Sunday 17 February 2019

आतंकवाद और उसका उद्देश्य पुलवामा हमले के संदर्भ में / विजय शंकर सिंह

14 फरवरी को अपराह्न 3 बजे के लगभग कश्मीर के पुलवामा नामक स्थान पर आतंकियों ने एक कार में आईईडी विस्फोट से सीआरपीएफ की एक बस उड़ा दी और 45 जवान उस हमले में शहीद हो गये। जम्मू से 2500 जवानों की एक खेप श्रीनगर जा रही थी। कनवाय में भीतर घुस कर यह हमला हुआ। कार बम टैक्टिस का ऐसा हमला 2001 के बाद अब जाकर हुआ है। इसकी बेहद आक्रोश भरी प्रतिक्रिया पूरे देश मे हो रही है जो स्वाभाविक है।

पुलवामा में हुआ यह आतंकी हमला हाल के इतिहास में अब तक के सबसे बड़े आतंकी हमलों में से एक है। गृह मंत्रालय द्वारा जारी आंकड़ों के अनुसार वर्ष 2014 से 2018 के बीच जम्मू-कश्मीर में हुये आतंकी हमलों में शहीद होने वाले जवानों की संख्या में 93 प्रतिशत की वृद्धि हुयी है। जबकि इन पांच सालों में जम्मू- कश्मीर में आतंकी घटनाओं में 176 फीसदी का इजाफा हुआ है. साल 2014 से 2018 के बीच आतंकी हमलों में नागरिकों की मौत में 35.71 प्रतिशत की वृद्धि हुयी है। साल 2014 में जम्मू-कश्मीर में आतंकी हमलों में 47 जवानों ने जान गंवाई थी. जबकि साल 2018 में 91 जवान शहीद हुए हैं। इस तरह 2014 के मुकाबले 2018 में 44 जवान ज्यादा शहीद हुए. हालांकि, 2014 के मुकाबले 2018 में 133.63 प्रतिशत ज्यादा आतंकी मारे गए थे ।

2014 में 110 आतंकी, सेना के ऑपरेशन में मार गिराए गए, जबकि 2018 में 257 आतंकियों को ढेर किया गया। 2014 से 2018 के बीच जम्मू-कश्मीर में कुल 1315 लोग आतंकवाद की वजह से मारे गए. इसमें 138 (10.49 प्रतिशत) नागरिक थे, 339 (25 प्रतिशत) सुरक्षा बल और 838 (63.72 प्रतिशत) आतंकी थे।

2014 से 2018 के बीच जम्मू-कश्मीर में कुल 1708 आतंकी हमले हुए. कहा जा सकता है कि इस हिसाब से हर महीने 28 आतंकी हमले जम्मू-कश्मीर में हुए. भारत सरकार के आंकड़े इन दावों की पुष्टि करते हैं। इन आंकड़ों को गृह राज्य मंत्री हंसराज अहीर ने लोकसभा में जारी किया है। यह लोकसभा की साइट पर देखे जा सकते हैं।

कश्मीर में भी आतंकवाद की एक पृष्ठभूमि है। जब 1979 में सोवियत रूस का विखंडन शुरू हो गया और अफगानिस्तान में मुजाहिदीन का कब्ज़ा हो गया तो उस आतंकवाद से सबक लेकर पाकिस्तान के राष्ट्रपति जनरल जिया उल हक ने प्रच्छन्न युद्ध की योजना रची। पाकिस्तान 1948, 65 और 71 के तीन युद्ध हार चुका था। 1971 में तो वह दो भागों में बंट भी गया था। पाक का यह फौजी राष्ट्रपति यह समझ चुका था कि अब किसी भी दशा में प्रत्यक्ष युद्ध से भारत को तोड़ पाना संभव नहीं है। पाकिस्तान ने तब कश्मीर में अपने आतंक के उसी प्रयोग को दुहराने की बात सोची, जो अफगानिस्तान में कभी मुजाहिदीन ने किया था। मुस्लिम बाहुल्यता पाकिस्तान के अपना कहने की पहली  और पुरानी शर्त है। कश्मीर मुस्लिम बाहुल्य भी था और उसका एक तिहाई हिस्सा पाक के अनधिकृत कब्जे में भी था। कश्मीर का इस्लाम सूफी इस्लाम है।  वहाँ की संस्कृति साम्प्रदायिक सौहार्द की थी। 1980 तक कश्मीरी समाज मे हिन्दू सिख और मुस्लिम आबादी घुलमिल कर रहती थी। लेकिन बाद में स्थितियां बदलने लगीं। तभी जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट सक्रिय हुआ और उसने स्वतंत्र कश्मीर का राग अलापा। हुर्रियत जिसका अर्थ ही आज़ादी होता है का गठन हो गया । वे भी कश्मीर में पाकिस्तान के एक संगठन के रूप में सक्रिय थे। और आज भी हैं।

1990 में कश्मीर घाटी में व्यापक तौर पर हिंसा हुयी और हिंदुओं को काफी अधिक संख्या में मारा गया। परिणामस्वरूप भारी संख्या में कश्मीरी पंडितों का पलायन हुआ। 1995 तक आते आते जेकेएलएफ को काफी हद तक तोड़ तो दिया गया था पर 1996 तक कश्मीर घाटी से अधिकांश हिंदुओं का पलायन हो गया। पाकिस्तान के आइएसआइ ने अपनी रणनीति बदली और अफगानिस्तान से कट्टर वहाबी मुस्लिम मौलानाओं को कश्मीर में धर्मान्ध और कट्टर शिक्षा का ज़हर घोलने के लिये भेजा। 29 अक्टूबर 2001 के न्यूयॉर्क टाइम्स में प्रकाशित एक लेख जो राइजेन, जेम्स और मिलर तथा जूडिथ के संपादन में लिखी गयी पुस्तक पाकिस्तानी इंटेलिजेंस हैस लिंक टू अल कायदा के आधार पर छपा है के अनुसार, " पाकिस्तान की आईएसआई ने अल कायदा के विभिन्न आतंकवादी समूहों को कश्मीर में आतंक फैलाने और अलगाववादी गतिविधियों को चलाने के लिये न केवल धन की व्यवस्था की, बल्कि अपनी सैनिक सहायता भी उपलब्ध करायी। "
उसी किताब के अनुसार, " अमेरिकी वर्ल्ड ट्रेड सेंटर के 9/11 हमले के बाद कुछ समय के लिये पाकिस्तान और अल कायदा ने इन ट्रेनिंग कैम्पों को बंद कर दिया था। पर बाद में यह धीरे धीरे पुनः खोल दिये गये। यह ट्रेनिंग कैंप पाक अधिकृत कश्मीर में हैं न कि पाकिस्तान की मुख्य भूमि पर। "

2001 में भारतीय संसद पर हमला के बाद स्थिति इतनी बिगड़ गयी कि लगा अब युद्ध हो ही जायेगा और लंबे समय तक दोनों देशों की सेनाएं एक दूसरे के खिलाफ आपने सामने  खड़ी रहीं। भारत पाकिस्तान के बीच कारगिल के बाद कोई युद्ध तो नहीं हुआ पर भारतीय सेना एक प्रकार का प्रच्छन्न युद्ध पाकिस्तानी सेना से लगातार लड़ रही है। यह प्रछन्न युद्ध हम दुर्भाग्य से अपनी ही जमीन पर लड़ रहे हैं। पाकिस्तान कितना भी इनकार करे पर यह ध्रुव सत्य है कि कश्मीर के हर आतंकी हमले में उसका हांथ होता है, उसकी फंडिंग होती है और उसके सेना की ट्रेनिंग होती है। आईएसआई ने न केवल अफगान मुजाहिदीन का इन आतंकी हमलों के लिये इस्तेमाल किया है बल्कि उसने बांग्लादेश के कट्टर मुस्लिम संगठनों का भी समय समय पर इस्तेमाल किया है।

पुलवामा हमले की जिम्मेदारी पाकिस्तान स्थित आतंकी संगठन जैश ए मोहम्मद ने ली है। यह संगठन मसूद अजहर द्वारा बनाया गया आतंकी संगठन है। करांची में  पत्रकार पर्ल की हत्या इसी संगठन ने की थी। उरी और  पठानकोट के हमलों में भी जैश का हाथ था। 2001 के  संसद हमले में तो यह लश्कर के साथ था ही । ऐसे संगठनों को नॉन स्टेट एक्टर कहते हैं। ये संगठन पाकिस्तानी सेना के संरक्षण में ही फलते फूलते हैं। ये वास्तव में प्रच्छन्न युद्ध मे सेना की ही टुकड़ियां हैं। भारत की खुफिया एजेंसियों ने इनके खिलाफ पुख्ता सबूत भी इकट्ठे किये हैं और पाकिस्तान सहित दुनियाभर के देशों को भी दिया है। पर पाकिस्तान ने हर बार इन सुबूतों को मानने से इनकार कर दिया है।

 इन आतंकी हमलों का एक बड़ा उद्देश्य है भारत मे धार्मिक आधार पर अलगाव और विवाद बढाना। यही टैक्टिस पंजाब के सिख आतंकवाद के दौरान खालिस्तान समर्थक आतंकियों ने भी अपनाया था। सिख आतंकवाद भी पाक प्रायोजित था। देश के अंदर बना हुआ साम्रदायिक सद्भाव पाकिस्तान ही नहीं दुनियाभर के उन देशों और लोगों को असहज करता रहता है जो भारत को टूटते और बिखरते हुये देखना चाहते हैं। जिस द्विराष्ट्रवाद के सिद्धांत पर पाक जन्मा है, वह सिद्धांत हालांकि अब मर गया है पर आज भी कहीं न कहीं उसके पक्ष में कुछ लोग खड़े दिखते हैं। पाकिस्तान ही नहीं सभी इस्लामी आतंकी संगठन यह चाहते हैं कि भारत मे वही साम्प्रदायिक मतभेद और वैमनस्य पनप जाय जो 1937 से 1947 के बीच पनपा हुआ था। इस उद्देश्य को समझिये और इसे सफल होने से रोकिए। यह समस्या केवल कानून व्यवस्था और आतंकी सामुहिक हिंसा की नहीं है बल्कि यह एक कुटिल राजनीतिक चाल है। राजनीतिक चाल का जवाब राजनीतिक परिपक्वता से ही दिया जा सकता है। प्रशासनिक स्तर पर तो जम्मूकश्मीर की सरकार इससे निपटने की जुगत में लगी ही हुयी है। पर राजनीतिक और कूटनीतिक उपचार भी ज़रूरी है। आतंकी भी यह जानते हैं कि केवल ऐसी हिंसक घटनाओं से कोई देश कभी नहीं टूटता है। देश टूटता है तब, जब उसका ताना बाना बिखर जाय। इन हमलों का मुख्य उद्देश्य ही यह है कि यह ताना बाना टूटे और जो कश्मीर में हो रहा है वह संक्रामक रोग की तरह पूरे देश मे फैल जाय। इस मसले पर सर्वदलीय बैठक सरकार ने बुलाई और उससे यह संदेश गया कि इस संकट की घड़ी में सभी एक साथ हैं।

अगर आप दुनियाभर के आतंकवाद के उद्देश्य पर अध्ययन करें तो पाएंगे कि यह जिस कौम, समाज के लिये आतंक का रास्ता अपनाता है उसी कौम को नुकसान पहुंचाता है। तालिबान से लेकर आईएसआईएस आतंकियों तक सबसे अधिक इसने अपनी कौम और अपने मुल्क को हानि पहुंचायी है। पंजाब में देखें कि उन दहशतगर्दी के 15 सालों में पंजाब के कृषि, उद्योग और सामाजिक ताने बाने को कितना नुकसान पहुंचाया था। कश्मीर में भी हो रहा है। वहां भी आतंक और धर्मान्धता ने उसे इस खतरनाक राह पर डाल दिया है। 

इसका एक बड़ा उद्देश्य यह है कि इतनी अधिक आतंकी हिंसा फैला दी जाय कि भारत का जनमानस एक सामान्य कश्मीरी को भी आतंकी मान बैठे। देश के दीगर हिस्सों में रह रहे हैं सामान्य कश्मीरियो से भी आतंक का बदला कुछ उन्मादी लोग लेने लगें। फिर यही मनोवृत्ति कश्मीरी लोगों से बढ़ कर सीधे सीधे धर्म के आधार पर आ जाय और फिर पूरा देश धर्म के नाम पर मानसिक रूप से बंट जाय। इसका दुष्परिणाम अभी तो तीन हिस्सों में बंट कर हम देख रहे हैं तब यह कितने हिस्सों में बंटेगा यह कहा नहीं जा सकता है। यह गेम प्लान आज से नहीं जब यह तय हो गया था कि भारत को अब ब्रिटिश उपनिवेश बनाये रखना सम्भव नहीं है तभी से नवसाम्राज्यवादी देशों ने सोच लिया था। किसी भी धार्मिक उग्रवादी संगठन को अपने धर्म से कुछ भी लेनादेना नहीं होता है। आज जब कोई यह कहता है कि वह अपने धर्म का कट्टर समर्थक है तो समझिये कि वह अपने धर्म की मूल और दार्शनिक मान्यताओं के विपरीत जा रहा है।  

आज आतंकवाद से निपटने से बड़ी समस्या है आतंकियों के उद्देश्य से देश और समाज को बचाये रखा जाय। कश्मीरी जनता और खूबसूरत कश्मीर से बिल्कुल बदला न लें, वे तो खुद ही पीड़ित हैं बल्कि एक कुशल सर्जन की तरह उस समाज मे छुपे उन आतंकियों को पहचान कर निकालना और फिर उन्हें समाप्त करना ही उद्देश्य होना चाहिये। पाकिस्तान का केवल कश्मीर के बारे में एक ही तर्क है कि वह मुस्लिम बाहुल्य इलाका है, और जो इलाका मुस्लिम बाहुल्य है वह उसका है। यही द्विराष्ट्रवाद है। मरा हुआ द्विराष्ट्रवाद । यह द्विराष्ट्रवाद अपने जन्म के दस साल के अंदर ही सड़ने लगा था जब भाषा और संस्कृति का आधार धर्म के आधार पर पाकिस्तान में ही भारी पड़ गया। बांग्लादेश के आज़ाद होने की कोशिशों और जीये सिंध आंदोलन को याद कीजिये। 1971 आते आते यह आधार टूट गया और बंटवारे का आधार ही नष्ट हो गया। 

भारत एक बहुधार्मिक, बहुसांस्कृतिक, बहुसामाजिक देश है। इसकी विविधता को भारतीय दर्शन और इतिहास में कदम कदम पर हम पाते हैं। यही विविधता ही इसकी शक्ति है। और इसी शक्ति को तोड़ने की साज़िश पाकिस्तान कर रहा है । यह अगर गम्भीरता से अध्ययन किया जाय तो खुद ही समझ मे आ जायेगा। 

आतंकवाद का समाधान केवल राजनीतिक हल से ही निकल सकता है। सेना या सुरक्षा बल उसका तात्कालिक समाधान भले हो पर दुनियाभर में आतंकवाद का समाधान  राजनीतिक नेतृत्व से ही निकला है। अभी और बयान आएंगे कि हम बदला देंगे। एक के बदले दस सिर लाएंगे। यह बयान हम सुनना चाहते हैं, और वे सुनाते हैं। उनका क्या जाता है। वचनम किम दरिद्रता । यह सुन कर, हम भी संतोष कर लेंगे कि हमारे जितने जवान  मरे हैं उसके उनके दस गुने तो उनके  मारे जाएंगे ही। राजनेताओं और सरकार का यह सबसे प्रिय और बहकाने वाला वादा है। पर सुबह होते ही, सूरज किसी और समस्या के साथ प्रगट हो जाएगा। हम उसमे मुब्तिला हो जाएंगे। फिर, सब जस का तस हो जाता है। सरकार बदला ले या इस आतंकी हमले के उत्तर में कोई और उपचार करे, यह ज़रूर ऐसा कुछ करे कि  अब कोई जवान ऐसे तो न मरे। आखिर आतंकवाद से निपटने की कोई कार्ययोजना तो होगी ही। उसे लागू करे।

बिगुल की लास्ट पोस्ट, धीमी गति का मार्चपास्ट, पुष्प चक्रिका रीथ, और जूते के नोक पर टिकी हुयी संगीनों भरी, गर्दन झुकी हुयी शोक परेड अंदर से रुलाती रहती है। मौत एक अनिवार्य सत्य है । पर इस तरह टुकड़े टुकड़े बिखर कर हुयी मौत पर भले ही हम सब राष्ट्र को समर्पित कर के औपचारिक शोक संवेदना प्रकट कर, फिर रोजमर्रा के काम में लग जाँय, पर यह मौत, उस सुरक्षा बल, उस यूनिट और उसके परिवार और मित्रो के मन मे जो घाव दे जाती है वह कभी नहीं भरता है। युद्धों में जितने जवान सुरक्षा बलों के शहीद नहीं होते हैं उससे कहीं अधिक जवान शांति काल मे हो रहे प्रच्छन्न युद्ध मे मारे जाते हैं। सरकार और राजनीतिक दलों को अपने क्षुद्र राजनीतिक हित को दरकिनार कर के कश्मीर की इस त्रासद समस्या का हल ढूंढना होगा। नए और बहादुर जवानों के क्षत विक्षत शव को टीवी पर देखना दुःखद है, बेहद दुःखद है।

© विजय शंकर सिंह

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