तमिलनाडु में भ्रष्ट मुख्यमंत्रियों और नेताओं की फ़ेहरिस्त उत्तर भारत से कम नहीं। वहाँ के मुख्यमंत्री से लेकर केंद्रीय मंत्री तक भ्रष्टाचार के लिए जेल काटते रहे हैं। लेकिन, अगर आप तमिलनाडु जाएँ तो जमीन पर अच्छी सड़कें, उद्योग, बिजली, शिक्षा, परिवहन सब दिख सकता है।
यह राज्य महाराष्ट्र के बाद सकल घरेलू उत्पाद में दूसरे नंबर पर है। 54 प्रतिशत तमिलनाडु शहरीकृत है। प्रति व्यक्ति आय 1,28,366 है, जो राष्ट्रीय औसत 86,879 से कहीं अधिक है (2014-15 के आँकड़े)। साक्षरता लगभग अस्सी प्रतिशत है। इसमें अगर कामराज ने ज्योति जलायी, तो करुणानिधि ने इसे रफ्तार दी।
वह ‘शो-मैन’ तो थे ही, पूँजी-प्रबंधन में भी उस्ताद। वह और एमजीआर साथ मिल कर सिनेमा कंपनी चलाते थे, और एमजीआर धन का हिसाब रखते थे। जब डीएमके की पहली सरकार बनी, तो करुणानिधि ने एमजीआर को ही दल का कोषाध्यक्ष बनाया। पेरियार और अन्नादुरइ भी कुशल व्यवसायी रहे थे। पेरियार सफल पत्रिका तो चलाते ही थे, बाद में हर मंच या साक्षात्कार के लिए एडवांस फीस लेते थे। फोकट में किसी उद्घाटन में नहीं पहुँच जाते।
करुणानिधि को यह भी लगा कि उद्योगों की राह में कम्युनिस्ट रुकावट बन सकते हैं। इस कारण उन्होंने तमाम वामपंथी ट्रेड यूनियनों से अलग अपनी एक ट्रेड यूनियन बना ली। उसके बाद उन्होंने कम्युनिस्टों के साथ साम-दाम-दंड-भेद सभी किए। उन्होंने कहा,
“आप यूनियनबाजी कर अगर उद्योगों की प्रगति रोक देंगे, तो न उद्योग बचेगा, न श्रम।”
डीएमके में कुछ दबंग-प्रवृत्ति के लोग पहले से थे। उन्होंने कम्युनिस्ट यूनियन नेताओं को धमका कर किनारे करना शुरू किया। एक उदाहरण देता हूँ।
अप्रिल, 1971 में मद्रास रबर फ़ैक्ट्री (MRF) में कम्युनिस्ट यूनियनों ने हड़ताल किया। यह महीनों खिंचता गया। करुणानिधि उस समय उद्योगों को तमिलनाडु में ला रहे थे, तो यह हड़ताल उनकी छवि खराब कर रही थी। हज़ारों लाल झंडे मद्रास में मार्च कर रहे थे। उस समय करुणानिधि ने पुलिस दमन तो किया ही, कम्युनिस्टों को ‘नक्सल’ और ‘मलयाली’ कहा, जो तमिलों की प्रगति से जलते हैं। कम्युनिस्ट मैथिली शिवरामन के अनुसार डीएमके ने कुछ नकली मजदूरों को सौ रुपए प्रति दिन देकर काम पर भेज दिया, और दिखाया कि हड़ताल से सबकी सहमति नहीं है।
बड़े कम्युनिस्ट नेताओं को जेल में बंद किया गया। सबसे प्रखर ट्रेड यूनियन नेता वी. पी. चिंतन एक दिन बस से जा रहे थे, कि डीएमके के बीस-बाइस गुंडे आए और उनको लाठियों और चाकू से मारा। एक चाकू उनकी छाती में घुसेड़ दी गयी, और फेफड़े के ऑपरेशन के बाद वह जैसे-तैसे बचे।
केरल में कम्युनिस्टों की सत्ता और मद्रास में उनके लगभग माउथपीस ‘द हिंदू’ होने के बावजूद तमिलनाडु में कम्युनिस्ट क्यों नहीं चल सके?
इस प्रश्न का एक उत्तर काले चश्मे में बैठे करुणानिधि हैं, जिन्होंने उनकी जगह अपने द्रविड़ मुनेत्र कड़गम से बदल ली। ऐसा नहीं कि उनकी सोच कम्युनिस्टों से बहुत अलग थी। नास्तिक तो थे ही, स्तालिन की मृत्यु से चार दिन पूर्व जन्मे अपने पुत्र का एक नाम भी उन्होंने स्तालिन रखा। लेकिन, मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी को उन्होंने दबा कर रखा, ताकि एक तरफ़ उद्योग बढ़ सके, दूसरी तरफ़ दलित वोट न बँटे।
कम्युनिस्ट तो निपट रहे थे, मगर इंदिरा गांधी के साथ-साथ करुणानिधि की 1971 की भारी चुनावी जीत के बाद एक काँटा उभर गया था। एमजीआर खुल कर आरोप लगा रहे थे कि करुणानिधि धन को अपने परिवार की ओर मोड़ रहे हैं। वह पारदर्शिता की माँग कर रहे थे। यह बात ग़लत नहीं थी। करुणानिधि अब अपने पुत्र एम. के. मुथु को फ़िल्मों का सुपरस्टार बनाना चाहते थे।
एमजीआर ने जब प्रेस में सार्वजनिक विरोध शुरू किया, तो उनको दल से निकाल दिया गया। पेरियार ने भी कहा,
“वह हम में से एक था ही नहीं। एक अभिनेता था जो टैक्स चुराने के फेर में राजनीति में आ गया। उसे हमारे आंदोलन से कोई लेना-देना नहीं था।”
1972 में तमिलनाडु में एक नयी पार्टी बनी। एम जी आर की पार्टी जिसे करुणानिधि ने कुछ ‘अभिनेताओं का जमावड़ा’ कह कर ख़ारिज किया।
पहले बनी थी पेरियार की ‘द्रविड़ कड़गम’
फिर अन्नादुरइ ने बनायी ‘द्रविड़ मुनेत्र कड़गम’
अब एमजीआर ने बनायी ‘अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कड़गम’
जो बाद में बदल कर बनी, ‘ऑल इंडिया अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कड़गम’
दलों के नाम चुटकुलों के तमिल नामों की तरह लंबे होते जा रहे थे।
(क्रमशः)
प्रवीण झा
© Praveen Jha
दक्षिण भारत का इतिहास (12)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2022/02/12.html
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