Monday, 7 February 2022

प्रवीण झा - दक्षिण भारत का इतिहास - तीन (11)

            (चित्र: इंदिरा-करुणानिधि)

“यह रामन कौन था? किस सिविल इंजीनियरिंग विभाग में पढ़ता था? उसने श्रीलंका जाने के लिए पुल कब बनाया? ये रामायण कुछ नहीं है, आर्यों और द्रविड़ों के संघर्ष पर आधारित मिथकीय रूपक-काव्य है”

- एम. करुणानिधि, हिंदू संगठनों द्वारा ‘सेतुसमुद्रम जहाजरानी नहर परियोजना’ के विरोध पर, 2007 [यह परियोजना राम-सेतु के ध्वंस होने की शंका के कारण रुकी हुई है]

अगर पेरियार को स्वयं चुनना होता, तो करुणानिधि को ही उत्तराधिकारी चुनते। अन्नादुरइ पेरियार के शिष्य होकर भी पूरी तरह नास्तिक नहीं थे। चुनाव के समय उन्होंने वोट-राजनीति के लिए अपने नाम में मुडलियार उपनाम भी जोड़ लिया था। एमजीआर तो कभी पेरियार-वादी थे ही नहीं। न ही पक्के तमिल थे (वह श्रीलंकाई मलयाली थे)। एक सुपरस्टार होने के नाते उन्हें करुणानिधि ने भीड़ इकट्ठा करने के लिए टिकट दिलवाया था। जबकि करुणानिधि बचपन से पेरियार-वादी, कट्टर ब्राह्मण-विरोधी और नास्तिक थे। 

1968 में अन्नादुरइ सरकार को विधानसभा में घेरा गया क्योंकि उनके अनुसार करुणानिधि के रजती नामक स्त्री से विवाहेतर अवैध संबंध थे। करुणानिधि ने आरोपों से बचाव करने के बजाय खुल कर कहा, 

“यह वैध-अवैध क्या किसी धर्मग्रंथ में लिखा है? रजती मेरी बेटी कणिमोली (kanimozhi) की माँ है, और माँ शब्द की व्याख्या के लिए किसी ग्रंथ की ज़रूरत नहीं”

एक कुशल पटकथा-लेखक ‘कलइनार’ करुणानिधि ने राजनीति की भी स्क्रिप्ट पहले से लिख दी थी। सलीम-जावेद से बहुत पहले पोस्टर पर निर्देशक की बजाय लेखक का नाम लिखा आता था- ‘करुणानिधि की फ़िल्म…’। वह हर फ़िल्म में चार-पाँच मिनट की कोई कचहरी दलील या यूँ ही एक ‘मोनोलॉग’ (एकालाप) रखते, जिसमें वह अपने क्रांतिकारी विचार डाल देते। कभी पर्दे पर उसे शिवाजी गणेशन, कभी एमजीआर, तो कभी शॉल लपेटे स्वयं करुणानिधि निभाते। 

वह एक उम्दा ‘मीडिया मैनेजर’ थे, जिन्होंने मद्रास में ‘कट आउट’ संस्कृति लायी। अन्नादुरइ, एमजीआर और अपने आदमकद कट-आउट सड़कों पर लगवाए। वह ये सिद्ध करना चाहते थे कि अन्नादुरइ के बाद अगले मुख्यमंत्री वही बनेंगे। इसका एक रोचक क़िस्सा और है। 

चुनावी जीत के बाद अन्नादुरइ ने भीड़ के सामने कहा, 

“आज इन युवा लफंगों ने हमारी पार्टी को इतनी बड़ी जीत दिलाई। मैंने पूछा कि क्या चाहिए, माँगो! करुणानिधि ने कहा कि एक अंगूठी चाहिए। मैंने कभी अपनी पत्नी के लिए एक अंगूठी नहीं खरीदी, मगर इसके लिए मुझे बाज़ार जाकर अंगूठी लानी पड़ी।"

बाद में पता लगा कि यह अंगूठी भी करुणानिधि ने दी थी, और भाषण का स्क्रिप्ट भी खुद ही लिखा था। वह जनता के सामने अन्नादुरइ से अंगूठी लेकर स्वयं को उत्तराधिकारी दिखाना चाहते थे। बाकी काम एमजीआर ने कर दिया। जब करुणानिधि के कहने पर उन्होंने प्रस्ताव रखा तो ‘कलाइनार’ को मुख्यमंत्री बनाना ही पड़ा। 10 फरवरी, 1969 को उन्होंने शपथ ली। 

कुर्सी पर बैठने के बाद तो सिनेमा खत्म, और असल खेल शुरू था। बहुत कुछ तेजी से बदल रहा था। सबसे पहले तो करुणानिधि ने मद्रास का नाम बदल कर ‘तमिलनाडु’ किया। लेकिन बात सिर्फ़ मद्रास की नहीं थी, देश बदल रहा था।

1966 में लाल बहादुर शास्त्री की मृत्यु के बाद के कामराज ने इंदिरा गांधी को प्रधानमंत्री पद तो दिया, लेकिन उनको लोहिया और अन्य नेता ‘गूँगी गुड़िया’ कहने लगे। कांग्रेस सिंडिकेट के बुजुर्ग भी उनसे प्रसन्न नहीं थे। इंदिरा गांधी नाप-तौल कर अलग राह बना रही थी। उन्होंने वित्त मंत्री मोरारजी देसाई से मशविरे के बिना बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर दिया। पहाड़ तब टूट पड़ा जब उन्होंने कांग्रेस के राष्ट्रपति प्रत्याशी निजलिंगप्पा के बजाय स्वतंत्र प्रत्याशी तमिल नेता वी वी गिरि का समर्थन कर दिया। 

नवंबर, 1969 में इंदिरा गांधी को कांग्रेस से निकाल दिया गया। कांग्रेस दो फाँकों में बँट गयी- कांग्रेस (O) यानी Organisation और कांग्रेस (R) यानी Requisition । कामराज, मोरारजी, निजलिंगप्पा जैसे सभी बुजुर्ग अब इंदिरा गांधी से अलग थे।

उस समय एम करुणानिधि ने इंदिरा गांधी को ऐसा ऑफर दिया, जिसे वह ठुकरा न सकी। उन्होंने कहा कि वह लोकसभा में उन्हें समर्थन देंगे, मगर बदले में उन्हें अगले विधानसभा चुनाव में पूर्ण समर्थन देना होगा। इंदिरा गांधी तमिलनाडु में अपना एक भी प्रत्याशी नहीं खड़ी करेगी, और डीएमके के लिए प्रचार करेगी।

यह शुरुआत थी करुणानिधि के उस खेल की, जिससे वह केंद्र सरकार की पेंच समय-समय पर कसते रहे। पेरियार ने कहा, 

“अब एक तरफ़ बूढ़े कामराज और राजाजी की जोड़ी है, दूसरी तरफ़ युवा इंदिरा और करुणानिधि की। अगर प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री हाथ मिला कर राज्य चलाए, तो तमिलों का भला ही होगा। मैं इस युवा जोड़ी का समर्थन करता हूँ।”

इंदिरा और करुणानिधि, दोनों को, अब चुनाव में साबित करना था कि उनमें अकेले कितना दम है। करुणानिधि को अपने रास्ते में दो काँटे दिख रहे थे। एक तो कम्युनिस्ट, जो धीरे-धीरे एक नक्सल आंदोलन में बदल कर, दलितों के तारणहार बन रहे थे। 

दूसरे, उनके मित्र एमजीआर। करुणानिधि कुर्सी पाकर भी उस ग्लैमर को नहीं पा सके थे, जो एमजीआर के पास था। दोनों जब भी साथ मंच पर जाते, तमाम महिलाएँ और जनता करुणानिधि को छोड़, एमजीआर के ऑटोग्राफ़ के लिए दौड़ जाती।

अब उन्हें इस स्क्रिप्ट का आखिरी सीन लिखना था। इस सीन का थोड़ा-बहुत आइडिया इंदिरा गांधी से मिल ही गया था, लेकिन करुणानिधि को कुछ अपना कलइनार ‘टच’ डालना था। 
(क्रमशः)

प्रवीण झा
© Praveen Jha 

दक्षिण भारत का इतिहास - तीन (10)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2022/02/10.html 
#vss 

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