हमने सोम लता पर अपनी चर्चा यह सोच कर नहीं आरंभ की थी इसका इतना विस्तार हो जाएगा। इसका समाहार करते हुए, हम कुछ महत्वपूर्ण बिंदुओं का मात्र उल्लेख करते हुए इस प्रकरण को समाप्त करेंगे, जिससे मूल विषय पर लौट सकें।
( 1) कुछ लोगों का यह दावा कि इसमें पत्ती नहीं होती थी, गलत है।[1] इसमें पत्ती की बहुुतायत होती थी और इसीलिए इसे सुपर्ण कहा गया और इसकी एक पत्ती के कट कर गिरने से पर्ण (पलाश) की उत्पत्ति बताई गई। दिव्य सोम के संदर्भ में सुपर्ण पार्थिव सोम का आरोपण है और वहाँ चन्द्रमा के आकाश में चलने के आधार पर उसे उसी तरह सुपर्ण कहा गया है जैसे सूर्य को पतंग कहाा: जाता है:
(सुपर्णं विप्रा कवयो वचोभिरेकं सन्तं बहुधा कल्पयन्ति ।
छन्दांसि च दधितो अध्वरेषु ग्रहान्त्सोमस्य मिमते द्वादश ।। 10.114.5)
[1] Roxburgh, the first official superintendent of the East India Company's botanical garden in Calcutta during 1793-1814 (Flora India,Flora India), identified the plant, locally known as Soma-lata with Sarcostemma brevistigma (=Asclepios acida), 'a leafless bush of green succulent branches, growing upwards with flowers like those of an onion'. He also pointed out that a different plant, a rue called Ruta graveolens, was also called Soma-lata. देखों, रोजेश कोछड़, पूर्वोद्धृत)]
(2) वन्य रूप में यह पहाड़ी (गिरिषु हि सोम, शत.ब्रा. 3.3.4.7 ) और नदियों के कगारों के ढलान पर उगा करता था (सिन्धोरिव प्रवणे निम्न आशवो वृषच्युता मदासो गातुमाशत)।
(3) इसके गूदेदार छिलके को पीसकर बूँद दो बूँद नशीला रस नहीं निकाला जाता था। रस इसके भीतर के फुप्फुस में होता था, और इसके नीरस-कठोर छिलके के कारण, इसकी गेड़ियाँ बनाई जाती थीं और इनको कूट, कुचल या पेर कर, रस निकाला जाता था। पहली बार (प्रातःसवन) में निकला रस अधिक मीठा होता था और (अग्नि और ब्राह्मण का भाग होता था)। इसे पका कर इच्छित विपाक (गुड़ या भेली) बनाया जाता था। पहली बार में पूरा रस नहीं निकल पाता था, इसलिए, इस पर पानी का छिड़काव (आप्यायन) किया जाता था (आप्यायमानो अमृताय सोम)। इससे दुबारा रस निकाला जाता था, इसे दूसरा सवन या पुरोहिती भाषा में माध्यन्दिन सवन कहा जाता था और इसका पान स्वामिवर्ग (इन्द्र, वायु, क्षत्रिय) करते थे (माध्यंदिनस्य सवनस्य धानाः पुरोळाशमिन्द्र कृष्वेह चारुम् )। खोइये में मिठास फिर भी बची रह जाती थी। पानी का छिड़काव तिबारा करके, इसका रस निकाला जाता था, इसे तृतीय सवन कहा जाता था। अनुगतों, दक्षकर्मियों और सोम के अधिकारी माने जाने वाले समादृत जनों (ऋभुओं, वैश्यों और विश्वदेवों) का भाग यही माना जाता था। इसके बाद ही इसे खोइया (ऋजीष) माना जाता था। परन्तु यह शास्त्रीय विभाजन था जो दैनंदिन के व्यवहार से कोई संबंध नहीं रखता था। इसमें ग्राह्य केवल यह है कि सोम का रस निकालने के लिए एक ही प्रक्रिया को कई बार दोहराया जाता था, शेष कर्मकांडीय लफ्फाजी है।
(4) वैदिक काल से पहले से ही सोम की खेती होने लगी थी और इसके विपाक का व्यापारिक विनिमय में प्रयोग हो रहा था :
ईमान इमा भुवनानि वीयसे युजान इन्दो हरिः सुपर्ण्यः ।
तास्ते क्षरन्तु मधुमद् घृतं पयस्तव व्रते सोम तिष्ठन्तु कृष्टयः ।। 9.86.37
इसके बीज नहीं होते थे। इसके डंठल को ही काट कर बीज की तरह बोया (रोपा) जाता था और इसके टुकड़े करते समय इस बात की सावधानी बरती जाती थी कि इसका आँखा टूटने या कटने न पाए [वपन्तो बीजमिव धान्याकृतः पृञ्चन्ति सोमं न मिनन्ति बप्सतः ।। 10.94.13
गन्ने (और आलू, मूली, गोभी आदि) की बोआई के लिए खेत को जोत-गोड़ कर मेढ़ियाँ और नालियाँ बनाई जाती है। गन्ने की पोरियाँ मेढ़ी में दबाई जाली हैं। सोम की बोआई की यही विधि थी:
भद्रे क्षेत्रे निमिता तिल्विले सनेम मध्वः अधिगर्तस्य ।। 5.62.7
संदर्भ से अवगत न होने के कारण सायण, ग्रिफिथ आदि ने इस ऋचा के बहुत अटपटे अर्थ किए हैं। उनके नमूने नीचे हैं:
भद्रे क्षेत्रे निमिता (अवस्थितः) तिल्विले (घृतसोमादिना स्निग्धे वा) सनेम (संभजेम) मध्वः अधिगर्तस्य (रथस्योपरि) ।। 5.62.7
stablished on a field deep-spoiled and fruitful. So may we share the meath that loads your car-seat.
(5) सोम का रस निकालने की तीन विधियाँ थी। एक में सिल-बट्टे (दृषद-उपल); दूसरा खरल और ग्रावा और तीसरा ओखली (उलूखल) और मन्था जिसकी बनावट तेल पेरने के कोल्हू जैसी होती थी। इसके ओखली वाला भाग तृदिल होता था अर्थात इसमें तिरछा छेद बना रहता था जिससे पेरे हुए रस की धार निकलती और नीचे कठौत (द्रोण कलश) में गिरती थी और इससे एक आवाज पैदा होती थी। मंथे का ऊपरी सिरा पतला होता था जिससे रस्सियाँ बँधी होती थी और नीचे का सिरा मोटा (पृथुबुध्न) होता था और इसके घूमने से भी संगीत - चें चें की ध्वनि पैदा होती थी। एक तीसरी ध्वनि ओखली के मध्य भाग पटरे के रगड़ने से निकलती थी। इसके कारण उसे तीन भाषाओं के ज्ञाता, और इसलिए असाधारण कवि ( प्र काव्यमुशनेव ब्रुवाणो) और (ऋषिमना य ऋषिकृत्स्वर्षाः सहस्रणीथः पदवीः कवीनाम् । 9.96.18) जैसी मुग्ध करने वाली और इनके काव्यशिल्प को न समझने वालों को वाहियात लगने वाली रचनाएँ संभव थीं। श्लेष या द्वि-अर्थिता इस पूरी काव्य यात्रा में चलती रहती है। वानस्पतिक सोम का रस निकालने का चित्रण नाना प्रसंगों में हुआ है, पर पहले मंडल के 28 वें सूक्त में एक साथ कई ऋचाओं में हुआ है। सबसे महत्वपूर्ण है सोम का व्यावसायिक स्तर पर उत्पादन। कताई बुनाई की तरह यह काम घर घर में किया जाता था:
यच्चिद्धि त्वं गृहेगृहे उलूखक युज्यसे ।
इह द्युमत्तमं वद जयतामिव दुन्दुभिः ।। 1.28.5
(6) सोमलता में मिठास अगहन (मार्गशीर्ष) से पहले नहीं आ पाता था (सोमो राजा मृगशीर्षेण आगन्, श.3.1.2.2 )। इससे पहले यदि लोभवश इसको चखने का प्रयत्न किया तो इसके सेवन को पाप समझा जाता था।हम यहां इसके प्रमाणों से बचना चाहेंगे क्योंकि वे बिखरे हुए हैं और उनको समेटना चाहा तो अनर्थ हो जाएगा। अगहन से फाल्गुन तक इसका भरपूर उपयोग होता था, फाल्गुन के बाद गन्नेके भीतर का रस कम होने लगता है। ऐसा ही संकट सोम के साथ भी था। होलिका को वैदिक समाज में वार्त्र्य्घनी पूर्णिमा के रूप में मनाया जाता था। इसके बाद के मास का एक नाम आज तक मधुमास है। वार्त्र्य्घनी पूर्णिमा के बाद समिष्ट यजुस का सत्र चलता था, जिसका जोर, जैसा कि समिष्ट से लगता है, जितना गन्ना (या सोम) पेरा नहीं गया है उसे जल्द से जल्द, समय बद्ध रूप में निकाल लिया जाए, और इसका दूसरा नाम था अग्निस्तोम, जो सोमरस को पका कर इसका गुड़ या अविकारी रूप में पहुँचाने का प्रतीक था जिससे वह स्वयं अमर और अमरता का दाता बना कर पेश किया जाता है
(7) सोम को राजा कहा है तो इसका राजसी ठाट भी होना चाहिए, इसे समझने में गन्ने और सरकंडे से मदद मिल सकती है। गन्ने के निचले हिस्से की पोरें छोटी होती हैं और उनसे जड़ें निकल कर जमीन पकड़ने के लिए बढ़ी होती हैं। यदि पौधे को जड़ से उखाड़ें तो नीचे का हिस्सा टेढ़ा होता है। इसे सोम राजा का उपानह कहा गया है।
इसकी पत्तियों के दो भाग होते हैं। मूज प्रजाति में पत्ती का दंड भाग एक खोल जैसा होता है जो अगली गाँठ के तने (पोर) को घेरे रहता है। यह. भीतर से चिकना होता है, इससे आगे बाहर की ओर फैलने वाली लंबी पत्ती निकलती है जिसके कोर खुरदरे, किंचित धारदार, होते हैं। इसके खोल वाले भाग को राजा का पहनावा - पर्यानह - कहा गया है। मूज, कास और गन्ने के सिरे पर पत्तियों का गुच्छा होता है जिसे वल्श (सहस्रवल्शं हरितं भ्राजमानं हिरण्ययम्, 9.5.10) कहा गया है। राजवेश के संदर्भ में इसे पगड़ी (उष्णीष ) बताया गया है। यदि गन्ने को काटने में विलंब हो जाय तो कास और मूज की तरह इससे एक लंबी कलंगी नुमा भुई या फूलों का स्तवक निकलता है, इसे मयूर के वर्ह जैसा (आ त्वा रथे हिरण्यये हरी मयूरशेप्या, 8.1.25) बताया गया है। प्रसंगवश याद दिला दें कि हिन्दू राजाओं का आदर्श रहा है चंद्रमा। राजाओं की पगड़ी के ऊपर लगी हुई कलँगी सोमवृक्ष की इसी कलँगी का प्रतिरूप है। रोचक है यह तथ्य कि जैसे ज्ञान का प्रतीक शिखा (चुरकी) दीपशिखा को मूर्त करती है, पार्थिव सोम की पगड़ी और कलँगी का आरोपण दिव्य सोम पर करने के बाद, राजा के मुकुट के ऊपर लगी कलँगी सोम के स्वभाव का प्रतीक बन जाती है। जो भी हो ब्रह्मणों आदि में जहां सोम की खरीद का नाटकीय चित्रण है, सोम के इस राजोपम वेश का वैसा ही नाटकीय चित्रण किया गया है :
अथ संप्रेष्यति सोमोपनहनं आहर, सोम पर्याणहनं आहर, उष्णीषं आहर, इति। यत उष्णीषं विन्देत उष्णीष: स्यात्, यदि उष्णीषं न विन्देत् सोमपर्याणहनस्यैव द्वयंगुलं वा त्रयंगुलं वा अवकृन्तेत उष्णीष भाजनम् । अध्वर्युः वा यजमानो वा सोमोपनहनं आदत्ते।
(श्रौतकोश, वैसंम, पूना, शाके 1892, खंड 2, 57)।
परन्तु राजा का तख्त भी तो होना चाहिए। सोम की गेड़ियों (उपांशुओं) कूटने/पेरने के लिए जिस ओखली/कोल्हू के खल में डाला जाता था वह गूलर की लकड़ी का बनता था, इसलिए सोमराजा की आसंदी गूलर की (औदुंबरी आसन्दी) हुई। उनको नदी तट से रथ कर रख कर लाया जाता था, इसलिए राजा का वाहन भी प्रस्तुत है।
(8) सोम न वृक्ष की कोटि में आता है न लता के। मोटाई की तुलना में लंबाई को देखते हुए कई बार लता या वल्ली कह दिया जाता है। पर लता का अनिवार्य गुण यह है कि इसे यदि किसी तने, या तनी हुई चीज का सहारा न मिले, तो यह ऊपर नहीं उठ सकती, जमीन पर चाहे जितनी दूर तक क्यों न फैल जाए। वृक्ष यह है नहीं, क्योंकि उस दशा में उसे छायादार या आच्छादक होना चाहिए। हिन्दी वक्ष और अं. बॉक्स इसी के सजन्य (कॉग्नेट) हैं। फिर भी विकल्प रूप में लोग सोमतरु, कल्पतरु जैसे प्रयोग करते हैं। गन्ने के विषय में भी इक्षुलता, इक्षुयष्टि का प्रयोग चलता है। ऋग्वेद में लता या वल्ली या तरु का प्रयोग नहीं मिलता, ये बाद में जोड़े गए उपपद हैं, वृक्ष का मिलता है, पर पीपल के सुपलाश वृक्ष का। सुपर्ण सोम का रस यदि यम को देवों के साथ बैठ कर पीना है तो पेड़ भी सुपर्ण या सुपलाश होना चाहिए।
(9) सुरा रखने के पात्र को सुराही (सुराधानी) कहते हैं, जिसमें लघुतासूचक प्रत्यय है, सोम के संदर्भ में सोमधान (पवस्व सोम देववीतये वृषेन्द्रस्य हार्दि सोमधानमा विश, 9.70.9), कठौत (द्रोण कलश), कलश, कोश, कुंड आदि बड़े पात्रों का उल्लेख है जिसका अर्थ है इसका बड़े पैमाने पर उत्पादन और सेवन होता था। इसे पेट भर कर पीने (कुक्षिपातमः) के हवाले हैं। इसके अधिक पी लेने पर वायुदोष (गैस) पैदा होने से पेट में गुड़गुड़ाहट का एक चित्रण है - लगता है नशे में धुत दो शराबी आपस में लड़ रहे हों (हृत्सु पीतासो युध्यन्ते दुर्मदासो न सुरायाम्, 8.2.12)।
सोमरस को केवल मिट्टी, काठ, या चमड़े की मशक (दृति) में रखा जा सकता था। धातु के संपर्क में आने पर यह विषाक्त हो जाता था और इससे विषूची (डिसेंट्री) का ऐसा प्रकोप हो सकता था कि जान पर बन आए। त्वष्टा ने पुत्रवध का बदला लेने के लिए, अनुमानतः, ऐसा ही सोम पिला दिया था।
(10) सोमपान प्याले (ग्रह) से किया जाता था। पर इसको पानी से पखार कर चूसा भी जाता था (अथ अप्सु सोमान् परि उपविश्य अवघ्रेण भक्षयन्ति, बौधायन श्रौतसूत्र,16.21.24)। ऋग्वेद में जंभसुत (दाँत से चूसने) का एक बार हवाला है। परन्तु दीर्घ काल तक खाये जाने वाले (दीर्घभक्ष) सोम [श्रौतकोश,2, प.. 568, 569, 580, 589) का क्या आशय है? घर्मसोम का क्या आशय है जिसके सहारे अश्विनीकुमार अपनी यात्रा करते हैं (अर्वाञ्चा नूनं रथ्येह यातं पीपिवांसमश्विना घर्ममच्छ ।। 5.76.1)। आशय यह है कि सोमरस को पकाया जाता था। उसके गुड़ (घर्मसोम), भेली या पिंडी (शर्करा, श्रौ. 2, प. 13, 449, 514, 515) और खांड़ या रवा (सिकता, श्रौ. 2, प. 76, 113, 143, 514, 522 आदि ) रूप कुछ बाद की कृतियों में मिलते हैं। इनमें से केवल घर्म सोम का ऋग्वेद में उल्लेख है। वैदिक काल में सोमविद्या इसी स्तर तक पहुँच पाई थी। निर्यात के लिए संभवतः घर्मसोम जिसे पूरबी में गुड़, और हिंदी में राब/शीरा कहते है, का ही व्यवसाय होता था। उनके परिवहन में संभवतः उन भंडारण पात्रों का प्रयोग किया जाता था जिनका पहले घरेलू उपयोग जल के भंडारण के लिए, कूँड़ा (कुंड) के रूप में, में किया जाता धा। वर्षान्त में इसके रंध्रों के भर जाने के बाद इसे बदल दिया जाता था। इसी का भंडारण पात्रों के रूप में, मेरे बचपन तक काम में लाया जाता था और संभवतः ऐसे ही कोशों का उपयोग तप्त या घर्म सोम के निर्यात में किया जाता था: ( त्रयः कोशासः श्चोतन्ति तिस्रश्चम्वः सुपूर्णाः, समाने अधि भार्मन्, ऋ. 8.2.8) जिसका ऋग्वेद मे संकेत है, पर संदर्भ का ध्यान न रखने के कारण उनका प्रायः अनर्थ हो जाता है।
(11) हम देख आए हैं कि ऋग्वेद में इक्षु का प्रयोग न हो कर इषं/उक्षं का प्रयोग सोम के लिए मिलता है। सोमपायियों के लिए सोम्यास (ब्राह्मणासः पितरः सोम्यासः, 6.75.10; उपहूताः पितरः सोम्यासो बर्हिष्येषु निधिषु प्रियेषु,10.15.5) का प्रयोग मिलता है। जब इस बात को लेकर संदेह पैदा हो गया कि सोम वास्तव में क्या था, तब मनु विवस्वान के वंश में इक्ष्वाकु (गन्ने का रस पीने वाले) नाम के एक पूर्वज कल्पित कर लिए जाते हैं। इक्ष्वाकु सोम्यास का पर्याय है।
(12) जब सोम के अभाव में वैकल्पिक पौधों में से किसी का रस याजिकीय प्रयोजन से निकाला जाता था तब रात भर के लिए वर्हि और प्रस्तर के बीच में गन्ने की दो पोरियाँ रखी जाती थी कि दोनों परस्पर चिपक न जाएँ (ऐक्षवी विधृती। न इत वर्हिश्च प्रस्तरश्च संलुभ्यात्, शत.ब्रा. 3.4.1.18)।
(13) यहाँ आकर हमारे सामने एक बहुत विचित्र समस्या उत्पन्न होती है। यदि सोमयाग हो रहा है, सोम का रस निकाला जाना है और इक्षु के टुकड़ों का उसमें आनुष्ठानिक उपयोग किया जा रहा है तो निश्चय ही सोम और गन्ना दो अलग प्रजातियां हुईं। इसी से जुड़ी एक दूसरी गुत्थी है। यदि भारत में सोम उपलब्ध था, तो उसकी जगह दूसरे विकल्प क्यों सुझाए गए हैं। इन दोनों का समाधान परस्पर जुड़ा हुआ है। पहले हम सोम की विधृति का लें। गन्ना बोया मधुमास में ही जाता था पर इसके बढ़ने और इसमें मिठास आने में आधा साल लग जाता था। यज्ञ इस बीच भी होते थे, पर उनमें सोम पेरा नहीं जा सकता था। यज्ञ जिन लोगों की जीविका से जुड़ गया था उनका काम इसके अभाव में चल नहीं सकता था। इस बीच के यज्ञों के लिए कोई उपाय जरूरी था। उसे उन्होंने वैकल्पिक विधानों के भरोसे जारी रखा था, पर तैयार गन्ना ही सही सोम था, यह चेतना में कहीं बना हुआ था। इसलिए रीतिनिर्वाह के लिए गन्ने की पोरियों का इस्तेमाल होता था।
(14) वैकल्पिक विधान वर्जित अवधि के कारण या सूखा पड़ने की स्थिति में या ऐसे क्षेत्र के लिए था जिसमे गन्ना न उग सकता था (सर्वसोमविनाशे ओषधीभिः अभिसुत्य प्रचरेत, श्रौतकोश,2, अग्निष्टोम प्रायश्चित्तानि,683,बौधायन 29.1)। पर विकल्प चुनते समय इस बात का ध्यान रखा जाता था कि रूप, रंग या संपर्क के कारण उसका सोम से कोई संबंध बनता हो। इसके विस्तार में जाना जरूरी नहीं।
(15) ऐसे पक्षों पर विचार करते समय हमें इस बात का भी ध्यान रखना होगा कि अपनी प्रभुता कायम करने के लिए पुरोहितों ने यज्ञ को एक विज्ञान बना दिया था। इसका अधिकारी ही बता सकता था कि इसकी पूर्ति होने तक किन अभावों में क्या विकल्प सुलभ है। और यह केवल सोम के अभाव के विषय में न था, हर मामले में था। सोम के पाक को शुद्ध करने के लिए दूध, कुछ बनस्पतियों का पुट आज तक दिया जाता है, पर यदि एक हव्य न मिले तो क्या यज्ञ रुक जाएगा। नहीं, इसके न होने पर किससे और उसके न होने पर किससे काम चलाया जा सकता है इसका एक आधिकारिक विधान है । इन विधानों को जानने वाला ही यज्ञ-विज्ञान में निष्णात माना जाता था:
अथ यदि घर्मदुघं न विन्देतान्यां दोहयेत्। अथ यदि अन्यां न विन्देत अजां दोहयेत्। अथ यदि अजां न विन्देत अर्कक्षीरैः प्रचरेत्। अथ यत् अर्कक्षीरं न विन्देत यवपिष्टानि व्रीहिपिपिष्टानि शयामाकपिष्टानि वा अद्भिः संसृज्य तैः प्रचरेत्।..न त्वेव न प्रचरेत्। बौधा. 9.17, श्रौतकोश)
अन्ततः हम सोम और इक्षु के अभेद के बाद भी कुछ दुविधा और शब्दभेद पैदा होने में उस लंबे सूखे के दौर को नहीं भूल सकते जिसमें खेती ही नहीं पशुपालन और आत्मरक्षा का संकट आ खड़ा हुआ था और जिसमें अधिक पानी चाहने वाले इस पौधे की खेती प्रभावित होना ही था। इस बीच ही सोम के अभाव में किसी भी दृष्टि से उससे किसी भी रूप में संबंध रखने वाले पौधो का वैकल्पिक प्रयोग आरंभ हुआ हो सकता है जिसमें वे सोम माने जाने लगे और राहत का दौर आने पर गन्ने की खेती फिर आरंभ हुई तो पहचान का संकट पैदा हो गया।
हम समझते हैं इस लंबी व्याख्या के बाद शंकालु लोगों को भी सोम को पहचानने में मदद मिलेगी, फिर भी यदि कोई आशंका बनी रह गई हो तो उसे उठाया जा सकता है और उसका समाधान करने का प्रयत्न करूँगा।
( समाप्त )
भगवान सिंह
( Bhagwan Singh )
सोम की पहचान (6)
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#vss
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