“तुम्हारा इस्तीफ़ा संपूर्ण तमिल समाज और तुम्हारे लिए आत्मघातक होगा”
- पेरियार द्वारा के कामराज को लिखी चिट्ठी, 1963
द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (DMK) एक राजनैतिक ताकत तो नहीं, मगर सांस्कृतिक ताकत ज़रूर बनता जा रहा था। अन्नादुरइ के नेतृत्व में करुणानिधि, एमजीआर और मुरासोली मारन जैसे फ़िल्मी दुनिया के लोग जनता पर प्रभाव डाल रहे थे। जहाँ कामराज ने जनता को कुशल प्रशासन दिया था, वहीं अन्नादुरइ ने तमिल श्रेष्ठताबोध दिया था। अब वे भारत के अंग होकर भी कई मामलों में स्वतंत्र अस्तित्व से जी रहे थे।
उनके अपने उद्योग थे, जो अर्थव्यवस्था संभाल रहे थे। उनकी भाषा के साथ छेड़-छाड़ नहीं हुई थी। उनका फ़िल्म उद्योग बंबई से अलग अपनी पहचान बना रहा था। शिवाजी गणेशन अंतरराष्ट्रीय मंच पर सर्वश्रेष्ठ अभिनेता पुरस्कार पाने वाले पहले भारतीय बने। मंडल कमीशन से दशकों पहले वहाँ पिछड़ा आरक्षण व्यवस्था थी। राजाजी के बाद तो राजनीति से भी ब्राह्मण नदारद थे।
उन्हीं दिनों पेरियार समर्थकों का वह नारा आया, जो बाद में उत्तर भारत में भी लोकप्रिय हुआ, “पापन (ब्राह्मण) और साँप अगर एक साथ दिखें, तो पहले पापन को कुचलना चाहिए”
अस्सी वर्ष की ओर बढ़ रहे पेरियार उम्र के साथ आक्रामक ही होते जा रहे थे। उन्होंने ब्राह्मणों के जनेऊ तोड़ने और शिखा काटने का आह्वान कर दिया। उनका कहना था कि इन प्रतीकों को खत्म कर ही ब्राह्मणवाद जड़ से मिटेगा। ब्राह्मण यूँ भी भीरू और अति - अल्पसंख्यक थे। वे इस आह्वान के बाद शिखा छोटी रखने या छँटाने लगे। जनेऊ को कपड़ों के अंदर छुपाने लगे। फिर भी, कुछ को पकड़ कर सार्वजनिक रूप से जनेऊ तोड़ा ही गया।
मद्रास में कई ‘ब्राह्मण भोजनालय’ की भी रीति रही थी, जो उत्तर भारत के वैष्णव भोजनालय की तरह थी। वहाँ ब्राह्मणों द्वारा बना शुद्ध शाकाहारी भोजन मिलता, हालाँकि वहाँ भोजन सभी जातियों के लोग करते थे।
पेरियार ने अपने अक्खड़ अंदाज़ में कहा,
“यह ब्राह्मण भोजनालय का अर्थ क्या है? क्या बाकी भोजनालय शूद्र और अशुद्ध हैं? जैसे आप किसी घर के बाहर लिख दें- सुशील स्त्री। मुहल्ले की बाकी स्त्रियाँ क्या कहलाएँगी?”
उनके समर्थक मद्रास की गलियों में घूम-घूम कर भोजनालयों से ब्राह्मण शब्द मिटाने लगे। अब कामराज के लिए भी ये उपद्रवी गले की हड्डी बन गए थे। उन्होंने ब्राह्मण-विरोधी नफ़रती भाषणों के लिए पेरियार को गिरफ़्तार कर लिया।
मगर जेल से छूटते ही पेरियार अपने समर्थकों के साथ एक झोले में रामायण, मनुस्मृति और भारतीय संविधान, तीनों लेकर सार्वजनिक दहन करने आ गए। आखिर कामराज को एक कानून लाना पड़ा- ‘राष्ट्रीय अस्मिता हानि निरोधक कानून’। इसके अनुसार किसी भी राष्ट्रीय संपत्ति या प्रतीक को यूँ हानि नहीं पहुँचायी जा सकती थी।
जनता भी पेरियार को अब एक सनकी वृद्ध के रूप में देखने लगी थी। अन्नादुरइ के DMK ने इस तरह आगजनी या स्याही पोतने का कार्य बंद कर दिया था। वे यही बातें विधानसभा में, अखबारों में, फ़िल्मों में ज़रूर कहते, मगर दंगा नहीं करते।
जब 1962 में चुनाव हुए, तब तक राजाजी ने कांग्रेस से अलग ‘स्वतंत्र पार्टी’ बना ली थी। DMK एक सशक्त दल के रूप में उभर आया था। कांग्रेस का मजबूत पक्ष था, पिछले दशक में हुआ विकास। मगर जब डीएमके के भेजे तमिल फ़िल्मी अभिनेता मंच पर आते, तो नीरस कांग्रेसियों को कौन सुनता?
उस समय बूढ़े पेरियार ने फिर से कामराज की जीत के लिए जी-जान लगा दी।
वह कहते, “चाहे कोई लकड़ी का डंडा भी कामराज का प्रत्याशी है, तो उसे ही वोट दो। वही तमिलों का सच्चा हितैषी है”
चुनाव प्रचार में घूमते, मंचों पर चिल्लाते हुए, पेरियार इतने थक गए कि उन्हें आखिर अस्पताल जाना पड़ा। अस्पताल में लेटे हुए ही उन्हें खबर मिली- कामराज पुन: चुनाव जीत गए हैं। पेरियार का परिश्रम सार्थक रहा।
लेकिन, अब केंद्र में स्थिति डाँवा-डोल हो रही थी। नेहरू बूढ़े हो चले थे। चीन युद्ध में करारी हार के बाद वह जनता से नज़रें मिलाने की हालत मे नहीं थे। कांग्रेसी नेताओं पर अपने आदर्शों को भुलाने और सत्ता-मोह का आरोप लग रहा था।
उस समय के कामराज ने नेहरू से मिल कर कहा, “पंडित जी! अब हमें अपने पद त्याग कर संगठन के कार्य में लगना होगा।”
“ऐसा है तो मैं ही शुरुआत करता हूँ”, नेहरू ने कहा।
“नहीं, पंडितजी! आपको तो प्रधानमंत्री रहना ही होगा। मैं और कुछ अन्य नेता अपना पद त्याग रहे हैं।”
1963 की गांधी जयंती को कामराज ने अपना मुख्यमंत्री पद त्याग दिया। उनके बाद लाल बहादुर शास्त्री, बीजू पटनायक, जगजीवन राम, मोरारजी देसाई जैसे नेताओं ने भी इस्तीफ़ा दे दिया। यह कहलाया ‘कामराज प्लान’। नेहरू ने उन्हें दिल्ली बुला कर कांग्रेस सिंडिकेट का अध्यक्ष बना दिया।
यह काफ़ी हद तक राजनैतिक आत्महत्या थी। कांग्रेस मद्रास में फिर कभी सरकार नहीं बना सकी। लेकिन, अपनी आहूति देकर कामराज ने कांग्रेस को डूबने से बचा लिया। ख़ास कर, जब उन्होंने नेहरू के उत्तराधिकारी रूप में मोरारजी देसाई नहीं, बल्कि लाल बहादुर शास्त्री को उचित समझा।
(क्रमश:)
प्रवीण झा
© Praveen Jha
दक्षिण भारत का इतिहास - तीन (7)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2022/02/7.html
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