतीय संसद पर हमला के बाद स्थिति इतनी बिगड़ गयी कि लगा अब युद्ध हो ही जायेगा और लंबे समय तक दोनों देशों की सेनाएं एक दूसरे के खिलाफ आपने सामने  खड़ी रहीं। भारत पाकिस्तान के बीच कारगिल के बाद कोई युद्ध तो नहीं हुआ पर भारतीय सेना एक प्रकार का प्रच्छन्न युद्ध पाकिस्तानी सेना से लगातार लड़ रही है। यह प्रछन्न युद्ध हम दुर्भाग्य से अपनी ही जमीन पर लड़ रहे हैं। पाकिस्तान कितना भी इनकार करे पर यह ध्रुव सत्य है कि कश्मीर के हर आतंकी हमले में उसका हांथ होता है, उसकी फंडिंग होती है और उसके सेना की ट्रेनिंग होती है। आआईएसआई ने न केवल अफगान मुजाहिदीन का इन आतंकी हमलों के लिये इस्तेमाल किया है बल्कि उसने बांग्लादेश के कट्टर मुस्लिम संगठनों का भी समय समय पर इस्तेमाल किया है।

पुलवामा हमले की जिम्मेदारी पाकिस्तान स्थित आतंकी संगठन जैश ए मोहम्मद ने ली है। यह संगठन मसूद अजहर द्वारा बनाया गया आतंकी संगठन है। करांची में  पत्रकार पर्ल की हत्या इसी संगठन ने की थी। उरी और  पठानकोट के हमलों में भी जैश का हाथ था। 2001 के  संसद हमले में तो यह लश्कर के साथ था ही । ऐसे संगठनों को नॉन स्टेट एक्टर कहते हैं। ये संगठन पाकिस्तानी सेना के संरक्षण में ही फलते फूलते हैं। ये वास्तव में प्रच्छन्न युद्ध मे सेना की ही टुकड़ियां हैं। भारत की खुफिया एजेंसियों ने इनके खिलाफ पुख्ता सबूत भी इकट्ठे किये हैं और पाकिस्तान सहित दुनियाभर के देशों को भी दिया है।
लेकिन पाकिस्तान सदैव इससे इनकार करता रहा है।

© विजय शंकर सिंह

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