Sunday, 24 February 2019

प्रधानमंत्री जी द्वारा, संगम पर सफाई कर्मियों का पाद प्रक्षालन / विजय शंकर सिंह

प्रधानमंत्री जी ने संगम स्नान किया औऱ सफाई कर्मियों के चरण प्रक्षालित किये। यह सच मे पहली बार किया गया कृत्य है। किसी प्रधानमंत्री या अन्य किसी ने भी ऐसा सोचा भी नहीं था। यह सोचना भी बड़ी बात है। इसे व्यवहार में करना तो बड़ी बात है ही। इस प्रक्षालन के पीछे चाहे सेवा भाव हो या सदियों से चले आ रहे जातिगत भेदभाव के प्रति प्रायश्चित भाव या आसन्न चुनाव को देखते हुए राजनीतिक प्रचार भाव, जो भी जिस रूप में देखे,  या माने लेकिन यह कदम सराहनीय है और इसकी प्रशंसा की जानी चाहिये।

पर इस घटना पर सफाई कर्मचारियों के नेता और मैगासेसे पुरस्कार विजेता विल्सन एक अन्य नज़र से देखते हैं। हृदयेश जोशी के मीडियविजिल में आज ही छपे एक लेख का यह अंश पढें,

" सफाई कर्मचारी आंदोलन के संस्थापक और रमन मैग्सेसे अवॉर्ड विजेता बेजवाड़ा विल्सन का कहना है कि कुम्भ में सफाईकर्मियों के पैर धोना असंवैधानिक है। यह उन्हें तुच्छ दिखाकर खुद को महिमामंडित करने जैसा है। विल्सन पिछले कई दशकों से मैला उठाने के काम में लगे लोगों के बीच काम कर रहे हैं और इसके लिये उन्हें देश विदेश में सम्मानित किया जा चुका है।

विल्सन ने मुझसे कहा, “प्रधानमंत्री को सफाई कर्मियों और दलितों के पैर नहीं धोने चाहिये बल्कि उनसे हाथ मिलाना चाहिये। पैर धोने से कौन ग्लोरिफाई (महिमामंडित) होता है। वह (प्रधानमंत्री) ही ग्लोरिफाइ होते हैं ना। वह सफाईकर्मियों के पांव पकड़ते हैं तो वह यह संदेश दे रहे हैं कि आप (सफाईकर्मी) बहुत तुच्छ हैं और मैं महान हूं। इससे किसका फायदा होता है? इनके पैर धोकर वह खुद को महान दिखा रहे हैं। यह बहुत खतरनाक विचारधारा है।”

कांग्रेस नेता शशि थरूर ने ट्वीट कर पूछा, “मोदीजी, अब जब आपने उनके (स्वच्छाग्रहियों) चरण धो चुके हैं, क्‍या आप उन्‍हें बेहतर नौकरियां भी दिलवाएंगे?” प्रधानमंत्री के गृह राज्‍य गुजरात से विधायक जिग्‍नेश मेवानी ने लिखा, “दलितों और पिछड़ों को सम्मान भरा रोजगार चाहिए, आपका बाह्मणवाद नहीं।” आम आदमी पार्टी के राज्‍यसभा सांसद संजय सिंह ने लिखा, “आज भी हमारे जवान शहीद हो रहे हैं, अरुणाचल जल रहा है ये बंदा शूट बूट में गंगा स्नान और फोटो खिंचाने में व्यस्त है। पहले रोहित वेमुला को आत्महत्या के लिये मजबूर करो, चुनाव आये तो पैर धुलो।”

रवीश कुमार ने अपने ब्लॉग में इस घटना पर जो लिखा है उसे भी पढ़ लें,
" क्या हम लोगों ने सामान्य बुद्धि से भी काम लेना बंद कर दिया है? हमें क्यों नहीं दिखाई नहीं देता कि चुनाव के समय मूल समस्याओं से ध्यान भटकाने के लिए यह सब हो रहा है? क्या हम अब नौटंकियों को भी महानता मानने लगे हैं? मुझे नहीं पता था कि महानता नौटंकी हो जाएगी। मुझे डर है मीडिया में प्रधानमंत्री के चेले उन्हें कृष्ण न बता दें। क्या किसी बेरोज़गार के घर समोसा खा लेने से बेरोज़गारों का सम्मान हो सकता है? उन्हें नौकरी चाहिए या प्रधानमंत्री के साथ समोसा खाने का मौक़ा? आपको सोचना होगा। एक प्रधानमंत्री का वक़्त बेहद क़ीमती होता है। अगर उनका सारा वक़्त इन्हीं सब नौटंकियों में जाएगा तो क्या होगा। "
यह भी एक विडंबना है कि देश मे आतंकवाद के खिलाफ संघर्ष से ज्यादा लोग सीवर की सफाई में मरते हैं। उनके मुआवजे का जब अध्ययन किया जाएगा तो ज्ञात होगा कि उनको मुआवजा भी कम ही मिला है।

इस घटना को देख कर उनके द्वारा लिखी एक पुस्तक ' कर्मयोग ' भी याद आ गयी जो साल दो पहले किसी अन्य कारण से चर्चा में थी। उस पुस्तक में नरेंद्र मोदी जी ने सफाई कर्मियों के मैला साफ करने के कार्य के बारे में यह लिखा है कि ऐसा कर के सफाई कर्मियों को एक प्रकार की आध्यात्मिक अनुभूति होती है और उन्हें आध्यात्मिक संतोष मिलता है । नरेंद मोदी यह लिख कर कहना क्या चाहते है ? सफाई कर्म आध्यात्मिक तोष का माध्यम है या यह उनके जीवन यापन की एक विधा। या यह एक प्रकार का नियतिवाद है, कि उनके जीवन मे यह उनके पूर्व जन्मों का कर्मफल है ?  इसे आप सब अपने अपने ज्ञान, सोच और विवेक के अनुसार तय करते रहिये। पर एक सवाल यहाँ भी खड़ा हो जाता है कि क्या पीएम अपनी उस आध्यात्मिक संतोष वाली धारणा पर अब भी कायम है या त्रिवेणी के प्रवाह ने उनकी सोच को परिमार्जित कर दिया है ?

यह कदम भावनात्मक रूप से प्रेरक है और सत्ताधिपति का अंत्योदय विकास की मनोदशा को भी व्यक्त करता है। पर जब बात इन सफाई कर्मचारियों के लिये सरकार द्वारा कुछ करने की बात की होती है तो दूसरी ही तस्वीर उभरती है। इस घटना के बाद निश्चित रूप से यह पड़ताल होगी कि आखिर सरकार ने सबसे उपेक्षित और घृणा से देखे जाने वाले समाज के उत्थान और विकास के लिये ज़मीन पर क्या क्या कदम उठाए हैं। जब सरकार के प्रयास जानने के लिये गूगल किया गया तो, अगस्त 2018 में द वायर में छपा एक लेख मिला। उक्त लेख के अनुसार,
" पिछले चार सालों में जब से नरेन्द्र मोदी जी की सरकार सत्ता में आयी है, इस सरकार ने हांथ से मैला साफ करने वाले लोगों के पुनर्वास हेतु एक भी पैसे का बजट प्रस्तुत नहीं किया। यही नहीं बल्कि अपने पूर्ववर्ती यूपीए सरकार द्वारा स्वीकृत बजट की आधी धनराशि भी व्यय नहीं की। "

यह सूचना, सूचना के अधिकार के अंतर्गत मांगी गयी सूचना के अनुसार प्राप्त हुयी एक सरकारी सूचना पर आधारित है।
राष्ट्रीय सफाई कर्मचारी वित्तीय एवं विकास आयोग, नेशनल सफाई कर्मचारी फाइनेंस एंड डेवलपमेंट कॉर्पोरेशन ( NSKFDC ) जो भारत सरकार के सामाजिक न्याय एवं सशक्तिकरण के अधीन कार्य करता है, को 2013 - 14 के वित्तीय वर्ष में 55 करोड़ की धनराशि इस पुनर्वास योजना के लिये रखी गयी थी।
लेकिन उसके बाद वर्तमान सरकार ने 22 सितंबर 2017 तक, जब तक वह आरटीआई सूचना मांगी गयी थी,  एक भी पैसे का बजट नहीं जारी किया।

जब यह घटना प्रचारित होगी तो इसका एक परिणाम यह भी होगा कि सफाई कर्मचारियों की अपने पुनर्वास, जीवन स्तर के उत्थान को लेकर सरकार से अपेक्षाएं बढेंगी और सरकार को चाहिये कि वह इन अपेक्षाओं को पूरा करने के लिये जरूरी कदम भी उठाये।

आज संगम और वह भी अर्धकुंभ के पावन अवसर पर यही प्रार्थना की जाय कि दलितों, शोषितों और वंचितों तथा जाति व्यवस्था के सबसे निचले पायदान पर खड़े इस समाज के कुछ लोगो का पाद प्रक्षालन भले ही, चुनावी स्टंट या प्रतीकात्मक हो पर यह प्रतीक ही बन कर ही न रह जाय। उनके कार्य को देखते हुए, उससे जुड़ी हेय भावना को देखते हुए सरकार कुछ ऐसा भी करे कि न केवल उनका जीवन स्तर सुधरे बल्कि उनके कार्यस्थल पर भी आधुनिक उपकरण मशीन आदि उन्हें उपलब्ध कराई जांय जिससे वे यह कार्य सुगमता से कर सकें। सीवर की गैस से दम घुंट कर मर जाने वाले सफाई कर्मियों की संख्या भी कम नहीं है। साथ ही समाज की  यह  सोच भी बदले कि केवल उन्होंने ही इस कार्य को सम्पन्न करने के लिये जन्म लिया है। यह कार्य भी जातिभेद से ऊपर उठ कर किया जा सकता है और किया जाना चाहिये। यह उनकी ही  नियति है, यह धारणा टूटना आवश्यक है

© विजय शंकर सिंह

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