Sunday, 24 February 2019

जर्मनी, हिटलर और दोनों का त्रासद अंत / विजय शंकर सिंह

1937 तक आते आते नाज़ी पार्टी खत्म हो गयी थी और अगर कुछ बचा था, तो हिटलर, उन्माद और गोएबेल । लोकतांत्रिक माध्यम से पाई सत्ता कैसे शनैः शनैः झूठ, जुमलों, घृणा, दुष्प्रचार, मिथ्या अहंकार आदि आदि के लबादों में छिपते छिपाते एक बर्बर तानाशाही का रूप ले लेती है, यह जर्मनी के इतिहास का यह कालखंड बता देता है । कुछ समय तक तो यह तानाशाह, ' जहां तक मैं देखता हूँ वहां तक मेरा ही साम्राज्य है ' की पिनक में डूबा ऐश्वर्य से लबरेज यत्र तत्र सर्वत्र विजय की प्रत्याशा में , ' चलत दशानन डोलत धरती ' की तरह दिखता है। फिर एक रात अचानक अपने घर के डाइंग रूम की टेबल के नीचे घुस कर खुद को गोली मार लेता है। हिंसा, घृणा और बारूद को ही राज करने का माध्यम मानने वाला यह तानाशाह अंततः हिंसा से ही मारा जाता है। लेकिन जब वह मरता है तब तक उसका मुल्क बरबाद हो चुका रहता है। चिथड़े की तरह उसके मुल्क की बंदरबाट होती है। उसके साथ रहे लोगों और उसके चमचों को 1960 तक मित्र देशों ने ढूंढ ढूंढ कर फांसी से लेकर कारावास तक की सख्त सजाएं दीं। यकीन न हो तो न्यूरेमबर्ग ट्रायल के विवरण पढ़ लें। यूरोपीय इतिहास के इस दारुण काल की यह एक दुःखद कहानी है। बरबाद होती जर्मनी के लोग शायद ही यह भूल पाये होंगे, कि इसी हिटलर ने जर्मनी के आत्मसम्मान को लौटाने और एक बड़ी ताकत का भरोसा दिला कर कभी सत्ता पायी थी। पर उसने दिया क्या ?

इस पर जब लिखने की सोचा तो एक मित्र की जिज्ञासा थी, कि यह कहानी तो सभी जानते हैं, फिर इस कहानी को आज सुनाने का क्या उद्देश्य है ?

मेरा उनको उतर यह था।
यह कहानी जो जानते हैं उनके लिये नहीं है बल्कि जो यह नहीं जानते कि लोकतंत्र के लबादे में भी तानाशाही पनप सकती है उनके लिये है। लोकतंत्र के ही लबादे में ही फ्रांस में तानाशाही ही नही राजशाही भी पनप गयी थी। उसी फ्रांस में जिसने दुनिया को स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व का नारा दिया था। इटली का फासिस्ट मुसोलिनी और जर्मनी का हिटलर तो चुनावी लोकतंत्र से ही उपज कर तानाशाह बना था। अपने देश मे 1975 में ऐसे ही एक बदलाव से हम रूबरू हो चुके हैं, जब इंदिरा गांधी ने आपातकाल लगाया, और संसद का कार्यकाल एक साल बढ़ा दिया। पर तब हम सजग थे और दो ही साल में 1977 के लोकसभा चुनाव में हमने तानाशाही के उस जहरीले अंकुर को नष्ट कर दिया। तब हमारे पास जयप्रकाश नारायण थे। बस हम सजग रहें और सतर्क रहें, यही इस पोस्ट का उद्देश्य है। सरकार से सवाल पूछते रहें और सरकार को यह आभास दिलाते रहें कि हम, हम भारत के लोग के प्रति सरकार जवाबदेह है। हम सर्वोच्च हैं। हमारा संविधान सर्वोच्च है।

© विजय शंकर सिंह

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