Friday 8 February 2019

सीबीआई का कोलकाता छापा और आईपीएस अफसर / विजय शंकर सिंह

कोलकाता में जब वहां के पुलिस कमिश्नर राजीव कुमार पर सीबीआइ ने उनसे पूछताछ के लिये जब शाम 6 बजे उनके सरकारी आवास पर छापा मारा तो कोलकाता पुलिस ने सीबीआई के इस कदम का विरोध किया और सीबीआई के पांच अफसरों को वे लेकर थाने पहुंचे। राजीव पर सारदा मामले में एसआईटी के मुखिया के रूप में कुछ सुबूतों के नष्ट करने या उन्हें गायब कर देने का आरोप है। सीबीआई उनसे पिछले तीन साल से पूछताछ करने की कोशिश कर रही है। अभी सुबूत गायब करने सम्बन्धी कोई मुकदमा सीबीआई ने दर्ज नहीं किया है। राजीव कुमार इस मामले में अभी एक गवाह हैं न कि मुल्ज़िम। हो सकता है सीबीआई के पास कोई पुख्ता सबूत हों पर वे सुबूत जब यह मामला सुप्रीम कोर्ट में गया तब सीबीआई, सुप्रीम कोर्ट में वह सुबूत पेश नहीं कर सकी बल्कि उसने यह कहा कि राजीव कुमार विवेचना में सहयोग नहीं कर रहे हैं।

सीबीआई भी अपने विंदु पर सही है कि उसे विवेचना में किसी से भी पूछताछ करने का अधिकार है। यह अधिकार न केवल सीबीआई को ही है बल्कि यह विवेचक का सामान्य अधिकार है जो उसे सीआरपीसी के अंतर्गत प्राप्त है। विवेचक के विवेचना के दौरान, कोई भी अदालत उसके इस अधिकार पर न तो लगाम लगा सकती है और न ही इस अधिकार का अतिक्रमण कर सकती है। इसी आधार पर सुप्रीम कोर्ट ने राजीव कुमार को न तो दिल्ली में और न ही कोलकाता में बल्कि एक तीसरे स्थान पर शिलांग में पूछताछ करने की अनुमति दी है। राजीव कुमार को अपनी गिरफ्तारी का भय था और शायद यही भय उनके द्वारा सीबीआई के समक्ष पेश होने से की जा रही नजरअंदाजी का कारण भी हो सकता है, तो सुप्रीम कोर्ट ने उनकी गिरफ्तारी पर रोक लगा दिया और अदालत की अवमानना हुयी है या नहीं इस हेतु पश्चिम बंगाल के डीजीपी, पुलिस कमिश्नर कोलकाता और कुछ अन्य पुलिस अफसरों को नोटिस जारी कर जवाब तलब किया है। अब यह अदालत को तय करना है कि उसकी अवमानना हुयी है या नहीं।

इस घटना के बाद इसकी राजनीतिक प्रतिक्रिया हुयी। मुख्यमंत्री ममता बनर्जी सीबीआई के इस छापे के खिलाफ तुरंत घटनास्थल पर वहां पहुंच गयीं और वे धरने पर बैठ गयी। यह धरना एक राजनीतिक कदम था। जो सीबीआई के छापे के विरुद्ध कम, बल्कि केंद्र सरकार या यूं कहिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ अधिक था। राजनीतिक घोटालों की जांचों में जब राजनेता और मंत्री आदि फंसते या फंसे होते हैं तो उसकी विवेचना में राजनीतिक दखल होता ही है। ऐसा भी नहीं है कि यह व्याधि 2014 के बाद से शुरू हुयी है बल्कि यह रोग बहुत पहले से है। सारधा घोटाले में टीएमसी के नेतागण और मंत्री 2013 से ही फंसे हैं। इनमें से मुकुल रॉय, हेमंत विस्वा सरमा और बाबुल सुप्रियो भाजपा में जाकर खुद को बचा ले गए और जो भाजपा में नहीं गए वे सीबीआई के निशाने पर आ गए हैं। इस घोटाले में ममता बनर्जी पर सीधा कोई आरोप है या नहीं यह बात अब तक सामने नहीं आयी है क्योंकि इससे जुड़ी खबरें मीडिया में नहीं हैं। ममता बनर्जी के धरने पर बैठने के बाद वहां पुलिस महानिदेशक, वीरेंद्र, अपर पुलिस महानिदेशक विनीत कुमार गोयल, एडीजी कानून व्यवस्था, अनुज शर्मा, पुलिस कमिश्नर विधान नगर ज्ञानवंत सिंह, और अपर पुलिस आयुक्त सुप्रतिम अंधरा भी वहां पहुंच गए और मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के साथ वही बैठ गए।

भारत सरकार के गृह मंत्रालय ने मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के साथ धरने में मौके पर बैठे उपरोक्त पांच पुलिस अफ़सरों को धरने में शामिल मान कर के उनके ख़िलाफ़ कार्रवाई शुरू कर दिया है। मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार  कोलकाता के पुलिस कमिश्नर राजीव कुमार समेत इन सभी अफ़सरों के मेडल भी वापस लिए जा सकते हैं। गृह मंत्रालय के सूत्रों के अनुसार, केंद्र भी दोषी अधिकारियों के नाम एम्पैनल्ड लिस्ट से काट सकता है, और एक निश्चित अवधि तक उनके केंद्रीय सेवा में आने पर रोक लगा सकता है। गृह मंत्रालय ने पश्चिम बंगाल सरकार से विरोध प्रदर्शन करने वाले पांच पुलिस अधिकारियों के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई शुरू करने को कहा है। गृह मंत्रालय के सूत्रों ने कहा कि पुलिस अधिकारियों से उम्मीद की जाती है कि वह तटस्थ बने रहें, लेकिन धरने में शामिल होकर उन्होंने राजनीतिक रुख अपनाया है।

गृह मंत्रालय की यह मंशा और कदम जानकर आप सबको सुखद आश्चर्य होगा कि हमारी सरकार पुलिस के राजनीतिक स्वरूप लेने के सर्वथा विरुद्ध है। काश ऐसा सचमुच में होता। पर ऐसा बिल्कुल नहीं है। जो भारत सरकार, सीबीआई के निदेशक को रात के 2 बजे बिना किसी उचित और वैधानिक प्रक्रिया के छुट्टी पर भेज कर महत्वपूर्ण कागज़ों और फाइलों की तलाश में उनके दफ्तर की तलाशी दिल्ली पुलिस द्वारा घेर कर ले सकती है, उस सरकार से अगर आप यह उम्मीद करें कि वह राजनीतिक निष्पक्षता से कार्य करेगी तो यह एक भ्रम है। 

कोलकाता छापा खुद ही एक राजनैतिक उद्देश्य से डाला गया था। उसकी प्रतिक्रिया राजनीतिक तो होनी ही थी। ममता बनर्जी को जो लोग नज़दीक से जानते हैं वे यह भी जानते हैं कि वे एक जुझारू और सड़क पर संघर्ष कर के इस मुकाम तक पहुंचने वाली शख्शियत हैं और वे किसी भी स्तर तक जा सकतीं हैं, और वे गयीं भी। उन्होनें धरना भी जब सुप्रीम कोर्ट का आदेश आ गया तभी खत्म किया और उन्होंने वहीं से बजट भाषण दिया और सरकारी कामकाज निपटाया।

पांच वरिष्ठ आईपीएस अफसर जो डीआईजी से डीजी स्तर तक के हैं पर यह आरोप लगाना कि वे धरने पर मुख्यमंत्री के साथ बैठे थे, न तो सही है और न ही प्रमाणित होगा। जब डीजी, एडीजी, एडीजी कानून व्यवस्था, पुलिस कमिश्नर और अपर पुलिस आयुक्त को पता चलेगा कि मुख्यमंत्री सड़क पर धरने पर बैठी हैं तो ये अफसर स्वाभाविक रूप से वहां जाएंगे और उन्हें वहां जाना भी चाहिये। ममता बनर्जी यह कह भी सकती हैं कि उन्होंने ही  इन अफसरों को वहीं मौके पर बुलाया था। और अगर उन्होंने नहीं बुलाया होता, तो भी इनका वहां जाना अनुशासन हीनता नहीं है। बल्कि यह पता चलने पर कि मुख्यमंत्री सड़क पर हैं, भीड़ के बीच मे हैं और ये अफसर अगर वहां नहीं गए होते तो पश्चिम बंगाल सरकार इनसे पूछती और तब वहां न जाना अनुशासन हीनता होती। क्योंकि मुख्यमंत्री वहां किसी निजी आयोजन में नहीं थीं। वे सड़क पर थीं और वहीं से उन्होंने सरकारी काम काज निपटाया। वह एक प्रकार से उनका अस्थायी दफ्तर बन गया था। वहीं से उन्होंने विधानसभा को भी सम्बोधित किया। मुख्यमंत्री के दफ्तर में बड़े अफसर जाते ही हैं। यह एक सामान्य बात है। अब यह तो मुख्यमंत्री पर निर्भर करता है कि वे राइटर्स बिल्डिंग में बैठे या एसप्लानेड पर।

इंडियन पुलिस सर्विस, या भारतीय पुलिस सेवा, (आईपीएस ) एक ऑल इंडिया सर्विस है। इसका चयन संघ लोक सेवा आयोग एक प्रतियोगिता परीक्षा के द्वारा करता है और जो प्रत्याशी चयनित होते हैं वे भारत सरकार के द्वारा निर्धारित प्रक्रिया के अनुसार विभिन्न राज्यों और संघ शासित प्रदेशों में रिक्तियों के अनुसार भेजे जाते हैं। भारत मे तीन सेवाएं अखिल भारतीय सेवाएं मानी जाती हैं। आईएएस, आईपीएस और आईएफएस, ( वन सेवा )। इनके अफसर राज्य सरकार के कैडर पर होते हैं वही उनका मूल कैडर होता है। वहीं से वह केंद्र सरकार में या अन्य राज्यों में प्रतिनियुक्ति पर जाते हैं जिनके अलग नियम कानून बने होते हैं।

ऑल इंडिया सर्विस के अधिकारियों के लिये आचरण नियमावली होती है जिसके उल्लंघन पर दंड के प्राविधान हैं। यह एआईएस कंडक्ट रूल्स 1968 के नाम से जाना जाता है। इसी रूल्स के अंतर्गत कार्यवाही करने के लिये गृह विभाग कह रहा है। इस नियमावली की धारा 5, 6 और 7 राजनीतिक गतिविधियों के संदर्भ में हैं। जिसका उल्लेख मैं यहां कर रहा हूँ। यह नियमावली सभी केंद्रीय सेवाओं और राज्य सरकारों की सेवाओं के लिये भी लागू है।

* आचरण नियमावली की धारा 5 राजनीति में भाग लेने और चुनावों के सम्बंध में है।
धारा 5(1) के अनुसार, इस सेवा का कोई भी व्यक्ति न तो राजनीति में भाग लेगा और न ही ऐसे किसी संगठन से जुड़ेगा जो राजनीति में दखल रखता हो। वह किसी भी राजनीतिक दल को न तो कोई सहायता करेगा और न ही किसी भी राजनीतिक गतिविधि में कोई सहयोग देगा।
धारा 5(2) के अनुसार इस सेवा का कोई भी व्यक्ति अपने परिवार को राजनीति में न तो भाग लेने देगा और यदि वे ऐसा करेंगे तो उन्हें वह रोकेगा। वह यह भी सुनिश्चित करेगा कि उसके परिवार का कोई व्यक्ति किसी भी ऐसे कृत्य में सम्मिलित नहीं होगा जो सरकार द्वारा गैर कानूनी घोषित कर दिया गया है। यह उस व्यक्ति का कर्तव्य होगा।
यदि किसी कारण से वह अपने परिवार के किसी व्यक्ति की ऐसी गतिविधियों को रोक नहीं पा रहा हो तो वह सरकार को एक पत्र द्वारा यह सूचित करेगा।
धारा 5(3) के अनुसार, यदि कोई व्यक्ति उपरोक्त नियमोँ का उल्लंघन करता है तो फिर सरकार जो उचित समझेगी कार्यवाही करेगी।
धारा 5(4) के अंतर्गत इस सेवा के सदस्य को किसी भी चुनावी गतिविधि में भाग लेने पर प्रतिबंध है ।
लेकिन वह मतदान कर सकता है। और चुनाव ड्यूटी में सरकारी  आदेश पर भाग ले सकता है।

* आचरण नियमावली की धारा 6 रेडियो और प्रेस के साथ ऑल इंडिया सर्विस के अफसरों के सम्बंध के बारे में है।
इस बारे में यह प्राविधान है कि, कोई भी इन सेवाओं का सदस्य प्रेस और रेडियो पर जब तक कि उसे सरकारी पक्ष रखने की अनुमति न मिले वह कोई बात नहीं करेगा। पर वह इन आचरण नियमों के उल्लंघन न करते हुए लेख और किताबें लिख और प्रकाशित करवा सकता है।

* आचरण नियमावली की धारा 7 सरकार की आलोचना के बारे में है।
इस प्राविधान के अनुसार, इन सेवाओं के सदस्य किसी भी रेडियो प्रसारण, संचार या जन संचार के माध्यम से अपने नाम, या गुमनामी या छद्म नाम से सरकार के नीतियों की कोई आलोचना नहीं कर सकेंगे।
वे ऐसा कोई वक्तव्य जारी नहीं कर सकेंगे जिससे,
1. सरकार के नीतियों की आलोचना हो।
2. ऐसी कोई बात नहीं करेंगे जिससे राज्य और केंद्र के सम्बंध बिगड़ें।
3. ऐसी कोई बात नहीं करेंगे जिससे केंद्रीय सरकार को असहज होना पड़े और भारत सरकार के सम्बंध अन्य देशों से प्रभावित हों।

इन अफसरों के कृत्य को इस आचरण नियमावली के प्राविधानों के अनुसार देखें तो यह धारा 5 का उल्लंघन लगता है। यह कहा जायेगा कि इन वरिष्ठ आईपीएस अफसरों ने जानबूझकर कर राजनीतिक गतिविधियों में भाग लिया है जो उन्हें इन प्राविधानों के अनुसार धरने पर नहीं बैठना चाहिये था।

लेकिन यह धरना था किसका ? यह धरना मुख्यमंत्री का था। और जब मुख्यमंत्री चाहे सड़क पर बैठ कर अपना कार्यालय चलाये या हुगली नदी में एक स्टीमर पर तो इन बड़े अधिकारियों का दायित्व है कि वे वहां जांय। पुलिस अफसर को तो वहां रहना ही होगा चाहे सीएम एक दिन बैठे या दस दिन। ऐसा पहली बार नहीं हुआ है कि एक चुना हुआ मुख्यमंत्री धरने पर बैठा हो। 2006 में जब नरेंद्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे तो वे भी नर्मदा मुद्दे पर धरने पर बैठे थे। धरने का सारा प्रबंध सरकार की तरफ से था। वहाँ सरकार के कई सचिव और पुलिस अफसर सरकारी काम से गये थे। सरकारी पैसे से उस फाइव स्टार धरने में. पूरा सरकारी अमला झोंक दिया गया था और अफसरों की ड्यूटी लगी थी । धरना स्थल पर. उस वक़्त के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने तो किसी अधिकारी के खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं की थी.।

अभी पिछले साल मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान किसानों में मसले पर अनशन पर बैठे थे तो भी सारा प्रबंध सरकार का ही था। वहां भी अफसर उपस्थित  थे। ममता बनर्जी के इस धरने में कोई अतिरिक्त सरकारी तामझाम नहीं दिखा। मुख्यमंत्री अगर सड़क पर धरने पर बैठा है तो उसका प्रोटोकॉल खत्म नहीं हो जाता है। सरकारी अफसर और खासकर पुलिस और सुरक्षा अधिकारियों की मुख्यमंत्री के इर्द गिर्द मौजूदगी का मतलब ये नहीं होता है कि वो धरने में शामिल हो गये।

भारत सरकार उपरोक्त नियमावली के उल्लंघन के अंतर्गत कार्यवाही करने की बात कर तो रही है पर यह साबित कैसे होगा यह मैं समझ नहीं पा रहा हूँ। कार्यवाही भी मूल कैडर के प्रदेश को ही करनी है। केंद्र सरकार केवल राज्य सरकार जो ऐसीं कार्यवाही करने के लिये कह सकती है और लिख सकती है। पर राज्य सरकार कुछ न करे तो केंद्र कुछ कर भी नहीं सकता है। यह राज्यो की अपनी संवैधानिक स्वायत्तता है और पुलिस था कानून व्यवस्था राज्य के क्षेत्राधिकार में आता है। केंद्र सरकार का इस तरह का खीज भरा तानाशाही रवैया ब्यूरोक्रेसी और जनता के बीच और गुस्सा भडकाएगा और सरकार की हताशा को दर्शा रहा है। यह कहना कि सरकार मेडल वापस ले लेगी एक बचकानी धमकी है। मेडल उत्कृष्ट कार्यो के एवज में दिया जाता है न कि किसी की अनुकंपा पर मिलता है। सरकार अगर सच मे सरकारी सेवाओं के अंदर पसर गयी राजनीतिक ज्वर को रोकना चाहती है तो उसे अफसरों को किसी भी प्रकार की धार्मिक, क्षेत्रीय और जातिगत गुटबाजी से दूर रखना होगा। पर अफसोस कोई भी राजनैतिक दल इस व्याधि के विरुद्ध नहीं खड़ा होता है। सबके अपने अपने अफसर हैं और अपने अपने हित।

आचरण नियमावली की धारा 5, 6 और 7 अंग्रेज़ी में प्रस्तुत हैं।
5. Taking part in politics and elections.—
5(1) No member of the Service shall be
a member of, or be otherwise associated with, any political party or any organization
which takes part in politics, nor shall he take part in, or subscribe in aid of, or assist in any other manner, any political movement or political activity.
5(2) It shall be the duty of every member of the Service to endeavour to prevent any member of his family from taking part in or subscribing in aid of or assisting in any other manner, any movement of, activity which is, or intends directly or indirectly to be subversive of the Government as by law
established, and where a member of the Service is unable to prevent member of his family from taking part in or subscribing in aid of, or assisting in any other manner, any such movement of activity, he shall
make a report to that effect to the Government.
5(3) If any question arises whether any movement or activity falls within the
scope of this rule, the question shall be referred to the Government for its
decision.
5(4) No member of the Service shall canvass or otherwise interfere with, or
use his influence in connection with, or take part in, an election to any legislature or local authority:—
Provided that —
(i) a member of the Service qualified to vote at any such election may
exercise his right to vote but where he does so he shall give no
indication of the manner in which he proposes to vote or has voted,
and
(ii) a member of the Service shall not be deemed to have contravened the provisions of this sub-rule by reason only that he has assisted in the conduct of an election in the due performance of a duty imposed
on him by or under any law for the time being in force.
Explanation— The display by member of the Service, on his person, vehicle or
residence of any electoral symbol shall amount to using his influence in connection with an election, within the meaning of this sub-rule. 15

6. Connection with press or radio—Previous sanction of the Government shall not be required when the member of the service, in the bonafide discharge of his duties or otherwise, publishes a book or contributes to or participates in a public media. Provided that he shall observe the provisions of rules and at all times make it clear that the views expressed, are of his own and not those of the Government.

7. Criticism of Government.—No member of the Service shall, in any radio broadcast or communication over any public media or in any document published  anonymously, pseudonymous or in his own name or in the name of any other person or in any communication to the press or in any public utterance, make any statement of fact or opinion,—
i. Which has the effect of an adverse criticism of any current or recent policy or action of the Central Government or a State Government; or
ii. which is capable of embarrassing the relations between the Central Government and any State Government; or
iii. which is capable of embarrassing the relations between the Central Government and the Government of any Foreign State.

© विजय शंकर सिंह

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