Sunday 6 February 2022

प्रवीण झा - दक्षिण भारत का इतिहास - तीन (9)

अब इस तमिल फ़िल्मी राजनीति में ऐक्शन की बारी थी। जैसे मर्डर? 

मैंने बातों-बातों में लिखा कि अन्नादुरइ पेरियार की खड़ाऊँ लेकर पार्टी चलाते रहे। कट्टर राम-विरोधी रामास्वामी ‘पेरियार’ इस राम-भरत उपमा को पढ़ कर मुझ पर ही नालिश कर देते। लेकिन, चूँकि अब वह नहीं हैं, तो कुछ छूट ले रहा हूँ। कारण भी प्रस्तुत कर रहा हूँ। 

अन्नादुरइ ने जब डीएमके बनाया, तो उसका अध्यक्ष पद खाली रखा। वह कहते कि एक दिन पेरियार लौटेंगे, और इस कुर्सी पर बैठेंगे। 

1950 में एक बार पेरियार और अन्ना, दोनों को भड़काऊ साहित्य लिखने के लिए त्रिची जेल भेजा गया। दोनों को कारागार में कमरे भी साथ-साथ दिए गए। लेकिन उन दस दिनों तक पेरियार मुँह फुलाए बैठे रहे, अन्ना से एक शब्द न कहा। जब पेरियार और अन्ना आखिर जेल से छूटे, तो बाहर डीएमके के सदस्य सिर्फ़ पेरियार के लिए फूल-मालाएँ लेकर खड़े थे। ज़ाहिर है, ऐसा अन्ना ने ही कहा होगा। पेरियार की आँखों में आँसू आ गए। वे दोनों गुरु-चेला एक ही गाड़ी में बैठ कर जेल से गए।

मगर उसके बाद हमने देखा कि किस तरह कामराज-पेरियार गठजोड़ ने डीएमके को दो चुनावों में शिकस्त दी। 1962 के दूसरे चुनाव में तो पेरियार के भाषणों ने वह प्रभाव किया कि अन्नादुरइ भी हार गए। सिर्फ़ एम करुणानिधि ही चुनाव जीत सके।

उसके बाद 1963 में कामराज ने इस्तीफ़ा दिया, और भक्तवत्सलम नामक एक कमजोर मुख्यमंत्री गद्दी पर बैठे। यह अन्नादुरइ के लिए स्वर्णिम अवसर था, सिर्फ़ उन्हें दमदार मुद्दा चाहिए था। वह मिल गया। वही पुराना मुद्दा यानी ‘हिंदी’।

संविधान में यह तय हुआ था कि पंद्रह वर्ष के बाद राष्ट्रभाषा पर पुनर्विचार होगा। चूँकि अब वह डेडलाइन निकट था, 1963 में ‘आधिकारिक भाषा अधिनियम’ आ गया जिसके अनुसार अब हर सरकारी दस्तावेज़ हिंदी में अनूदित होना आवश्यक था। 

अन्नादुरइ जो अब राज्यसभा पहुँच गए थे, उन्होंने इसका विरोध किया। उनका कहना था कि यह उनके साथ अन्याय है। पंद्रह वर्षों बाद अगर पुनर्विचार की बात थी, तो देखा भी जाए कि कितने लोग हिंदी जानते हैं। बिना सेंसस के यह कैसे थोपा जा सकता है?

जब उनकी अनसुनी कर बिल पास कर दिया गया, तो मद्रास फिर से जल उठा। डीएमके द्वारा संविधान की प्रतियाँ जलायी गयी, तो सबको जेल में बंद कर दिया गया। 1964 की जनवरी में चिन्नास्वामी नामक एक डीएमके नेता ने आत्मदाह कर लिया, जिसमें उनकी मृत्यु हो गयी। आश्चर्यजनक रूप से पेरियार इस बार कांग्रेस के साथ थे, और वे ऐसी आक्रामकता का विरोध कर रहे थे। 

उसी वर्ष नेहरू चल बसे और कामराज की अनुशंसा से लाल बहादुर शास्त्री प्रधानमंत्री बने। वह और उनके सहयोगी मोरारजी देसाई एवं गुलजारी लाल नंदा हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने के प्रयास में थे। 

मद्रास के मुख्यमंत्री भक्तवत्सलम ने एक त्रिभाषा पद्धति का प्रस्ताव रखा, जिसमें अंग्रेज़ी, हिंदी और तमिल तीनों भाषाएँ सीखी जाती। लेकिन, विद्यार्थी इसका विरोध करने लगे कि यह बंधन सिर्फ़ दक्षिण भारतीयों पर क्यों? क्या उत्तर भारतीय भी दक्षिण की भाषा सीखेंगे? उनके लिए भी त्रिभाषा होगी? 

यह आंदोलन अब दलगत राजनीति से ऊपर उठ कर विद्यार्थी आंदोलन में बदल गया था। 26 जनवरी, 1965 को पचास हज़ार छात्रों ने मार्च किया, और न सिर्फ़ मद्रास, बल्कि पूरे दक्षिण भारत में आंदोलन हुए। जब कांग्रेस सरकार ने डंडे बरसाए, तो दंगे भड़क गए। बस जलाए गए, आत्मदाह हुए, और आँकड़ों के अनुसार सौ से अधिक विद्यार्थी पुलिस की गोलियों से मारे गए।

आखिर लाल बहादुर शास्त्री को झुकना पड़ा और उन्होंने आश्वासन दिया कि राष्ट्रभाषा नहीं थोपी जाएगी। मद्रास में आंदोलन रुक गए, तो जनसंघ ने हिंदी के समर्थन में दिल्ली में आंदोलन शुरू कर दिया। वहाँ अंग्रेज़ी के बोर्ड पर स्याही लगायी जाने लगी। कांग्रेस अब इन दोनों गुटों के बीच पिस रही थी।

नतीजा यह हुआ कि कांग्रेस को 1967 के चुनाव में मद्रास में बुरी शिकस्त मिली। के कामराज जैसे समर्पित मुख्यमंत्री को एक 25 वर्ष के विद्यार्थी नेता श्रीनिवासन ने चुनाव में हरा दिया।

मगर इन आंदोलनों से परे इस चुनाव का एक फ़िल्मी टर्निंग प्वाइंट भी था। 

मतदान के पहले पेरियार के शिष्य फ़िल्म अभिनेता एम आर राधा ने अन्नादुरइ के मित्र सिनेमा सुपरस्टार एम जी रामचंद्रन को गोली मार दी!
(क्रमश:)

प्रवीण झा
© Praveen Jha 

दक्षिण भारत का इतिहास - तीन (8)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2022/02/8.html 
#vss

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