मुंबई के पूर्व पुलिस कमिश्नर और महाराष्ट्र के वर्तमान डीजी होमगार्ड परमवीर सिंह का एक पत्र आज कल चर्चा में बना हुआ है। इस संबंध में ताज़ी खबर यह है कि, परमबीर सिंह ने सुप्रीम कोर्ट में आज एक याचिका दायर कर के, महाराष्ट्र के गृह मंत्री अनिल देशमुख पर लगाए गए, अपने आरोपों की जांच सीबीआई से कराने की मांग की है। साथ ही उन्होंने मुंबई पुलिस कमिश्नर के पद से खुद को ट्रांसफर किए जाने के आदेश के क्रियान्वयन पर भी रोक लगाए जाने की भी मांग रखी है। सुप्रीम कोर्ट में दाखिल इस याचिका में परमबीर सिंह ने गृह मंत्री देशमुख के घर का सीसीटीवी फुटेज ज़ब्त करने की भी मांग की है। अब देखना है, शीर्ष अदालत का क्या निर्णय रहता है। इस बहुचर्चित मामले को देख कर, ऐसा लगता है कि यह देश मे भ्रष्टाचार का पहला मामला है और अन्य सारे नेतागण साफ सुथरे थे और पुलिस विभाग में वसूली जैसी चीज कभी थी ही नहीं। यही पाखण्ड है और यही वह आवरण है, जिससे हम अपनी विद्रूपता को अक्सर ढंके रहते है।
रिश्वत के लिये संस्कृत शब्द है उत्कोच और यह परंपरा जब से समाज मे अर्थ का महत्व होना शुरू हुआ होगा तब से है और यह काम क्रोध लोभ मोह के समान तब तक रहेगी जब तक मनुष्य और समाज रहेगा। इसका शमन हो सकता है, पर उन्मूलन नहीं। कौटिल्य अपने अर्थशास्त्र में लिखते हैं,
"जिस प्रकार मछलियां, जल में विचरण करते समय, जल पी लेती हैं और इसका पता नहीं लगता, उसी प्रकार राजस्व एकत्र करने वाले कर्मचारी कब राजस्व के धन को चुरा ले उसका अनुमान नहीं लगाया जा सकता है।"
तब भ्रष्टाचार का स्कोप राजस्व की वसूली जो परंपरागत रूप से भूमि, व्यापार, मदिरालय, द्यूतगृहो से होती थी, से की जाती थी। कहने का आशय यह है कि वसूली या टैक्स चोरी, या उत्कोच कोई अजूबा नहीं है जैसा कि दीदे फाड़ कर परमवीर सिंह के पत्र और गृहमंत्री महाराष्ट्र द्वारा 100 करोड़ की वसूली पर प्रतिक्रियाएं आ रही हैं। पर इसका आशय यह भी नहीं है कि ऐसे गम्भीर मामलो पर चुप्पी साध ली जाय औऱ इसे भी सब चलता है के मोड में डाल कर आगे बढ़ जाया जाए।
यह चिट्ठिनामा भी अजब है। परमवीर सिंह ने बताया है कि, 'महाराष्ट्र के गृहमंत्री अनिल देशमुख, इंस्पेक्टर सचिन वाज़े जो, मुकेश अम्बानी के आवास, एंटीलिया के सामने जिलेटिन भरे विस्फोटक केस में बतौर संदिग्ध मुल्जिम सामने आए हैं, और जेरे तफ्तीश हैं, के माध्यम से हफ्ता वसूली कराते थे।' हफ्ता वसूली का रेट भी उक्त पत्र में दिया गया है। यह वसूली रेस्टोरेंट और बार आदि से होनी है। कितनी हुयी और जितनी हुयी है क्या वह परमवीर सिंह की जानकारी में है और यदि जानकारी में है तो उन्होंने इसे होने कैसे दिया ? आदि सवाल स्वाभाविक रूप से उठेंगे और हो सकता है जब जांच हो तो इन सब जिज्ञासाओं का समाधान ढूंढा जाय। कुल 100 करोड़ की वसूली का टारगेट रखा गया है और उसके वसूलने के तऱीके भी परमवीर सिंह ने अपने पत्र में बताए हैं। परमवीर सिंह ने इस बात की भी पुष्टि कर दी है कि, यह पत्र उन्होंने ही लिखा था। यह एक गम्भीर आरोप है। गृहमंत्री द्वारा वसूली का दायित्व सौंपना, और पुलिस कमिश्नर का उसे वेदवाक्य मान कर, जब यह निर्देश दिए जा रहे थे, तब बिना किसी विरोध के स्वीकार कर लेना, मांझी नाव डुबाये जैसा ही है। यह गम्भीर आरोप जब एक डीजी स्तर का पुलिस अफसर लगाए तो यह और भी महत्वपूर्ण हो जाता है।
अब यह सब आरोप सही हैं या गलत या किसी साज़िश के अंतर्गत लगाए गए हैं, या यह एक व्हिसिलब्लोअर की व्हिसिल है, यह तो, पूरे घटनाक्रम की जांच के बाद ही पता चल सकेगा। पर यहीं कुछ सवाल भी उठते है कि, इस तथ्य की जानकारी परमवीर सिंह को कब हुयी थी ? क्या उन्हें इस बात की जानकारी कमिश्नर के पद से हटाए जाने के पहले हो गयी थी या यह सब पता बाद में चला ? यदि कमिश्नर के पद पर रहते हो गयी थी तो फिर, उन्होंने सचिन वाज़े के खिलाफ कोई कार्यवाही क्यों नही की और यह बात उन्होंने मुख्यमंत्री की जानकारी में क्यों नही लायी? उन्होंने क्यों नही इस तथ्य की जानकारी होते ही खुद को कमिश्नर पुलिस के दायित्व से मुक्त हो जाने की बात मुख्यमंत्री से मिल कर कही ? परमवीर सिंह यदि उसी मीटिंग के तुरन्त बाद ही यह पत्र मुख्यमंत्री को लिखते और उनसे कमिश्नर के पद से खुद को हटा देने का अनुरोध करते तो यह कदम एक व्हिसिलब्लोअर का कदम होता पर वसूली भी जारी रही, वे पद पर भी बने रहे, और अब जब वे यह सब आरोप लगा रहे हैं तो अनेक शंकाये स्वतः और स्वाभाविक रूप से उठ रही हैं। खबर है कि इस प्रकरण की जांच के लिये रिटायर्ड आईपीएस अफसर, जेएफ रिबेरो से कहा गया था, पर 92 वर्षीय रिबेरो ने इस मामले की जांच करने से मना कर दिया।
मुंबई का पुलिस कमिश्नर, गृहमंत्री का विश्वासपात्र हो या न हो पर वह मुख्यमंत्री का भरोसेमंद अफसर ज़रूर होता है। निश्चित ही उन्हें यह बात मुख्यमंत्री को और साथ ही डीजी महाराष्ट्र एवं मुख्य सचिव की जानकारी में लानी चाहिए थी। पुलिस द्वारा अवैध वसूली का आरोप नया नहीं है और यह लगभग हर जगह, हर पुलिस बल में समान रूप से संक्रमित है। लेकिन यह भी सच है कि कहीं कहीं वरिष्ठ पुलिस अफसरों का संरक्षण भी इस अवैध कृत्य में रहता है तो कहीं कहीं वरिष्ठ अफसर सख्ती कर के इसे रोकने की कोशिश भी करते हैं। पर यह व्याधि निर्मूल नष्ट हो जाय यह सम्भव नहीं है। जहां तक राजनीतिक नेताओ का प्रश्न है अनिल देशमुख अकेले भ्रष्ट राजनेता नहीं हैं बल्कि इस पंक में सभी राजनेता सने हुए हैं, अपवादों को छोड़ कर। पुलिस विभाग में भी भ्रष्टाचार है इससे किसी को इनकार नहीं है। इस भ्रष्टाचार को यह कह कर जस्टिफाई भी नहीं किया जाना चाहिए कि, भ्रष्टाचार सभी जगहों पर है। यूपी में हमारे एक डीजी साहब थे, बीपी सिंघल। वे कहा करते थे कि, पुलिस में व्याप्त भ्रष्टाचार को अन्य विभागों में व्याप्त भ्रष्टाचार से अधिक गम्भीरता से लेना चाहिए, क्योंकि पुलिस के पास भ्र्ष्टाचार रोकने, रिश्वत लेने देने के आरोप में कार्यवाही करने की वैधानिक शक्तियां प्राप्त हैं। महाराष्ट्र सरकार को चाहिये कि, वह इस मामले की उच्च स्तरीय जांच कराए, यदि सम्भव हो तो न्यायिक जांच करा ले।
मुंबई की इस घटना के बारे में आगे क्या होता है, इसे फिलहाल यही छोड़ कर इस पर विचार करते है कि देश मे दिन प्रतिदिन बढ़ रहे सार्वजनिक जीवन मे भ्रष्टाचार के प्रति सरकार का पिछले 7 सालों में क्या दृष्टिकोण रहा है। 7 साल का उल्लेख मैंने इसलिए किया क्योंकि 2014 में यूपीए सरकार के सत्ता से बेदखल होने और एनडीए सरकार का सत्ता में आने की सबसे बड़ी वजह, यूपीए - 2 के समय में हुए बड़े घोटाले थे। जिनके काऱण अन्ना हजारे का इंडिया अगेंस्ट करप्शन आंदोलन शुरू हुआ जिसके कारण सार्वजनिक जीवन मे भ्रष्टाचार एक बड़ा मुद्दा बना और 2014 में इस मुद्दे पर भाजपा के नेतृत्व में, एनडीए सरकार बनी। तब लोकपाल एक जुनून था, अब लोकपाल कहां है, यह लोकपाल महोदय को ही पता होगा । तब, लोगो को लगा था कि, नरेंद्र मोदी की सरकार कम से कम भ्रष्टाचार पर तो नकेल कसेगी ही। पर इन सात सालों में सार्वजनिक जीवन मे भ्रष्टाचार को कम करने के लिये सरकार की तरफ से किसी कदम का उठाया जाना तो दूर की बात है, राजनीतिक दलों की फंडिंग के लिए इलेक्टोरल बांड के रूप में एक ऐसी व्यवस्था सरकार ने लागू की जिससे कॉरपोरेट फंडिंग की पारदर्शिता ही समाप्त हो गयी। चुनाव में होने वाला खर्च और राजनीतिक दलों की फंडिंग भ्रष्टाचार का सबसे महत्वपूर्ण स्रोत है, और उसे बंद करने के लिये वर्तमान सरकार ने कोई भी कदम नहीं उठाया है। इलेक्टोरल बांड के अलावे और भी विंदु हैं जिनपर सरकार चुप्पी रही पर आज का विमर्श इलेक्टोरल बांड पर ही केंद्रित करते हैं।
यूपीए - 1 के समय सूचना का अधिकार कानून 2005, सरकार के कामकाज और गतिविधियों की नागरिक द्वारा मांगे जाने पर कतिपय सूचनाएं उपलब्ध करवाने और सरकारी कामकाज में पारदर्शिता लाने के लिए बनाया गया है। इस कानून का लाभ भी हुआ और सरकारी कामकाज में कुछ हद तक पारदर्शिता भी आयी। इस अधिनियम के अंतर्गत, राजनीतिक दलों को लाया जाय या नहीं, इस विषय पर लंबी बहस छिड़ी। पर पारदर्शिता के इस नाजुक सवाल पर, सारे राजनीतिक दल एक साथ खड़े हुए और उन्होंने इसका विरोध किया। एक लंबा विवाद चला और भी वह विवाद जीवंत है। पोलिटिकल फंडिंग को उजागर करने और इसमें पारदर्शिता लाने के लिए मुख्य सूचना आयुक्त, सीआईसी ने राजनीतिक दलों को चंदा देने वाले दानकर्ताओं के नाम को उजागर करने की बात अपने एक अहम फैसले में भी कही है। सीआईसी ने, सरकार को अपने एक निर्णय में, निर्देश दिया है कि इलेक्टोरल बॉन्ड के जरिए राजनीतिक पार्टियों को चंदा देने वालों के नाम सार्वजनिक करने होंगे। सरकार उन दानदाताओं के नाम सार्वजनिक करे जिन्होंने अपील की थी कि, उनके नाम जाहिर ना किये जाए। एक आरटीआई आवेदक ने, यह सूचना चुनाव आयोग से मांगी थी कि, भाजपा, कांग्रेस, भाकपा, माकपा, बसपा और राकांपा को मिले राजनीतिक चंदे की जानकारी उपलब्ध करायी जाय। इसके जवाब मे चुनाव आयोग ने कहा कि राजनीतिक दल आरटीआई कानून के दायरे से बाहर हैं। हालांकि, आयोग का यह आदेश केंद्रीय सूचना आयोग के निर्देश के विपरीत था। क्योंकि, सीआईसी ने छह राष्ट्रीय दलों को पारदर्शिता कानून के तहत लाने का निर्देश दिया था। चुनाव सुधार की बात करने वाले आयोग ने चुनाव में भ्रष्टाचार के मूल स्रोत को ही बाधित कर दिया। इस आदेश को ऊपरी अदालतों में चुनौती नहीं दी गई लेकिन राजनीतिक दलों ने आरटीआई आवेदनों को मानने से इंकार कर दिया है। कई आरटीआई एक्टिविस्ट ने उच्चतम न्यायालय का दरवाजा खटखटाया है जहां मामला लंबित है।
आरटीआइ से उठा पोलिटिकल फंडिंग में पारदर्शिता का विवाद, इलेक्टोरल बांड की व्यवस्था से जुड़ा है। सरकार ने राजनीतिक दलों के चंदे के लिए, वर्ष 2018 में इलेक्टोरल बांड सिस्टम को लागू किया। सरकार ने कहा कि, इस नए चंदा उगाही सिस्टम से राजनीतिक फंडिंग में पारदर्शिता बढ़ेगी और राजनीतिक दलों के पास, साफ-सुथरा धन आएगा तथा काला धन जो राजनीतिक दलों तक पहुंच कर इकट्ठा हो जाता है, पर रोक लगेगी। इस बांड के अनुसार,
" कोई भी व्यक्ति अपनी पहचान छुपाते हुए स्टेट बैंक ऑफ इंडिया से एक करोड़ रुपए तक मूल्य के इलेक्टोरल बॉन्ड्स खरीद कर अपनी पसंद के राजनीतिक दल को चंदे के रूप में दे सकता है। यह व्यवस्था दानकर्ताओं की पहचान नहीं खोलती और इसे टैक्स से भी छूट प्राप्त है। "
हालांकि उस इस पर विवाद भी हुआ था और कुछ कर विषेषज्ञों ने कहा था कि,
" इससे चुनावी फंडिंग में अपारदर्शिता बढ़ेगी और विदेशा चंदा भी सियासी पार्टियों को आसानी से मिलने लगेगा।"
इस मामले में रिजर्व बैंक ने भी सरकार को चेताया था सरकार उसे नजरअंदाज कर दिया था।
एक आरटीआई एक्टिविस्ट, वेंकटेश नायक ने साल 2017 में इकोनॉमिक अफेयर्स विभाग से, सियासी पार्टियों को गुप्त चंदा देने वाले लोगों के बारे में जानकारी मांगी थी, तब तक इलेक्टोरल बांड नहीं आया था। लेकिन इस पर विभाग द्वारा कुछ नहीं कहा गया। जिसके बाद वेंकटेश नायक ने अगस्त 2017 में पहली अपील दायर की। अपीलीय अथॉरिटी ने उनकी अपील को रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया, वित्त सेवाओं से संबंधित विभाग और चुनाव आयोग के पास भेजा, ताकि यह सभी आपसी तालमेल बिठा कर अपीलकर्ता को सही जानकारी दे सकें।लेकिन इसके बाद भी याचिकाकर्ता को कोई जानकारी नहीं मिली, जिसके बाद उसने, जनवरी 2018 में सीआईसी में शिकायत दर्ज कराई। इसी प्रकार, जब इलेक्टोरल बांड आया तो, इलेक्टोरल बांड की खरीद के बारे में सूचना मांगी गयी और जब वांछित सूचना नहीं मिली तो आरटीआई एक्ट के अंतर्गत अपील की गयी। उक्त अपील की सुनवाई में ही सूचना उपलब्ध न कराने की लापरवाही बरतने के मामले में सीआईसी ने वित्त मामलों से संबंधित रेवेन्यू विभाग और चुनाव आयोग को कारण बताओ नोटिस भी जारी किया। सीआईसी ने यह भी पूछा था कि आरटीआई के तहत जानकारी मांग रहे अपीलकर्ता को अधूरी जानकारी देने और उन्हें भटकाने के लिए आखिर क्यों नहीं आप पर जुर्माना लगाया जाए ?
राजनीतिक चंदो के बारे में जब जब आरटीआई डाल कर उसका विवरण मांगा गया तब तब चुनाव आयोग ने उस पर अंकुश लगाया और उसका विवरण देने से मना कर दिया। अगर इलेक्टोरल बांड की खरीद प्रक्रिया और उससे जुड़ी गोपनीयता को देखें तो, इलेक्टोरेल बांड का प्राविधान एक संगठित और सुनियोजित घोटाला है। इलेक्टोरल बॉन्ड एक तरह का नोट ही है, जो एक हज़ार, 10 हज़ार, एक लाख, 10 लाख और एक करोड़ तक की धनराशि में छपता है। कोई भी भारतीय नागरिक इसे स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया से खरीद सकता है और राजनीतिक पार्टी को चंदा दे सकता है। सरकार ने इलेक्टोरल बॉन्ड जारी ही इसलिए किए हैं कि, इसके माध्यम से, उद्योगपति, कारोबारी और आम लोग अपनी पहचान बताए बिना चंदा दे सकते हैं। यह एक प्रकार का गुप्त दान है। राजनीतिक दल, देवस्थानों की तरह, आस्था के केंद्र नहीं है बल्कि वे राजनीतिक प्रणाली के अविभाज्य अंग है। अतः उन्हें चंदा देने के लिये मुंह छिपाना पड़े यही इस बात का प्रमाण है कि इस कार्य मे कहीं न कहीं गम्भीर आर्थिक भ्रष्टाचार है।
अब इलेक्टोरल बांड्स के बारे में कुछ तथ्यों पर नज़र डालते हैं,
● इलेक्टोरल बॉन्ड 15 दिनों के लिए वैध रहते हैं केवल उस अवधि के दौरान ही अपनी पार्टी के अधिकृत बैंक ख़ाते में ट्रांसफर किया जा सकता है। इसके बाद पार्टी उस बॉन्ड को कैश कराती है।
● दान देने वालों की पहचान गुप्त रखी जाती है और उसे आयकर रिटर्न भरते वक़्त भी इस बारे में कोई जानकारी नहीं देनी होती।
● पिछले एक साल में इलेक्टोरल बॉन्डस के जरिए सबसे ज़्यादा चंदा भाजपा को मिला है।
● एक आरटीआई से मिली जानकारी के अनुसार पार्टियों को मिले चंदे में 91% से भी ज़्यादा इलेक्टोरल बॉन्ड एक करोड़ रुपये के थे. इन बॉन्ड्स की क़ीमत 5,896 करोड़ रुपये थी।
● आरटीआई एक्टिविस्ट लोकेश बत्रा को बैंको से मिली जानकारी के अनुसार, 1 मार्च 2018 से लेकर 24 जुलाई 2019 के बीच राजनीतिक पार्टियों को जो चंदा मिला उसमें, एक करोड़ और 10 लाख के इलेक्टोरल बॉन्ड्स का लगभग 99.7 हिस्सा था।
● इस दौरान दिए गए सभी इलेक्टोरल बॉन्ड्स की क़ीमत 6,128.72 करोड़ रुपये थी।
● इसके उलट एक हज़ार, दस हज़ार और एक लाख के बॉन्ड्स से पार्टियों को सिर्फ़ 15.06 करोड़ के बराबर चंदा मिला।
● इलेक्ट्रोरल बॉन्ड के जरिए मिले चंदे का 83% हिस्सा सिर्फ़ चार शहरों से आया। ये चार शहर हैं, मुंबई, कोलकाता, नई दिल्ली और हैदराबाद। इन चारों शहरों से मिलने वाले बॉन्ड की क़ीमत 5,085 करोड़ रुपये थी।
● इन बॉन्ड्स का लगभग 80 फ़ीसदी हिस्सा दिल्ली में कैश कराया गया।
● 30 अगस्त से 27 सिंतबर 2017 के बीच आरबीआई के गवर्नर उर्जित पटेल ने तीन पत्र इलेक्टोरल बांड जारी न करने के लिये, वित्तमंत्री अरुण जेटली को लिखे थे और यह भी कहा था कि, यह एक प्रकार का आर्थिक भ्र्ष्टाचार है, पर सरकार ने नहीं माना।
● सरकार ने कहा कि यह बांड देश की जनता द्वारा अपने राजनीतिक दलों की गतिविधियों के लिये जारी किया गया है।
● अब एक दिलचस्प आंकड़ा देखिये।
मार्च' 2018 से अक्टूबर 2019 तक, ₹ 1000 के 47 बांड कुल ₹ 47,000 के, ₹ 10,000 के 60 बांड, कुल ₹ 6 लाख के, ₹ एक लाख के, 1695 बांड, कुल ₹ 16.95 करोड़ के, ₹ 10 लाख के, 4,877 बांड, कुल ₹ 487.70 करोड़ के और ₹ 1 करोड़ के 5624 बांड कुल, ₹ 5,624 करोड़ के बिके थे। यह आंकड़ा केवल डेढ़ साल का है।
● पूरी रकम ₹ 6,128.71 करोड़ है, जिसका 91.76% हिस्सा 1 करोड़ कीमत के बांड से आया है।
● इन बांड को केवल लोकसभा चुनावों के लिये रखा गया था। पर विधानसभा चुनावों में भी इस्तेमाल हुआ। इनका सबसे बड़ा हिस्सा बीजेपी को मिला। 21 नवंबर और 22 नवंबर 2019 के द टेलीग्राफ में इस पर एक विस्तृत खोजी रिपोर्ट छपी है।
आरबीआई वित्तीय अनियमितता से भरी इस योजना के खिलाफ, शुरू से ही रहा। उसका तर्क है कि, भारत में मुद्रा छापने का अधिकार और दायित्व रिजर्व बैंक का है। लेकिन सरकार ने इलेक्टोरल बांड को वित्त विधेयक बना दिया और इसपर आरबीआई से राय लेने की बजाय सीधा उसे सहमति देने के लिये उस पर दबाव बनाया। आरबीआई ने तब भी चेताया था कि,
" इलेक्टोरल बांड्स से राजनीति में मनी लॉन्ड्रिंग (काला धन सफ़ेद करना) बढेगा और कई फ़र्ज़ी कम्पनियाँ सिर्फ चंदा देने के लिए खोली जाएंगी।"
सरकार ने आरबीआई के सुझावों को नजरअंदाज करके 1 फ़रवरी 2017 में इलेक्टोरल बांड स्कीम की घोषणा कर दी जो 2018 में लागू हुयी। 2017 में ही आरबीआई के बाद, चुनाव आयोग ने भी केंद्रीय विधि मंत्रालय को लिखित में चेतावनी दी कि वर्तमान इलेक्टोरल बांड से राजनैतिक पार्टियों को कई फ़र्ज़ी कम्पनियाँ बना कर कालाधन मिलेगा और चंदे कि पारदर्शिता ख़त्म हो जाएगी। राजनीति में काला धन बढ़ जायेगा। 22 सितम्बर 2017 को वित्त मंत्रालय के सचिव ने कहा कि चुनाव आयोग की यह आशंका दूर कर दी गयी है। लेकिन यह भी गलतबयानी थी। चुनाव आयोग शुरू से ही इलेक्टोरल बांड नीति के खिलाफ रहा और 2019 में आयोग ने सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा देकर कहा कि इलेक्टोरल बॉन्ड के वर्तमान स्वरूप को नष्ट कर देना चाहिए। वित्त राज्यमंत्री पी राधाकृष्णन ने राजयसभा में एक उत्तर में कहा कि "इलेक्टोरल बॉन्ड मुद्दे पर सरकार को चुनाव आयोग की तरफ से कोई राय नहीं मिली।" यह रिकॉर्ड पर बोला गया झूठ है। इस योजना को दो संवैधानिक संस्थाओ आरबीआई और चुनाव आयोग के विरोध के बाद लागू किया गया। यह सरकार की भ्रष्टाचार के प्रति दृष्टिकोण को स्पष्ट करता है।
एनजीओ ‘एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स ( एडीआर ) इस मामले को लेकर सुप्रीम कोर्ट गया जिस पर 20 जनवरी 2020 को अदालत ने स्थगनादेश देशे से मना कर दिया। 10 मार्च 2021 को सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दाखिल कर केंद्र और अन्य पक्षों को यह निर्देश देने का अनुरोध किया गया है कि
" चुनावी बॉन्ड की आगे और बिक्री की अनुमति नहीं दी जाए। राजनीतिक दलों की फंडिंग और उनके खातों में पारदर्शिता की कथित कमी से संबंधित एक मामले का निपटारा होने के बाद ही बॉन्ड की बिक्री की अनुमति हो। इस बात की गंभीर आशंका है कि पश्चिम बंगाल और असम समेत कुछ राज्यों में आगामी विधानसभा चुनावों से पहले चुनावी बॉन्डों की आगे और बिक्री से ‘‘मुखौटा कंपनियों के जरिये राजनीतिक दलों का अवैध और गैरकानूनी वित्तपोषण और बढ़ेगा।’’
मुकदमा अभी चल रहा है।
आजकल पश्चिम बंगाल, असम, पुड्डुचेरी, तमिलनाडु और केरल में चुनाव की गतिविधियां चल रही है। प्रधानमंत्री ने एक चुनावी सभा मे कहा कि, कांग्रेस का खजाना खत्म हो गया है इसलिए वह सत्ता में आना चाहती है। बात कटाक्ष में भले ही कही गयी हो, पर यह एक कटु तथ्य है कि सत्तारूढ़ दल को पोलिटिकल फंडिंग्स आसानी से मिलती है। उद्योगपति जब किसी राजनीतिक दल को चंदा देते हैं तो, वे उस राजनीतिक दल की विचारधारा से सहमत होकर नहीं बल्कि सत्ता में आने की उस दल की संभावनाओं को देख कर चंदा देते हैं। आज यदि पोलिटिकल फंडिंग्स में पारदर्शिता आ जाय और राजनीतिक दलों को उनके मिले चंदे को आयकर रिटर्न की तरह सार्वजनिक कर दिया जाय तो यह दिलचस्प तथ्य भी सामने आ जायेगा कि किस पूंजीपति या व्यक्ति ने चंदे के एवज में क्या लाभ सरकार से लिया है।
सरकार जब कोरोना आपदा के नाम पर बनाये गए फ़ंड पीएम केयर्स में पारदर्शिता नहीं रखना चाहती तो, उससे यह उम्मीद करना कि वह राजनीतिक दलों को मिलने वाले चंदो में पारदर्शिता रखेगी और आरटीआई के दायरे में सभी राजनीतिक दलों को लाने की कोशिश करेगी, एक भ्रम है। जब तक राजनीतिक दलों को मिलने वाले धन को पारदर्शी तरीके से एक कानून बना कर विनियमित नहीं किया जाएगा, तब तक सरकार किसी भी दल की हो, भ्रष्टाचार के एक बड़े, संगठित और सुनियोजित तंत्र पर अंकुश नहीं लगाया जा सकेगा।
( विजय शंकर सिंह )
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