Tuesday, 22 February 2022

एक सांस्कृतिक संगठन का राजनीतिक चेहरा / विजय शंकर सिंह

यूपी चुनाव 2022 के चरण जैसे जैसे आगे बढ़ रहे हैं, सत्तारूढ़ दल भाजपा में अपनी सरकार को लेकर चिंता का माहौल बनने लगा है। अब तक के तीनों चरण, जैसी खबरें और चुनाव विश्लेषक, उनका आकलन प्रस्तुत कर रहे हैं, उससे लगता है कि, भाजपा की सरकार गहरे संकट में है। चौथा चरण, जो अवध का क्षेत्र है, और उसे भाजपा का मजबूत इलाका माना जाता है, वहां भी भाजपा को आशातीत सफलता मिलने की उम्मीद नहीं बताई जा रही है। आरएसएस, जो भाजपा का एक थिंकटैंक है, वह इस ज़मीनी हकीकत से अनजान नहीं है और तभी आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने अपने कैडर को इस चुनाव में, अपनी पूरी ताकत लगा देने के लिये कहा है। आरएसएस ने कोई नया काम नहीं किया है, बल्कि हर चुनाव में वह भाजपा के लिये चुनाव प्रचार में उतरता था और अब भी वह उतरा है।

भाजपा और सप की सबसे बड़ी चिंता यूपी चुनाव में हो रही कम बोटिंग है। कयास है कि भाजपा की तरफ झुकाव रखने वाले बोटर बूथ तक नहीं पहुंच रहे हैं। संप के क्षेत्रीय प्रचारकों ने, हाल ही में बूथ संयोजको और अन्य पदाधिकारियों के साथ भाजपा के चुनाव प्रभारी धर्मेंद्र प्रधान भी मौजूदगी में बैठक की और अन्य चरणों के बारे में चर्चा की। भास्कर की खबर के अनुसार, हर विधानसभा में संघ के कार्यकर्ताओं की तरफ से छोटी-बड़ी औसतन 1500 से अधिक मीटिंग की गई है। इस मीटिंग में कार्यकर्ताओं को 2019 के लोकसभा चुनाव से 10% अधिक वोटिंग का लक्ष्य दिया गया है। मतदाताओं को परों से निकालने के लिए कहा गया है। बुजुर्ग मतदाताओं के वोट डलवाने पर जोर दिया गया। नकयुवकों से कहा गया है कि अब तीन चरण ही बचे है और ऐसे में चुनाव प्रचार में पूरी ताक़त से जुट जांय।

आरएसएस, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ खुद को एक सांस्कृतिक संगठन कहता है, और वह चाहता भी है कि लोग उसे एक सांस्कृतिक संगठन के ही रूप में जाने समझें और मानें। पर हर चुनाव में संघ का राजनीतिक एजेंडा खुलकर सामने आ जाता है। इस चुनाव में भी, अब तक की पोलिंग के बाद, संघ की चिंता और भाजपा के पक्ष में उसकी चुनावी रणनीति से यह बात पुनः स्थापित हो रही है। ऐसा बिलकुल भी नहीं था कि, अब तक, संघ का यह स्टैंड साफ नहीं था या इसमें संशय था, बल्कि सच तो यह है कि, भाजपा का पोलिटिकल एजेंडा संघ ही तय करता है,  जो आज भी 1925 के यूरोपीय फासिज़्म की विचारधारा पर आधारित है। आज जब भाजपा की स्थिति 2022 के चुनाव में अच्छी नही दिख रही है तो संघ की बौखलाहट, साफ साफ दिख रही है। पर आरएसएस मे पाखण्ड इतना है कि, यह तुरंत कह देते हैं कि, हम तो राष्ट्र निर्माण के लिये समर्पित हैं। पर उसी राष्ट्र में जब सैकड़ो लोग नोटबन्दी, लॉक डाउन त्रासदी और कोरोना से मरने लगते हैं तो इन्हें, राष्ट्र के नागरिकों की कोई चिंता ही नहीं व्यापती है। तब यह चुपचाप हाइबरनेशन में चले जाते हैं। पर जैसे ही, इन्हें लगा कि, इनकी राजनीतिक शाखा भाजपा अब चुनाव में घिरने लगी तो, यह सामने आए और वोट परसेंटेज बढ़ाने की रणनीति बनाने लगे। 

वोट परसेंटेज बढ़े और अधिक से अधिक लोगों को मतदान के लिये प्रेरित किया जाय, यह एक लोकतांत्रिक कार्य है, और ऐसा अभियान चलाने पर किसी को भी कोई आपत्ति नहीं होगी। पर समस्या, सरकार बनवा देने के बाद, जब जनता, भाजपा के ही संकल्प पत्र में दिए गए वादों पर, सरकार से सवाल पूछती है, तब संघ यह कह कर चुप्पी ओढ़ लेता है कि, वह तो एक गैर राजनीतिक संगठन है। यह तो कच्छप मनोवृत्ति हुयी। शुतुरमुर्ग की तरह, समस्याओं के तूफान से डर कर, गर्दन, रेत में घुसा लेना हुआ। इनसे पूछिये कि, जब 2016 की नोटबन्दी के बाद, सैकड़ों लोग लाइनों में खड़े खड़े मर गए, लघु उद्योग और अनौपचारिक सेक्टर तबाह हो गए, युवा बेरोजगार होकर सड़को पर आ गए, लॉक डाउन में, हज़ारों लोग सड़कों पर पैदल घिसट रहे थे, और, उनमे भी सैकड़ों मर रहे थे, कोरोना में ऑक्सीजन और इलाज के अभाव में लोग दर बदर भटक रहे थे, गंगा लाशों से पट गयी थीं, तब क्या, संघ के किसी भी जिम्मेदार नेता ने, सरकार से गवर्नेंस के इन ज्वलंत मुद्दों और समस्याओं पर पूछताछ की ? सरकार ने बेशर्मी से सुप्रीम कोर्ट में कहा कि, सड़क पर एक भी प्रवासी मज़दूर नहीं है। कोरोना महामारी की दूसरी लहर में कहा कि, देश मे ऑक्सीजन की कमी से कोई नहीं मरा है। क्या आरएसएस को ऐसे निर्लज्ज सरकारी झूठ पर सरकार से जवाबतलब नहीं करना चाहिए था। जबकि, संघ ऐसी हैसियत में था और आज भी है कि वह सरकार से जवाबतलबी कर सकता है। 

जनता के असल मुद्दों, रोजी, रोटी, शिक्षा, स्वास्थ्य के बारे में इनके क्या विचार हैं, इन मुद्दों पर जब आप इनकी आंख में आंख डाल कर सवाल करेंगे, तो यह इन सवालों से बचते नज़र आएंगे,  और कह देंगें कि, हम राजनीतिक दल नहीं है, हम तो सांस्कृतिक संघठन हैं। राजनीतिक सवाल भाजपा से पूछिए। सन 1925 से 1947 तक न तो, आरएसएस स्वाधीनता संग्राम में शामिल हुआ, न ही अपने स्तर से आज़ादी के लिये, संघ ने कोई संघर्ष किया, न तो, कभी धर्म की कुरीतियों के खिलाफ यह खड़े हुए, यहां तक कि, दलितोद्धार के अनेक आंदोलन, उस दौरान चले, आज़ादी के बाद, सामाजिक न्याय के आंदोलन चले, पर यह खामोश बने रहे। खामोश ही नहीं, बल्कि इसके विपरीत, स्वाधीनता संग्राम के सबसे बडे जन अंदोलन, भारत छोड़ो आंदोलन 1942 में, इन्होंने, मुस्लिम लीग के साथ गलबहियां की, उनके साथ हिंदू महासभा के डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने सरकार बनाई, और अब भी, आज़ादी के 75 साल बाद भी, उसी मृत धर्मांध राष्ट्रवाद के एजेंडे पर चल रहे हैं। डॉ मुखर्जी, भारतीय जनसंघ के संस्थापक थे, और आज की भारतीय जनता पार्टी के राजनीतिक रूप से, प्रथम प्रेरणा पुरूष भी हैं। आरएसएस, आज तक यह तय ही नही कर पया कि, इनकी राजनीतिक विचारधारा किस रूप में यूरोपीय फासिज़्म से अलग है, इनकी आर्थिक सोच क्या है, और जिस राष्ट्र के निर्माण की यह बार बार बात करते हैं, उस राष्ट्र की परिकल्पना क्या है।

व्यक्तिगत रूप से मैं अपने अनुभव से कह सकता हूँ कि, आरएसएस के मित्र मिलनसार हैं।इनसे मिलिए जुलिये तो वे, विनम्रता से बात करेंगे। अच्छी भाषा मे बतियाएंगे। संस्कार, चेतना, अस्मिता आदि पर आप को ले जाएंगे साथ ही, आप को बीच बीच मे काल्पनिक रूप से धर्म के आधार पर डराते भी रहेंगे। सामाजिक सद्भाव की बात पर बात बदलने लगेंगे, आप को इराक, सीरिया और अफगानिस्तान तक की सैर करा लें आएंगे। समान नागरिक संहिता पर बात करेंगे, जनसंख्या नियंत्रण पर बात करेंगे, अल्पसंख्यकों के प्रति आप के मन मे संदेह के बीज अंकुरित करने की कोशिश करने लगेंगे। पर समान नागरिक संहिता और जनसंख्या नियंत्रण कानून क्या ड्राफ्ट क्या होगा, इस पर वे कुछ भी स्पष्ट नहीं कहेंगे। इन सब माया जाल को दरकिनार करके, उनसे गवर्नेंस पर बात कीजिए, रोजगार पर बात कीजिए, महंगाई पर बात कीजिए, कृषि और औद्योगिक विकास पर बात कीजिए, और तब आप यह पाइयेगा कि यह इन मुद्दों पर या तो ब्लैंक हैं या कनफ्यूज। सरकार का मूल काम ही गवर्नेंस होता है। जनता की आर्थिक और सामाजिक हैसियत में उत्तरोत्तर वृद्धि होती रहे, और वह सुरक्षित और निर्भय महसूस करे, यह सरकार का मुख्य उद्देश्य होता है। इन सब मुद्दों पर या भाजपा के संकल्पपत्र में किये गए वादों पर आरएसएस न तो सरकार से कुछ पूछता है और न ही भाजपा से। उंसकी चिंता, भाजपा के सरकार में बस बने रहने तक ही सीमित रहती है, जनता के दुख दर्द से उसका कोई सरोकार कभी रहा ही नहीं है। 

(विजय शंकर सिंह)

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