Monday, 14 February 2022

चल पड़े जिधर दो डग मग में / विजय शंकर सिंह



खबर है कि, चंपारण में कुछ लोगों ने महात्मा गांधी की प्रतिमा तोड़ दी है। मगर उस प्रतिमा के कदम नहीं उखड़े। या यूं कहें वे गांधी के कदमो को डिगा नहीं पाए। वे कदम मज़बूती से चंपारण की धरती पर जमे रहे। इन कदमो की मज़बूत पकड़ ही, गांधी और उनके विचारधारा की प्रासंगिकता है और वह आगे भी बनी रहेगी। विरोध के झंझावात के बीच भी वह सोच और विचारधारा, बिना डिगे, बिना भटके और बिना हतप्रभ हुए, देश और दुनिया को राह दिखाती रहेगी। कुछ लोग इन कदमो की दृढ़ता से गांधी के जीवन काल मे भी असहज थे और आज, उनकी हत्या हो जाने के 75 साल बाद, अब भी असहज हैं। वे अपनी चिढ़ और कुंठा, इसी तरह से निकाल सकते हैं, और निकालते रहते हैं। 

खंडित प्रतिमा का यह चित्र महात्मा के दृढ़ संकल्पित विचार का प्रतीक है। चंपारण से गांधी के आंदोलन, सत्य अहिंसा और अंग्रेजी राज के खिलाफ प्रबल जन प्रतिरोध का आगाज़ हुआ था। निलहे गोरे जमीदारों के शोषण के खिलाफ, चंपारण के एक किसान राजकुमार शुक्ल के कहने पर गांधी चंपारण गए थे। दोनो की यह मुलाकात, कांग्रेस के 1916 के लखनऊ अधिवेशन में हुयी थी। गांधी चंपारण आये। अपनी बात कही। गांधी अपने कुछ जानकार मित्रों और सलाहकारों से गांवों का भ्रमण कराकर किसानों की हालत जानने की कोशिश करते रहे और फिर उन्हें जागरूक करने में जुट गए। 

सत्याग्रह की पहली विजय का शंखनाद और गांधी की बढ़ती लोकप्रियता ब्रिटिश  राज को अखरने लगी थी। उनकी उपस्थिति को सरकार ने शांति व्यवस्था के लिये खतरा बताया। उन्हें समाज में असंतोष फैलाने का आरोप लगाकर चंपारण छोड़ने का आदेश दिया गया। पर गांधी ने कब ऐसे आदेशो को माना था कि वे इस सरकारी आदेश को मान लेते ! गांधी जी ने इस आदेश को मानने से इनकार कर दिया। वे गिरफ्तार कर लिये गए। अदालत में सुनवाई के दौरान गांधी के प्रति व्यापक जन समर्थन को देखते हुए मजिस्ट्रेट ने उन्हें बिना जमानत छोड़ने का आदेश दे दिया, लेकिन गांधी जी अपने लिए कानून के अनुसार उचित सजा की मांग करते रहे। उन्होंने जुर्म स्वीकार किया। बाद में वे रिहा कर दिये गए। 

एक आंदोलन चला। डॉ राजेंद्र प्रसाद सहित बिहार के अनेक नेता उंस आंदोलन में शामिल हुए। गांधी तब इतने लोकप्रिय भी नही हो पाए थे। लोग उन्हें, देख और परख रहे थे। वे भी देश और जनता का मूड भांप रहे थे। अंत मे निलहे गोरे जमीदारों के शोषण का अंत हुआ। यह तब का किसान आंदोलन था। दक्षिण अफ्रीका की ब्रिटिश हुकूमत, गांधी के इस नायाब प्रतिरोध का स्वाद चख चुकी थी, पर भारत के अंग्रेजी हुकूमत के लिए यह एक नयी बात थी। चंपारण ने, सारे भारत का ध्यान अपनी ओर खींचा। ब्रिटिश सरकार झुकी और चंपारण की समस्याओं के लिये एक आयोग बना। गांधी जी को भी इसका सदस्य बनाया गया। सार्थक परिणाम सामने आने लगे थे। 

भग्न गांधी प्रतिमा के यह कदम यूंही छोड़ दिये जाने चाहिए। यह कदम उनकी दृढ़ता और लक्ष्य की ओर संकल्पशक्ति से बढ़ते जाने के प्रतीक हैं। यह कदम उन अज्ञानी और कुंठित गांधी विरोधियों को असहज भी करते रहेंगें, जो आज भी गांधी हत्या का औचित्य निर्लज्जता से साबित करने की कोशिश करते रहते हैं। गांधी अपने विरोधियों के लिये अक्सर हृदयपरिवर्तन की बात करते थे। वह नैतिकता की बात करते थे। नैतिक परिवर्तन की बात करते थे। इतिहास में हृदय परिवर्तन के कुछ उदाहरण मिलते भी हैं। क्या पता उस खंडित प्रतिमा के यह दृढ़ चरण, उनके विरोधियों में से कुछ के मन में, प्रायश्चित बोध भी जगा दें। न भी जगा सकें तो, यह चरण गांधी के अपराजेय संकल्प की याद आने वाली पीढ़ी को तो कम से कम दिलाते ही रहेंगे। 

क्या विडंबना है, जिसके आदर्शों, सिद्धांतों और नीतियों ने दुनियाभर के अनेक दबे कुचले शोषित और गुलाम देशों को साम्राज्यवाद से मुक्ति का मंत्र दिया वह अपने ही देश मे कुछ सिरफिरों के षड़यंत्र और मूर्खता भरे प्रतिशोध का बार बार शिकार बनता है। आज उसी चंपारण में गांधी की प्रतिमा तोड़ दी गई। पर चंपारण की धरती पर आज से सौ साल से भी पहले पड़े गांधी के दृढ़ कदम अब भी उसी तरह जमे हैं। गांधी एक विचार हैं। जिस गांधी ने दुनिया के सबसे विशाल और समर्थ साम्राज्य को अपने कदमो पर झुका दिया था, उन कदमो को उखाड़ना आसान भी नहीं है। 'चल पड़े जिधर दो डग मग मे, चल पड़े कोटि पग उसी ओर !'

(विजय शंकर सिंह)

1 comment:

  1. गाँधी की मूर्ति को तोड़कर, तिरस्कार करके ओछी मानसिकता का परिचय देते मुट्ठीभर लोग गाँधी के विचारों को कभी नहीं मिटा सकते।
    बदलते परिदृश्य में शायद समाज के पतन का अभी और भी विद्रूप चेहरा देखना बाकी है।

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