Wednesday, 27 February 2019

विंग कमांडर अभिनंदन की सुरक्षित वापसी तक सभी राजनीतिक तमाशे बंद हों / विजय शंकर सिंह

सीमा पर तनाव है, लगता है कहीं चुनाव है यह राहत इंदौरी के एक शेर का भावार्थ है। पर यह आज सही साबित हो रहा है। आज पीएम ने खेल इंडिया एप्प का उद्घाटन किया और कल 28 फरवरी को वे दुनिया की सबसे बड़ी वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग का दावा करने वाले एक तमाशे का उद्घाटन करने जा रहे हैं।

अगर सामान्य युद्ध के बजाय केवल तनातनी होती तो ऐसे आयोजन में कोई आपत्ति नहीं होती। क्योंकि पाक से तो कश्मीर मामले में सदैव तनातनी रहती ही है। पर आज स्थिति सामान्य नहीं है। 14 फरवरी को पुलवामा हमले के बाद 26 फरवरी को हमारी वायुसेना ने बालकोट में बमबारी की। न्यूज़ चैनलों की मानें तो लगभग 300 से 400 लोग मारे गए हैं और जैश का सारा ट्रेनिंग सेंटर ध्वस्त कर दिया गया है। हम उत्सवजीवी भारतीय जश्न में डूब गए। पर उस नुकसान की, 300 के मारे जाने की संख्या की उत्पत्ति कहां से हुई, यह जाने बगैर हमने दुंदुभिवादन शुरू कर दिया।

पाकिस्तान में भी इसकी प्रतिक्रिया हुयी। पहले तो उसने यह कहा कि टारगेट से एक किलोमीटर दूर भारतीय वायुसेना ने बमबारी की और नुकसान पर वह चुप रहा। पर अमेरिकी न्यूज़ एजेंसी रायटर और बीबीसी ने खुलासा किया कि एक आदमी घायल हुआ है, और बमबारी हुयी है। फिर उसने भारतीय और पाकिस्तानी दोनों सरकारों का जो कथन है उसे उद्धरित कर दिया।  कितने आदमी मारे गये हैं, यह बात अभी भी 300 बताई जा रही है। पर यह संख्या किसी अधिकृत सोर्स द्वारा बतायी नहीं गयी है। इस तरह के ऑपरेशन में नुकसान और मृतकों का आकलन मुश्किल से ही हो पाता है।

आज 27 फरवरी को पाकिस्तानी ने दावा किया कि उसने एक पायलट विंग कमांडर अभिनंदन वर्धन को पकड़ लिया है और हमारा एक विमान नष्ट कर दिया है। दोपहर तक तो इस खबर पर संशय बना रहा पर बाद में हमारी सरकार ने भी इसे मान लिया कि यह बात सही है। फिर तो पाक मीडिया ने अभिनंदन से जुड़ी फोटोग्राफ और वीडियो क्लिप्स दिखाने शुरू कर दिये। अब यह कन्फर्म है कि हमारा एक अफसर पाक के कब्जे में हैं। अभिनंदन एक फौजी के पुत्र हैं। उनके पिता, एयर मार्शल एस वर्तमान, 2014 में सेवा निवृत्त होने के पूर्व,  ईस्टर्न एयर कमांड के एयर ऑफिसर कमांडिंग इन चीफ रह चुके है।

शुरू में अभिनंदन को लेकर जो विडियो और फोटोग्राफ आये थे वे बेहद आक्रोशित करने वाले थे। पर अभी एक खबर लाहौर के अखबार द डान के हवाले से शेयर हुयी है जिसमे अभिनंदन ठीक दिख रहे हैं, पर यह वीडियो कितना विश्वसनीय है यह अभी कहना मुश्किल है। हमारी सरकार का विदेश मंत्रालय निश्चित ही अभिनंदन को सुरक्षित वापस लाने और उन्हें यातना न दिये जाने के लिये कूटनीतिक रूप से भी प्रयासरत होगा। अतः इस प्रकरण पर अभी कुछ कहना उचित नहीं होगा। बस सरकार से यह अनुरोध और अपेक्षा की जाय कि वह अभिनंदन को सुरक्षित स्वदेश वापस ले आये।

अभिनंदन का पाकिस्तान की सेना के कब्जे में होना हमारे लिये बेहद चिंताजनक खबर है। अब हमें अधिक परिपक्वता दिखाना होगा और यह परिपक्वता कूटनीतिक मोर्चे पर भी दिखानी होगी और सैन्य ऑपरेशन में भी। इस घटना के बाद पाकिस्तान की तरफ से दो प्रतिक्रियायें आयी हैं। पहली है पाकिस्तान के पीएम इमरान खान का शांति और बातचीत की पेशकश और दूसरी उनका यह वीडियो जारी करके सबको बतलाना कि अभिनंदन स्वस्थ और सुरक्षित हैं। इमरान खान के बयान पर, भारत की कोई प्रतिक्रिया अभी नहीं आयी है।

लेकिन अभिनंदन की पाक सेना द्वारा गिरफ्तारी की घटना से पाकिस्तान की सौदेबाज़ी करने की स्थिति कूटनीतिक मोर्चे पर थोड़ी मज़बूत पायदान पर है। वह अभिनंदन को छोड़ने के एवज में हो सकता है भारत से बातचीत की पेशकश मांगे या कुलभूषण जाधव के बारे में कोई नयी बात रख दे। यह केवल एक अनुमान है। आगे क्या होता है यह अभी नहीं कहा जा सकता है। अब यह हमारे कूटनीतिक कौशल पर निर्भर है कि कैसे हम इस नयी समस्या से पार पाते हैं। आज ही सभी विरोधी दलों ने एक स्वर से अभिनंदन को सुरक्षित वापस लाने के लिये सरकार से मांग की है। इस मुद्दे पर सभी सरकार के साथ हैं कि वह अभिनंदन को सुरक्षित लाने के उपाय करे।

इन सब गहमागहमी के बीच कल सत्तारूढ़ दल का एक और तमाशा होने जा रहा है। यह तमाशा है दुनिया की सबसे बडी वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग का। बीजेपी के ट्विटर हैंडल पर यह दावा किया गया है कि यह विश्वविजयी, अश्वमेधीय वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग का शुभारंभ प्रधानमंत्री जी कल करेंगे। आपत्ति न तो इस राजनीतिक आयोजन पर है और न ही इसके कल के उद्घाटन पर, बल्कि आपत्ति है देश की संकटपूर्ण स्थिति, सीमा पर तनाव, औऱ हमारे एक अफसर को पाकिस्तान के कब्जे में होने के बावजूद प्रधानमंत्री का इस आयोजन का शुभारंभ करना। अगर किन्ही कारणों से यह राजनीतिक उद्घाटन टलना संभव न हो तो, यह उद्घाटन पार्टी के अध्यक्ष भी कर सकते हैं।

प्रधानमंत्री के समक्ष इस समय सबसे बड़ी चुनौती है कि वे इस अशनि संकेत से देश को उचित नेतृत्व प्रदान कर के बाहर निकालें। उरी घटना के बाद जब पहली सर्जिकल स्ट्राइक हुयी थी तो पाकिस्तान, सोते से पकड़ा गया था और इस बार भी यही हुआ । यह सैन्य कुशलता और चपलता प्रशंसनीय है।  लेकिन इस ठगे से महसूस करने की बडी प्रतिक्रिया पाकिस्तान में हो सकती है। पाकिस्तान में भी वहां की जनता का पाक सरकार पर भी कुछ न कुछ करने का मनोवैज्ञानिक दबाव भी होगा और उससे बड़ा दबाव वहां के आतंकी संगठनों और सेना का भी होगा। यह दबाव पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान और वहां के सैन्य प्रवक्ता मेजर जनरल गफूर के 26 तारीख के बाद आये कुछ बयानों में देखा जा सकता है।

पाकिस्तान में सत्ता राजनीतिक तंत्र के पास नहीं बल्कि सेना के पास है। वहां की सेना हमारी सेना की तरह प्रोफेशनल सेना नही बल्कि एक कारोबारी सेना की तरह है। वह राजनीतिक सत्ता को हर समय पलटने की जुगत में रहती है। पाक सेना ने 1948, 1965, 1971 और करगिल की हार भूली नहीं है और वह यह भी जानती है कि प्रत्यक्ष युध्द में वह जीत नहीं सकती है इसीलिए वह प्रछन्न युद्ध चलाती रहती है। उसके संसाधन ज़रूर इस प्रच्छन्न युद्ध मे लगते हैं पर उसकी जनशक्ति का बहुत कम नुकसान इस पोशीदा युद्ध मे होती है। जैश, तालिबान, जमात उद दावा आदि सारे आतंकी संगठन पाक सेना की अवैध संतान हैं और धर्मिक कट्टरता पर पलते हुए मिथ्या जिहाद की लालच में वे पाकिस्तान का अघोषित एजेंडा पूरा करने में लगे रहते हैं।

इसके विपरीत हमारी सेना और केंद्रीय पुलिस बलों का एक अच्छा खासा डिप्लॉयमेंट इन मजहबी और जिहादी आतंकियों से निपटने में तैनात है। कश्मीर में हमारे सुरक्षा बलों के संसाधनों के साथ साथ जनशक्ति भी गंवानी पड़ती है। यह सिलसिला 1987 से चल रहा है। पर इधर यह बढा है। पठानकोट, उरी और पुलवामा हमले सीधे तौर पर हमारी सेना और पुलिस बल पर हुये हमले थे । इन सब परिस्थितियों को देखते हुए सरकार को अपने कदम उठाने हैं और प्रभावी कार्यवाही करना है।

युद्ध उन्माद से नहीं लड़ा जाता है. युद्धों में कोई नहीं जीतता है। जो हारता है वह मर जाता है और जो जीतता है वह सबकुछ हार जाता है। जीतते हैं, हथियारों के सौदागर, बड़े बड़े सत्ता से जुड़े ठेकेदार, युद्ध और युद्धोन्माद के उफान पर सवार राजनेता, और मरते हैं सीमा पर तैनात जवान और फौज के जांबाज अफसर, और कुछ हद तक उजड़ता है देश और नुकसान उठाती है, देश की जनता और बाधित होती है गति समृद्धि की। महाभारत के महायुद्ध से लेकर आज तक हुये युद्धों के बाद अगर क्या खोया क्या पाया की समीक्षा की जाय तो यही निष्कर्ष निकलेगा।

पर जब युद्ध और युद्ध से अधिक युद्धोन्माद ठाठें मार रहा हो, तो यह बात बारूदों के शोर में न सुनायी देगी और न ही समझ मे आएगी। युद्ध केवल आखिरी विकल्प है। यह किसी भी समस्या का समाधान नहीं है बल्कि यह एक समस्या है । एक जटिल समस्या। युद्ध के विरुद्ध खड़े होना क्लीवता नहीं है। ड्रॉइंग रूम और शयन कक्षों में बैठ कर चाय की चुस्कियों के बीच स्मार्ट फोन्स की कीबोर्ड से युयुत्सु भाव उपजाना, कट्टरता फैलाना और युद्धोन्माद का एक छद्म वितान तान कर आराम से अफवाहें फैलना, क्लीवता है। कायरता है।

मीडिया चाहे भारत की हो या पाकिस्तान की दोनों ही में जो यह प्रोपेगैंडा युद्ध हो रहा है उसे न देखिये और देखिये भी तो जब तक सरकार के प्रवक्ता का कोई अधिकृत बयान न आ जाय तब तक उस पर न तो विश्वास कीजिए और न ही अफवाह फैलाइये। यह अफवाहबाज़ ऐसा कर के देश का नुकसान ही करेंगे।

सरकार, और सेना के पास सभी जरूरी सूचनाएं हैं और वे किसी भी आसन्न स्थिति से निपटने के लिये सक्षम और प्रशिक्षित हैं। युद्धोन्माद फैला कर उन पर कोई मनोवैज्ञानिक दबाव न बनाएं। राजनेता न चाहते हुये भी ऐसे मनोवैज्ञानिक दबाव में आ भी जाते हैं। युद्ध अगर लड़ा भी जाता है तो वह उन्माद, घृणा और पागलपन से नहीं बल्कि धैर्य, साहस, रणनीति और कौशल से। यह एक कला और विज्ञान भी है। कला और विज्ञान का लक्ष्य मनोबल से तो पाया जा सकता है पर उन्माद और भड़काऊ पागलपन से नहीं।

युद्ध एक विकल्प है। पर तभी जब और कोई विकल्प शेष न रह जाय तब। युद्ध आतंकवाद को नष्ट नहीं कर सकता। वह उसे तात्कालिक तौर पर दबा तो देता है पर साथ ही अनेक समस्याएं भी उत्पन्न कर देता है। जो युद्ध लड़ते नहीं हैं वे युद्ध का जश्न मनाते हैं, और जो युद्ध लड़ते हैं वे इसका जश्न नहीं मनाते हैं। क्योंकि उन्हें इसकी विभीषिका का अंदाज़ा है।

© विजय शंकर सिंह

Sunday, 24 February 2019

जर्मनी, हिटलर और दोनों का त्रासद अंत / विजय शंकर सिंह

1937 तक आते आते नाज़ी पार्टी खत्म हो गयी थी और अगर कुछ बचा था, तो हिटलर, उन्माद और गोएबेल । लोकतांत्रिक माध्यम से पाई सत्ता कैसे शनैः शनैः झूठ, जुमलों, घृणा, दुष्प्रचार, मिथ्या अहंकार आदि आदि के लबादों में छिपते छिपाते एक बर्बर तानाशाही का रूप ले लेती है, यह जर्मनी के इतिहास का यह कालखंड बता देता है । कुछ समय तक तो यह तानाशाह, ' जहां तक मैं देखता हूँ वहां तक मेरा ही साम्राज्य है ' की पिनक में डूबा ऐश्वर्य से लबरेज यत्र तत्र सर्वत्र विजय की प्रत्याशा में , ' चलत दशानन डोलत धरती ' की तरह दिखता है। फिर एक रात अचानक अपने घर के डाइंग रूम की टेबल के नीचे घुस कर खुद को गोली मार लेता है। हिंसा, घृणा और बारूद को ही राज करने का माध्यम मानने वाला यह तानाशाह अंततः हिंसा से ही मारा जाता है। लेकिन जब वह मरता है तब तक उसका मुल्क बरबाद हो चुका रहता है। चिथड़े की तरह उसके मुल्क की बंदरबाट होती है। उसके साथ रहे लोगों और उसके चमचों को 1960 तक मित्र देशों ने ढूंढ ढूंढ कर फांसी से लेकर कारावास तक की सख्त सजाएं दीं। यकीन न हो तो न्यूरेमबर्ग ट्रायल के विवरण पढ़ लें। यूरोपीय इतिहास के इस दारुण काल की यह एक दुःखद कहानी है। बरबाद होती जर्मनी के लोग शायद ही यह भूल पाये होंगे, कि इसी हिटलर ने जर्मनी के आत्मसम्मान को लौटाने और एक बड़ी ताकत का भरोसा दिला कर कभी सत्ता पायी थी। पर उसने दिया क्या ?

इस पर जब लिखने की सोचा तो एक मित्र की जिज्ञासा थी, कि यह कहानी तो सभी जानते हैं, फिर इस कहानी को आज सुनाने का क्या उद्देश्य है ?

मेरा उनको उतर यह था।
यह कहानी जो जानते हैं उनके लिये नहीं है बल्कि जो यह नहीं जानते कि लोकतंत्र के लबादे में भी तानाशाही पनप सकती है उनके लिये है। लोकतंत्र के ही लबादे में ही फ्रांस में तानाशाही ही नही राजशाही भी पनप गयी थी। उसी फ्रांस में जिसने दुनिया को स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व का नारा दिया था। इटली का फासिस्ट मुसोलिनी और जर्मनी का हिटलर तो चुनावी लोकतंत्र से ही उपज कर तानाशाह बना था। अपने देश मे 1975 में ऐसे ही एक बदलाव से हम रूबरू हो चुके हैं, जब इंदिरा गांधी ने आपातकाल लगाया, और संसद का कार्यकाल एक साल बढ़ा दिया। पर तब हम सजग थे और दो ही साल में 1977 के लोकसभा चुनाव में हमने तानाशाही के उस जहरीले अंकुर को नष्ट कर दिया। तब हमारे पास जयप्रकाश नारायण थे। बस हम सजग रहें और सतर्क रहें, यही इस पोस्ट का उद्देश्य है। सरकार से सवाल पूछते रहें और सरकार को यह आभास दिलाते रहें कि हम, हम भारत के लोग के प्रति सरकार जवाबदेह है। हम सर्वोच्च हैं। हमारा संविधान सर्वोच्च है।

© विजय शंकर सिंह

प्रधानमंत्री जी द्वारा, संगम पर सफाई कर्मियों का पाद प्रक्षालन / विजय शंकर सिंह

प्रधानमंत्री जी ने संगम स्नान किया औऱ सफाई कर्मियों के चरण प्रक्षालित किये। यह सच मे पहली बार किया गया कृत्य है। किसी प्रधानमंत्री या अन्य किसी ने भी ऐसा सोचा भी नहीं था। यह सोचना भी बड़ी बात है। इसे व्यवहार में करना तो बड़ी बात है ही। इस प्रक्षालन के पीछे चाहे सेवा भाव हो या सदियों से चले आ रहे जातिगत भेदभाव के प्रति प्रायश्चित भाव या आसन्न चुनाव को देखते हुए राजनीतिक प्रचार भाव, जो भी जिस रूप में देखे,  या माने लेकिन यह कदम सराहनीय है और इसकी प्रशंसा की जानी चाहिये।

पर इस घटना पर सफाई कर्मचारियों के नेता और मैगासेसे पुरस्कार विजेता विल्सन एक अन्य नज़र से देखते हैं। हृदयेश जोशी के मीडियविजिल में आज ही छपे एक लेख का यह अंश पढें,

" सफाई कर्मचारी आंदोलन के संस्थापक और रमन मैग्सेसे अवॉर्ड विजेता बेजवाड़ा विल्सन का कहना है कि कुम्भ में सफाईकर्मियों के पैर धोना असंवैधानिक है। यह उन्हें तुच्छ दिखाकर खुद को महिमामंडित करने जैसा है। विल्सन पिछले कई दशकों से मैला उठाने के काम में लगे लोगों के बीच काम कर रहे हैं और इसके लिये उन्हें देश विदेश में सम्मानित किया जा चुका है।

विल्सन ने मुझसे कहा, “प्रधानमंत्री को सफाई कर्मियों और दलितों के पैर नहीं धोने चाहिये बल्कि उनसे हाथ मिलाना चाहिये। पैर धोने से कौन ग्लोरिफाई (महिमामंडित) होता है। वह (प्रधानमंत्री) ही ग्लोरिफाइ होते हैं ना। वह सफाईकर्मियों के पांव पकड़ते हैं तो वह यह संदेश दे रहे हैं कि आप (सफाईकर्मी) बहुत तुच्छ हैं और मैं महान हूं। इससे किसका फायदा होता है? इनके पैर धोकर वह खुद को महान दिखा रहे हैं। यह बहुत खतरनाक विचारधारा है।”

कांग्रेस नेता शशि थरूर ने ट्वीट कर पूछा, “मोदीजी, अब जब आपने उनके (स्वच्छाग्रहियों) चरण धो चुके हैं, क्‍या आप उन्‍हें बेहतर नौकरियां भी दिलवाएंगे?” प्रधानमंत्री के गृह राज्‍य गुजरात से विधायक जिग्‍नेश मेवानी ने लिखा, “दलितों और पिछड़ों को सम्मान भरा रोजगार चाहिए, आपका बाह्मणवाद नहीं।” आम आदमी पार्टी के राज्‍यसभा सांसद संजय सिंह ने लिखा, “आज भी हमारे जवान शहीद हो रहे हैं, अरुणाचल जल रहा है ये बंदा शूट बूट में गंगा स्नान और फोटो खिंचाने में व्यस्त है। पहले रोहित वेमुला को आत्महत्या के लिये मजबूर करो, चुनाव आये तो पैर धुलो।”

रवीश कुमार ने अपने ब्लॉग में इस घटना पर जो लिखा है उसे भी पढ़ लें,
" क्या हम लोगों ने सामान्य बुद्धि से भी काम लेना बंद कर दिया है? हमें क्यों नहीं दिखाई नहीं देता कि चुनाव के समय मूल समस्याओं से ध्यान भटकाने के लिए यह सब हो रहा है? क्या हम अब नौटंकियों को भी महानता मानने लगे हैं? मुझे नहीं पता था कि महानता नौटंकी हो जाएगी। मुझे डर है मीडिया में प्रधानमंत्री के चेले उन्हें कृष्ण न बता दें। क्या किसी बेरोज़गार के घर समोसा खा लेने से बेरोज़गारों का सम्मान हो सकता है? उन्हें नौकरी चाहिए या प्रधानमंत्री के साथ समोसा खाने का मौक़ा? आपको सोचना होगा। एक प्रधानमंत्री का वक़्त बेहद क़ीमती होता है। अगर उनका सारा वक़्त इन्हीं सब नौटंकियों में जाएगा तो क्या होगा। "
यह भी एक विडंबना है कि देश मे आतंकवाद के खिलाफ संघर्ष से ज्यादा लोग सीवर की सफाई में मरते हैं। उनके मुआवजे का जब अध्ययन किया जाएगा तो ज्ञात होगा कि उनको मुआवजा भी कम ही मिला है।

इस घटना को देख कर उनके द्वारा लिखी एक पुस्तक ' कर्मयोग ' भी याद आ गयी जो साल दो पहले किसी अन्य कारण से चर्चा में थी। उस पुस्तक में नरेंद्र मोदी जी ने सफाई कर्मियों के मैला साफ करने के कार्य के बारे में यह लिखा है कि ऐसा कर के सफाई कर्मियों को एक प्रकार की आध्यात्मिक अनुभूति होती है और उन्हें आध्यात्मिक संतोष मिलता है । नरेंद मोदी यह लिख कर कहना क्या चाहते है ? सफाई कर्म आध्यात्मिक तोष का माध्यम है या यह उनके जीवन यापन की एक विधा। या यह एक प्रकार का नियतिवाद है, कि उनके जीवन मे यह उनके पूर्व जन्मों का कर्मफल है ?  इसे आप सब अपने अपने ज्ञान, सोच और विवेक के अनुसार तय करते रहिये। पर एक सवाल यहाँ भी खड़ा हो जाता है कि क्या पीएम अपनी उस आध्यात्मिक संतोष वाली धारणा पर अब भी कायम है या त्रिवेणी के प्रवाह ने उनकी सोच को परिमार्जित कर दिया है ?

यह कदम भावनात्मक रूप से प्रेरक है और सत्ताधिपति का अंत्योदय विकास की मनोदशा को भी व्यक्त करता है। पर जब बात इन सफाई कर्मचारियों के लिये सरकार द्वारा कुछ करने की बात की होती है तो दूसरी ही तस्वीर उभरती है। इस घटना के बाद निश्चित रूप से यह पड़ताल होगी कि आखिर सरकार ने सबसे उपेक्षित और घृणा से देखे जाने वाले समाज के उत्थान और विकास के लिये ज़मीन पर क्या क्या कदम उठाए हैं। जब सरकार के प्रयास जानने के लिये गूगल किया गया तो, अगस्त 2018 में द वायर में छपा एक लेख मिला। उक्त लेख के अनुसार,
" पिछले चार सालों में जब से नरेन्द्र मोदी जी की सरकार सत्ता में आयी है, इस सरकार ने हांथ से मैला साफ करने वाले लोगों के पुनर्वास हेतु एक भी पैसे का बजट प्रस्तुत नहीं किया। यही नहीं बल्कि अपने पूर्ववर्ती यूपीए सरकार द्वारा स्वीकृत बजट की आधी धनराशि भी व्यय नहीं की। "

यह सूचना, सूचना के अधिकार के अंतर्गत मांगी गयी सूचना के अनुसार प्राप्त हुयी एक सरकारी सूचना पर आधारित है।
राष्ट्रीय सफाई कर्मचारी वित्तीय एवं विकास आयोग, नेशनल सफाई कर्मचारी फाइनेंस एंड डेवलपमेंट कॉर्पोरेशन ( NSKFDC ) जो भारत सरकार के सामाजिक न्याय एवं सशक्तिकरण के अधीन कार्य करता है, को 2013 - 14 के वित्तीय वर्ष में 55 करोड़ की धनराशि इस पुनर्वास योजना के लिये रखी गयी थी।
लेकिन उसके बाद वर्तमान सरकार ने 22 सितंबर 2017 तक, जब तक वह आरटीआई सूचना मांगी गयी थी,  एक भी पैसे का बजट नहीं जारी किया।

जब यह घटना प्रचारित होगी तो इसका एक परिणाम यह भी होगा कि सफाई कर्मचारियों की अपने पुनर्वास, जीवन स्तर के उत्थान को लेकर सरकार से अपेक्षाएं बढेंगी और सरकार को चाहिये कि वह इन अपेक्षाओं को पूरा करने के लिये जरूरी कदम भी उठाये।

आज संगम और वह भी अर्धकुंभ के पावन अवसर पर यही प्रार्थना की जाय कि दलितों, शोषितों और वंचितों तथा जाति व्यवस्था के सबसे निचले पायदान पर खड़े इस समाज के कुछ लोगो का पाद प्रक्षालन भले ही, चुनावी स्टंट या प्रतीकात्मक हो पर यह प्रतीक ही बन कर ही न रह जाय। उनके कार्य को देखते हुए, उससे जुड़ी हेय भावना को देखते हुए सरकार कुछ ऐसा भी करे कि न केवल उनका जीवन स्तर सुधरे बल्कि उनके कार्यस्थल पर भी आधुनिक उपकरण मशीन आदि उन्हें उपलब्ध कराई जांय जिससे वे यह कार्य सुगमता से कर सकें। सीवर की गैस से दम घुंट कर मर जाने वाले सफाई कर्मियों की संख्या भी कम नहीं है। साथ ही समाज की  यह  सोच भी बदले कि केवल उन्होंने ही इस कार्य को सम्पन्न करने के लिये जन्म लिया है। यह कार्य भी जातिभेद से ऊपर उठ कर किया जा सकता है और किया जाना चाहिये। यह उनकी ही  नियति है, यह धारणा टूटना आवश्यक है

© विजय शंकर सिंह

संविधान की धारा 35 A और इससे संबंधित सुप्रीम कोर्ट में दायर याचिकायें / विजय शंकर सिंह

सुप्रीम कोर्ट में धारा 35 A को लेकर एक सुनवायी चल रही है। इस सुनवायी में जम्मू कश्मीर की सरकार भी एक पक्ष है। अदालत में अपना पक्ष रखते हुए जम्मू कश्मीर की सरकार ने कहा है इस धारा के हटाने या न हटाने के बारे में केवल राज्य की चुनी हुयी सरकार ही कोई फैसला ले सकती है। कुछ लोग यह उम्मीद लगाए बैठे थे कि राज्य में राज्यपाल का शासन है तो राज्यपाल शायद यह निर्णय ले लें कि राज्य सरकार धारा 35 A के हटाने के पक्ष में है। लेकिन राज्यपाल ने इस विवादित मुद्दे पर एक परिपक्व निर्णय लिया है कि जनता द्वारा चुनी हुयी सरकार ही यह तय कर सकती है कि इस धारा 35 A के बारे में क्या रुख अपनाया जाय।

जम्‍मू-कश्‍मीर में धारा 35 A को हटाने की बात भर पर पूरे राज्य में विवाद और बवाल मचा हुआ है। जम्मू कश्मीर के सारे राजनीतिक दल इस बात पर एकमत हैं कि धारा 370 और 35 A को हटाना नहीं चाहिये और इसके हटने के दूरगामी प्रतिकूल परिणाम निकलेंगे। पीडीपी नेता महबूबा मुफ्ती ने तो यह भी कहा है कि अगर यह अनुच्छेद 370 हटा लिया गया तो इससे जम्मू कश्मीर का भारतीय संघ में विलय ही संकट में आ जायेगा। नेशनल कांफ्रेंस अध्यक्ष और लोकसभा सांसद फारूक अब्दुल्ला ने तो यहां तक कह दिया है कि संविधान की धारा 35A को रद्द किए जाने पर 'जनविद्रोह' की स्थिति पैदा होगी । राज्यपाल को इस विरोध और बवाल की स्थिति का अंदाज़ा होगा, इसीलिए उन्होंने यह उचित स्टैंड लिया कि एक चुनी हुयी सरकार ही इस धारा के बारे में निर्णय ले सकती है।

अनुच्छेद 35A जम्मू-कश्मीर की विधान सभा को यह अधिकार देता है कि वह 'स्थायी नागरिक' की परिभाषा तय कर सके। दरअसल, अनुच्छेद 35 A को 14 मई 1954 में राष्ट्रपति के आदेश से संविधान में जोड़ा गया था। संविधान सभा से लेकर संसद की किसी भी कार्यवाही में, कभी अनुच्छेद 35 A को संविधान का हिस्सा बनाने के संदर्भ में किसी संविधान संशोधन या बिल लाने का उल्लेख नहीं मिलता है। अनुच्छेद 35 A तत्कालीन सरकार ने धारा 370 के अंतर्गत प्राप्त शक्ति का उपयोग किया था।

अनुच्छेद 35A से जम्मू-कश्मीर सरकार और वहां की विधानसभा को स्थायी निवासी की परिभाषा तय करने का अधिकार मिलता है।. इसका यह अर्थ है कि राज्य सरकार को यह अधिकार  है कि वो 1947 बंटवारे और आज़ादी के समय राज्य के बाहर कहीं से भी आए शरणार्थियों और अन्य भारतीय नागरिकों को जम्मू-कश्मीर में किसी प्रकार की सुविधा जो राज्य के नागरिकों को मिलती है, दे अथवा नहीं दे। यह धारा 14 मई 1954 को तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद के एक आदेश  पर  भारत के संविधान में एक नया अनुच्छेद 35A जोड़ दिया गया। बहुत कम लोगों को पता है कि अनुच्छेद 35A, धारा 370 का ही हिस्सा है. इस धारा की वजह से कोई भी दूसरे राज्य का नागरिक जम्मू-कश्मीर में ना तो संपत्ति खरीद सकता है और ना ही वहां का स्थायी नागरिक बनकर रह सकता है।

अनुच्छेद 370 के अंतर्गत विशेष राज्य का दर्जा मिलने पर 1957 में जम्मू कश्मीर का अलग संविधान बनाया गया था, जिसमे स्थायी नागरिकता को परिभाषित किया गया है। सितम्बर–अक्टूबर 1951 में जम्मू एवं कश्मीर के संविधान सभा का निर्वाचन राज्य के भविष्य के संविधान के निर्माण के लिए तथा भारत के साथ सम्बन्ध स्पष्ट करने के लिए किया गया था। जेके संविधान सभा की पहली बैठक 31 अक्टूबर 1951 को हुई थी। जम्मू एवं कश्मीर के संविधान को बनने में कुल 5 वर्ष का समय लगा. 17 नवम्बर, 1957 को जम्मू एवं कश्मीर का संविधान अंगीकार किया गया तथा 26 जनवरी , 1957  को प्रभाव में आया था।

वहां के संविधान के अनुसार, राज्य का स्थायी नागरिक वह व्यक्ति है, जो 14 मई 1954 को राज्य का नागरिक रहा हो या फिर उससे पहले के 10 वर्षों से राज्य में रह रहा हो. साथ ही उसने वहां संपत्ति हासिल की हो। अनुच्छेद 35 A के मुताबिक अगर जम्मू-कश्मीर की कोई लड़की किसी बाहर के लड़के से शादी कर लेती है तो उसके नागरिकता के सारे अधिकार खत्म हो जाते हैं, और साथ ही उसके बच्चों के अधिकार भी खत्म हो जाते हैं।

नागरिकता के अधिकार की विसंगति को लेकर सुप्रीम कोर्ट में कुछ याचिकायें दायर की गयीं । उनमे इस धारा को निरस्त करने का अनुरोध किया गया। सुप्रीम कोर्ट में दाखिल याचिका में लोगों ने शिकायत की थी कि अनुच्छेद 35A के कारण संविधान प्रदत्त उनके मूल अधिकार जम्मू-कश्मीर राज्य में छीन लिए गए हैं, लिहाजा राष्ट्रपति के आदेश से लागू इस धारा को केंद्र सरकार फौरन रद्द किया जाए।

इस अनुच्छेद को हटाने के लिए बहुत सी दलीलें दी गयी हैं। एक प्रमुख दलील यह है कि  इसे संसद के द्वारा किसी संवैधानिक संशोधन के द्वारा लागू नहीं करवाया गया था, इसलिए इसका महत्व संविधान की अन्य प्राविधानों के अनुरूप नहीं है।
दूसरी दलील ये है कि 1947 में देश के विभाजन के समय, काफी अधिक संख्या में  पाकिस्तान से शरणार्थी भारत आए थे। जिनमें लाखों की तादाद में शरणार्थी जम्मू औऱ कश्मीर राज्य में भी रह रहे हैं। जम्मू-कश्मीर सरकार ने अनुच्छेद 35 A के प्राविधान के हवाले से इन सभी भारतीय नागरिकों को जम्मू-कश्मीर के स्थायी निवासी प्रमाणपत्र से वंचित कर दिया। इन वंचितों में 80 फीसद लोग पिछड़े और दलित हिंदू समुदाय से हैं.
तीसरी दलील यह है कि  जम्मू-कश्मीर में विवाह कर बसने वाली महिलाओं और अन्य भारतीय नागरिकों के साथ भी जम्मू-कश्मीर सरकार अनुच्छेद 35 A की आड़ लेकर भेदभाव करती है।

अभी सुप्रीम कोर्ट में इन याचिकाओं की सुनवायी चल रही है। इसी संदर्भ में जम्मू कश्मीर की सरकार से अपना पक्ष रखने की बात अदालत ने कही थी, जिस पर राज्यपाल जम्मू कश्मीर ने यह निर्णय लिया है। अनुच्छेद 370 और 35 A को लेकर वर्तमान भाजपा सरकार इन विन्दुओं पर अपने द्वारा किये गए वायदों के कारण अपने मतदाताओं के भारी दबाव में है। भाजपा ने अपने हर संकल्पपत्र या घोषणा पत्र में धारा 370 को हटाने का वादा किया है और यह वादा आज भी है। लेकिन सरकार ने आज तक खुद ही यह तय नहीं किया कि उसका स्टैंड क्या हो। इन प्राविधानों को लेकर जनता में भी बहुत भ्रम है। सरकार इसे हटाये या न हटाये पर एक अध्ययन दल का गठन कर के इस बात का परीक्षण तो कर ही सकती है कि इन प्राविधानों के हटाने से क्या लाभ और हानि हो सकती है। पर 2014 से आज तक इन प्राविधानों पर सरकार और सत्तारूढ़ दल का क्या रुख है यह आज तक तय नहीं हो पाया। अब देखते हैं, सुप्रीम कोर्ट का क्या रुख रहता है।

© विजय शंकर सिंह