Tuesday, 16 March 2021

नेहरू , धर्मनिरपेक्षता और कांग्रेस ....

1933 में जवाहर लाल नेहरू ने महात्मा गांधी को एक पत्र में लिखा था, "जैसे जैसे मेरी उम्र बढ़ती गई है धर्म के प्रति मेरी नज़दीकी कम होती गई है".

1936 में नेहरू ने अपनी आत्मकथा में लिखा, "संगठित धर्म के प्रति हमेशा मैंने दहशत ही महसूस की है. मेरे लिए हमेशा इसका मतलब अंधविश्वास, पुरातनपंथ, रूढ़िवादिता और शोषण से रहा है जहाँ तर्क और औचित्य के लिए कोई जगह नहीं है".

महात्मा गाँधी की हत्या के एक दिन पहले 29 जनवरी 1948 को नेहरू ने भारत- पाक सीमा के गाँव अटारी में कहा था - "मैं साम्प्रदायिक संगठनों को चुनौती देता हूँ कि वह खुले में आयें और कांग्रेस को चुनौती देकर अपनी ताकत आजमा लें। वह कोई भी हो, चाहे पाकिस्तानी, चाहे अंग्रेज, चाहे हिंदू महासभा का हो और चाहे RSS का आदमी हो, जो भी राष्ट्र ध्वज का अपमान करेगा, उसे गद्धार माना जाएगा और उसके साथ वैसा ही सलूक किया जायेगा।"

9 फरवरी 1948 को नेहरू ने पंजाब के मुख्यमंत्री को पत्र में लिखा- "मुझे पता चला है कि पूर्वी पंजाब प्रांत के RSS प्रमुख राय बहादुर बद्री नाथ को यूनिवर्सिटी का वाइस चांसलर नियुक्त किया गया है। मुझे बताया जा रहा है कि उन्होंने RSS से इस्तीफा दे दिया है। उनके इस्तीफे देने या न देने से स्थिति में ज्यादा फर्क नहीं पड़ता। एक व्यक्ति जो इस कदर RSS से जुड़ा रहा हो, उसे किसी भी जिम्मेदारी के पद पर नहीं रखा जा सकता। उसकी पूरे भारत में खराब से खराब प्रतिक्रिया हो सकती है।"

नेहरू जब साम्प्रदायिक संगठनों के खिलाफ कांग्रेस और देश को साचेत कर रहे रहे थे, उसी समय भारत के राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद , पटेल, कांग्रेस के अध्यक्ष टन्डन साहब , गोबिंद बल्लभ पंत. के एम मुंशी नेहरू सरकार के वैज्ञानिक सोच वाले समाज निर्माण के कार्यों में रोडा अटका कर अप्रत्यक्ष तौर पर RSS की सोच को ही मजबूत कर रहे थे। 
इससे पहले 29 दिसंबर 1947 को राधाकृष्ण के RSS के कार्यक्रम में शामिल होने और उसकी तारीफ करने पर पर नेहरू ने उन्हें आगाह करते हुए कहा था कि "हमारी असली समस्या यह नहीं है कि पाकिस्तान क्या करता है और क्या नहीं करता है। हमारी असली समस्या यह है कि कांग्रेस के ज्यादतर लोग क्या कर रहे हैं। मुझे यह जानकर दुःख हुआ है कि आपने (राधाकृष्ण) RSS की हौसला अफजाई की है। यह संगठन मौजूदा भारत में सबसे ज्यादा शरारतपूर्ण संगठन है।"

लोकतंत्र में धर्म के प्रति नेहरू की सोच की पहली अग्नि परीक्षा 1950 में हुई जब राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद ने नेहरू की इच्छा के ख़िलाफ़ गुजरात में सोमनाथ मंदिर के जीर्णोद्धार समारोह में जाने का फ़ैसला किया. ये वही मंदिर था जिसे 10वीं सदी में महमूद गज़नवी ने नेस्तानुबूद करके लूट लिया था.

नेहरू ने राजेंद्र प्रसाद के सोमनाथ जाने का इस आधार पर विरोध किया था कि एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के शासनाध्यक्ष को इस तरह के धार्मिक पुनरुत्थानवाद के साथ अपने को नहीं जोड़ना चाहिए. प्रसाद नेहरू की इस सलाह से सहमत नहीं हुए थे.

मशहूर पत्रकार दुर्गा दास अपनी किताब 'इंडिया प़्रॉम कर्ज़न टू नेहरू एंड आफ़्टर'में लिखते हैं, "राजेंद्र प्रसाद ने नेहरू के एतराज़ का जवाब देते हुए कहा था, "मैं अपने धर्म में विश्वास करता हूँ और अपने-आप को इससे अलग नहीं कर सकता. मैंने सोमनाथ मंदिर के समारोह को सरदार पटेल और नवानगर के जाम साहेब की उपस्थिति में देखा है".

● नेहरू का कुंभ स्नान से इनकार

धर्म के प्रति नेहरू और राजेंद्र प्रसाद के परस्पर विरोधी विचारों की झलक एक बार फिर मिली थी जब 1952 में प्रसाद ने काशी जाकर कुछ पंडितों के पाँव धोए थे. नेहरू ने प्रसाद को उनके इस कृत्य पर नाराज़गी भरा पत्र लिखकर अपना विरोध जताया था. इस पर प्रसाद ने जवाब देते हुए लिखा था, "देश के सबसे बड़े पद का व्यक्ति भी अध्येता की उपस्थिति में बहुत नीचे आता है"

लाल बहादुर शास्त्री के सचिव रहे सीपी श्रीवास्तव उनकी जीवनी में लिखते हैं कि 'एक बार शास्त्रीजी ने नेहरू से अनुरोध किया कि वो कुंभ के मेले में स्नान करें. नेहरू ने शास्त्री के इस अनुरोध को यह कहते हुए अस्वीकार कर दिया था कि वैसे मुझे गंगा नदी से बहुत प्यार है. मैं कई बार इसमें डुबकी लगा चुका हूँ लेकिन कुंभ के मौके पर ऐसा नहीं करूँगा".

● शास्त्री की गुरु गोलवलकर से मंत्रणा

नेहरू के विपरीत शास्त्री को अपनी हिंदू पहचान दिखाने से परहेज़ नहीं था लेकिन भारत की धार्मिक एकता के बारे में उन्हें कभी कोई शक नहीं रहा.

1965 के भारत पाकिस्तान युद्ध के समय उन्होंने पार्टी लाइन से परे जाकर आरएसएस के तब के प्रमुख गुरू गोलवलकर से सलाह लेने में कोई हिचक नहीं दिखाई.

यही नहीं शास्त्री की ही पहल पर उन दिनों दिल्ली की ट्रैफ़िक व्यवस्था के संचालन का ज़िम्मा आरएसएस को दिया गया.

लालकृष्ण आडवाणी ने भी अपनी आत्मकथा 'माइ कंट्री माइ लाइफ़' में लिखा, 'नेहरू से उलट शास्त्री ने जनसंघ और आरएसएस को लेकर किसी तरह का वैमनस्य नहीं रखा.'
आपने देखा होगा नेहरू छोड़ संघ परिवार सबको गले लगाता है , चाहे पटेल  हो, मालवीय हो, शास्त्री हो, यहां तक की इंदिरा से भी उनको परहेज नही, क्यूंकि  सबने समय समय पर हिंदू का कार्ड यूज किया समय समय पर लेकिन नेहरू ने तो संघियों के हिंदू राज्य को पलीता लगा दिया , इसीलिये आज भी ये नेहरू से हद दर्जे तक विरोध नहीं ,  घृणा करते हैं।  इनको राजेंद्र प्रसाद , जैसे हिंदू और कलाम जैसे मुसलमान राष्ट्रपति चाहिये जो मनुवादी साधुओं के तलवे तले जमीन पर बैठे । 

● इंदिरा की धर्मनिरपेक्ष छवि

इंदिरा गाँधी जब सत्ता में आईं तो वो समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता की सबसे बड़ी ध्वजवाहक थीं.
यहाँ तक कि अपने प्रथम कार्यकाल में उन्होंने प्रधानमंत्री पद की शपथ भी ईश्वर के नाम पर नहीं, बल्कि सत्यनिष्ठा के नाम पर ली थी. 1967 में उनके नेतृत्व की सबसे बड़ी परीक्षा तब हुई जब गौरक्षा आंदोलन कर रहे कई हज़ार साधुओं ने संसद भवन को घेर लिया.

पुलिस की गोली से छह लोगों की मौत हो गई लेकिन इंदिरा गाँधी ने साधुओं की बात नहीं मानी.

उन्होंने इस मौके का इस्तेमाल गौ रक्षा आँदोलन का समर्थन कर रहे मंत्री गुलज़ारी लाल नंदा से पीछा छुड़ाने के लिए किया. इंदिरा गांधी ने नंदा को मंत्रिमंडल से हटा दिया.

● इंदिरा ने भी मंदिरों और पुजारियों का लिया सहारा

1980 आते-आते इंदिरा गांधी का झुकाव ईश्वर और मंदिरों की तरफ़ होने लगा था. 1977 में चुनावी हार और 1980 में उनके छोटे बेटे संजय गांधी की मौत ने इसमें एक बड़ी भूमिका निभाई थी.

कहा जाता है कि उनकी सोच में परिवर्तन करने का बहुत बड़ा श्रेय उनके रेल मंत्री कमलापति त्रिपाठी को था. मशहूर पत्रकार कुमकुम चड्ढ़ा अपनी किताब 'द मैरी गोल्ड स्टोरी - इंदिरा गांधी एंड अदर्स'में लिखती हैं, 'धर्म के मामले में कमलापति उनके गुरू बन गए. एक बार जब उन्होंने नवरात्र के बाद इंदिरा से कुंवारी कन्याओं के पैर धोकर उसका पानी पीने के लिए कहा तो इंदिरा थोड़ा झिझकीं. उन्होंने पूछा भी कि कहीं मैं बीमार तो नहीं हो जाउंगी? लेकिन इसके बाद विदेश में पढ़ी और फ़्रेंच बोलने वाली इंदिरा गाँधी ने उस रस्म को पूरा किया.'

इसी दौरान इंदिरा गांधी दतिया के बगलामुखी शक्तिपीठ गई थीं. मंदिर के प्राँगण के अंदर धूमावती देवी का मंदिर था जहाँ सिर्फ़ विधवाओं को ही पूजा करने की अनुमति थी. जब इंदिरा गाँधी पहली बार वहाँ गईं तो धूमावती शक्तिपीठ के पुजारियों ने उन्हें प्रवेश नहीं दिया क्योंकि वहाँ ग़ैर हिंदुओं का प्रवेश वर्जित था. पीठ की नज़र में फ़िरोज गांधी से विवाह कर वो अब हिंदू नहीं रह गई थीं.

कुमकुम चड्ढ़ा लिखती हैं, 'इंदिरा ने कमलापति त्रिपाटी को फोन मिला कर उनसे तुरंत दतिया आने के लिए कहा. त्रिपाठी को पुजारियों को मनाने में एड़ी चोटी का ज़ोर लगाना पड़ा. अंत में उनका ये तर्क काम आया, 'मैं इनको लाया हूँ. आप इनको ब्राह्मण पुत्री समझ लें.' दिल्ली में वो अक्सर श्री आद्य कात्यायिनी शक्तिपीठ जाया करती थीं, जिसे आजकल छतरपुर मंदिर कहा जाता है.

ये मंदिर महरौली में उनके फ़ार्म हाउस के नज़दीक था. 1983 में इंदिरा गाँधी ने हरिद्वार में भारत माता मंदिरा का उद्घाटन किया था जिसको विश्व हिंदू परिषद के सहयोग से बनाया गया था.

शिलान्यास में राजीव गाँधी की भूमिका

इंदिरा गाँधी के बेटे राजीव गाँधी वैसे तो खुद धार्मिक नहीं थे लेकिन अपने राजनीतिक सलाहकारों की सलाह पर उन्होंने 1989 में अयोध्या से अपने चुनाव प्रचार की शुरुआत करते हुए रामराज्य का वादा किया था. शाहबानो केस पर आई विपरीत प्रतिक्रियाओं की तोड़ उन्होंने राम मंदिर का शिलान्यास करवाना निकाला था.

राजीव गाँधी ये चुनाव हार गए लेकिन ये किसी से छिपा नहीं रहा कि शाहबानो केस में मुस्लिम कट्टरपंथियों का समर्थन करने के बाद वो ये संदेश भी देना चाहते थे कि वो एक 'अच्छे हिंदू' भी हैं.

ज़ोया हसन अपनी किताब 'कांग्रेस आफ़्टर इंदिरा' में लिखती हैं, 'उस समय राजीव गांधी के मुख्य सलाहकार अरुण नेहरू की सोच थी कि अगर वो राम मंदिर के मुदे पर थोड़ा लचीला रुख़ अपनाते हैं तो मुस्लिम कट्टरपंथियों का समर्थन करने पर उनकी जो आलोचना हो रही थी, उसका असर थोड़ा कम हो जाएगा.

काँग्रेस ने इस बात का अंदाज़ा ही नहीं लगाया कि विश्व हिंदू परिषद इस घटनाक्रम को बाबरी मस्जिद के विध्वंस के पहले कदम के तौर पर देखेगा और वास्तव में ऐसा हुआ भी.'

● नरसिम्हा राव के आकलन में खोट

नरसिम्हा राव का जन्म एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था. उनके राजनीतिक जीवन की शुरुआत हैदराबाद के निज़ाम के ख़िलाफ़ संघर्ष से शुरू हुई थी जहाँ उन्होंने हिंदू महासभा और आर्यसमाज के साथ कंधे से कंधा मिला कर काम किया था. उनका पूरा जीवन सुबह की पूजा और वार्षिक तीर्थयात्रा के इर्दगिर्द घूमता था.

राव की शृंगेरी के शंकराचार्य से लेकर पेजावर स्वामी तक कई स्वामियों से घनिष्ठता थी. एनके शर्मा जैसे ज्योतिषी और चंद्रास्वामी जैसे कई तांत्रिक उनके बहुत नज़दीक थे.

बाबरी मस्जिद गिराए जाने के समय वे प्रधानमंत्री थे. उनकी चिंता ये थी कि मुसलमान कांग्रेस का साथ छोड़ रहे हैं लेकिन उनकी उससे भी बड़ी चिंता थी कि हिंदुओं में भी ऊँची जाति और पिछड़ी जाति के लोग बीजेपी की तरफ़ बढ़ रहे हैं. उन्होंने एक बार मणिशंकर अय्यर से कहा था, आपको समझना होगा कि भारत एक हिंदू देश है.

सलमान ख़ुर्शीद ने नरसिम्हा राव के जीवनीकार विनय सीतापति को दिए इंटरव्यू में कहा था, 'राव साहब की ट्रेजेडी थी कि उन्होंने हमेशा एक राय बनाने की कोशिश की. वो हिंदू और मुस्लिम दोनों वोट बैंकों को खुश करना चाहते थे. राव मस्जिद भी बचाना चाहते थे, हिंदू भावनाओं की भी रक्षा करना चाहते थे और अपनेआप को भी बचाना चाहते थे. नतीजा ये रहा कि न तो मस्जिद बची, न ही हिंदू कांग्रेस की तरफ़ आए और उनकी खुद की साख तार-तार हो गई.'

कुल मिलाकर देखा जाए तो प्रारंभ से ही कांग्रेस का संकट यह रहा है कि उसके नेता या तो RSS से प्रभावित रहे हैं या RSS की सोच के लिबरल ब्रांड। कांग्रेस की तरफ से बनाए गए अंतिम राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी भी सेवानिवृति के बाद संघ के कार्यक्रम में शामिल होकर आये हैं। अभी हाल ही में उनकी जयंती पर संघ के एक बड़े नेता ने अपने लेख में उन्हें भारत की आत्मा का सच्चा प्रतिनिधि कहकर श्रद्धान्जली दी है।

यह कडवी सच्चाई है कि जिस तरह नेहरू ने 1947 - 62 तक कांग्रेस के भीतर संघी सोच वाले नेताओं से जूझ रहे थे, वैसे ही हालत आज भी बने हुए हैं। लेकिन इस समय बड़ा संकट यह है कि नेहरू - गाँधी परिवार में कोई भी व्यक्ति ऐसा नहीं है जिसकी वैचारिक सोच और व्यक्तित्व का प्रभाव नेहरू जितनी गहराई और विराटता लिए हो। इसलिए राहुल गांधी को सबसे पहले पप्पु नाम देने वाले और संघी मानसिकता रखने वाले (भले ही वे बोलते और करते कुछ भी हों) तथा कवि सम्मेलनों में पंडित वंश परंपरा से होने का दंभ भरकर उंच- नीच वाली वर्ण व्यवस्था को पुस्ट करने वाने कवि कुमार विश्वास की पत्नी मंजू शर्मा (माली) को राजस्थान की कांग्रेस सरकार द्वारा संवैधानिक पद पर बैठाने के बाद गहलोत साहब को आगाह करने वाला कोई शीर्ष नेतृत्व आज कोंग्रेस के पास नहीं है, जैसा नेहरू अपने दौर में आगाह किया करते थे। 

मौजूदा दौर उन मतदाताओं के लिए ज्यादा संकट का है जो RSS के प्रभाव को पसंद नहीं करते हैं, और इसलिए वे RSS की राजनीतिक भुजा BJP को रोकने के लिए कांग्रेस को वोट करते हैं। BJP को रोकने की मजबूरी में वे जिस धर्मनिरपेक्ष विकल्प को वोट देते हैं, दुर्भाग्य से वह वोट भी कांग्रेस की सरकार के रूप में RSS के खाते में जमा हो जाता है। कांग्रेस का असली संकट यही है। आजादी को बाद गांधी, नेहरू, अंबेडकर के प्रयासों से भारत सेकुलर राज्य जरूर बन गया था लेकिन कांग्रेस मे छिपे हिंदू नेशनलिस्ट पटेल, राजेंद्र प्रसाद, पी.डी. टंडन, जी.बी.पंत और के .एम. मुंशी जैसे लोग थे तो सेकुलर कांग्रेस का नकाब ओढ़े लेकिन वे लोग थे असली सनातनी मनुस्मृति वाले । वो तो नेहरू का कद इतना बड़ा था कि ये लोग कुछ कर नही सकते थे। फिर भी बाबरी मस्जिद मे पंत के सहयोग से २२. दिसंबर १९४९ की रात रामलला की मूर्ती विश्व हिंदू परिषद ने रखकर आज की मोदी सरकार की नींव तो जरूर रख दिया था, जिसे बाद मे लोहिया ,जे पी ने अंजाम तक पहुंचाया। अगर राहुल गांधी चाहते हैं कि देश मे लोकतंत्र, सेकुलरिज्म , संविधान सुरक्छित रहे तो उनको नेहरू के रास्ते पर चलना होगा, कांग्रेस के अंदर जितने भी संघी दलाल सेकुलरिज्मका नकाब लगाकर छिपे है सबको बाहर करना होगा। ये लालू, मुलायम , मायावती जैसे जाति के गिरोंहों के सरगनाओं से दूरी बनाकर कांग्रेस को गांधी नेहरू के रास्ते पर ले जाना होगा। दलितों . अल्पसंख्यकों मे विश्वास पैदा करना होगा कि कांग्रेस उनके संवैधानिक हितों के रक्छा के लिये कटिबद्ध है , अगर हो सके तो खुले मंच से अपनी पुरानी जाने अनजाने में की गयी गलतियों के लिये खेद व्यक्त करना पड़े तो करने मे कोई बुराई नहीं है। हमारे जैसे लोगों का मानना है कि इस देश को अगर कोई एकता के सूत्र मे रख सकता है तो वह नेहरू गांधी कि विचार वाली कांग्रेस और कांग्रेस को एक रख सकता है तो नेहरू परिवार , क्यूंकि नेहरू परिवार ही सेकुलरिज्म का रियल ब्रांड एंबेस्डर है और कोई नही। जैसे संघ परिवार school of thought Of fascism है वैसे ही नेहरू परिवार school of thought of democracy and secularism है। ..

डॉ बीएन सिंह 
( Drbn Singh )

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