Tuesday, 9 March 2021

फ़िल्म नील आकाशेर नीचे, महादेवी वर्मा और मृणाल सेन / नारायण सिंह

महादेवी वर्मा और मृणाल सेन!  कहाँ हिंदी की छायावादी साहित्यकार और कहाँ एक मार्क्सवादी दृष्टि से संपन्न फिल्मकार.  दो नामों को एक साथ देखकर मित्रों को आश्चर्य हो सकता है, लेकिन उन्हें नहीं, जिन्होंने मृणाल सेन की फिल्म ‘नील आकाशेर नीचे’ देखा है. इस फिल्म में हेमंत कुमार की मनोहारी धुन में उन्हीं का लिखा और गाया एक गीत है, 
‘ओ नोदी रे, एकटी कोथा शुधाय शुधू तोमारे
बोलो कोथाय तोमार देश, तोमार नेई की चोलार शेष
तोमार कोनो बांधन नाइ, तुमी घोर छाडा कि ताइ
अई आछो भाटाए आर, अई तो देखी जोआर ए 
ओ नोदी रे! एकटी कोथा…’
(ओ प्रिय नदी! तुमसे केवल यही पूछना है, कि तुम कहाँ की रहने वाली हो, क्या तुम्हारी राह कभी खत्म नहीं होती! तुम पर कोई  बंधन नहीं, इसलिए कि तुम्हारा कोई घर नहीं! पल में घटती, पल में बढ़ती, बताओ ओ नदी, तुम्हारा कहाँ है घर, क्या तुम कभी विश्राम नहीं करती….!) 
(इस गीत को फिल्म ‘सिद्धार्थ’ में भी साभार लिया गया है.) 

बहरहाल, यह फिल्म इस नदी जैसे ही बेघरबार एक चीनी फेरीवाले पर लिखे गए महादेवी वर्मा के रेखाचित्र/कहानी पर आधारित है, जो 1925 में एक पत्रिका (शायद ‘पद्म पराग’) में छपी थी. आश्चर्य यह सोचकर होता है कि हिंदी फिल्मकारों की नज़र से सर्वथा अलक्षित यह कहानी किस प्रकार मृणाल सेन तक पहुँची होगी और किस प्रकार उन्होंने एक रेखाचित्र मात्र से उस चीनी फेरीवाले और स्वदेशी आंदोलन में भाग लेती एक बंग महिला के बीच भाई-बहन की प्रेम-कथा में ढालकर इस अद्भुत फिल्म का निर्माण किया होगा! वास्तव में, सत्यजीत रॉय, मृणाल सेन, ऋत्विक घटक और तपन सिन्हा जैसे फिल्म निर्देशकों का वह दौर बांग्ला सिनेमा का (नव)जागरण काल था, जहाँ तक हमारा हिंदी सिनेमा आज तक पहुँच पाने में समर्थ नहीं हो सका है.

यह फिल्म कथित रूप से प्लैटो द्वारा व्याख्यायित {Love, that (is not sexual and)  concerns rising through levels of closeness to wisdom and true beauty from carnal attraction to individual bodies to attraction to souls, and eventually, union with the truth 
(दैहिक आकर्षण से परे आत्मिक आकर्षण और अंत में सत्य के साथ एकाकार होना)}- रोमांटिकेतर/प्लैटोनिक प्रेम की कहानी है, जिसका एक हल्का-सा संकेत चेखव की प्रेम-कहानी ‘द लेडी विद द डॉग’ के प्रसंग में मैंने पिछले किसी पोस्ट में मीरा (और राधा सहित सभी गोपियों को भी जोड़ लिया जाए) के संदर्भ में किया था. महादेवी वर्मा की कहानी में ऐसे प्रेम की कोई झलक नहीं, और न स्वदेशी आंदोलन की चर्चा है. वहाँ केवल सहानुभूति और करुणा की अभिव्यक्ति देखी जा सकती है. लेकिन लेखिका की करुणा एवं सहानुभूति की इस आधारभूमि पर खड़े होकर, यह आसानी से अनुमान लगाया जा सकता है कि इस रेखाचित्र की निम्नलिखित पंक्तियों से प्रेरित होकर ही मृणाल सेन ने अंगरेजों के विरोध में स्वदेशी आंदोलन में हिस्सा लेने वाली कलकत्ते की एक महिला और उस चीनी फेरीवाले के बीच भाई-बहन के स्नेह-संबंध को पिरोया होगा : ‘चीनी (फेरीवाले) की गठरी में से कई थान मैं अपने ग्रामीण बालकों के कुर्ते बना-बना कर खर्च कर चुकी हूँ, परंतु अब भी तीन थान मेरी आलमारी में रखे हैं और लोहे का गज दीवार के कोने में खड़ा है. एक बार जब इन थानों को देखकर एक खादी भक्त बहन ने आक्षेप किया था- जो लोग बाहर विशुद्ध खद्दरधारी होते हैं, वे भी विदेशी रेशम के थान खरीदकर रखते हैं, इसी से तो देश की उन्नति नहीं होती- तब मैं बड़े कष्ट से हँसी रोक सकी.’

फिल्म में मूल कहानी को जहाँ-तहाँ परिवर्तित/परिवर्द्धित कर दिया गया है. फिर भी, दोनों कहानियों में चीनी फेरी वाले की एक बहन होती है, जिसके साथ जबदस्ती की गई है और वह उस दुख की वजह से एक दिन अपने छोटे भाई और सौतेली माँ के घर को छोड़ जाती है. लेकिन फिल्म में उसके लापता होने की वजह भाई को बताया गया है, जो यह जानते हुए कि उसकी ‘इज्जत’ चीनी जमींदार के हाथों बीमार भाई की जान की रक्षा के लिए गई है, उसे ही दोष देते हुए घर से निकाल देता है (जैसा कि हमारे समाज के कुलीन घरों में हुआ करता है) और अपने देश से विरक्त हो कलकत्ते आकर एक ‘चीनी मोहल्ले’ में अन्य चीनियों के साथ रहते हुए शहर की गलियों में कपड़े बेचता चलता है. इस दौरान उसकी भेंट उस स्वदेशी बंग महिला से उसके घर पर होती है जिससे वह कपड़े खरीदने का आग्रह करता है. महिला विदेशी कपड़ों के वहिष्कार की नीति के तहत कपड़े नही लेना चाहती और इस नोक-झोंक में उसके मुख से ‘नहीं लेना है, भाई’ निकलता है और तत्क्षण फेरीवाला उसमें अपनी खोई हुई बहन की छवि देखता है और स्नेह के वशीभूत एक बार उसे ब्रिटिश पुलिस के चंगुल से अपने को खतरे में डालकर बचा लेता है. तथापि, उसकी ‘सिस्तर’ को आखिरकार कई साल के लिए जेल जाना पड़ता है. इस दौरान अपनी खोई हुई बहन के प्रति जो गुस्सा था, वह भारतीय ‘सिस्तर’ की तार्किक व्याख्या से दूर हो जाता है. वह उसके जेल से आने का इंतज़ार करता है और उसके आने के बाद, उससे प्रेरित होकर अपने मुल्क चीन, जिस पर जापान ने आक्रमण कर दिया है, की रक्षा में लड़ने को वापस चला जाता है, और उसकी ‘सिस्तर’ बसंती उसके मुल्क जाने वाली जहाज तक उसे छोड़ने जाती है.

इस फिल्म की कहानी में अनेक परतें हैं. संवेदना, देश-प्रेम और उन भावों के लिए पत्नी-पति के बीच मनमुटाव आदि जैसे नाटकीय, पर स्वाभाविक लगते भावुक दृश्यों के बीच से यात्रा कराती हुई यह फिल्म हम पर दार्शनिक प्रभाव छोड़ती है. 

इस फिल्म के उपर्युक्त बांग्ला गाने को सुनकर हेमंत कुमार का गाया एक और गीत याद आता है, जो हिंदी में बनी ‘काबुलीवाला’ (1961) में है. सलिल चौधरी के संगीत और गुलजार के उस गीत का मुखड़ा और दो चरण देखे जा सकते हैं-  गंगे, आए कहाँ से तू गंगे जाए कहाँ रे; लहराए पानी में जैसे धूप छाँव रे!.../ काँच कोई माटी कोई रंग बिरंगे प्याले/ प्यास लगे तो एक बराबर जिस में पानी डाले, लहराए…/ नाम कोई बोली कोई लाखों रूप और चेहरे/ खोल के देखो प्यार की आँखें सब तेरे संग मेरे रे, लहराए पानी में जैसे धूप-छाँव रे’. संदर्भत: स्पष्ट है कि रवि ठाकुर की कथा पर आधारित तपन सिन्हा की वह बांग्ला और हेमेन गुप्ता द्वारा निर्देशित हिंदी फिल्म ‘काबुलीवाला’ भी जरूर याद आएगी. उस फिल्म में फेरी लगाने वाला काबुलीवाला अपनी बेटी की छवि एक बच्ची में देखता है, तो यहाँ एक चीनी फेरीवाला अपनी बहन की छवि एक महिला में. 

बहरहाल, फिल्म का मज़ा उसे देखने में है. ये जरूर है कि उससे पहले महादेवी वर्मा का लिखा रेखाचित्र / कहानी पढ़ लेना इस बांग्ला फिल्म को समझने में सहायक हो सकता है. वैसे फिल्म के संवाद, विशेषकर बासंती और चीनी वांग लू के बीच, ज्यादातर सांकेतिक हैं, और दूसरे पात्रों के बीच की भाषा भी आसानी से समझी जा सकती है.

नारायण सिंह
( Narain Singh )

यह फ़िल्म आप यूट्यूब के इस लिंक पर देख सकते हैं। 
https://youtu.be/OSiEMWDaZCk
( विजय शंकर सिंह )

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